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पितृ ऋण

जिस-किस तरह जब मेरा नंबर आया, फौरन डाक्टर देसाई के कमरे में घुस गया। खड़े-खड़े उन्होंने एक्सरे अपनी सफेद मशीन पर लगाया और सरसरी निगाहों से देखने लगे, गीता को दोबारा चेकअप के लिए लिटाया। दो एक विलायती मशीनों से देखते रहे फिर कहने लगे, ‘मेरे कई बार कहने पर भी आपने कम्पलीट चैकअप नहीं कराया अब भुगतो। इनका केस काफी गंभीर हो गया है। जल्दी आपरेशन न किया तो जान को खतरा है। वैसे हम अपनी ओर से बचाने की पूरी कोशिश करेंगे।’ सुनकर मैं सुन्न हो गया, जैसे मेरे शरीर से सारा खून किसी ने ले लिया हो। टांगे थरथराने लगीं, ‘क्यो, ऐसा क्या हो गया?’ ‘पेट में कैंसर का फोड़ा पनप चुका है,’ वह रूखेपन से बोले।
मैंने जिन्दगी में बहुत मोड़ देखे हैं। बड़ा कुछ सहा है, पर यह असहनीय था फिर भी कांपते हुए पूछा, ‘कुल कितना खर्च आ जाएगा?’
‘कोई ढाई तीन लाख रुपए, इन्हें जल्दी से जल्दी भर्ती करा दीजिए। इस बीमारी में जितना देर करेंगे उतना ही खतरा है। कल परसों में ही ले आइएगा। फिर थोड़ी गंभीरता से बोले, ‘दो दिन की दवाई और एक इंजेक्शन दिए देता हूं, बाकी ईश्वर छोड़िए।’
एक तो कैंसर उस पर जल्दी आपरेशन और इन सब के ऊपर फौरन तीन लाख का प्रबन्ध———मैं समझ गया इस डाक्टर को अवश्य कोई बड़ी रकम की जरूरत आन पड़ी है जो इसने मुझे हलाल करने की बात सोची है।
मेरा घर इस नई कालोनी में सबसे घटिया और पुराना होने पर भी मेरे लिए स्वर्ग से कम नहीं है। जब मैंने बनाया तब इस कालोनी को कोई पूछता नहीं था। मैंने गीता के गहने बेच तथा कुछ उधार लेकर किसी तरह एक कमरा डाल लिया था। एक दूसरा कमरा बाद में बनाया परन्तु बहुत कुछ नहीं कर पाया। छत अभी भी ‘एस्वेस्टस’ की ही है। बच्चों के खर्चो से कभी राहत ही नहीं मिली। पुराना होने से लगभग सभी लोग यहां मुझे जानते हैं।
उस एक्सरे और सारी रिपोटर््स को लेकर कालोनी के एक डाक्टर के पास गया और हंस कर कहा, ‘आपरेशन के तीन लाख मांगता है’ परन्तु जब डाक्टर शर्मा ने उसकी सत्यता प्रमाणित की तो पैरों तले जमीन खिसकती प्रतीत हुई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि डा- देसाई सच बोल रहा है। न तो मुझे पेंशन का सहारा है और न ही कुछ और जमा पूंजी है। मेरा गुजारा ट्यूशन से चल जाता है। क्या मालूम था कि इस आयु में इतने रुपयों की जरूरत पड़ सकती है। हांफता हुआ मैं घर जाकर कुर्सी पर बैठ गया। गीता तब तक इस योग्य हो चुकी थी कि चाय पिला सके। उसका पेट दर्द इस समय कम था। वह मेरे पास ही बैठ गई। मुझसे धीरे से बोली, ‘मुझे सब मालूम है——-अपने मन पर यूं बोझ न रखो—–बस बच्चों को संदेश भेज दो।’
मैं गीता को यूं तिल-तिल मरते नहीं देख सकता था। स्थिति से विवश हो डाकखाने जाकर बेटी को तार दे दिया। वह दूसरे शहर में रहती थी। दोनों बेटों से फोन पर बातें की, यह भी साफ-साफ कह दिया कि अब जो कुछ भी है, तुम दोनों को ही करना है।
मुझे और गीता को इस उम्र में अपने ऊपर खर्च करना न अच्छा लगता है, न ही यह संभव है। बल्कि यही इच्छा रहती है कि बच्चों को पिन्नियां बनाकर दे दिया करें। पिछली बार अपनी स्वेटर का मोह छोड़ यही किया था। आखिर हर बाप अपने बच्चों के लिए अपनी सामर्थ्य से अधिक करता है।
सीधा जाकर रजाई में घुस गया। गीता ने पूछा। ‘बच्चों को कह दिया है?’
‘हां कमला को भी तार दे दिया है।’
‘कमला को भला तार देने की क्या जरूरत थी। बेचारी का छोटा बच्चा है, उसके पति का नया-नया काम है तार पाकर तो घबरा ही जाएंगे।’
‘ठीक है, अब तुम लेटी रहो।’
‘अब इन बूढ़ी हड्डियों में क्या रह गया है जो आपरेशन की सोच रहे हो। फिर इतना खर्च भी हो जाएगा भला क्या फायदा?’ गीता बोली।
मैंने उसकी बात सुनी अनसुनी कर दी। सोचने लगा। बच्चों को सब कुछ बताकर कोई गलती तो नहीं की। आखिर मैंने ही तो अपना पेट काटकर इनको इस लायक बनाया है कि वे अपने पैरों पर खड़े हो सके। इसके लिए मेरा स्वार्थ तो कहीं निहित नहीं। किस-किस तरह बड़े की पढ़ाई से नया काम खोलने तक पूरा पैसा लगाया। शायद उतना ही छोटे की पढ़ाई तथा लड़की शादी पर लग गया। जिस दिन से उसकी बैंगलोर टेªनिंग पर भेजा, मेरा बजट तो तभी से बिगड़ गया था। मेरी जिन्दगी में मेरा हाथ तो सदा तंग ही रहा। इसका असर बच्चों पर क्यों पड़ने दूं। आखिर मेरा सब कुछ भी तो इन्हीं का है। बड़े को तीन हजार की नौकरी मुश्किल से मिली। छोटा अच्छा रहा सीधी बैंक की नौकरी मिल गई।
इससे पहले कि बड़े की तरक्की होती और हम शादी की सोचते उसकी नौकरी जाती रही। मालिकों ने बाहर से कमीशन लेने के इल्जाम में उसे निकाल दिया था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि इतने कम रुपयों में उसका गुजारा नहीं होता था। सो सोचा कुछ रुपया इकट्ठा करके अपनी दुकान खोलेगा। सारी कालोनी में नजरें मिलाकर निकलना भारी हो गया। पड़ोसियों ने हमारे घर आना-जाना बंद कर दिया। फिर कलेजे पर पत्थर रखकर मैंने जिस-तिस तरह अपने मालिकों से कुछ उधार लिया। शहर में छोटी-मोटी एक दुकान डाल दी। बदनामी के कारण वह वहीं रहने लगा।
दरवाजे पर लगी घंटी तेजी से बजी तो मेरी तन्मयता भंग हो गई। बाहर तक पहुंचा। ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चे आए थे। मैंने घर जाने को कह दिया। गीता मेरे कभी-कभी न पढ़ाने के सदा ही खिलाफ रही है। परन्तु आज वह चुप थी। फिर कहने लगी, ‘मुझे थोड़ा सहारा लेकर उठा दो। तुम्हारे लिए कुछ खाने को बना दूं।’
‘नहीं। तुम रहने दो। बाजार से डबलरोटी ले आता हूं। तुम भी दूध में भिगो-भिगो कर खा लेना।’
उस दिन सवेरे घंटी बजी तो दूध के डिब्बे को लेकर दरवाजा खोला। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही। मैंने अपने दोनों बच्चों को सामने देखा। मेरे मन से एक बोझ सा उतरता प्रतीत हुआ। गीता ने सुना। उसकी बहुत दिनों से बच्चों से मिलने की चाहना थी। मैं गीता के सामने कुछ बात नहीं कहना चाहता था। इसलिए उनके चाय पीते-पीते उनको बड़े कमरे में बुला लाया। गीता रजाई ओढ़ कर पड़ी रही।
बात साफ-साफ बच्चों को फिर बता दी और कहा ‘अब तुम्हीं दोनों को सब कुछ करना है। मैंने आज तक तुम दोनों से कभी कुछ नहीं मांगा। मुझसे जो कुछ बन पाया तुम दोनों के लिए किया। मेरी इतनी हालत नहीं कि तीन लाख रुपए खर्च कर सकूं। मेरा तो सहारा अब तुम्हीं हो। कहकर रूआंसा हो उठा।
थोड़ी देर तक खामोशी छाई रही। वह तोड़ी छोटे बेटे ने। उसने कहा पिताजी इतने कम समय में इतना रुपया हो पाना तो मुश्किल है। मेरी हालत तो आप अच्छी तरह जानते ही हैं। बैंक से मैंने लोन ले रखा है। अगर सात आठ दिन का समय मिल जाता तो पचास साठ हजार रुपए तक कर देता।’
इससे भी साफ और सरल ढंग से समझाया मुझे बड़े बेटे ने,’ ‘फिलहाल इस बड़े आपरेशन को रहने देते हैं। मैं डाक्टर से स्वयं बात कर लेता हूं कि वह गोलियों से इस रोग को दूर करने की कोशिश करें। फिर मान लीजिए मां इस आपरेशन से ठीक हो भी गई तो बाकी जिन्दगी कितना रिस-रिस कर जिएंगी। आप जानते ही हैं कि व्यापार से पैसा निकालना कितना मुश्किल है।’
मैं सब बातें सुनकर सन्न रह गया। मेरी उंगलियों की पोरों का खून जमना शुरू हो गया। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि छोटे ने जो लोन लिया था वह वापिस कर दिया है। बड़े का काम इतना अच्छा चल रहा है कि उसने पिछले ही दिनों नई कार खरीदी है। यदि मैं दिल का मरीज होता तो हार्ट फेल तो हो ही चुका होता। मुझे लगा कि मैं अपने ही बेटों से उनकी मां के जीवन के लिए कुछ रुपयों की भीख मांग रहा हूं और वह मुझे दुत्कार रहे हैं।
मुझसे वहां रुका नहीं गया। गीता ने जैसे सब कुछ सुन लिया था। उसकी आंखों में आंसू थे। क्या इसी दिन के लिए लोग ईश्वर से बेटे की कामना करते हैं। क्या मेरे किए का यही प्रतिकार है। मेरा दिमाग फटने लगा। परन्तु अब मेरे पास कहने को कुछ शेष नहीं बचा था। अचानक मुझे स्मरण हो आया। मेरे पास कोई जेवर तो नहीं। हां मकान के कागज थे जो गीता के नाम थे। वह कागज ट्रंक से निकाले और गीता के हस्ताक्षर कराकर अपने बड़े बेटे को दिए।
निराश होकर कहा, ‘इन पर तो इतना लोन मिल ही जाएगा। तुम तो व्यापार में हो। जिस किस तरह करके तुम इन पर रुपयों का प्रबन्ध करके अस्पताल पहुंचो, मैं गीता को लेकर वहीं जाता हूं। छोटे को कहा तुम घर जाओ। जब आपरेशन थियेटर के बाहर सांस रोके खड़ा रहा। परन्तु जिस बात का डर था वही हुआ। गीता बच न सकी। मेरा एक लंबा सहारा टूट गया। उसके पार्थिव शरीर को ठीक से देख भी न पाया था कि चार कन्धे उसे उठा कर ले गए। पचास सालों के साथ को पचास मिनट भी न रख पाया। बेटों के रवैये से पता चल चुका था कि अब मैं एकदम अकेला ही रह गया हूं। स्वयं को बड़ा निस्सहाय सा अनुभव कर रहा था। सब कुछ वीराना सा अनुभव कर रहा था। सब कुछ वीराना सा लगने लगा।

कुछ दिनों तक चिर-परिचितों का आना जाना लगा रहा। धीरे-धीरे वह भी समाप्त हो गया। दोनों बेटे भी अपनी मजबूरियां जतला कर मुझे अकेला छोड़कर चले गये। फारमेलिटी के तौर पर जाते-जाते पूछ जरूर लिया था, ‘बाबूजी कहिये तो कुछ दिनों के लिए यहां और रह जायें। आप तो जानते ही हैं लंबी छुट्टी अब और संभव नहीं है।’
‘नहीं बेटा।’ मेरा स्वर कठोर हो गया था, ‘इसकी कोई जरूरत नहीं, मैं अपना निर्वाह स्वयं कर लूंगा।’
‘अच्छा बाबूजी, अपना ख्याल रखना कुछ जरूरत हो तो फोन कर देना।’
यदि वे अपने साथ ले जाने को कहते तो शायद मैं तब भी नहीं जाता परन्तु उन्होंने न पूछकर मेरे शब्दों और भावनाओं की लाज रख ली। मेरे पास केवल कमला और उसका पति रह गये। दोनों बेटों के जाने का दुःख मेरे साथ शायद दामाद जी को भी हुआ। बार-बार प्रार्थना करते रहे कि मैं उनके साथ चल कर रहूं। सदा के लिए नहीं तो कुछ दिनों के लिए ही सही। परन्तु मैं गीता की यादों की मीठी छांव में यही रहना चाहता था। मैंने कई बार हंस कर टाल दिया पर उस दिन तो वे दोनों जिद पर ही उतर आये। लड़की के घर जाना ठीक सा नहीं लगा। समझ गयी थी वह बोली, ‘बाबूजी। सामाजिक परंपराओं को छोड़ दीजिये। अब क्या रखा है इनमें, जो सुविधाजनक एवं स्वयं को भाये वही करना चाहिए।’ चाहिए तो यह था कि बेटे एक-एक करके——————–।
मैं अपने आंसू संभाल नहीं पाया। पीड़ित मन का बोझा ढोते हुए बैठ गया। ‘बाबूजी’ वे दोनों भावुक से हो गये। बात को टालते हुए मैंने बताया।
‘इस मकान को गिरवी रखवाकर मैंने कुछ लोन लिया है। गीता का इलाज भी उसी से चलता रहा। यही आखिरी अमानत थी गीता की। उसका बोझ है मुझ पर उसको उतारने के बाद ही कुछ सोचूंगा।’
एक दिन दामाद जी सुबह नजर नहीं आये तो पूछने पर कमला ने बताया कि काम से घर गये हैं, कल तक आ जायेंगे, मैंने कमला के सिर पर हाथ फेर कर समझाया कि अब तू भी वापिस घर लौट जा। वह टाल गयी। मुझे बड़ा अटपटा सा लगा। परन्तु मानस पटल के सारे विचार एकदम झंकृत हो उठे, जब दामाद ने आकर मकान के सारे कागज मुझे देते हुए कहा, ‘लीजिए अब तो सारे बोझ का निबटारा हो गया। अब तो कुछ दिन हमारे साथ बिताइये। बाबू जी हमें आपकी बहुत जरूरत है, आपको यहां अकेला देखकर हमें कभी चैन नहीं मिल सकेगा।’
‘परन्तु ये सब कागज तो मैंने——’ मैं सकपका गया।
‘जी बाबू जी—————–बड़े भैया से सारे कागज ही लेने गया था। थोड़ी देर में बड़े ही मधुर स्वर में उन्होंने कहा, ‘चार पांच लाख रुपये की जरूरत थी तो कमला से कह दिया होता आखिर दामाद भी तो बेटों की तरह ही होते हैं।’
‘चार-पांच लाख————मैं चौंका। हैरानगी कम और दुःख ज्यादा पहुंचा।
‘हां भैया कह रहे थे कि इतना ही लोन लिया था आपने।’
मेरे होश उड़ गये। सारी स्थिति धीरे-धीरे समझ में आने लगी। बेटे उस दिन मां के ठीक होने का नहीं, मरने का इंतजार कर रहे थे। घर में हिस्सा चाहते थे जो ले गये। आपरेशन थियेटर में जाते समय बहुएं कैसे बिलख बिलख कर रो रही थी। पांव छूने के बहाने भीतर गयी तो तन के सारे गहने ही शायद वहीं उतरवा लायी हों। उसके पार्थिव शरीर को जब लेकर लौटा तो गहने न देखकर बेटों से पूछा भी था। दोनों ने अनभिज्ञता जतलाई थी। हैरानगी थी कि उन्होंने जाकर अस्पताल में कभी कुछ नहीं पूछा। कहा था ‘अब कहां मिलेंगे।’
और इस बेटी यह, जिसे मैंने कभी ठीक से पढ़ाया तक नहीं। वह इतना कुछ कर रही है। वह भी निःस्वार्थ। परायी अमानत समझकर कभी ठीक से व्यवहार नहीं किया, अलग-अलग व्यवहार रखा उसके और बेटों के साथ। क्यों बेटों की कामना की थी मैंने।
कमला और दामाद जी मेरी ओर हसरत भरी निगाहों से देखते रहे। अतीत की कसैली यादों को भूलने के लिए मैंने मौन स्वीकृति दे दी।
अब मैंने मकान अपनी बेटी के नाम कर दिया है। मैं अपनी बेटी के साथ रहता हूं, परन्तु पता नहीं क्यों मैं अपने आप को बहुत कर्जदार पाता हूं। मैं नहीं जानता यह पाप है या पुण्य, गलत है या ठीक। यदि किसी धर्म पुस्तक में लिखा है कि लड़की के घर का खाना पाप हैै तो मैं पापी हूं। शायद उस अपराध बोध से कभी छुटकारा न पा सकूं।

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