कहानी मनोहर काजल
अंकित और अनुपमा पड़ोसी थे। परस्पर आकर्षण का बीज फूटा,
अंकित ने लव लेटर लिखा। बात बढ़ने से पहले ही
अनुपमा उस की अनु दीदी बन गई। लेकिन इस छोटी सी घटना से
जीवन कितना अशांत हो गया। एक हृदय को झझोड़ने वाली कहानी।
मई, 2023
भारत दर्शन विशेषांक
प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर दोबारा लाइन खींचने के लिये मैंने पेंसिल उठायी ही थी कि गौरैया के पंखों के फरफराने की आवाज के साथ ची ची की तेज आवाज फिर मुझे रोशनदान पर सुन पड़ी——-अब तो सचमुच ही सब कुछ मेरी सहनशक्ति के बाहर की बात हो गयी थी। इन चिडि़यों की गदंगी के कारण तीन बार ड्राइंग-शीट बदल चुका था। मैंने तो रोशनदान से उनका आधा अधूरा बना घोंसला ही निकाल कर फैंकने का मन बना लिया था—–पर नीरू ने रोक दिया। अरे पंछी है बिचारे, बस अंडे के बाद बच्चे और बच्चों को बड़ा होने में कितनी देर लगती। अपने आप सब उड़ जायेंगे।
और मैं मान गया पर अब उनकी इस रोज की गंदगी और ची ची के तीखे शोरगुल से सचमुच ही मैं बहुत परेशान हो उठा था। तीन दिन में तीन ड्राइंग-शीट उनकी गंदगी की वजह से बदल चुका था और अब मेरा धैर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। तभी एक गौरैया सामने की खिड़की पर आ बैठा और जोर से चीं चीं का अपना राग अलापने लगा——-मैंने पेंसिल छोड़कर दीवार से ढीली छड़ी वाली झाड़ू को हथियार की तरह अपने हाथ में पकड़ लिया था। अब इस पार या उस पार तभी मादा गौरैया रोशनदान से चीं चीं करती हुई नीचे उतरी और खिड़की पर अपने यार के साथ बैठ गयी। उसके साथ ही ड्राइंग-शीट पर पिच से कुछ गिरा ही——कमबख्त ने फिर ड्राइंग शीट खराब कर दी थी। अब तो गुस्से में मेरी खोपड़ी ही घूम गयी थी। मैंने पूरी ताकत से छड़ी वाली झाड़ू खिड़की पर दे मारी। एक न एक तो जरूर यार उतर जायेगा——पंखों की तेज फड़फड़ाहट और चीं चीं की तेज आवाज के साथ नीचे फर्श पर कुछ खनखनाता सा गिरा——मैं एकदम चिहुंक गया—-खिड़की में शीशा तो था ही नहीं बस जाली भर थी। झाड़ू शायद ऊपर टंगी तस्वीर से जा टकरायी थी।
ओह—-मेरे गुस्से से भिंचे होठों से जैसे एक कराह सी निकल गयी—–। गौरैया का जोड़ा साफ बच कर बगल की खिड़की से बाहर निकल गया था और मैं मन ही मन उन्हें कोसते हुए फर्श पर उल्टी पड़ी तस्वीर को उठाने लगा।
तस्वीर को देखकर जैसे हृदय में एक धक्का सा लगा—–अनु दीदी की तस्वीर थी। चारों तरफ बिखरे हुए कांच के टुकड़े एक बारगी टीसते हुए कलेजे की अन्त कोर तक उतर गये। पूरा शरीर एकदम लुंजपुंज सा होकर अपने में सिमट आया था और सब कुछ किसी अजीब सी शून्यता में डूब गया था।
कुछ देर बाद जब होश सा आया तो झाड़ू वाली छड़ी को मैंने ज्यों का त्यों दीवार से टिका दिया और बैठकर बहुत संभल-संभलकर उस तस्वीर में फंसे हुए कांच के टुकड़ों को निकालने लगा। साफ करते-करते अंगुली में एक नुकीली किरांच चुभ गयी—–पर मैं अपने अंदर के दर्द में जैसे उस नुकीली किरांच के दर्द को महसूस सा नहीं कर पा रहा था। पर जब उसी, तस्वीर पर अनजाने में बहते हुए मेरे आंसुओं की बूंद टपकी—तब मुझे किरांच के दर्द का अहसास हुआ। कुछ देर तक मैं भूला-भूला सा उस तस्वीर को देखता रहा——आंखों की कोरों में पिघला हुआ लावा पलकों की सतह पर किसी गहरी धुंध की तरह तैर आया था। उस जलजलाती हुई धुंध के भीतर एक धुंधला सा कोमल मुस्कान में डूबा हुआ सुन्दर चेहरा पीली सरसों के फूलों की तरह तिर आया था।
सांझ की गहराती धुंध अंधेरे की मटमैली झीनी चादर में सहमती सिकुड़ती कब काली रात बन गयी, मुझे पता नहीं चला। हां कमरे में उतर आये गहरेपन में टेबिल लैम्प की रोशनी की परछाइयां जरूर अजीब सी लगने लगी थी। उधर फिजिक्स की गाइड के पन्ने न जाने कितनी बार उलट-पुलट चुका था पर लग रहा था जैसे दिमाग में एक मोटा सा भौंथरापन आ गया है और खीजकर मैंने गाइड को एक तरफ पटक दिया और खिड़की के सामने आ खड़ा हुआ जो बाहर बगीचे की तरफ खुली हुई थी।
हल्दी मंद हवा के झोंकों में परदा हल्के से सिहर रहा था—-मैंने उसे एक तरफ हटा दिया——सामने शेवन्ती और बेला के गाझिन निकुंज में निष्कलुष चांदनी की दूधिया रोशनी बिखरी हुई थी। शांत स्तब्ध वातावरण में बेला की मदिर गंध ने जैसे मुझे मदहोश सा कर दिया। पढ़ाई की ऊब और दिमाग का भारीपन एकदम खत्म हो गया। रात्रि की नीरवता में एक अनजानी सी स्निग्ध शीतलता भर उठी थी——तभी बगीचे के उस तरफ वाली कोठी की खिड़की खट् से खुली और एक सुन्दर सी लड़की बाहर झांकने लगी। शेवन्ती की झाडि़यों में आधी खिड़की छुप रही थी। मैंने सहज औत्सुक्य से झुककर देखा और देखता ही रह गया।
हल्के झीने गुलाबी रंग की नाइटी में से झांकती हुई अनावृत गोरी लंबी सुकोमल बांहे, कमनीय सांचे में सी ढली देहदृष्टि और कमरे के अंदर बिखरी हुई हल्की नीली रोशनी और बाहर बगीचे में चटखती हुई दूधिया चांदनी सब कुछ जैसे किसी स्वप्निल सौन्दर्य की अनुपम कलाकृति की तरह लग रहा था।
लड़की कुछ देर तक इधर-उधर देखती रही——मैंने अपने को खिड़की की ओट में छुपा लिया। मन में अजीब सा डर भी लग रहा था कहीं देखते हुए देख लिया तो, मुश्किल से बीच पच्चीस फुट का ही फासला तो था। मेरे कानों में उसके पतले होठों की गुनगुनाहट की झनक भी पड़ रही थी। कुछ देर तक वह यूं ही देखती रही फिर और बाहर झांककर बदली में से निकलते हुए चांद को देखने लगी। मुझे लगा जैसे चांद खुद भीगा-भीगा सा उमसकर उसके सुन्दर मुखड़े पर पिघल आया हो। ऐसे निष्कलंक सौन्दर्य की अव्यक्त सी उद्भ्रान्त अनुभूतियों में डूबकर मन न जाने कहां खो गया था। बेला और शेवन्ती के फूलों की मधुर और मदिर गंध जैसे और भी मादक हो उठी थी। एकाएक वह सुन्दर लड़की खिड़की छोड़कर परे हट गयी और सामने लगे आदमकद आइने में अपने को निरखती हुई कंघी करने लगी। नीली रोशनी में चमकते हुए लंबे काले बालों की लटें नागिन की तरह पीठ पर बिखर गयीं—–मेरी आंखें जैसे पलक झपकाना भूल गयी थीं——-फिजिक्स की बोरिंग थ्योरी और दुरूह कैलकुलेशन की जगह मन मस्तिष्क और दिल की खुली परतों में बड़ी ही काव्यमय भावनायें और अनजानी अव्यक्त सी अनुभूतियां पनप उठी थी। सब कुछ किसी सुन्दर सपनों की तरह लग रहा था——।
अनायास ही मेरी गीली धुंधलाती हुई आंखों की कोरें हल्के से झिलमिलाई और मुझे याद आया वह मेरे भावुक किशोर मन मंदिर में अंकित प्रथम छवि थी, अनुपमा की जो आज भी इतने बरसों के बाद मेरे अन्तर्मन की कोमल परतों में वैसी ही अंतरंग अमिटता से उभरी हुई थी।
उस दिन के बाद न जाने मुझे क्या हो गया——-जल्दी से जल्दी स्कूल से सीधा घर लौटता और शाम का खाना खाकर बस अपने कमरे में बंद हो जाता और कोर्स की किताबें खोलकर सामने वाली खिड़की की तरफ देखता रहता। सांझ की सिहरती हुई हवा के मंद झोंकों में लरजती हुई शेवन्ती की फूलों भरी डालियां और बेला की मदिर गंध से उमसते हुए पुष्प गुच्छ जैसे एक सुन्दर सा स्वप्नजाल मेरे चारों तरफ बुन लेते और तन मन अजीब सी गुनगुनाती हुई अव्यक्त अनुभूतियों से आलोडि़त होता रहता—–आंखें रह-रह कर उस बंद खिड़की पर अटक जातीं। कब खिड़की खुले और कब उस अप्रतिम सौन्दर्य का दर्शन हो।
दिलोदिमाग पर न जाने यह कैसा नशा सा छा गया था। मैं यह भी भूल गया था कि यहां मौसा जी के घर पढ़ने के लिये आया हूं। अगले साल मुझे इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लेना है। पिताजी की हार्दिक इच्छा है कि मैं इंजीनियर बनूं। शायद इसीलिये उस छोटे से कस्बे के स्कूल से निकाल कर यहां शहर में मौसा जी के पास भेज दिया—-और यहां इंजीनियर बनने की जगह में फरहाद बनने का सपना संजोने लगा था जिसे इस खिड़की से उस खिड़की तक के लिये महज बीस हाथ की नहर भर खोदनी थी।
सामने टेबिल पर कोर्स की खुली किताबों के पन्ने खाली हवा के झोंकों में फरफराते रहते। फिजिक्स और कैमिस्ट्री की ऊबाऊ थ्योरी और मैथ्स के दुरूह सवालों की उठा पटक की जगह शेरों शायरी और कविताएं रटी जाने लगीं। प्रेम की कवितायें पढ़ते-पढ़ते अचानक लगा मैं कविता भी लिख सकता हूं और बस अव्यक्त भावनाओं का अनकहा गुबार कविताओं में फूटने लगा।
सचमुच ही अपने में मैं कहीं बहुत बदल गया था। शाम का घूमना भी बंद कर दिया। मौसी अक्सर ही मौसा जी से मेरी तारीफ किया करती—–अंकित आजकल बहुत पढ़ाई कर रहा है। जरूर मेरिट में आयेगा। पर उन्हें क्या मालूम कि उनके पढ़ाकू भतीजे साब को पढ़ाई ने नहीं प्रेम-रोग ने जकड़ लिया है जिसने खेलना कूदना क्या, ढंग से खाना पीना भी छुड़ा दिया था।
और इस प्रेम में सबसे बड़ी बात तो यह कि मैंने अभी तक अनुपमा को निकट से नहीं देखा था। बस वही बीस हाथ की दूरी थी। रास्ते में एक दो बार पास से भी देखने का मौका मिला पर झलक मात्र ही, जब वह अपने डैडी की कार से कालेज जाती थी।
अनुपमा उम्र में मुझ से दो ढाई साल बड़ी ही होगी पर प्रेम उम्र नहीं देखता। शेक्सपीयर के बारे में किसी किताब में पढ़ा था कि जिस ब्लैक लेडी की प्रशंसा में उसने कविताओं के पुलिन्दे भर दिये वह उससे उम्र में दस साल बड़ी थी।
एक दिन दोपहर में मैं अपने कमरे में बैठा क्लास के नोट्स बना रहा था। सामने की खिड़की दिन में बहुत कम खुलती थी। फिर भी जाने अनजाने मेरी दृष्टि उस पर पड़ ही जाती थी। अचानक उस दिन खिड़की खुली और मेरी दृष्टि कापी से उचटकर खिड़की पर जा अटकी। अनुपमा ही थी। उसने खिड़की खोलकर इधर-उधर देखा। सहसा उसकी नजर मेरी तरफ घूमी——-और मुझे लगा जैसे मेरी दृष्टि को किसी ने बांध लिया हो। जब मुझे अपने आप ही कुछ क्षणों के बाद अपनी स्थिति का अहसास हुआ तो शर्म और संकोच से कनपटियाें तक झनझना गयी। झटके से मैंने अपनी आंखें झुका ली। पर मुझे लग रहा था कि अनुपमा अभी भी देख रही है। कमल की पंखुडि़यों जैसी बड़ी-बड़ी आंखों में अजीब सी हंसी थी। अनजाने में कुछ मेरी हिम्मत भी बंध आयी हौले से आंखें उठायी और अनुपमा की हंसी से टकराकर मेरे सिहरते हुए होंठ हल्के से मुस्करा पड़े।
प्रथम परिचय की वह प्रथम अनुभूति उसे व्यक्त करने के लिये शायद अभी भी मेरे पास शब्द नहीं है। रटी हुई शेरों शायरी और कविताओं की ओढ़ी हुई संवेदना बहुत उथली पड़ गयी थी। उसी कहने में——सच—— इस जीवन में सचमुच ही कभी-कभार कुछ क्षण ऐसे ही आकर चले जाते हैं जो जाने के बाद भी बने रहते हैं। जिनकी छुअन हकीकत तो नहीं बनती पर उस छुअन का अहसास जिन्दगी भर महसूस होता रहता है।
इसके बाद सब कुछ जैसे किसी सहजता के तार से जुड़ गया था। अक्सर ही जब मैं खिड़की पर खड़ा होता तो अनुपमा भी आ खड़ी होती। बड़ी-बड़ी काली आंखों की कोरों मे चमकती हुई निश्छल स्निग्ध मुस्कान शेवन्ती और बेला के फूलों की अनछुई गंध की तरह बिखरती रहती और उसकी अंतरंगता को मैं अपने अंतर में किसी असीम सुख की तरह सहेजता रहता। अनुपमा से अभी तक मेरी बात नहीं हुई थी। फिर भी न जाने कैसी भावना मेरे मन में घर कर गयी थी कि अनुपमा को मैं आज से नहीं चिरंतन से इस सृष्टि के आदि इतिहास से जानता हूं।
नारी आकर्षण की अनुभूति भी सचमुच बड़ी विचित्र होती है। कुछ समझ में नहीं आता। बस लगता है अनजाने ही कोई आपको बांधता जा रहा है और वह अदृश्य मोहक बंधन ही जीवन का सबसे बड़ा सत्य सा लगने लगता है——शायद मेरे लिये भी वह बंधन मेरे कद से छूटते हुए कैशोर्य और अधकचरे आगत यौवन की बहुत बड़ी सच्चाई बन गया था। और शायद इसी सच्चाई के कारण एक दिन आमने सामने भेंट भी हो गयी।
मैं स्कूल से आकर बाहर बरामदे में साइकिल रखकर जो अंदर घुसा तो अंदर से किसी अपरिचित गुलाबी छाया का आभास पाकर दरवाजे पर ही ठिठक गया——कोई मौसी से बातें कर रहा था। मेरे जूतों की आवाज सुनकर वह गुलाबी छाया पलटी और मेरे ठिठक कर बढ़ते हुए कदम पत्थर की तरह जड़ होकर रह गये वह अनुपमा थी।
यह हमारा अंकित है——मेरी बड़ी बहन का लड़का——यहां पढ़ने के लिये आया है। बहुत पढ़ाकू है और बेहद शर्मीला। लड़कियों को देखकर तो बस——-मौसी की आगे की बातें अनुपमा की खनकती हुई हंसी में डूबकर रह गयी थी। अंदर अपने कमरे में आकर जल्दी से मैंने किताबों को एक तरफ फैंका और जूते उतार कर दबे पैर कमरे के बाहर आ गया और दरवाजे की ओट में खड़ा हो गया। मौसी अभी भी अनुपमा से बातें कर रही थी। बात शायद मेरे ही बारे में हो रही थी। मौसी मेरी तारीफ ही किये जा रही थी। बड़ा होनहार लड़का है। इंजीनियरिंग के कालेज में दाखिला लेना है। पढ़ाई लिखाई के सिवा कुछ सूझता ही नहीं उसे। अनुपमा मौसी की बात सुनकर हल्के से मुस्करा उठती। फिर न जाने क्या सोचकर एकदम उठकर बोली-‘अच्छा आंटी अब मैं चलूं। उधर मम्मी रास्ता देख रही होगी।’
‘अरे चाय पीकर जाना बेटी। भला कब कब आना होता है,’ मौसी ने स्नेह से अनुपमा का हाथ पकड़ लिया और अंदर आने लगी। मैं तेजी से पंजों के बल अंदर भाग आया। न जाने कैसी ऊपर नीचे सांस चलने लगी थी। अपने कमरे से आकर धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। पर मेरे कान और अंतर की आंखें जैसे अनुपमा के बारे में ही देख सुन रही थी। सहसा दरवाजे पर किसी की आहट पाकर चौंका। पलटकर देखा तो एकदम हड़बड़ा कर कुर्सी से उठ बैठा। सामने दरवाजे पर अनुपमा खड़ी थी, मैं अंदर आ सकती हूं?’
‘जी——–जी——-आइये—–’ मेरी जुबान लटपटा कर तालू से चिपकाने को हो आयी थी—–अनुपमा अंदर आ गयी और सामने टेबल पर पड़ी हुई मेरी कोर्स की किताबें देखने लगी। कुछ क्षणों के लिये जैसे कभी न खत्म होने वाली सी चुप्पी छायी रही। फिर अनुपमा ने ही उस चुप्पी को तोड़ा, अच्छा तो इंजीनियर बनने का इरादा है। कहते-कहते अनुपमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें मेरे मुख पर टिका दी।
‘जी——–जी’ बड़ी मुश्किल से जबान तालू से अलग हुई। पता नहीं क्या हो गया था मुझे। मैं खुद नहीं समझ पा रहा था।
अचानक अनुपमा ने सामने बिखरी हुई कापियों में से ऊपर वाली मोटी कापी उठा ली। मेरी सांस जैसे रुकने को हो आयी। कैमिस्ट्री की कापी थी। जिसके पीछे मेरी बनायी हुई उल्टी सीधी कवितायें लिखी थीं जो मैंने अनुपमा को देखकर लिखी थी। मैंने कापी लेने के लिये हाथ बढ़ाया तब तक अनुपमा ने उसे खोल लिया था। उसके खुलकर फरफराते हुए पन्नों के साथ मेरा दिमाग भी फरफराने लगा था। मन ही मन हनुमान जी को सुमरने लगा। वही मेरे इष्टदेव थे और पवन पुत्र ने सचमुच मेरी लाज रख ली।
बड़ी अच्छी राईटिंग है तुम्हारी——-अनुपमा ने मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखा और कापी को बंद करके नीचे टेबिल पर रख दिया। मेरी जान में जान आयी। यदि अनुपमा की नजर सचमुच उन उल्टी सीधी कविताओं पर पड़ जाती तो पता नहीं क्या सोचती।
इतने में मौसी की आवाज सुनकर अनुपमा चली गयी और बड़ी-बड़ी अनुराग भरी निश्छल आंखें अंतर के किसी कोने में एक मूरत बनाती गयी।’ ‘अच्छा फिर कभी आऊंगी और हां कभी हमारे घर भी आना।’
अनुपमा चली गयी थी पर उसकी उपस्थिति का न जाने कितनी देर तक मुझे अपने कमरे में आभास होता रहा। जब कुछ होश आया तो अनजाने ही एक सहमी-सहमी सी हंसी मेरे सिकुड़े हुए सूखे होठों पर फूट पड़ी।
अनुपमा को निकट से देखने का वह पहला मौका था। पता नहीं कैसा चुंबकीय और अव्यक्त सा व्यक्तित्व था, अनुपमा का। जब भी सामने पड़ता तो एकदम अवश सा हो उठता। कुछ समझ में नहीं आता क्या कहूं क्या न कहूं————-या तो आंखें जमीन पर चिपकी रहतीं, या अपने आपको बचाने में इधर-उधर घूमती रहती। यदि साहस करके कभी अनुपमा की तरफ देखता भी तो उसके सहज सुन्दर मुख पर बिखरी मुस्कान मेरी संकोच में सिमटी दृष्टि को टूक-टूक करके अस्तित्व हीन सा कर देती———–और भूले भटके किसी दिन न दिखने पर जैसा लगता था——–वह मेरा मन ही जानता था। कई बार अनुपमा से भेंट हो जाती थी पर इतना साहस कभी नहीं जुटा सका कि अनुपमा से आंखें मिलाकर बात कर सकूं।
स्कूल में अपने को बड़ा तीसमारखां समझता था। को-एजुकेशन होने के कारण साथ में लड़कियां भी पढ़ती थी। उनको चिढ़ाना या सहज मजाक उड़ाना तो लगभग मेरी आदत में ही शुमार हो गया था। इसके कारण प्रिन्सिपल के पास पेशी भी हो चुकी थी। पर अनुपमा के सामने मेरी सब शेखी एक तरफ धरी रह जाती। आंखें मिलाने की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी। एक दिन तो सहज भाव से हंसती हुई अनुपमा कह ही बैठी-‘अंकित तुम्हें लड़का न होकर लड़की होनी चाहिये। भला ऐसे भी कोई शर्माता या सहमता है लड़कियों की तरह।’
अनुपमा की बात सुनकर मेरी आंखें कुछ झिझकीं फिर मैंने अनुपमा की तरफ देखा। बड़ी-बड़ी काली आंखों में तैरती हुई उस सहज स्निग्ध हंसी की झील सी गहराई में मेरे ऊपर व्यंग्य था या महज बात की बात थी।
पता नहीं क्या सोचकर मेरी आंखें अपलक ही अनुपमा के चेहरे पर अटक कर रह गयी थीं।
क्या पागलों की तरह देख रहे हो अब। क्या कुछ गलत कहा मैंने, अनुपमा की गहरी काली आंखें जैसे मेरे और करीब आ गयी और मैं हठात अंदर से सिहर सा उठा। खिंचे हुए होंठ अनजाने ही कुछ कहने के लिये कांपे पर कुछ नहीं कह सका। सब कुछ जैसे बड़ी जोर से धड़कते हुए हृदय की कोमल परतों से सिमटकर रह गया था। क्या कहना चाहता था मैं अनुपमा से। सब कुछ तो कहना चाहता था पर सब कुछ उस पल अनकहा अनछुआ सा रह गया था।
पर हां——-उसके बाद अनुपमा की सहज स्नेहिल अतरंगता और आत्मीयता ने मेरी झिझक और संकोच की दीवारें जरूर तोड़ दी थी। फिर भी मैं सहज भाव से उससे आंखें नहीं मिला पाता था। हर बार मन में जैसे कोई चोर सा घुस आता। पर इस सबके बावजूद भी मैं स्वयं नहीं जानता कि अनुपमा के कौन से आकर्षण ने मुझे बुरी तरह अपने अदृश्य बंधन में बांध लिया था। वह महज अधकचरी युवावस्था का दैहिक उद्दाम और छिछोरा आकर्षण था—-या सहज अंतरंग स्नेहिल आत्मीयता की संवेदनानुभूति। शायद आत्मा और शरीर के दोनों पाटों के बीच मैं बुरी तरह से पिस रहा था और एक दिन वह आकर्षण अपनी समस्त वर्जनाओं को तोड़ता हुआ एक बहुत बड़े दुस्साहस में बदल गया। शायद मेरे पास अपने से बचने का कोई रास्ता ही नहीं रह गया था। मन में कितनी ही देखी अनदेखी कल्पनाओं और अनजानी अनुभूतियों के सहमे हुए ज्वालामुखी का गूं-गूं करके गुनगुनाने वाला गुबार एक बारगी फूट पड़ा।
रात के तीन बज गये थे और मैं अपने सामने एक सफेद कोरे कागज को बड़ी खामोशी से हाथ में पकड़े खिड़की से बाहर बिखरे हुए अंधेरे की शून्यता में न जाने क्या देख रहा था। पेन दाहिने हाथ की अंगुलियों के बीच एकदम सुन्न पड़ा था पर अंतर्मन में विचारों का महासागर उमड़ रहा था। मौसी की चोरी से शहर में कुछ फिल्में देखी थी। इन सब फिल्मों के हीरों के रूमानी चेहरे और कुछ वैसा ही वातावरण मेरी आंखों के सामने घूम रहा था। और इस समय मैं स्वयं को किसी हीरो से कम नहीं समझ रहा था। यथार्थ और वास्तविकता से परे हर कल्पना मन के मोहक सपने की तरह इन्द्रधनुष के से सातों रंग बिखेरती हुई आंखों के आगे छुई-मुई का खेल खेल रही थी और मैं उसका एक मात्र मोहरा बना हुआ था।
टन——टन कर के गिरजाघर के घडि़याल ने पांच बजाये और मैंने अपने कांपते हुए हाथों से पैन नीचे रख दिया। सामने सफेद कागज पर मैंने एक संतुष्टि भरी दृष्टि डाली, वह सब कुछ मैंने उस कागज पर उतार दिया था जिसका बोझ सहते-सहते मुझे लग रहा था कहीं मैं पागल न हो जाऊं———-।
एक बार मैंने फिर पूरे पत्र यानि पूरे लव लेटर को पढ़ा————-जब अच्छी तरह से एक-एक शब्द और वाक्य को दो-दो तीन-तीन बार पढ़ चुका तो उसे संभालकर तकिये के गिलाफ में छुपाकर रख दिया और लेट गया। कब आंखें लगी कुछ पता नहीं चला।
नींद तब खुली जब मौसी ने झकझोरते हुए जगाया। देखा सुबह के साढ़े दस बज रहे थे। मौसी के बाहर जाते ही मैंने आंखें मलते हुए तकिये के गिलाफ में से अपना लव लेटर निकाला, ध्यान से पढ़ा और बाहर खिड़की में से झांककर देखा——सामने की खिड़की बंद थी पर मेरी सूरज की तीखी किरणों से चुंधियाती हुई आंखों की कोरों में अनुपमा का दूध सी उजली चांदनी से भीगा हुआ चेहरा ही दिख रहा था।
शाम को स्कूल से आने के बाद मैं सीधा अनुपमा के घर गया। अनुपमा कहीं बाहर गयी हुई थी। उनकी मम्मी शायद किचन में थी। मैं सीधा अनुपमा के अध्ययन कक्ष में चला गया कुछ देर तक सोचता रहा। लेटर कहां रखना चाहिये ताकि अनुपमा को आसानी से मिल जाये और मैंने उसे टेबल पर रखी हुई कालेज फाइल में रख दिया। रखते समय किसी अनजाने भय से मेरी उगुंलियां कांप रही थी पर मैं अपने आपको साहस बंधा रहा था कि बहादुर आदमी ही जिन्दगी में कुछ हासिल कर पाते हैं, कायर नहीं। और मैं किसी भी हालत में कायर नहीं बनना चाहता था—-उस समय मैंने यह भी नहीं सोचा था कि यदि वह पत्र किसी और के हाथ पड़ गया तो क्या होगा।
दरवाजे पर बाहर अनुपमा की छोटी बहन नीरू खड़ी मिली। मुझे रोककर उसने अपनी गणित के कुछ सवाल मेरे से करवाने चाहे, पर मैं सिरदर्द का बहाना करके चला आया—-घर में आते ही जल्दी-जल्दी खाना खाया और अपने कमरे में बगीचे की तरफ खुलने वाली खिड़की खोलकर बैठ गया।
कितनी उत्सुकता और बेचैनी थी कि सामने की खिड़की अब खुली तब खुली और पर कुछ नहीं हुआ। किसी भरमाये हुए जोगी जती की तरह बैठा रहा। पूरी रात बीत गयी पर खिड़की नहीं खुली। कुर्सी पर बैठे-बैठे अकड़ी हुई आंखें तीखी जलन से टीसती हुई कब बंद हुई कुछ पता नहीं चला।
सुबह ही नीरू आ गयी———-अनु दीदी ने बुलाया है।
अनु दीदी ने——–कुछ क्षणों के लिए मैं अव्यक्त सी असम्बद्ध स्थिति में नीरू की तरफ देखता रहा। पहले तो मन में आया कि पूछूं क्यों बुलाया——–गुस्से में है, या सीधे सादे मूड में पर इतना सब कुछ पूछने और शायद सोचने समझने को वक्त कहां था। झटपट प्रेस किये कपड़े पहने। आइने के सामने कई बार अपने को देखा परखा फिर जल्दी से अनुपमा के घर जा पहुंचा। दरवाजे पर टंगे नीले पर्दे को हटाकर झिझकती हुई आंखों से अंदर झांका। अनुपमा खिड़की के सामने खड़ी थी। उसकी पीठ मेरे सामने थी। सुडौल गर्दन पर लहराती हुई लंबी काली चोटी में बेला के बासे फूलों की वेणी गुंथी हुई थी।
कुछ देर तक मैं चुपचाप खड़ा रहा। कमरे में एक स्तब्ध खामोशी सी छाई थी। लगता जैसे हर चीज में एक खिंचाव भरा हुआ था। जो किसी भी क्षण टूट सकता था। अनजानी आकुल सी घबराहट और अजीब सी शून्यता जैसे मेरे रोम-रोम में बैठ गयी। मैंने कमरे में सहमते हुए पैर रखा और अनुपमा ने पलटकर देखा। मेरे बढ़े हुए पैर सीमेन्ट के नंगे फर्श पर कच्ची बर्फ की तरह चिपक गये वातावरण की खिंची हुई खामोशी जैसे मुझ में खिंच आयी थी।
‘इधर आओ’ अनुपमा की नितान्त ठंडी और स्थिर आवाज उसकी आंखों की तरह शान्त और स्तब्ध थी। मैं यंत्रचालित सा आगे बढ़ गया। पता नहीं कैसा लगने लगा था। मन में कुछ देर पहले जितनी रूमानी कल्पनायें और कोमल अनुभूतियां गुब्बारे की तरह फूल रही थी, एकदम पिचक गयी थीं। अनुपमा की लंबी पतली अंगुलियों में मेरा वह लव लेटर फंसा हुआ था। अनुपमा चुपचाप मेरी तरह देखती रही। एक भी शब्द नहीं बोली। ऐसी स्थिति कितनी असहय और यंत्रणापूर्ण हो सकती है, इसे कोई भुक्तभोगी ही जान समझ सकता है।
अचानक अनुपमा की बड़ी-बड़ी काली आंखें हल्के से किसी अजीब सी मुस्कान से दूर टूट कर बिखर आयी। ये लेटर तुमने लिखा है?
मैंने अपनी फर्श पर चिपकी हुई दृष्टि सहेजी और अनुपमा की तरफ देखा। अनुपमा की आवाज में तैरती हुई मुस्कान का आभास करके ही मैं साहस कर पाया था। पर वह मुस्कान कच्चे नश्तर सी तराश गयी और मेरी आंखें सिहरती हुई फिर फर्श पर आ चिपकीं।
‘तुम्हारी राइटिंग की तारीफ तो करती ही थी। अब तुम्हारा काव्य प्रतिभा और लेखन की भी तारीफ करनी पड़ेगी। अपनी भावनाओं को इस तरह अभिव्यक्त करने की कला बहुत ही कम लोगों को आती है। अंकित तुम्हें तो पोयट होना चाहिये।’ कहते-कहते अनुपमा हंसी और उसने मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रखा। लगा पूरा शरीर बर्फ की तरह ठंडा हो आया था। उस स्पर्श की छुअन से—।
हिम्मत बांधकर अनुपमा की तरफ देखना चाहा, पर तब तक अनुपमा मुख फेर कर खिड़की की तरफ देखने लगी थी—-। सहसा वह पलटी और आंसुओं से धुंधलाता हुआ चेहरा मेरे एकदम करीब आ गया। अंकित, स्नेह और अंतरंगता आत्मीयता का मतलब यह तो नहीं होता। मैंने तुम्हें अपनी आत्मीयता से चाहा पर इस सबका मतलब तुमने यह लगाया’ आंसुओं की धुंध से गहराती हुई अनुपमा की आवाज जैसे भीतर ही भीतर कहीं टूट आयी थी।
क्या——तुम्हारे मन में इन रूमानी भावनाओं के सिवा मेरे लिये और कुछ नहीं था।
आकाश ने मुझे धरती पर फैंक दिया था। किसी तुच्छ घिनौनी चीज की तरह, छी मैं कितना गिरा हुआ हूं। आत्मग्लानि की पिघलन और अंतर की घुटन तन मन की कोर-कोर को झकझोरती हुई आंखों की कोरों में आ फंसी और रोकते-रोकते जलजलाती हुई दो बूंदें फर्श पर जा गिरी——-। अंतर का समस्त कलुष और आत्मा का सब कुछ उन गर्म उमसती हुई आंसुओं की बूंदों में बह निकला था।
छी—–भला ऐसे भी कोई पागलों की तरह रोता है। गलती किससे नहीं होती पर——गलती को खुले दिल से स्वीकार कर लेना ही इसका सबसे बड़ा प्रायश्चित है। अनुपमा की अनायास ही करुण पिघलती हुई आवाज और गिरगिराते गर्म होठों का माथे पर स्पर्श मेरे छटपटाते हुए अंतःकरण में किसी अनन्य अछूते स्नेह और अंतरंग आत्मीयता का पुंज बनकर उतर गया।
‘अनु दीदी मुझे माफ कर देना——’ आगे के बोल जैसे अनुपमा की भींगी हुई हथेली की कोमलता में ही सिमट कर रह गये और अनुपमा का आंसुओं की जलजलाती कोरों में मुस्कराता हुआ स्निग्ध चेहरा मेरी आंखों के आगे बिखरी हुई धुंध में तैर आया।
खून से चिपचिपाती हुई अंगुलियों में अनुपमा-अनु दीदी की तस्वीर वैसे ही फंसी हुई थी पर मैं जैसे कुछ नहीं देख पा रहा था और न अनुभव ही कर पा रहा था। शून्य के धुंधलके में खोयी हुई आंखें अनु दीदी के उन आंसुओं में मुस्कराते हुए चेहरे पर ही अटकी हुई थी।
वक्त गुजर जाता है और अंतर में संजोयी हुई यादें कैसी जानी अनजानी सी लगने लगती हैं। उस दिन के बाद मैं जैसे सब कुछ भूल गया। सब कुछ—-कुछ दिनों तक जरूर अनुपमा से आंखें नहीं मिला सका पर गुजरते वक्त के साथ सब कुछ खत्म हो गया। अनुपमा की निर्मल हंसी और अपनेपन से भरे हुए एकदम खुले व्यवहार ने मुझे इतने निकट ला दिया था कि कभी-कभी मैं स्वयं सा विश्वास नहीं कर पाता कि क्यों मेरे मन में अनुपमा के प्रति इतनी अगाध आत्मीयता और अंधी श्रद्धा उमड़ आयी——-पर बहुत सी बातें होती हैं जिनका कोई उत्तर नहीं होता।
जिस दिन इंजीनियरिंग कालेज में मेरा एडमीशन हुआ उस दिन अनुपमा ने मुझे अपने घर बुलाया और मिठाई बांटी। पहले तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया आखिर यह मिठाई किस खुशी में।
पर जब मेरे मुंह में अनुपमा ने अपने हाथ से बर्फी का टुकड़ा दिया तो पूछ ही बैठा अनु दीदी यह मिठाई किस खुशी में—-?
अनुपमा हल्के से हंसी—–तुम्हारा इंजीनियरिंग कालेज में एडमीशन जो हुआ है। मैं अवाक सा अनुपमा के मुख की तरफ देखता रहा। अनजाने में आंखों की कोरें गीली हो आयी। मैंने हौले से मुस्करा कर आंसुओं के गीलेपन को छुपाना चाहा पर अनुपमा ने देख लिया था———एकदम पूछ बैठी——क्या हुआ——–?
कुछ नहीं दीदी, आंख में कुछ चला गया है शायद——हृदय में अत्यधिक खुशी और उल्लास का तूफान सा उठ आया था। उसे अंदर ही सहेज लिया——अनुपमा ने मेरे एडमीशन की खुशी में मिठाई बांटी थी। भला मैं क्या लगता हूं अनुपमा का और इसी अनुपमा के साथ मैं कितनी बड़ी नादानी कर बैठा था, पुरानी बातों को याद करके मैं भीतर कुछ टूट सा गया था——पर अनुपमा कुछ नहीं समझ पायी।
एम-ए-फर्स्ट इयर में एडमीशन होते-होते अनुपमा का जितेन्द्र बाबू के बड़े लड़के धीरेन्द्र के साथ रिश्ता तय हो गया और अनुपमा का कालेज छूट गया। धीरेन्द्र दा ने हालैन्ड से एम-बी-ए की डिग्री ली थी उनके विदेश से लौटने के साथ ही विवाह की तिथि वगैरह निश्चित हो गयी—-उस समय मेरे फोर्थ टर्मिनल के पेपर चल रहे थे। इस कारण अनुपमा से ज्यादा भेंट नहीें हो पाती थी पर जब भी मिलता तो न जाने कैसा अजीब सा लगता अनुपमा जैसे कुछ बदल सी गयी थी। एकदम गुमसुम और चुप, न जाने क्या हो गया था। दिल में आता पूछूं, दीदी तुम्हें क्या हो गया है——अपने अंकित को भी नहीं बताओगी। पर मेरी बढ़ती हुई उम्र की समझदारी और कुछ बड़प्पन के अहसास ने मेरी अंतरतम अनुभूतियों को जैसे बांधना सीख लिया था।
———और वह घड़ी भी आ गयी एक दिन—–अनुपमा ने अड़हुल की तरह सुर्ख रेशमी चटखती हुई साड़ी पहनी। दुल्हन की तरह सेहरा पहिना, सद्यः स्नात शरीर का सिर से पैर तक शृंगार किया गया एक नितान्त अपरिचित अनजान व्यक्ति का हाथ थाम अग्निकुंड के सात फेरे लगाये और अग्नि की साक्षी ली। मैंने सब कुछ देखा था अपनी आंखों से। नींद की कड़आहट से आंखों के पपोटे भीतर ही भीतर सुख से आये थे पर मंडप से दूर एक कोने में खड़ा मैं सब कुछ देखता रहा, एकदम निर्लिप्त और निर्विकार भाव——-।
विदाई के समय जरूर सामना करने की हिम्मत नहीं बची थी और नीरू के कमरे में खिड़की की ओर खड़ा परदे से अपनी आंखें पोंछ रहा था। तभी अनुपमा ने पीछे मुड़कर इधर-उधर देखा। शायद वह मुझे देख रही थी मैं और ओट में हो गया। पर नीरू ने इशारा करके अनुपमा को बता दिया और अनुपमा मेरे सामने आ गयी। मैंने जल्दी से अपनी आंखें पोंछ लीं———नयी नवेली दुल्हन के रूप में अनुपमा सामने खड़ी थी। इस समय मुझे लगा जैसे मैं अनुपमा को पहली बार देख रहा था। सुर्ख रेशमी चूनर में सिमटा हुआ असहाय लता की तरह लरजता हुआ सांचे में, सा ढला शरीर, पान के पत्ते की तरह के गोल चेहरे पर मछली की तरह टकी हुई बड़ी-बड़ी आंखें जिनकी कोरों में काजल की गहरी रेखा के साथ मोती जैसे शुभ्र आंसुओं की लकीर भरी खिंची हुई थी। घने केशों की काली लकीरों में उभरी हुई सुर्ख सिन्दूर की रेख, मोतियों की लड़ी से टका हुआ शीश फूल और पतले पतले थरथराते हुए होठों की रक्तिम कोर को छूती हुई बड़ी सी स्वर्ण-नथ, जिसमें एक दुग्ध धवल सा उज्ज्वल मोती टंका हुआ था।
एक ही दृष्टि में मैंने संपूर्ण अनुपमा को देख लिया था——शायद इसीलिए कि अब तो अनु दीदी हमेशा के लिए जा रही हैं। फिर न जाने कब देखने को मिले।
अंतरतम में पता नहीं कितनी अनकहे अनजाने दर्द की स्मृतियों की टीसती हुई लहरें उमड़ आयी थी—–अनुपमा थोड़ी देर तक खड़ी रही फिर धीरे से बोली ‘अंकित, अपनी दीदी को भूलना नहीं। पत्र जरूर डालना, कहते-कहते अनुपमा की भरभराती हुई आवाज काजल कोरों में सिमटे हुए आंसुओं के सागर में डूब गयी और वह उल्टे पैर लौट गयी।
और अनुपमा चली गयी———–। अनुपमा कितनी दूर चली गयी थी। इसका अहसास तो मुझे उसके बाद हुआ जब शेवन्ती और बेला के फूलों से लदी लताओं को पार करके मेरी आंखें सामने की बंद खिड़की से टकराती और अनजाने में किसी अजीब सी शून्यता को अपने में सहेजकर तरतरा उठतीं।
उस खिड़की पर कभी नीरू की झलक दिखती वही हल्के झीने गुलाबी रंग का नाइट गाउन और पतली गर्दन पर लहराती हुई नागिन की सी काली लटें पर मैंने फिर कभी झुककर देखने की कोशिश नहीं की। खिड़की का जो बीस हाथ का फासला था अब कई किलोमीटर की दूरी में बदल गया था—–।
अनुपमा के पत्र आते रहते और मैं जवाब देता रहता पर न जाने क्याें अब जवाब देने की हिम्मत नहीं रह गयी थी। फिर समझ में भी नहीं आता कि लिखूं तो क्या लिखूं। पहले जैसी ललक और उत्सुकता न जाने कहां खोकर रह गयी थी। पहले तो कालेज के किसी फंक्शन में या स्पोटर््स में कोई प्राइज मिलता तो सीधे अनु दीदी को दिखाने भागता। जरा भी कुछ हुआ तो अनु दीदी। पर अब किसको क्या बताने जाऊं और फिर अनु दीदी तो अब बहुत दूर चली गयी थी—पत्रें का एक अनकहा अनछुआ सा रिश्ता भर रह गया था। वह भी वक्त के दायरे में सिमटकर जैसे टूटता सा जा रहा था।
दिल्ली से घर लौटते समय उत्कल एक्सप्रेस ग्वालियर स्टेशन पर रुकी। अचानक मुझे याद आया आजकल अनु दीदी ग्वालियर में ही हैं। उनका इंदौर से भेजा हुआ पुराना पत्र मेरी जेब में पड़ा था, जिसमें ग्वालियर का पूरा पता लिखा हुआ था। धीरेन्द्र दा का बड़ौदा से यहीं किसी कालेज में ट्रांसफर हो गया था। बहुत दिनों से अनु दी से मिला भी नहीं था। मैं अटैची लेकर प्लेटफार्म पर उतर गया। पूरा पता होने के कारण मकान ढूंढने में कोई परेशानी नहीं हुई। टैक्सी उन्हीं के बंगले के सामने जा खड़ी हुई। सामने गेट पर लकड़ी की नेमप्लेट लगी हुई थी धीरेन्द्र नाथ सिन्हा—————–।
सोच रहा था अनुदीदी देखकर कितनी खुश होगी। आश्चर्य करेगी। लेकिन दरवाजा एक अपरिचित औरत ने खोला शायद नौकरानी थी। धीरेन्द्र दा कालेज गये हुए थे। पूरे बंगले में एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। तभी नौकरानी ने एक गहरे पर्दे वाले दरवाजे के सामने रुककर कहा-बीबी जी अंदर हैं, नौकरानी के यह कहने से मन में एक तीखी टीस सी उठ आयी क्या अनुदीदी बाहर नहीं आ सकती थी।
अचानक लगा मैं बेकार ही अपनी टेªन छोड़कर आया, क्या जरूरत थी जर्नी ब्रेक करने की। सच में बड़ा अजीब होता है यह आदमी का मन। कितनी ललक थी मिलने की। पल-पल काटना दूभर हो रहा था और वही मन पल भर में कितना फट गया था।
नौकरानी मुझे छोड़कर शायद किचन में चली गयी थी। बरतनों की खटपट की आवाज आने लगी थी। मैंने बेमन से परदा हटाया तो देखा सामने पलंग पर सफेद चादर ओढ़े कोई सो रहा था। बगल में टेबल पर कई छोटी बड़ी दवा की शीशियां रखी थीं, तो क्या अनु दीदी बीमार हैं—————–?
पर उन्होंने अपने किसी भी पत्र में ऐसा कुछ नहीं लिखा था। एक अजीब सी आतुर बेचैनी और चिन्ता से मेरा मन जैसे एक बारगी बुरी तरह से छटपटा उठा।
‘अनु दीदी’ बरबस भारी से हो आये स्वर को मैंने नियंत्रित किया और धीरे से आवाज दी।
हल्के से चादर हटी और एकदम संवलाया हुआ कृश और निस्तेज अनु दीदी का चेहरा दिखा-हे भगवान, कितनी बीमार है अनु दीदी, गड्ढे में धंसी जुगजुगाती काली आंखों के घेरे के कारण एकदम ही पहचान में नहीं आ रही थी। इतनी बीमार होकर भी अनुदीदी ने मुझे अपने संबंध में एक भी शब्द नहीं लिखा, मुझे लगा——अजीब से आक्रोश और उससे उपजी निरीहता और बेचैनी ने मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ सा बना दिया था।
मेरी आवाज सुनकर अनुदीदी की गड्ढे में धंसी हुई सूखी पलकें हौले से कांपी और आंखें खुलीं जुगजुगाती हुई क्षीण दृष्टि जैसे मुझे पहचानने की कोशिश कर रही थी।
अचानक ही सिकुड़ी हुई आंखों में जैसे हल्की सी चमक आयी और संवलाये हुए होठों की किनारें थरथरायीं———अंकित——–तुम—–।’
एकदम अविश्वास के भाव के साथ अनु दीदी ने उठने की कोशिश की पर इसी बीच खांसी आ जाने से उनका सफेद चादर में सिमटा हुआ शरीर सूखी लकड़ी की तरह ऐंठ आया———मैंने आगे बढ़कर उन्हें थाम लिया।
तुम आराम से लेटी रहो——-दीदी कहते-कहते उनके पास बैठने के लिये मैंने खाली हाथ से पास पड़ी कुर्सी को खींचने की कोशिश की पर अनु दीदी के दुबले पतले हाथों ने मेरे दोनों हाथों को थाम लिया। पतली सूखी अंगुलियों का स्पर्श बर्फ की तरह ठंडा था। मेरी आंखें फिर तरतराने को हो आयी—-मैं वहीं पलंग की पाटी पर बैठ गया।
अनु दीदी का पीला संवलाया हुआ निस्तेज चेहरा ऊंची-नीची सांसों में सिहरता हुआ किसी अनजानी सी कोमल स्निग्धता में सिमट आया था।
स्थिर क्षीण दृष्टि मेरे चेहरे पर ही अटकी हुई थी—-न जाने क्या तैर रहा था उन जुगजुग करती हुई काली पुतलियों के अन्तराल में———अचानक मुझे लगा जैसे वह दृष्टि एक अलौकिक शांति और अव्यक्त सी करुणानुभूति पैदा करती हुई मेरे अन्तर्मन में उतरती जा रही है। मन में गूंजते हुए सैकड़ों प्रश्न और उनकी छटपटाहट भरी जिज्ञासा एक बारगी जैसे उस क्षीण पर अनोखे आलोक से दीप्त दृष्टि के दायरे में सिमटकर अस्तित्वहीन सी हो गयी।
अनु दीदी वैसे ही अपलक मेरी तरफ देखे जा रही थी। मैं उस दृष्टि को और न सह सका। और अपने को सहेजते हुए पूछ ही बैठा दीदी तुमने तो लिखा था तुम एक दम ठीक हो——-अभी भी मेरे पास तुम्हारा वह पत्र है न चाहते हुए भी मेरा आत्मीय आक्रोश किसी छटपटाहट की तरह मेरे भिंचे हुए होठों से फूट ही पड़ा—–उसके अलावा और कर ही क्या सकता था।
गड्ढों में धंसी काली आंखों की गहराई में वही मन को छूती हुई कोमल हंसी कानों में गूंजी——-अपनी दीदी से नाराज हो न——–सहने की भी कोई सीमा होती है और मेरी आंखें बड़ी जोर से छलछला उठी मैंने झटके से अपना मुंह दूसरी ओर फेर लिया।
अंकित——-अनु दीदी ने अपनी कमजोर अंगुलियों में मेरी हथेली को सहेज लिया उस स्नेहिल करुण स्पर्श में जैसे मेरा समस्त आक्रोश पानी की तरह पिघल गया। मैंने आंखें पोंछकर अनु दीदी की तरफ देखा———-मुझे लगा———-अनु दीदी कुछ कहेंगी पर वह एक निर्मिमेष दृष्टि से मेरी तरफ देखती भर रही———–क्या है दीदी——मैं आकुल होकर पूछ बैठा।
अनु दीदी जैसे अपने आप में खोयी सी चौंक उठी फिर अचानक ही हल्की फीकी हंसी सूखे होठों पर बिखर गयी———कुछ नहीं। फिर भी मुझे लगा।
अनु दीदी आगे कुछ कहेंगी—-तभी नौकरानी ने खबर दी साहब आ गये—।
ओह धीरेन्द्र दा———–मैं पलंग से उठ बैठा।
अनु दीदी के हल्के सहज हो आये पीताभ मुख पर क्षण भर के लिये कुछ गहरापन सा आभासित हुआ पर मैंने ध्यान नहीं दिया——। मैंने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्ते की और अपना परिचय दिया। कुछ क्षणों के लिये औपचारिक सी बातें हुई——–अनु दीदी से भी उन्होंने उनके बुखार और डाक्टर के आने के बारे में पूछा फिर अपने कमरे में चले गये। सब कुछ महज एक औपचारिकता तक सीमित था। कहीं भी संबंधों की गरिमा, आत्मीयता और अपनेपन का अहसास नहीं था। मुझे बहुत अजीब सा लगा——-इस सबकी तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। मैंने अनु दीदी की तरफ देखा काली पुतलियां एकदम निस्पृह भाव से शून्य में न जाने क्या देख रही थी।
मन में ढेर सारे सवाल उठ आये थे। नागफनी के कटीले कांटों की तरह कचोटते हुए, पर अनु दीदी से कुछ पूछने की या जानने की हिम्मत नहीं पड़ी।
शाम के खाने पर भी धीरेन्द्र दा से कोई विशेष बात नहीं हुई। बस इतना भर पता चला कि वे नौकरी छोड़कर फिर से बाहर जा रहे हैं———-क्याें जा रहे हैं क्या अनु दीदी भी साथ जा रही हैं और फिर ऐसी बीमारी की स्थिति में तो किसी भी प्रकार उनका साथ जाना संभव नहीं था। पर यह सब प्रश्न मेरे अन्तर्मन में ही घुटते रहे। मैं धीरेन्द्र दा से कुछ भी नहीं पूछ सका———-उनकी औपचारिकता भरी हां हूं में शायद ऐसे प्रश्नों की गुंजाइश ही नहीं थी।
अनु दीदी से भी फिर दोबारा बात न हो सकी—–पति पत्नी के बीच में तीसरा पक्ष वैसे भी कोई मायना नहीं रखता—–और फिर अपना संकोची स्वभाव।
रात के बारह बज गये थे और मैं ड्राइंग रूम सोफे पर करवटें बदल रहा था। अनु दीदी और धीरेन्द्र दा के बारे में सोचते-सोचते सचमुच मेरी नींद ही उड़ गयी थी। सहसा बगल में अनु दीदी के कमरे से कुछ आवाजों की प्रतिध्वनि सी सुन पड़ी और औत्सुक्य के साथ मैं बिस्तर पर उठकर बैठ गया—अनु दीदी के कमरे का दरवाजा बंद था। पर खिड़की का परदा थोड़ा खुला था——–पराये घर में और फिर पति पत्नी के कमरे में आधी रात को झांकना और उनकी बातें सुनना किसी निकृष्टतम कार्य से कम नहीं था पर उस समय मेरी उत्सुकता अपनी चरम सीमा को पार कर चुकी थी और चुपचाप सोफा से उठकर दबे पैर खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। देखा धीरेन्द्र दा अनु दीदी के पलंग के पास खडे़ हुए कुछ कह रहे थे तेज आवाज में। खिड़की में डबल शीशा होने के कारण आवाज इतनी कम थी कि कुछ समझ में नहीं आया। हां खिड़की से एकदम कान सटाने पर धीरेन्द्र दा के, इतने ही शब्द सुन पाया तो फिर मुझसे शादी क्यों की थी। आगे भी कुछ कहा था धीरेन्द्र दा ने पर मैं नहीं सुन सका और पैर पटकते हुए धीरेन्द्र दा अपने कमरे में चले गये और जाते-जाते झटके से दरवाजा बंद करते गये। अनु दीदी सफेद चादर में सिकुड़ी सी ज्यों की त्यों पड़ी थी। एकदम प्रस्तर शांत प्रतिमा की तरह जैसे कुछ भी न हुआ हो सिर्फ एक मैं ही था कि इस दृश्य के इस अनहोने पटाक्षेप से————कुछ ऐसा व्यथित और आकुल हो उठा था कि सांस लेना भी दूभर पड़ रहा था।
अचानक अनु दीदी ने करवट ली—-अपने तकिये के गिलाफ में से कुछ निकाला। कोई पेपर सा था। मेरी आंखें बेहद उत्सुकता से छटपटाती हुई उस कागज पर अटक गयीं। कुछ देर तक अनु दीदी उसे देखती रही फिर उसी में अपना मुख छुपा लिया——-शायद रो रही थी अनु दीदी। मेरा हृदय किसी कच्चे घाव की तरह टीस उठा——-मन में आया खिड़की का शीशा तोड़कर अनु दीदी के पास जा पहुंचुं और पूछूं दीदी क्या बात है। तुम्हें क्या हो गया है, तुम क्यों अपने आप में इस तरह घुट रही हो। पर कुछ न हो सका। सब कुछ अन्तर्मन में ही उमड़ता घुमड़ता रहा।
टन-टन किसी घंटाघर के घडि़याल की आवाज सुनकर मैं चौंक गया। मेरे पैर सुन्न से पड़ गये थे। मैं खिड़की से टिका वैसी ही भूली बिसरी सी स्थिति में खड़ा था।
अनु दीदी उस कागज को ज्यों का त्यों गिलाफ में रखकर करवट बदल कर कभी की सो गयी थी। सिर्फ मैं ही जाग रहा था। नींद आंखों से मीलों दूर भाग गयी थी। आखिर इस पेपर में क्या लिखा था। शायद आगे मैं कुछ न सोच सका सोचना भी पाप था मेरे लिये। पर मैं उस पेपर को एक नजर देखना जरूर चाहता था।
कैसे मैं अनु दीदी के कमरे में घुसा, कैसे मैंने उस पेपर को गिलाफ के अंदर से निकाला और कैसे अपने कमरे में आया——-टनटन करके फिर घडि़याल की दूर से गूंजती हुई आवाज सुनाई पड़ी टेबिल लेम्प के पास आकर मैंने घड़ी में देखा तीन बज रहे थे। मुट्ठी में लिये हुए गिलाफ वाले पेपर को खोलकर देखा मुझे लगा मैं चक्कर खाकर गिर पडूंगा। सुन्न होते हुए पैरों के नीचे से जमीन धंसती हुई सी महसूस हो रही थी। यदि मैं टेबिल का सहारा न लेता तो जरूर गिर पड़ता। वह कागज का पुर्जा जिसकी तहों पर गहरी काली मैल की लकीरें सी बन गयी थीं मेरा ही वह लव लेटर था जिसे सालों पहले मैंने अपने अधकचरे यौवन और कैशार्य की वयसंधि की नादानी में अनु दीदी को लिखा था।
गुजरा हुआ वक्त भूला भी जाता है पर कुछ ऐसा भी होता है जो गुजर जाने के बाद भी एक अपना अहसास बनाये रखता है और वक्त दर वक्त कचोटता सा रहता है। दिल्ली लौटकर मैंने अनु दीदी को बहुत भूलने की कोशिश की। पर नहीं भूल सका। उनके स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिये कई बार पत्र भी लिखना चाहा। पर धीरेन दा की वह बात भी याद हो आती। और फिर मैं चाहकर भी पत्र नहीं लिख सका। अनु दीदी जितनी भूली न जा सकीं उससे ज्यादा कहीं याद आती रही। और फिर मैं चाहकर भी पत्र नहीं लिख सका। अनु दीदी जितनी भूली न जा सकीं—–उससे ज्यादा कहीं याद आती रही।
एक दिन आफिस में अचानक ही चपरासी ने एक टेलीग्राम और लेटर दिया। टेलीग्राम खोलकर देखा टेलीप्रिन्टर की प्रिन्टेड स्ट्रिप जैसे किसी नुकीली कील की तरह हृदय में चुभ गयी।
‘अनु दीदी एक्सपायर्ड———-नीरु’
मेरे सुन्न होते हुए हाथों से टेलीग्राम नीचे गिर गया साथ में लेटर भी। ‘साब क्या हुआ।’ चपरासी हक्का बक्का सा मेरी तरफ देख रहा था। पर मुझे इतना होश कहां था। मैं अपने चेम्बर में आकर टेबिल पर मुंह छुपा कर पड़ा रहा। क्या हो गया था मुझे। मैं नहीं जानता पर अंदर से उठती हुई हूक और रुलाई के आवेग को मैं किसी भी तरह से नहीं रोक पा रहा था।
इसी बीच किसी ने दरवाजा पर नॉक किया, मुझे कुछ होश सा आया। मैंने वाशबेसिन में मुंह धोकर दरवाजा खोला मेरा अस्टिेन्ट बाबू था ‘सर सॉरी टू डिस्टर्ब यू’ टेलीग्राम के साथ यह लेटर भी नीचे गिर गया था। चपरासी ने मुझे बताया तो बड़ा दुख हुआ। पर बड़े साब आपको याद कर रहे हैं, खैर आप चिन्ता न करें। मैं उन्हें समझा दूंगा। बी ब्रेव सर और बाबू टेलीग्राम और लेटर मेरी टेबल पर रखकर चला गया।
थैंक्स———लेटर देखने की मुझे जरा भी उत्सुकता नहीं थी——-और शायद मैं पढ़ता भी नहीं पर लिफाफे पर अनु दीदी की लिखावट देखकर मैं एकदम चौंक पड़ा। जल्दी से खोलकर देखा अनु दीदी का ही पत्र था।
अंकित जैसे तुम अचानक आये थे वैसे ही चले गये। प्रतीक्षित क्षण शायद ऐसे ही आते हैं और चले जाते हैं। कितना कुछ कहना चाहती थी तुमसे पर कुछ भी न कह सकी। समझ लो वह सब कहने का साहस ही चुक गया था। तुम्हारे जाने के बाद लगा शायद अब कभी तुम्हें देख नहीं सकूंगी। कुछ कह भी नहीं सकूंगी। सब कुछ मन में ही रह जायेगा। मन की यह छटपटाहट शायद मरने के बाद भी चैन नहीं लेने देगी। पता नहीं क्यों ऐसा लगता है बस इसीलिये लिख रही हूं।
अंकित कुछ रिश्ते अपने आप बन जाते हैं। कुछ थोपे जाते हैं। स्वीकार सब कुछ करना पड़ता है। कहीं मन की छुअन होती है तो कहीं नियति का खेल। फिर नारी जीवन तो लगता है जैसे नियति का खिलौना भर है और कुछ नहीं समाज द्वारा थोपे गये रिश्ते को मेरे संस्कारी मन ने ठीक समझा—–सब कुछ छूटने के बाद यदि कहीं जुड़ने का अहसास हो तो इंसान मर खपकर जी भी लेता है पर यदि वह भी न हो तो जिन्दगी जिन्दगी नहीं रहती। लाश बन जाती है, जिंदा लाश। तुम्हारी अनु दीदी बस वैसी ही जिन्दा लाश बन गयी थी।
तुम्हारे धीरेन दा पहले से ही जुड़े थे कहीं। एक दिन उन्होंने स्वयं मुझे अपनी सच्चाई से अवगत करा दिया——मेरे बचे खुचे सपने एक ही बार में टूट गये फिर भी एक पत्नी के नाते मैंने अपना अधिकार मांगना चाहा—-पर अधिकार के नाम पर पुरुष सिर्फ छलना ही चाहता है—–नारी को——–और धीरेन्द्र दा भी पुरुष थे मुझे छलते रहे।
सहने की एक सीमा होती है फिर नदी कगारों को तोड़कर बहना भी जानती है अपने आप में टूटकर मैं जैसे अतीत से जुड़ने लगी थी। अचानक लगा—–न चाह कर भी मैं तुमसे कहीं बहुत अंतरंगता से जुड़ गयी थी। क्यों, अपने आपको कोई जवाब नहीं दे पा रही हूं——-जो सच है वह सच ही है और मरते दम तक यह मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी सच्चाई होगी जिसे मैं मरने से पहले तुम्हें जरूर बताना चाहती हूं।
तुम्हारे अनजाने में मैंने भी वहीं खेल खेला——जलाने के लिये—-जो तुम्हारे धीरेन दा वास्तविकता के साथ खेल रहे थे। पुरुष अपना सब अधिकार समझता है पर नारी जब इसी अधिकार का दावा करती है तो उसके पौरुष और अहम को बहुत चोट पहुंचती है। तुम्हारे बारे में जानकर धीरेन दा को बहुत चोट पहुंची थी। ठीक उसी सांप की तरह जिसका मुंह भी कुचल दिया जाता है पर वह मेढ़ मारता है और जिन्दा रहता है।
तुम्हारी आंखों में जब अपने लिये आंसू देखे तो सच मन बहुत छटपटाया था पर लगता ——-बहुत देर हो गयी थी, कुछ लोग सच में बहुत अभागे होते हैं सब कुछ पाकर भी उनकी झोली खाली ही रहती है। पर हां तुम्हारे आंसुओं का दर्द न जाने क्यों मेरा अपना बहुत बड़ा सुख बन गया है बस इतना ही कहना चाहती थी। अंकित लगता है अब शांति से मर सकूंगी। प्यार और विश्वास सहित——-तुम्हारी————–अनु दीदी।
हाय राम—————ये क्या हो गया। अचानक नीरू की आवाज सुनकर मैं चौंक पड़ा। शून्य के धुंधलके में खोयी हुई आंखें जैसे एक बारगी सिहर कर यथार्थ से आ जुड़ी। अनु दीदी की टूटी तस्वीर खून से भींगकर मेरी अंगुलियों से चिपक गयी थी।
नीरू ने लपककर मेरी खून से चिपचिपाती हुई अंगुली को अपनी कोमल हथेलियों के बीच थाम लिया। कैसे लग गया और अनु दीदी की तस्वीर कैसे टूट गयी? नीरू विकल होकर एक ही सांस में सब कुछ पूछ गयी। मैं कुछ देर तक चुपचाप उसकी तरफ देखता रहा। समझ में नहीं आया क्या जवाब दूं फिर धीरे से अपने को सहेजकर मुस्कराता हुआ बोला——-कुछ नहीं वह तुम्हारा गौरेया का जोड़ा है न, परेशान कर रहा था। भगाने के लिए झाड़ू वाली छड़ी मारी तो उसकी जगह तस्वीर में जा लगी और आगे कहते-कहते मैं रूक गया।
मेरी आंखें अपने ही खून से भींगी हुई अनु दीदी की तस्वीर पर अटक गयी थी। सूखती हुई कोरें फिर गीली हो आयीं। एक ही तो स्मृति थी अनु दीदी की और वह भी——-मैंने झटके से दूसरी तरफ मुख फेर लिया। कहीं नीरू मेरी आंखों में आये हुए आंसू न देख ले—–शेवन्ती और बेला के फूलों की भूली बिसरी गंध जिसे बरसों से अपने अंतर की कोमल परतों में सहेज कर रखा था जैसे तिर-तिर कर बिखरने को हो आयी थी।
गौरेया का जोड़ा फिर खिड़की पर आकर अपनी चीं-चीं का राग अलापने लगा था पर अब उनकी तरफ देखने का साहस भी मुझ में नहीं रह गया था।