एक अपमान की घटना से उनकी आंखें खुल गई और शिक्षा की महत्ता समझ में आई। उन्होंने निम्न जाति तथा अछूतों के लिए एक पृथक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया।
गांधी जी उन्हें सच्चा महात्मा कहते थे और अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। बाबा साहेब आंबेडकर उन्हें भगवान बुद्ध और कबीर
गुरुओं के साथ अपना तीसरा गुरु मानते थे।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
व्यक्तित्व
गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’
बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि महात्मा गांधी से पूर्व महाराष्ट्र में ऐसे महान समाज-सुधारक और शिक्षा के प्रचारक अवतरित हुए जिन्होंने जाति-पाति, अस्पृश्यता, अशिक्षा आदि कुरीतियों को मिटाने तथा समाज में महिलाआें को उनके अधिकार दिलाने का उल्लेखनीय कार्य किया था। उन्हें महात्मा का सम्मान मिला था। वे महापुरुष थे महात्मा ज्योतिबा राव फुले।
महाराष्ट्र के जनपद सतारा के गांव काटगूँ में 17 अप्रैल, 1827 को पिता गोविंदराव और माता चिमणाबाई के घर एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया ज्योति राव। जब ज्योति राव की आयु 1 वर्ष की थी, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। उनके पालन पोषण के लिए सगुणाबाई नामक एक दासी की व्यवस्था की गई।
शिक्षा में व्यवधान
7 वर्ष की आयु में उन्हें गांव की एक पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया। तब के समाज में ज्योतिराव की जाति ‘सावता माली’ को हेय दृष्टि से देखा जाता था। सामाजिक दबाव के कारण ज्योति राव को पाठशाला से बाहर कर दिया गया।
ज्योति राव बहुत परिश्रमी और लगन के पक्के थे। वे अपने पिता के कामों में हाथ बंटाते थे और कुछ समय निकालकर पढ़ाई भी करते थे। उनके पिता अंतिम पेशवा के यहां बागवानी का कार्य करते थे। माली का काम करने के कारण उन्हें फूले कहा गया जो आगे चलकर उनके परिवार का उपनाम हो गया।
13 वर्ष की आयु में नेबसे पाटिल की आठ वर्षीय पुत्री सावित्री बाई के साथ उनका विवाह हो गया। तीन वर्ष के अंतराल के बाद 1841 में स्कॉटिश मिशन के हाईस्कूल में ज्योतिराव को प्रवेश मिला। वे बहुत ही मेधावी छात्र थे। कई भाषाओं के ज्ञान के साथ वे गणित में भी प्रवीण थे। वहां उन्हें प्रत्येक कक्षा में सदा ‘सर्वप्रथम’ स्थान आता रहा।
निर्धन, दलितों और पतितों की दयनीय दशा देख हुए द्रवित
उन दिनों निर्धन, दलितों, महिलाओं और पतितों की सामाजिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी। बालिकाओं की बचपन में शादी हो जाने से अशिक्षित रह जाती थी। प्रायः दलितों और पतितों के साथ अशोभनीय व्यवहार किया जाता था। उन्हें लिखने-पढ़ने, मंदिर में प्रवेश करने तथा वेद-पाठ सुनने के स्थानों पर प्रतिबंध था ज्योतिराव ने इन समस्याओं के मूल में अशिक्षा, अज्ञान और असंघटित रहना समझ लिया। तभी उन्होंने संकल्प किया कि हम शोषण रहित शिक्षित समाज की स्थापना करेंगे।
एक घटना जिसने ज्योतिराव की जीवनशैली बदल दी
ज्योतिराव का एक ब्राह्मण मित्र था सखाराम। सखाराम के भाई का विवाह था जिसमें ज्योतिराव को भी निमंत्रित किया। वे सज-धज कर बारात में सम्मिलित हुए, तभी बारातियों में से एक बाराती की नजर ज्योतिराव पर पड़ी। उसने चिल्लाकर कहा-‘इसको किसने बुलाया है? निकालो इसको। उस समय माली को नीची जाति का माना जाता था। शुभ अवसर पर कोई बुरी घटना न घट जाए, यही सोचकर ज्योति अपने घर लौट आए। इस अपमान की घटना से उनकी आंखें पूरी तरह से खुल गई और शिक्षा की महत्ता समझ में आई। उन्होंने निम्न जाति तथा अछूतों के लिए एक पृथक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया।
सन् 1847 में ज्योतिराव ने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु उन्होंने सरकारी नौकरी न करने का निर्णय लिया। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी पत्नी सावित्री बाई को घर में ही पढ़ाई करवाकर इतना शिक्षित किया कि वे अपनी जाति के बच्चों को पढ़ा सके।
अछूतों दलितों के लिए खोले विद्यालय
ज्योतिराव ने सर्वप्रथम 1 जनवरी 1848 को ‘बुधवार पेठ’ पुणे में तात्या साहब भिण्डे की हवेली में बालिका विद्यालय की स्थापना की। वह किसी भारतीय द्वारा स्थापित देश का प्रथम बालिका विद्यालय था। समाज के लिये किये जा रहे सद्कार्यो के लिए उन्हें बा की उपाधि दी गई। तब से उनका नाम ज्योतिबा फुले हो गया। ज्योतिबा की पत्नी सावित्री बाई उस विद्यालय की प्रथम शिक्षिका बनीं और भारत की प्रथम महिला शिक्षिका की गरिमा अर्जित की। 15 मई, 1848 को फुले दंपत्ति ने अस्पृश्यों के लिए देश में प्रथम पाठशाला की स्थापना की। यहां भी संकीर्ण मानसिकता वाले कथित उच्च समुदाय के लोगों ने फुले दंपत्ति को घर से निकलवा दिया और उन्हें अपना विद्यालय बंद करना पड़ा। कुछ ही दिनों बाद अपने मित्र सदाशिव राव गेवंडे और मुंशी गफ्रफार बेग की सहायता से उन्होंने अपने विद्यालय में अध्यापन कार्य पुनः प्रारंभ कर दिया। 19 नवंबर 1852 को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी द्वारा एक बड़े समारोह में 200 रुपये का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया।
सन् 1852 में ही ज्योतिबा ने दलितों निर्धनों के लिए एक वाचनालय की स्थापना की। सन् 1855 में उन्होंने देश के प्रथम संध्याकालीन विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने सन् 1863 में एक ‘बाल हत्या प्रतिबंध गृह’ की स्थापना की जहां कोई भी विधवा वहां जाकर बच्चे को जन्म दे सकती थी, उसकी सारी जानकारी गुप्त रखी जाती थी। 24 सितम्बर 1873 को सत्य शोधक समाज स्थापित किया जिसका एक मात्र उद्देश्य था-अस्पृश्यों पर होने वाले धार्मिक और सामाजिक अन्याय का विरोध। श्रमिकों और कृषकों को प्रेरित, शिक्षित एवं संगठित करने हेतु ‘दीनबन्धु’, ‘अंबालहरी, ‘दीनमित्र’ और ‘किसानों का हिमायती’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित किए।
शिक्षा के क्षेत्र में ज्योतिबा फुले का अमूल्य योगदान है। 21वीं सदी की ओर जाते समय देश को विचारों और सद्प्रयासों की जो धरोहर वे दे गए हैं, उससे नए काल को सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।
शिक्षा के क्षेत्र में ज्योतिबा फुले के कुछ महत्वपूर्ण कार्य
1- उस समय संस्कृत केवल उच्चवर्गीय भाषा होने के कारण ज्योतिबा ने स्थानीय भाषा में ही शिक्षण की व्यवस्था की, पाठ्यक्रम भी मराठी में था। उनके द्वारा संचालित 18 विद्यालयों में शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी।
2- ज्योतिबा ने 1855 में प्रोैढ़ शिक्षा की नींव डाली, जहां मजदूरों और गृहणियों के लिए रात्रिकालीन पाठशालाएं खोलीं।
3- अनेक विद्यालयों में छात्रवास की व्यवस्था की गई। जहां अनेक स्कूलों के दूरस्थ बच्चों के लिए अपने घर के पास ही व्यवस्था उपलब्ध कराई गई।
4- उन्होंने शिक्षकों की नौकरी की शर्तो और शैक्षणिक तंत्र में सुधार के प्रयास किए तथा प्राथमिक विद्यालयों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया।
5- उच्च शिक्षा के प्रति उनके विचार थे कि मुंबई विश्वविद्यालय के छात्रें को स्वाध्यायी बनाकर प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित होने की अनुमति दी जाए जिससे नवयुवक घर पर रहते हुए अपना कार्य करते हुए स्नातक बन सके।
ज्योतिबा फुले ने ‘सत्सार’, ‘किसान का कोड़ा’ ‘गुलामगीरी’, ‘तृतीय रत्न’, ‘स्लेवरी’, ‘सीक्रेट राइटिंग्स ऑफ ज्योति राव पफ़ुले आदि कृतियों का प्रणयन भी किया, जिसमें किसानों में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धर्मभीरुता आदि विसंगतियों पर प्रहार किया तथा हिंदू कर्मकांड में निहित संकीर्ण मान्यताओं को उजागर किया। 19 मई 1886 को एक विशाल समुदाय ने उन्हें इस युग पुरुष को महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया। जुलाई 1888 में वे पक्षाघात से पीड़ित हो गए, शरीर का दाहिना भाग निष्क्रिय हो गया तथा बांए हाथ से अपनी पुस्तक ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ को पूर्ण किया। अंततः 28 नवंबर 1890 को उनका देहांत हो गया।
ज्योतिबा के कोई संतान नहीं थी। उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र को गोद लिया, जो बाद में डॉ- यशवंत राव नाम से ज्योतिबा का उत्तराधिकारी बना।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं- जवाहरलाल नेहरू ने मुंबई में फुले तांत्रिक माध्यामिक विद्यालय का उद्घाटन करते हुए महात्मा ज्योतिबा राव फुले की पुण्य स्मृति में कहा था-जिस जमाने में महात्मा फुले ने स्त्री और शूद्र शिक्षा के प्रसार तथा अस्पृश्यता निवारण के लिए तीव्र संघर्ष किया, वह जमाना बहुत कठिन था। भारतीय लोकतंत्र में महात्मा फुले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभर कर आएगा।
गांधी जी उन्हें सच्चा महात्मा कहते थे और अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। बाबा साहेब आंबेडकर उन्हें भगवान बुद्ध और कबीर गुरुओं के साथ अपना तीसरा गुरु मानते थे।