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चिकित्साशास्त्र के जनक आचार्य चरक

जाह्नवी जनवरी 2023 युवा विशेषांक

आचार्य चरक भारतवर्ष ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व में एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में जाने जाते हैं। उनकी गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है। उनका जन्म ईसा से 200 वर्ष पूर्व हुआ था। चरक के विषय में व्यक्तिगत रूप से अधिक जानकारियां नहीं मिलती। माना जाता है कि वे किसी ट्टषि के पुत्र थे। वे दूर-दूर तक यात्र करते थे और रोगियों की चिकित्सा सेवा में संलग्न रहते थे। चरक संहिता में कई स्थानों पर उत्तर भारत का उल्लेख किया गया है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चरक उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। कुछ विद्वान चरक का परिचय कनिष्क के राजवैद्य के रूप में देते हैं। परन्तु यह जानकारी प्रामाणिक नहीं है। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिए चरक तक्षशिला गए थे। वहां उन्होंने आचार्य आत्रेय से आयुर्वेद की शिक्षा ली थी।
महर्षि चरक ने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ ‘चरक संहिता’ का संपादन किया था यह आयुर्वेद का प्राचीनतम ग्रंथ है, जिसमें रोग निरोधक और रोगनाशक औषधियाें का उल्लेख है। साथ ही इसमें सोना, चांदी, लोहा, पारा आदि धातुओं से निर्मित भस्माें एवं उनके उपयोग की विधि बताई गई है।
कुछ लोग भ्रमवश आचार्य चरक को ‘चरक संहिता’ का रचनाकार बताते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि यह ग्रंथ आचार्य अग्निवेश द्वारा रचित ‘अग्निवेश तंत्र’ के नाम से था जिसमें आचार्य चरक ने कुछ स्थल और अध्याय जोड़कर इसको नया रूप दिया। अग्निवेश तंत्र का यही संशोधित और परिवर्धित संस्करण बाद में चरक संहिता कहलाया। यह संस्कृत भाषा में है। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने उनके समय थे।
चरक ने ही सर्वप्रथम अवधारणा प्रतिस्थापित किया कि पाचन, चयापचय, शारीरिक विकार और शरीर प्रतिरक्षा से संबंधित ज्ञान ही स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी है। उन्होंने बताया कि शरीर के कार्य के कारण तीन दोष हैं, जिन्हें वात, पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है। ये तीनों दोष जब तक शरीर में संतुलित अवस्था में रहते हैं, तब तक शरीर स्वस्थ रहता है। इनका संतुलन बिगड़ने से, व्यक्ति बीमार हो जाता है। चरक इन दोषों को औषधियां द्वारा पुनः संतुलित करके बीमार व्यक्ति को स्वस्थ कर देते थे। उन्होंने शारीरिक संरचना का अध्ययन करके बताया कि दांतों सहित मनुष्य के शरीर में 360 हड्डियां हैं। उन्होंने हृदय के विषय में बताया कि यदि मुख्य नली में कोई अवरोध हो तो व्यक्ति बीमार पड़ जाता है अथवा उसके किसी अंग में विकार उत्पन्न हो सकता है।
उन्हाेंने आनुवंशिकी के सिद्धांतों की रचना की। वे उन कारणों को जानते थे, जिनसे कुछ बच्चे विकारग्रस्त उत्पन्न होते हैं, जैसे अंधापन या लंगड़ापन माता-पिता के किसी दोष के कारण होता है।
चरक संहिता आठ भागों में विभक्त है-सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इंद्रिय, चिकित्सा, कल्प और सिद्धि। इन भागों को ‘स्थान’ नाम दिया गया है। प्रत्येक स्थान में कई अध्याय हैं, जिनकी कुल संख्या 120 हैं। इसमें मानव शरीर से संबंधित सिद्धांत, हेतु निदान, अनेक रोगों के लक्षण तथा चिकित्सा वर्णित है। चिकित्सा विज्ञान जब शैशवावस्था में ही था, उस समय चरक संहिता में प्रतिपादित आयुर्वेदिक सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी थे।
आचार्य चरक न केवल आयुर्वेद के मर्मज्ञ थे, अपितु वे सभी शास्त्रें के अवज्ञाता थे। उनका दर्शन, विचार, सांख्यदर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने उपदेश देते हुए बताया कि सभी दुःखों का मूल कारण है उपधा अर्थात् तृष्णा। मूल रूप में उपदेश निम्नवत देखें-
उपधा हि परो हेतुर्दुःखदखाश्रयप्रदा।
त्यागः सर्वोपधानां च सर्वदुःखव्यपोहकः।
(चरक संहिता शारीरिक 1/95)
मोक्ष में आत्यांकित वेदनाओं का नाश हो जाता है और योग मोक्ष को दिलाने वाला है।
योगे मोक्षे च सर्वांसा वेदनानामवर्तनम।
मोक्षे निवृत्तिर्निः शेषा योगो मोक्षप्रवर्तकः।
(चरक संहिता शारीरिक 1/137)
चरक संहिता चिकित्सा संसार का अत्यंत प्रामाणिक, प्रौढ़ और महान सैद्धांतिक ग्रंथ है। इसके उपदेश बड़े ही मार्मिक, कण्ठ करने योग्य तथा शिक्षाप्रद हैं। इसके दर्शन से प्रभावित आयुर्वेद विज्ञान के आचार्य आसलर ने चरक के नाम से अमेरिका के न्यूयार्क नगर में वर्ष 1898 में चरक क्लब संस्थापित किया।
-गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’

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