– भारत भूषण चड्ढा
स्वास्थ्य विशेषांक
जुलाई, 2023
इस बार भी 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाया गया। स्वास्थ्य की दृष्टि से एक सकारात्मक प्रयास है। यदि स्वास्थ्य के प्रति लोग जागरूक हो जाएं और प्रतिदिन योग करने लग जाएं तो यह मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से यह युग की एक नई उपलब्धि होगी।
आज डॉक्टर कई गुना बढ़ चुके हैं। अस्पताल भी एक से एक बड़े हर सुविधाओं से युक्त अनेक खुल चुके हैं। परन्तु स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता कम हो जाने के कारण रोग बढ़ते ही जा रहे हैं। नए से नए प्रकार के रोगों के निदान के लैबोरेट्रीज भी खुल चुकी हैं। परन्तु आज हम पहले से अधिक स्वस्थ हैं क्या? आज तो छोटे-2 बच्चों को भयंकर किस्म के रोग जन्म के साथ ही हो जाते हैं।
इन रोगों का मूल कारण हमारी जीवन शैली है। हमने अपनी दिनचर्या इस प्रकार बना ली है जिसमें हम प्रकृति के विरुद्ध कार्य करते हैं। हमारी जीवनशैली में प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठना, शौचादि से निवृत्त होकर व्यायाम करना अभीष्ट था परन्तु कितने लोग इसका पालन करते हैं। रात देर से खाना खाना और देर रात को सोना आम बात हो गई है। यह बातें बहुत साधारण सी मानी जाती है परन्तु सुबह पार्क में जाकर देखिए किसी-2 पार्क में सौ-पचास लोग ही मिल पाएंगे। जब हम प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करेंगे तो हम स्वस्थ कैसे रहेगे।
रोगों के बढ़ने का एक बड़ा कारण आम आदमी का प्रकृति से दूर जाना है। आम आदमी के मन में एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है कि वह स्वच्छन्दता से अपना जीवन जीना चाहता है। वह अपने को केवल भौतिक उपलब्धियों के अलावा किसी अनुशासन में बांधना नहीं चाहता। यह पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव है। पाश्चात्य संस्कृति की अनेक अच्छी बातें भी है हमने उन्हें स्वीकार न कर केवल भौतिकवाद की ओर प्रवृत्त हो गए है।
पाश्चात्य दुष्प्रभाव को रोकने में अनेक सन्तों का योगदान है परन्तु स्वामी रामदेव जी और श्री श्री रविशंकर जी का कार्य एक युग प्रवर्त्तक का कार्य रहा। उनके सद्प्रयास से देश का राजनीतिक माहौल भी बदला और देश को एक अध्यात्मवादी नेता श्री नरेन्द्र मोदी के रूप में मिला। जिसने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण बढ़ती स्वार्थान्धता एवं स्वच्छन्दता पर नकेल कसी और लोगों को उत्तरदायित्व एवं अनुशासन के साथ जीने का आवाह्न किया।
यह दो संस्कृतियों का युद्ध है। एक ओर भारत की प्राचीन संस्कृति है जिसमें भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय है इसे कई विचारकों ने मानववाद कहा है? दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति है। इसके दो भाग हैं। एक आतंकवाद का सहारा लेकर अपना साम्राज्य फैलाना चाहती है। दूसरे वह देश है जो पूंजीवादी पद्धति से आर्थिक साम्राज्य द्वारा दूसरे देशों पर अपना अधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि हमारा प्रधानमंत्री अपनी कूटनीति और निःस्वार्थ वृत्ति द्वारा भारत की संस्कृति की छाप सारे विश्व में फैला रहा है। योग दिवस भी उसी श्रेणी का एक प्रयास था जिसे सारे विश्व ने सराहा है।
योग के प्रति श्रद्धा जागेगी, स्कूलों तक में जब बच्चे बचपन से ही योग करने लगेगें तो आप विश्वास मानिए, आने वाली पीढ़ी की ऊर्जा अद्वितीय होगी। रोगों का भागना तो एक मामूली बात होगी। भारत के युवाओं की ऊर्जा संसार में अपना लोहा मनवा लेगी। आज भी भारत की प्रतिभाओं का विश्व में सम्मान है। भारत के डॉक्टर, भारत के वैज्ञानिक तथा भारत के सूचना प्रौद्योगिकी के सितारे दुनिया में चमक रहे हैं। भारत के युवकों के ‘आई क्यू’ को दुनिया में माना जाता है।
योग की दृष्टि से यह पहला सकारात्मक चरण है। जो-जो योजनाएं नित्य चलाई जा रही हैं उनको देखकर विश्वास से कहा जा सकता है कि यह सदी फिर से भारत को जगद्गुरु कहलवाएगी।
स्वास्थ्य की दृष्टि से योग की प्रतिष्ठा से भारत का नवयुवक उत्साहित हुआ है। उसे अपनी संस्कृति के गौरवमान पक्ष से भी उत्साह मिला है। अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान जागना कोई सामान्य बात नहीं है।
इसके साथ दूसरा चरण आयुर्वेद के पुनः-प्रतिष्ठा दिलाने का है। रोगों के उपचार में एलोपैथी ने बहुत तरक्की की है। परन्तु हम यह भी जानते हैं कि इस में रोगों का नियन्त्रण तो होता है परन्तु दवाइयों के दुष्प्रभाव इतने होते हैं कि रोगी इसके मकड़जाल में जूझता रहता है। सामान्य खाते-पीते घरों में आम दवाइयों का खर्च कई-कई हजार मासिक होता है। एक ही दिन में कई-कई गोलियां खाते हुए वृद्धों को देखा जा सकता है। इसके विपरीत आयुर्वेद में रोगों के उपचार की संभावनाएं अधिक हैं। आयुर्वेद की पुनःप्रतिष्ठा करने की आवश्यकता थी। एलोपैथी के विकास का एक कारण यह भी है कि सरकारी वजह का 97» बजट एलोपैथी के लिए होता था। शेष 3» में आयुर्वेद, यूनानी होम्योपैथी आदि सब चिकित्साएं है। यदि आयुर्वेद के ऊपर अधिक ध्यान दें तो यह क्योंकि भारत की प्रकृति के अनुकूल है। लोगों को अधिक स्वास्थ्य लाभ होगा। आयुर्वेद में यदि अनुसंधान होंगे तो इसके भी चमत्कारिक परिणाम आएंगे।
आयुर्वेद का एक दूसरा लाभ भी है। भारत की जड़ी-बूटियों के उत्पादन में किसानों को लाभ होगा। देश में किसानों की जो दुर्दशा हो रही है। वह जड़ी बूटी की खेती से भी सुधरेगी। जड़ी-बूटी से इलाज सस्ता भी होगा और इनका निर्यात विदेशों में भी किया जा सकेगा। इस प्रकार जैसे योग की महिमा का गुणगान करके भारत के हर क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिली है। ऐसे ही यदि सही दिशा में प्रयास किया जाय तो आयुर्वेद को भी हम प्रतिष्ठा दिला सकते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के एक-एक अंग को प्रस्थापित किया जा सकता है।
भारतीय परंपरा में क्रियाशील आयु सौ
वर्ष की होती है
भारत में व्यक्ति के जीवन के बारे में शास्त्रें में लिखा है कि हम सौ वर्ष तक जीएं, केवल सांस चलने से अभिप्राय जीवन का नहीं है बल्कि पश्येम शरदः शतम्, श्रृणुयाम् शरदः शतम्। अर्थात् हमारी आंखें देखती रहे, कान सुनते रहे। इसी अवधारणा के अनुसार उन्होंने जीवन के चार आश्रमों में विभाजित किया। ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम तथा संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति का धर्म है वह शिक्षा ग्रहण करे, इसके बाद 25 से 50 वर्ष तक गृहस्थाश्रम। अर्थात् विवाह करना, सन्तान उत्पन्न करना तथा अपने जीवन के कार्य खेती, उद्योग, व्यवसाय के अनुसार जीवनयापन के लिए अर्थ प्राप्त करना। 50 वर्ष के बाद 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम। अर्थात् अपने निजी जीवन के साथ साथ समाज के लिए समय देना। हम जब एक साथ समाज के रूप में रहते हैं तो समाज ठीक प्रकार से चलता रहे, इसके लिए भी हमारा कुछ उत्तरदायित्व है। आज तो यह सब काम हम सरकार के ऊपर छोड़ देते हैं जबकि हमारे शास्त्रें के अनुसार यह हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह समाज के स्वास्थ्य के लिए भी कुछ कार्य करें। अन्त में 75 से 100 वर्ष की आयु में वह अपने व्यक्तिगत जीवन के मोह को त्याग कर पूरी तरह समाज सेवा में समर्पित हो जाय। यह हमारे जीवन का एक प्रारूप है जो शास्त्रें ने हमें दिया है। हम परिस्थितियों के प्रभाव में धीरे-धीरे इसे भूलते जा रहे हैं। उससे सभी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।
आज नगरों में तो हम काम धंधे के रूप में नौकरी को प्राथमिकता देते हैं जिसमें 60 वर्ष की आयु में हमें सेवा निवृत्त कर दिया जाता है जिसमें हमारे मन में एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह होता है कि अब हमारी शारीरिक क्षमता काम करने की नहीं रही अब हमें निष्क्रिय होकर कोई जिम्मेदारी का काम नहीं करना चाहिए। इस अवधारणा का प्रभाव मन और बुद्धि पर भी पड़ता है।
इसके अतिरिक्त हम जीवन काल में भी पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में अपने खान-पान में भी तामसी भोजन में चटखारे लेने लगे होते हैं। जिससे एक न एक रोग से भी पीडि़त होने लगते हैं। मोटापा, रक्तचाप, शूगर आदि बेसिक बीमारियां पर एक बड़ी संख्या में शहरों के लोग आज पीडि़त हैं। वह जवानी में जिस पैसे को कमाने में जी जान लगा देते हैं बूढ़े होने पर अस्पतालों की भेंट चढ़ा देते हैं। उनके जीवन का उत्साह सिमट कर अपने स्वार्थ तक सीमित हो जाता है। इस प्रकार जीवन का लगभग एक तिहाई भाग निरर्थक सा हो जाता है। एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह होता है कि अब हमारा स्वर्णिम काल बीत चुका है। हमें तो जैसे तैसे शेष जीवन काटना है। जबकि वास्तविकता यह है कि 50 वर्ष के बाद अनुभवों के कारण वह समाज के लिए अधिक उपयोगी होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने 70 वर्ष की आयु में रामचरितमानस की रचना प्रारंभ की थी।
श्री सातवलेकर जी ने जिनका वेदों के ऊपर किया कार्य उल्लेखनीय माना जाता है उन्होंने संस्कृत लगभग 60 वर्ष की आयु में सीखनी आरंभ की थी। कितनी विडम्बना है पाश्चात्य जीवन शैली के आधार पर जीवन जीने से हम अपने एक तिहाई भाग को जैसे मजबूरी में जीते हैं। जो लोग अपनी भारतीय परंपरा के अनुसार जीवन जीते हैं। वह जीवन के अन्तिम क्षणों तक सक्रिय रहते हैं और कुछ न कुछ समाज उपयोगी कार्य करते रहते हैं।
कहने का तात्पर्य है कि भारतीय संस्कृति हमारे जीवन का मूल है। उसी के अनुसार हम जीवन जीने का प्रयास करें, जिसमें भोजन पर नियंत्रण, व्यायाम, प्राणायाम तथा संयमित पूर्ण जीवन जीने का विधान है जिसका हम पालन करेंगे तो अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत कर लेंगे। फिर किसी भी प्रकार के विषाणु हमारे जीवन को प्रभावित नहीं कर सकेंगे।