पिछली रात जब वे सोए थे, आकाश बिल्कुल स्वच्छ था। स्वच्छ और निर्मल अपनी संपूर्ण नीलिमा के साथ अपने अनन्त विस्तार में, असंख्य झिलमिलाती तारिकाओं को समेटे हुए।
किन्तु श्रुति और शशांक दोनों के लिए सोने का वह उपक्रम मात्र अभिनय था। नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी। आती भी कैसे? उन दोनों के ही सामने कल्पना में वह प्रायः तीन वर्षो का पूरा घटना चक्र बार-बार आकार ग्रहण कर रहा था।
‘मधु सो गई क्या?’ बरामदे में वे दोनों कुर्सियां डालकर बैठे थे। ‘हां सो गई’ श्रुति ने शशांक के प्रश्न के उत्तर में कहा था।
‘स्कूल जाती है?’ पुनः पूछ रहा शशांक। ‘अभी नहीं, चार वर्ष की पहली फरवरी को होगी।’ फिर शशांक चुप हो गया था।
शशांक की उस चुप्पी का मर्म जानती है श्रुति। वह यह भी जानती है कि शशांक कुछ और कहना चाहता था, किन्तु उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। कहना तो श्रुति भी चाहती थी, काफी कुछ। कितना कुछ था जिसे शशांक के साथ कहने का श्रुति का मन हो रहा था। किन्तु श्रुति समझ ही नहीं पा रही थी वह कहां से शुरू करे? क्या कहे? कभी-कभी भाषा भी कितनी गूंगी हो जाती है। मन की बातें मनुष्य कह ही नहीं पाता। इसी ऊहापोह में वे दोनों काफी देर तक यों ही बैठे रहे थे। मधु का सूत्र पाकर शशांक ने ही उस मौन को तोड़ा था। किन्तु फिर उन दोनों के बीच एक दीर्घ मौन पसर गया था।
श्रुति और शशांक की वह भेंट अप्रत्याशित और आकस्मिक ही हुई थी, कदाचित होती ही नहीं, यदि श्रुति ने ही उसे लिफ्रट में उतरते-उतरते न देख लिया होता।
‘गेलेक्सी’ की चौथी मंजिल पर कांफ्रेंस हाल में कोई सेमीनार चल रहा था। नारी समस्याओं से संबंधित वह कोई सेमीनार था, किसी स्वैच्छिक संस्था से जुड़ी है श्रुति। उसी सेमीनार से लौट रही थी श्रुति और श्रुति ने शशांक को लिफ्रट में खड़ा पाया था। बटन दबाते ही लिफ्रटमैन ने लिफ्रट रोक दी थी और श्रुति उनमें दाखिल हुई थी।
ग्राउण्ड फ्रलोर पर आते-आते श्रुति ने पहचान लिया था। हां, वह शशांक ही है। इन तीन वर्षो में कुछ भी तो बदला नहीं है। वैसा ही क्लीन शेव चेहरा, बेधती हुई पैनी दृष्टि और मुख पर फैला हुआ दृढ़ता का भाव, शशांक की कनपटियों के बाल जरूर सफेद हो चले थे। अब तक वे दोनों लिफ्रट से निकलकर गेलेक्सी के लाउंज में आ खड़े हुए थे। लाउंज के केफेटेरिया में अब भीड़ नहीं थी-दो चार लोग ही बैठे बतिया रहे थे। आज टैक्सी की हड़ताल है? कोई पूछ रहा था। ‘हां हड़ताल है।’ दूसरा उत्तर दे रहा था। ‘फिर भी इक्का-दुक्का चल रही है।’ पहले स्वर ने आश्वस्त किया था। ‘लेट अस सी।’ दूसरा फिर इत्मीनान से काफी पीने लगा था।
‘वुड यू माइंड ए कप ऑफ काफी?’ पूछ रहा है शशांक। ‘मैं शशांक हूं, शशांक आचार्य,’ तो शशांक ने उसे सचमुच नहीं पहचाना है? आज कुछ सर्दी ज्यादा ही है। श्रुति ने अब पर्स से निकालकर अपना स्कार्फ से बालों को ठीक कर बांध लिया है।
मैं आपको पहचानती हूं।’ श्रुति कह रही है। ‘मुझे? आप’ ‘—-अरे, तुम श्रुति।’ ‘हां मैं ही हूं। श्रीमती श्रुति आचार्य।’
पिछले तीन वर्षो से श्रुति अपने नाम के साथ आचार्य शब्द को ढो रही है। वैसे इस शब्द का अब श्रुति के लिए कोई प्रयोजन ही नहीं रह गया था। श्रुति आचार्य कहना कितना अवास्तविक लग रहा था। ‘कितना आकस्मिक है हम लोगों का मिलना?’ कह रहा था शशांक।
‘जीवन में सभी कुछ आकस्मिक नहीं होता। हमारा जन्म कहां होता है? कहां हम रहते हैं? कहां किससे मिलते हैं, और कब मिलते हैं, क्या यह सब पूर्व निर्धारित नहीं है? फिर तीन वर्षो बाद आज ही हम क्यों मिले हैं, पहले क्यों नहीं।’ सहज भाव से श्रुति कह रही है।
‘इट्स रियली ए प्लेजेंट सर्पराईज।’
शशांक को रोमांच हो रहा है। किन्तु श्रुति किंचित भी रोमांचित नहीं है। श्रुति के सामने वह पुरुष खड़ा है, जिसके कारण उसे पीड़ित और शोषित होना पड़ा था। डायवोर्स के लिए वकील के घर और कोर्ट के वे अनेक चक्कर, फिर किसी प्रकार कोर्ट का वह निर्णय श्रुति के पक्ष में। एक वर्ष की अपनी बेटी मधु को साथ रखने की कोर्ट की वह अनुमति। मधु का साथ जरूर, किन्तु भीतर से टूटने और एकाकीपन का वह गहरा एहसास। वे मौन यातनाआें भरे दिन—वही पुरुष उससे मिलकर आनन्दित होने का मुखौटा लगा रहा है।
श्रुति को याद है, मुखौटे लगाने और बदलने में शुरू से चतुर रहा है शशांक। श्रुति को ‘टाइम्स’ में दिया हुआ वह विज्ञापन भी याद है, जिसे उसने डायवोर्स होने के एक वर्ष बाद ही दिया था-‘वान्टेड सूटेबल, ब्यूटिफुल, मेच फॉर ए फॉर्टीईयर्स डायवर्सी। फोर फिगर सेलरी। कास्ट नो वार—–।’ शशांक की दूसरी पत्नी कैसी होगी, कैसे उससे निबाह रहा होगा शशांक? निबाहना तो श्रुति ने भी चाहा था। श्रुति का शशांक के साथ वह प्रेम विवाह ही था। वे दोनों एक जाति के भी नहीं थे। किन्तु विवाह के तत्काल बाद ही श्रुति ने महसूस किया था शशांक का वह प्रेमी वाला चेहरा उधार का था, और फिर उसकी क्रूरताएं शुरू हो गई थी। पुरुष वर्चस्व की क्रूरताएं। अन्य पुरुषों की तरह शशांक भी उसे भोग्या ही समझता रहा था। जीवन को गति और ऊष्मा प्रदान करने वाला वह प्रेम कहीं था ही नहीं? वह शशांक की प्रॉपटी बनकर नहीं रह सकती थी। तू तो शशांक से प्रेम करती थी? करती थी न? फिर यह तलाक की सोच रही है?’ मां ने आश्चर्य से पूछा था। मां के लिए प्रेम का वही पुराना अर्थ था, उसके अपने समय का अर्थ, सेवा, समर्पण, बलिदान तथा पीड़ा सहने वाला परम्परावादी अर्थ। ‘फिर जहां दो बर्तन होते हैं, वे खटकते ही हैं। पति पत्नी के बीच कैसा झगड़ा? तूने अपने पापा को तो देखा ही था। वे कितने क्रोधी और उतावले स्वभाव के थे। पर मैंने सब कुछ सहा कि नहीं। मैं जानती थी, उनका गुस्सा थोड़ी देर का ही होता था।
मैं यह भी जानती थी, वे उतने ही उदार थे और प्रतिबद्ध।
श्रुति ने सब कुछ सुनकर कहना चाहा था-प्रेम, उदारता और प्रतिबद्धता ये सारे शब्द कभी के जड़ हो चुके हैं मां और उनकी परिभाषाएं बदल चुकी हैं। अब पति सेवा एक विवशता है। उस सब में वह तुम्हारी और पापा वाली अब आत्मा की स्निग्घता है ही कहां? किन्तु श्रुति ने कहा नहीं। ‘तुम्हारी बात और थी मां?’
‘मेरी बात और क्यों थी? मैं भी तो उसी हाड़ मांस की बनी हुई थी, जैसी तू है। मुझमें भी एक हृदय था, एक मन जैसा तेरा अपना है। मुझमें और तेरे पापा में जब बहस होती थी, कभी वे चुप हो जाते थे, कभी मैं। और फिर मैं हंस पड़ती थी, हमारे बीच का सारा तनाव जाता रहता था। सारे तनाव आपसी समझ की कमी और परस्पर अविश्वास से जन्म लेते हैं बेटी।’
मां ठीक ही कह रही थीं-सोच रही थी श्रुति। सचमुच शशांक को श्रुति पर विश्वास था ही कहां? श्रुति का सुन्दर होना, सुन्दर और आकर्षक उनके दाम्पत्य का सबसे बड़ा अभिशाप जो था। उसकी अनुपस्थिति में श्रुति से मिलने कौन आता है, वह कहां जाती है, वह किसे पत्र लिखती है? उसके पास किसके पत्र आते हैं, पत्नी की जासूसी करने में ही शशांक अपनी सारी शक्ति लगा रहा था, कि कब ठोस सबूत उसे मिले और कब?
और शशांक ने एक ठोस आधार पा ही लिया था, अपनी शंकाओं का औचित्य सिद्ध करने के लिए। वह आधार था उसका अपना कलीग सहगल, श्रुति और अरुण की दूसरी मुलाकात में ही पूछा था शशांक ने, ‘तुम अरुण को कब से जानती हो?’
‘यह प्रश्न आप क्यों पूछ रहे थे?’
‘इसलिए कि अल्प परिचय में ही कोई किसी से इतना अनौपचारिक नहीं हो जाता, जितनी तुम हो गई थी।
‘तो सुनो, हम दोनों न कभी साथ पढ़े थे, और न रहे थे। मैं उसे जानती भी न थी। फिर भी हमारे विचार काफी मिलते थे। एक दूसरे के विचारों से। वी शेयर सिमिलर वेल्यूज। इससे अधिक कुछ भी नहीं।’
‘दिस इज ऑल रबिश। तुम झूठ बोल रही हो। अरुण सहगल तुम्हारा पूर्व प्रेमी है। और वह बात तुम मुझसे छिपाती रही हो।’
‘ठीक है। यही सही। आई एम नॉट योर प्रोपर्टी कि मैं किसी से हंस बोल भी न सकूं, या बात भी न करूं। फिर आप किस किसको लेकर यही आरोप नहीं लगाते रहे हैं?’
फिर कई दिनों अरुण उनके यहां नहीं आया था। एक दिन श्रुति ने पूछ ही लिया था-‘क्या अरुण का कहीं ट्रांसफर हो गया है?’
‘नहीं। ट्रांसफर नहीं हुआ है। मैंने ही उसे आने को मनाकर दिया है।’
‘उन्हें मना कर आपने उनकी ही नहीं, मेरी भी बेइज्जती की है। मेरे प्रेम की बेइज्जती की है।’
‘प्रेम तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देता यह शब्द।’
‘इसी प्रेम को लेकर तुमने मुझे ठगा है श्रुति। अब उसी प्रेम से अरुण सहगल को ठगना चाहती थी। दरअसल वह प्रेम नहीं, तुम्हारी कामेच्छा थी।’
‘तुम आइने में अपना ही मुंह देख रहे हो शशांक।’
किन्तु दोषारोपण का यह अध्याय यहीं नहीं समाप्त हो गया था। ‘अपना बाजार’ डिपार्टमेंटल स्टोर से निकल ही रही थी श्रुति कि अप्रत्याशित रूप से अरूण मिल गया था। परस्पर अभिवादन और कुशल क्षेम के पश्चात वे दोनों उसी केफेटेरिया में चाय पीने बैठ गए थे।
‘तुमने तो आना ही बंद कर दिया अरूण?’ पूछ रही थी श्रुति।
‘हां, समय ही नहीं मिलता।’
‘अब तुम अपना विवाह कर डालो। कब तक कुंआरे रहोगे? क्या तुमने किसी लड़की से अब तक प्रेम नहीं किया?’
‘प्रेम’ अरुण सहगल हंस पड़ा। ‘क्या प्रेम की परिणति विवाह में ही होती है सदा?’
श्रुति ने अरूण के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। घड़ी देखकर बोली-‘ओह, आठ बज रहे हैं। मुझे अब चलना चाहिए।’
‘क्यों, शंशाक तुम्हारी राह देख रहा होगा, यही न?’
शशांक क्यों मेरी राह देखेगा अरुण? राह तो मैं तुम्हारी देखती रही हूं। पता नहीं, मानसिक और भावात्मक रूप से जिस प्रकार मैं स्वयं को तुमसे जुड़ा अनुभव करती हूं वैसा शशांक से क्यों नहीं करती? कहना चाहा था श्रुति ने किन्तु कहा नहीं। तो अरुण सहगल ने भी किसी से प्रेम किया है। किन्तु उससे विवाह क्यों नहीं किया? कितनी अभागी रही होगी वह लड़की? घर लौटते-लौटते स्वयं से पूछ रही थी श्रुति।
अपने घर लौटकर न जाने कैसे श्रुति ने शशांक से कुछ नहीं छिपाया था, सब कुछ उसे बता दिया था। सब सुनकर शशांक ने कहा था-‘मैं जानता था, तुम अरुण से बिना मिले नहीं रह सकोगी। मेरा शक सच निकला।’ सुनकर श्रुति ने शशांक से कोई बहस नहीं की थी। अपने इस प्रेम विवाह से अन्तिम बार उसका विश्वास उठ गया था।
‘मैं तुम्हें छोड़ ही रहा हूं। तुम मजे से अरूण सहगल से विवाह कर लेना। और मधु को मैं पाल लूंगा।’ यह सुनकर श्रुति चकित रह गई थी। कोई पुरुष इतना क्रूर भी हो सकता है।
‘सो ए सरपराईज टू मी’-कह दिया श्रुति ने। ‘मैंने कल्पना नहीं की थी कि तुम इस प्रकार मिल जाओगे। तुम्हारी पत्नी कहां है-साथ आई है?’ अब वे दोनों कॉफी पीने बैठ गए थे।
‘नहीं, वह नहीं आई है। कंपनी के काम से मैं ही अकेला आया हूं। एग्जीक्यूटिव की जोनल मीटिंग थी। ऊपर छठी मंजिल पर हमारा आफिस है।’
‘अब कहां जाएंगे?’ ‘कहां जाऊंगा, तय नहीं है। शायद किसी होटल में। रात वहीं काट लूंगा। सुबह की फ्रलाइट से मुझे लौटना है।’
‘और सामान?’‘सिर्फ यही ब्रीफकेस है।’ शशांक हंस पड़ा। ‘होटल में क्यों, घर चलिए।’
‘तुम्हारे घर? आई मीन——?’
‘नहीं, वह घर मैंने बदल लिया है। इतने बड़े घर का क्या करती? घर में मैं और तीन साल की मधु ही तो है। उसे तारा रखती है। तारा मेरी आया है। घर छोटा जरूर है, पर तुम्हें असुविधा नहीं होगी।’
और न जाने किस आकर्षण में बंधा हुआ शशांक श्रुति के साथ हो लिया था।
उन दोनों के पहुंचते ही श्रुति ने तारा को घर भेज दिया था। फिर स्वयं ही खाना बनाने किचन में घुस गई थी।
‘बाथरूम में मैंने गीजर ऑन कर दिया है। धुला तौलिया रख दिया है। तुम नहा लो।’
शशांक को याद आ रहा है, श्रुति ऐसे ही गीजर ऑन कर आवाज देती थी। शशांक के साथ मधु कुछ देर खेलती रही थी। फिर दूध पीकर न जाने कब सो गई थी। नहा कर वह दोनों खाना खाने बैठ गए थे। शशांक ने देखा, खाने में वैसा ही आलू का भुर्ता था, पूरियां और आम का आचार। एक कटोरी मीठा दही। सब उसकी पसंद की चीजें थी। तो श्रुति को सब कुछ याद है। वह कुछ भी भूली नहीं है। ‘मधु सो गई क्या?’ खाना खाकर पूछ रहा था शशांक।
सुबह के चार बजे ही उठ बैठा था शंशाक। उसे छः बजे की फ्रलाइट पकड़नी है। शशांक जा रहा है। उसे जाना ही है। ‘मैंने चाय का पानी रख दिया है। तुम तैयार हो जाओ। श्रुति सदा की तरह कह रही है। साथ-साथ चाय पीकर वे नीचे उतर आए हैं, कौन जाने वहां से एक बदली आकाश में घिर आई है और बूंदा-बांदी शुरू हो गई है, धरती से सुवास उठ रही है वर्षा की।
‘जरा सी बारिश है, अभी-अभी रूकी जाती है।’ अपनी हथेली बरामदे से बाहर निकाले हुए कह रही है श्रुति।