कहानी चन्द्रकला त्रिपाठी
मुक्ता आज से 60 वर्ष पहले के अपने स्कूली जीवन की पिकनिक के संस्मरण अपनी पोती को सुनाते हुए भाव विभोर हो जाती है।
आप भी लें उस काल के पहाड़ी जीवन का आनन्द।
अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक
मुक्ता जब सत्संग से आई तो उसकी पोती अंकिता ने अपनी अम्मा (दादी) के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘अम्मा हम लोग इस सन्डे को पिकनिक पर जाने की योजना कर रहे हैं। आप स्वीकृति दोगी न अम्मा?’
‘क्यों नहीं बेटा, परीक्षा खत्म होने के बाद जरूर कुछ बदलाव चाहिये फ्रैश होने के लिए। कहां जाने की सोच रहे हो?’ मुक्ता ने सहर्ष स्वीकृति दे दी।
अंकिता खुशी के मारे ताली बजा कर नाचने लगी। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि मम्मा पापा की गैर मौजूदगी में दादी हां करेगी। अंकिता अम्मा के गले में झूल गई और फिर खुशामदी लहजे में कहने लगी, ‘अम्मा आप थक गई होगी आपके लिये चाय बनाऊं?’
मुक्ता ने अंकित को प्यार करते हुए कहा-‘नेकी और पूछ-पूछ। अब तो मेरी अंकू इतनी बड़ी हो गई है कि मुझे चाय पिला सकती है।’
अंकिता किचन में चली गई और चाय बनाने लगी। मुक्ता के बेटे बहू इन दिनों कंपनी के काम से छः महीने के लिये अमेरिका गये हुए हैं। पोती अंकिता और पोता अजय और उनके दादा जी मुम्बई के एक फ्रलैट में रहते हैं। मुक्ता ने ही कहा अपने बेटे से कि जब कंपनी खर्च कर रही है तो बहू को भी घुमा ला। बच्चे अब बड़े हो गये हैं। उनकी देखभाल के लिये हम तो हैं ही। वैसे भी बच्चों को दादा-दादी से ज्यादा ही लगाव है।
मुक्ता के बेटे ने न्यू बाम्बे में एक फ्रलैट ले लिया था और उन्हें भी वहीं बुला लिया।
मुक्ता का बचपन कुमायूं की पहाडि़यों में बीता था। वह सोचने लगी कहां यह बम्बई का शहरी जीवन छोटे-छोटे फ्रलैटों में, सोचने लगी, कहां यह बम्बई का रहन-सहन, कहां कुमायूं का स्वच्छन्द जीवन। मुक्ता कहीं खो गई, इतने में अंकिता चाय ले कर आ गई। दोनों चाय पीने लगी। ‘अम्मा चाय कैसी बनी है?’ अंकू ने पूछा।
बहुत अच्छी बेटा, बहुत अच्छी। वाह मजा आ गया। अंकिता के चेहरे पर खुशी झलक उठी। वह फिर अम्मा के गले में झूल गई और कहने लगी, ‘अम्मा तुम कितनी अच्छी हो। अम्मा क्या तुम लोग भी पिकनिक जाते थे?’
‘तुम लोग क्या जानो बेटा हमारे समय की मस्ती। हमारे समय में ये टी-वी-, पॉप सांग आदि कुछ नहीं होते थे। हम लोग लोकगीतों और लोकनृत्यों से मनोरंजन करते थे। न उस समय इंग्लिश मीडियम ही होते थे। एक विषय अंग्रेजी का होता था बस। मनोरंजन के लिये तो पिकनिक, नदी, पहाड़, जंगल ये ही सब कुछ हुआ करते थे।’
‘क्या-क्या हुआ करता था बताओ न अम्मा।’ अंकू लगभग मचलती हुई सी कहने लगी। ठीक भी है परीक्षा के कारण पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं थी। कोर्स भी तो कम नहीं होता आजकल। मुक्ता तो दंग रह जाती थी। इन लोगों के बस्तों के बोझ को देखकर। फिर होमवर्क बाप रे बाप। बेचारे बच्चों को बहुत वर्क लोड हो जाता है नन्हीं उम्र से ही।’ मुक्ता कहने लगी-‘हमारे जमाने में तो सुलेख लिखो, इमला लिखो प्रश्नोत्तर लिख कर याद कर लो बस। गणित का कोर्स काफी होता था पर रोज-रोज मेहनत करने से कठिन नहीं लगता था।’
‘बस अम्मा पढ़ाई की बात नहीं पूछ रही हूं। मैं तो पिकनिक और मनोरंजन वाली बात पूछ रही हूं।’ तथा मुक्ता ने अंकू को अपने बचपन के कुछ संस्मरण सुनाये।
‘अच्छा बाबा सुनाती हूं, सुनाती हूं। मुझे याद भी करनी पड़ेगी। कहां कुमायूं का स्वच्छन्द जीवन।’ आज अंकिता ने अचानक ही जीवन के पिछले पृष्ठ खोलने को बाध्य सा कर दिया है। वह तो बम्बई आ कर उस जीवन को याद ही करना नहीं चाहती थी। पिछले फ्रलैट में तो सत्संग की भी सुविधा नहीं थी। घर में रहना होता था। टी-वी- देखना बच्चों के साथ समय बिताना या फिर धार्मिक पुस्तकें पढ़ना।
जब से उसके बेटे ने अपना स्वयं का फ्रलैट ले लिया है यहां मुलुण्ड में उसे अच्छा लगने लगा। पास में ही मंदिर है, यहां प्रति सप्ताह सत्संग होता है। तीज त्यौहारों पर कीर्तन रामायण आदि भी होती है। होली के दिनों में सब मिल कर फाग भी गा लेती है। कभी-कभी लोकगीतों का भी प्रोग्राम हो जाता है।
‘हां तो अम्मा जल्दी बताओ न आपके समय में क्या-क्या होता था?’ अंकू मचलने लगी।
तब मुक्ता ने बताया कि हम लोग तो कुमायूं की पहाडि़यों में रहने वाले ठहरे। चारों ओर घने जंगल, बांस, बुमांश, देवदार, साल्ल के बड़े-बड़े पेड़। उन दिनों जंगल की कटाई नहीं हुआ करती थी इतनी बेदर्दी से। लोगों के घरों में भी बहुत सुन्दर बगीचे हुआ करते थे। सेब, नाशपाती, आडू़, खुबानी, नारंगी, नींबू माल्टा अनेक प्रकार के फल।’ मुक्ता बताते-बताते कहीं खो सी जाती। पता नहीं उनका बगीचा अब किस हाल में होगा। फिर वह बताने लगती-‘बेटा वहां हम लोग खूब फल खाते थे। तिमिल के पातों में (अंजीर के पत्ते) नींबू सान कर खाया करते थे। बहुत बड़े-बड़े नींबू होते हैं वहां,’ मुक्ता दोनों हाथों से नींबू का साइज बतलाती।
‘हां बेटा आजकल की भाषा में फ्रुट चाट हो गई। हम लोगों के जमाने में दही, नींबू, मूली कई मसाले डालकर चटपटा नमक शक्कर डाल कर खाते थे।’ अंकू के मुंह में पानी भर आया। ‘बड़ा मजा आता होगा न अम्मा?’
‘हां बेटा,’
मुक्ता के पापा पोस्ट आफिस में पोस्ट मास्टर के पद पर कार्यरत थे। अतः कुमायूं गढ़वाल आदि स्थानों में उनका स्थानान्तरण होता रहता था। मुक्ता की पढ़ाई भी कई स्थानों में हुई। चम्पावत, लोहाघाट, पिथौरागढ़, चमोली, टेहरी, मुक्तेश्वर, अल्मोड़ा, नैनीताल। पर चम्पावत में बिताये छः वर्ष मुक्ता के लिये स्वर्णिम वर्ष थे।
आज मुक्ता को अपना बचपन बहुत याद आने लगा। चम्पावत की गली-गली उसे याद आ रही थी। बालेश्वर के मंदिर से लेकर नागनाथ के मंदिर तक तहसील के मैदान में खेलना। डाक बंगले तक का चक्कर लगाना। वहां रानी के चबूतरे में लुका छिपी खेलना। रानी के चबूतरे में कई प्रकार की किवन्दत्तियां सुनने को मिलती थी। वहां अमावस्या को रानी आज भी चौपड़ खेलने आती है। वहां सांप चबूतरे की रक्षा करते हैं। और भी न जाने क्या-क्या। उसे लगा आज अंकू ने उसके मनःपटल पर पुराना रिकार्ड फिट कर दिया और रिमोट कन्ट्रोल अपने हाथ में ले लिया।
‘अम्मा आप तो कहीं खो जाती हो। जल्दी बताओ न फिर क्या-क्या होता था।’
‘हां बेटा सचमुच मैं कहीं खो जाती हूं। अच्छा मैं आज तुझे अपनी पिकनिक का एक संस्मरण सुनाती हूं सुन।’
कुछ याद सी करती हुई मुक्ता बोली-‘बात रही होगी कोई सन् उन्नीस सौ चव्वन से सत्तावन के बीच की। तब चम्पावत काफी पिछड़ा इलाका था। रहन-सहन एकदम ग्रामीण। पाश्चात्य सभ्यता की तो हवा तक नहीं लगी थी। गांव में तब बिजली भी नहीं थी। हम लोग एक लालटेन के चारों ओर बैठ कर पढ़ाई किया करते थे। जब परीक्षा समाप्त हुई तो हम लोगों ने एक बार काफल हिसालू खाने जंगल जाने की योजना बनाई। वैसे हम लोग हर रविवार को कहीं न कहीं जाते थे। इस बार दूर जाने का विचार किया। सबने तय किया कि मातेश्वर के जंगल जायें। वहां हिसालू काफलों की भरमार है। सुबह तड़के ही प्रस्थान कर लेंगे।
सब अपने साथ च्यूड़-भट्ट के खाजे (चिउड़ा और सोयबीन की भुनी हुई दाल) और अन्य खाने-पीने की चीजें रख लेंगे।’
अंकू बोल उठी ‘हां-हां अम्मा च्यूड़ भट्ट के खाजे अच्छे लगते हैं ना।’
‘हां बेटा अब तो एक से एक चीजें बाजार में आने लगी हैं। तब ये सब चीजें कहां होती थी?’
‘हां तो फिर आगे सुन।’ कुछ याद करती हुई सी मुक्ता फिर कहने लगी।
सभी सहेलियां भिनसारे ही उठ गई। जाने की खुशी में नींद भी अपने आप खुल जाती हैं। सभी सहेलियों ने अपने-अपने सामान थैलों में रख लिये। उस समय पालीथिन की थैलियां नहीं होती थीं। और न ही ये पिकनिक सैट वगैरह। सब लोग साफ सूती कपड़े की पोटली बना लेते थे और थैलियों में रख कर कन्धे पर लटका लेते थे।
शीला ने मडुवे की रोटी गाय का शुद्ध घी चुपड़ कर साथ में भांगे का नमक रख लिया था। चित्र ने मक्के की रोटी और सरसों का साग रख लिया। लतिका की मां ने शुद्ध घी में सूजी का हलुवा बना कर रख दिया। रज्जो तो गेहूं जौ की मिली हुई रोटी और आलू के गुटके, घी में तली हुई लाल मिर्च ले आई। मेरी (ईजा) मां ने शुद्ध घी के परांठे और साथ में नींबू का खट्टा मीठा अचार रख दिया। नींबू सानने की सारी सामग्री और दो चार नींबू रख लिए। गुड़ की डली और थोड़ी सी चायपत्ती रखना नहीं भूली थी। चाय बनाने का भगौना, अपने-अपने गिलास। फिर क्या था पूरे लाव लश्कर के साथ चल पड़ी हम सब मानेश्वर के जंगल की ओर। चम्पावत की सीमा जब समाप्त हुई छतार के पुल के पास, तब जाकर सूर्योदय हुआ। अब न्यौले और झोडे़ गाने का क्रम शुरू हुआ। बीच-बीच में कमर मटका-मटका कर नाचती कूदती हिरनियों सी चल पड़ी सबकी सब। देखते ही देखते हिसालू काफल के जंगल आ गये। सबने अपनी-अपनी पोटली थैले एक जगह पेड़ के नीचे इकट्ठे ही रख दिये। लिल्ली मोच्याणी और दुर्गी पोरयाणी ने भी अपनी-अपनी पोटलियां थोड़ी दूर हट के दूसरे पेड़ के नीचे रख दीं। सहेलियां होने पर भी उन्हें थोड़ा दूर ही रहना पड़ता था। कहीं उनसे सबकी पोटलियां छू न जायें। ऐसा होने पर सबको भूखा रहना पड़ेगा। इतनी छुआछूत की भावना थी उस समय।’
अंकू ध्यान से सुन रही थी। अचानक पूछने लगी। ‘ऐसा क्या होता था अम्मा। लिल्ली मोच्याणी, दुर्गी पौरयाणी भी इंसान ही होंगी। मोच्याणी, पौरयाणी क्यों कहते थे?’
‘हां बेटा इंसान ही थीं। उन दिनों जात-पात, छुआछूत बहुत मानते थे। लिल्ली मोच्याणी के पिताजी जूते चप्पल बनाने का काम करते थे। और दुर्गी पौरयाणी के पिताजी मिट्टी के सुन्दर-सुन्दर बर्तन बनाते थे। लड़कियों के नाम के आगे केवल देवी लगता था पर हम लोग यूं ही उन्हें ऐसे ही बुलाते थे। काम के अनुसार ही उनके आगे सरनेम जोड़ देते थे। अब हमको ही बामणी कहते थे। इसका कोई बुरा नहीं मानते थे। न छुआ छूत में ही बुरा मानते थे। सभी लोग अपनी-अपनी सीमा समझते थे।’
‘अरे बाप रे कैसा लगता होगा न अम्मा?’
‘हां बेटा कम जात के लोगों के साथ खेलने में भी डांट पड़ती थी। पर हम लोग मानते कहां थे? छुप-छुप कर खेलते थे। घर जाकर गोमूत्र और गंगा जल के छिड़काव के बाद ही हाथ पैर धो कर अंदर घुसने दिया जाता था।
सखी सहेलियां भले ही साथ में खेल कूद लेते थे पर साथ में खाना-पीना सख्ती से वर्जित था। कुछ संस्कार भी ऐसे पड़ गये थे कि स्वाभाविक रूप से इन सब नियमों का पालन किया जाता था।
‘तो फिर उनको दूर-दूर ही चलना पड़ता होगा न।’
हां बेटा। मुक्ता याद करने लगी बीच ही में उसे एक और बात याद आ गई। एक बार सभी सहेलियां 25 दिसंबर को बड़ा दिन मनाने फूलगाड़ी चली गई थीं। अपनी टीचर जी के यहां। उन्होंने बड़े प्यार से सबको बुलाया था। फूलगाड़ी चम्पावत शहर से काफी दूर था। बीच में नदी थी। पुल पार करके फिर चढ़ाई चढ़के वहां पहुंचना पड़ता था। वहीं चर्च भी था। हमारी टीचर जी वहीं से रोज स्कूल आया करती थी। साथ में उनकी बिटिया फुललो। टीचर जी सब बच्चों को बड़े प्यार से पढ़ाती थी। पांचवी तक की कक्षाएं केवल दो ही टीचर संभालती थी। एक मिसेज ऐपट टीचर जी और दूसरी मिसेज विक्टर टीचर जी। उनकी बताई हुई बातें आज भी मुझे कंठस्थ हैं। उनके पढ़ाने का ढंग आज भी उन्हें याद था।
जब सब लोग फुलगड़ी पहुंची तो बहुत थक गई थी। टीचर जी ने अपने आंगन के एक कोने में एक चूल्हा बना दिया था और कुछ बर्तन रखे थे। उन्होंने कहा था-तुम लोग सामने धारे से (पहाड़ों का बहता पानी) पानी ले आओ और अपने लिये जलपान बना लो। पहले ये फल और सूखी चीजें खा लो। उन्होंने हमें भूनी हुई मूंगफलियां केले, सेब संतरे आदि बहुत सारे फल दिये। कहने लगीं। इनमें छूत-छात नहीं होती इन्हें खा लो। फल खाकर हम लोगों ने टीचर जी का बगीचा देखा। बहुत सुन्दर था नींबू, माल्टा, सेब, खुबानी के पेड़ थे। फिर हमने वहां चाय बनाई। सूजी का हलुवा बनाया, आलू के गुटके बनाये। नन्हें-नन्हें हाथों से जैसा भी बना तिमिल के पातों में खाया बड़ा अच्छा लगा था। चर्च घूमें। उनकी प्रेयर सुनी।
जात-पात का भूत इस कदर सवार था कि हम अपनी टीचर जी के हाथ की बनी चाय तक नहीं पी सकते थे, क्योंकि वह ईसाई थी। खूब इन्ज्वाय करके हम शाम को चम्पावत लौट आये। दूसरे दिन सबकी जुबान पर यही चर्चा थी कि कल ये लड़कियां मसीही समाज में खा पीकर आ गई। फिर सबको सफाई देते-देते थक गये कि यहां हमने फल खाये और स्वल्पाहार स्वयं बनाया। स्वयं टीचर जी ने इस बात की पुष्टि की।
अंकू आज तो तूने मुझे मेरे बचपन में धकेल दिया है। बोलते-बोलते गला सूख गया है। जो पहले कुछ फल काट ले, फिर बताती हूं। फिर स्वयं ही फल काट लाई। अजय भी स्कूल से आ गया उसने भी फल खाये। फिर अंकू कहने लगी-सुनाओ न अम्मा बड़ा मजा आ रहा है। अजय भी सुनने बैठ गया।
मुक्ता फिर याद करने लगी। कभी-कभी हम सब मिल कर घटकू जाते थे। वहां भी नदी पार करके जाना पड़ता था। पुल के रास्ते न जाकर नदी के रास्ते जाते थे। पानी का बहाव वहां कम ही रहता था। बड़े-बड़े पत्थरों से पार करने में मजा आता था। वहां भगवान घटोत्कच के दर्शन करके खूब झूला झूलते थे।
कभी-कभी, विशेषकर नवरात्रि पर्व में, सब मिल कर हिंग्ला देवी के मंदिर जाते थे। हिंग्ला देवी के मंदिर जाने को तो बड़ों के साथ ही जाते थे। दुर्गम पहाड़ी और जंगल में जंगली जानवरों का डर बना रहता था।
दूसरी पहाड़ी पर कान्तेश्वर का मंदिर था। वहां भी केवल एक ही बार जाने का मौका मिला था। मानेश्वर के मंदिर तो हर साल शिवरात्रि को जाते थे। शिवरात्रि को वहां बहुत बड़ा मेला लगता था। लौटते समय लोहाघाट से लौटने वाली कुमायूं रोडवेज की बस में आ जाते थे। ट्रक वाले भी उस दिन दर्शनार्थियों को बिठा लेते थे।
मानेश्वर के जंगलों में काफल हिसालुओं की भरमार रहती थी। पर शिवरात्रि के समय तो केवल किल्मोड़ा के फूल होते थे जिनकी भगवान शंकर को चढ़ाने के बाद चटनी बनाते थे। किल्मोड़े के फूलों की चटनी की याद करके मुक्ता के मुंह में पानी भर आया।
‘अम्मा सुन कर तो मेरे मुंह में भी पानी आ गया। कितनी अच्छी लगती होगी न वह चटनी?’ अंकू चहकती हुई बोली। ‘हां अम्मा बताओ न उस दिन क्या हुआ जब आप लोग लिल्ली मोच्याणी और दुर्गी पौरयाणी के साथ मानेश्वर के जंगलों में गये थे।’
‘अरे बेटा मैं तो बहक ही गई आज, हां तो सुन फिर उस दिन क्या हुआ। जब बाज बुझंश के जंगलों के बीच में ही हिसालू काफल भी दिखने लगे, पास में जलधारा बह रही थी। वहीं हमने तिभिल (अंजीर) के पत्ते तोड़े और हाथ मुंह धोकर खाने बैठे। सबने अपना-अपना कलेवा सबको बांटा। कुछ दूर पर लिल्ली मोच्याणी और दुर्गी पौरयाणी भी बैठ गई। सबने खाना शुरू किया। इतने में देखा कि लिल्ली मोच्याणी की सब्जी खत्म हो गई थी, रोटी काफी बची थी। चित्र ने अपने में से उसे थोड़ा आलू के गुटके और नींबू का अचार देने को हाथ बढ़ाया तो उसका दुपट्टा छू गया। चित्र ने बहुत चाहा कि नजर बचा के दुपट्टा संभाल ले पर सबकी नजरों से बच नहीं पाया। सभी पंक्तिबद्ध होकर गोलाकार में बैठी थीं। रज्जो और तूलिका थोड़ी दूर ही बैठी थी पहले ही बोल दी थी, तुम लोगों का क्या भरोसा भैया, कहीं छुवा दिया तो, सब पहले ही कह रही थी ‘हां-हां तुम लोग तो अपना बामणपना दिखाओगी ही। पक्की बामणी जो हुई।’ उन दोनों को छोड़ कर सबने अपना-अपना खाना छोड़ दिया और लिल्ली मोच्याणी और दुर्गी पौरयाणी को दे दिया। वैसे पेट तो सबके भर चुके थे। सब लोग खिल-खिला कर हंस पड़ी। बेचारी चित्र रुआंसी हो गई। फिर क्या था सब ताली बजा-बजाकर मस्ती करने लगी। रज्जो और तूलिका को भी छू दिया उनको भी छोड़ना पड़ा। दुर्गी और लिल्ली भी आखिर कितना खाती। सबने मस्ती करते-करते रोटी परांठा आदि पेड़ पर एक-एक करके लटका दिये। और पेड़ के चारों ओर घेरा बनाकर नाचने लगीं। काफल हिसालू के बदले रोटी बो ओ, रोटी सीखो, रोटी पैदा करो, मक्के की रोटी, बाजरे की रोटी, मडुवे की रोटी, रोटी ही रोटी, खूब पद जोड़ कर झोड़े गये। एक अलग ही प्रकार की पिकनिक हो गई।
फिर हमने हाथ मुंह धोये, देगची साफ की, लकडि़यां बटोरी, चूल्हा तैयार किया और चाय चढ़ाई। रज्जो ने घोषणा की-‘अधा पधा जो अब छुआछूत करेगा, उसका दूल्हा गधा होगा। सब ताली बजा-बजा कर हंसने लगी। धात् तेरा दूल्हा गधा। चल हट तेरा दूल्हा गधा। बस सही यही दोहराने लगी। इतने में चाय बन गई। सबने अपने-अपने गिलास निकाले। गुड़ की टपकी लगाकर काली मिर्च वाली लाल चाय पी। शाम को काफल हिसालू ले कर घर को लौटी।
यह संस्करण मुक्ता ने अंकू को सुना डाला। अंकू को खूब मजा आया। चहकने लगी वाह अम्मा कितना मजा आया होगा न। मुझे तो सुन कर ही मजा आ गया। अब आने वाले इतवार को हमें कितना मजा आयेगा। पता नहीं लौट कर सुनाऊंगी हां अम्मा।
मुक्ता ने अंकू को गले लगा लिया। जब-जब ठंडी बयार बहती है, मुक्ता अतीत की परछाइयों में कहीं खो सी जाती है। ठीक उसी तरह जैसे बर्फीली हवाओं के चलने पर देवदारू की बाहें फैलाये टहनियों की परछाइयां।