लेख गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’
अप्रैल, 2023
शिक्षा विशेषांक
बैलों की उपयोगिता घटने से संपूर्ण गोवंश पर संकट आ खड़ा हुआ है। अब गोवंश निराश्रित पशुओं के रूप में सभी के लिए एक बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। गाय की नर संतान अर्थात बछड़े (बड़े होकर बैल) होने के कारण लोगों ने गाय पालना बंद कर दिया है क्योंकि वे जानते हैं कि उनको पालकर करेंगे क्या। अस्तु, देश का शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जहां इन निराश्रित पशुओं के कारण यातायात बाधित न होता होगा। गांव और शहरों में उनके झुंड के झुंड खड़े या बैठे दिखाई देतेे हैं। वे खेतों में खड़ी फसलों को चर जाते हैं। इससे किसान को बहुत नुकसान होता है।
यदि समाज और शासन पुनः चेत जाए तो बैलों को लेकर (और संपूर्ण गोवंश) समस्या इतनी जटिल नहीं है जिसका सर्वमान्य और हितकारी हल न मिल सके। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भी भारत के 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में आधे से अधिक पर खेती बैलों से की जाती है। राष्ट्रीय पशु गणना के आंकड़े चौंकाने वाले हैं जिसमें बैलों की खेती की ओर लौटने का संकेत दिया गया है। छोटी जोत, महंगा डीजल, भारी यंत्र, महंगे ट्टण के चलते मशीनों से खेती करना अत्यंत व्यय साध्य हो गया है। अतः किसान बाप दादा के जमाने की परंपरागत खेती की ओर लौटने को विवश हुए हैं। किसानों की जोत लगातार छोटी होती जा रही है जिससे छोटे खेतों में मशीनों का उपयोग करना संभव नहीं हो पा रहा है। आधुनिक खेती के इस युग में बैलों का उपयोग घटने के बजाय बढ़ रहा है।
राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एन डी आर आई) के अनुसार खेतों में बैलों के उपयोग से वार्षिक 16 करोड़ रुपये की ऊर्जा की बचत हो रही है। इससे रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर होने वाला व्यय भी बचेगा और खाद्यान्न भी हानिरहित मिलेगा। बैलों की आवश्यकता को पूरा करना तभी संभव होगा, जब घरेलू देशी प्रजाति की गायों का संरक्षण और समुचित विकास हो, इसके बिना खेती के लिए उपयुक्त देशी बैल प्राप्त करना दुष्कर होगा। देशी नस्ल की गायों से ही अच्छे बैल मिलते हैं, विलायती क्रास प्रजाति के बछड़ों में कंधा नहीं होता जिस पर जुताई का जुआ रखा जा सके।
खेती में बैलों की बढ़ती उपयोगिता की जानकारी पिछली पशुगणना के ताजा आंकड़ों से हुई है। पशुधन में सर्वश्रेष्ठ बैलों से जुताई के साथ-साथ सामान की ढुलाई, सिंचाई एवं खेती के अन्य कार्य लिए जाते हैं। पिछले दशकों में खेती में मशीनों के बढ़ते उपयोग के चलते बैलों की उपयोगिता घटकर न्यून हो गई थी, लेकिन अब स्थिति पुनः बदली है और बैल खेती के लिए अपरिहार्य माने जाने लगे हैं।
किसान प्राकृतिक खेती कर सकते हैं जिसमें किसानों को बाजार से कुछ नहीं खरीदना पड़ेगा। रासायनिक खादों एवं जहरीली कीटनाशक दवाओं से इतर केवल एक देशी गाय की आवश्यकता होगी। गोवंश के गोबर और मूत्र से ही 10 से 30 एकड़ तक खेती कर स्वास्थ्यवर्द्धक अनाज पैदा कर दोगुणा लाभ कमा सकते हैं।
निराश्रित गायों और बैलों को गोशालाओं में रखा जाए जिनके गोबर से वर्मी और कंपोस्ट खाद बनायी जा सकती है जिसकी बिक्री से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है।
बैलों के गोबर के कंडे, उपले और डंडे बनाकर बेचे जा सकते हैं, इनका प्रयोग भट्ठी या चूल्हा जलाने में किया जा सकता है। इससे गैस इंधन की भी बचत होगी।
-अच्छे बैलों के द्वारा गोवंश की नस्ल सुधारी जा सकती है।
गोपालकों को घर में ही कंपोस्ट और वर्मी खाद बनाने के लिए जागरूक करना चाहिए जिससे वे बैलों के पालन के प्रति उन्मुख हों। उत्पादों की बिक्री का घर से ही की जाए जिससे उनकी नियमित आय हो सके।
-लोगों को बैलों से प्राप्त गोबर से बायो गैस संयंत्र लगाने के लिए प्रेरित किया जाए जिससे रसोई गैस की बचत हो और जैविक खाद बनाई जा सके।
गृहस्वामी को एक घर एक गाय जैसी योजना में योगदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इसके लिए उन्हें सरकारी अनुदान दिया जाए। इससे शुद्ध दूध उत्पाद मिलेंगे, परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य बनेगा। बछड़ा या बछिया बड़े होने पर किसी गोपालक को दिया जा सकता है अथवा सीधे गोशालाओं में पहुंचाया जा सकता है।