कविता उर्मिल गुप्ता
जाह्नवी जनवरी 2023 युवा विशेषांक
विवाह शब्द बेशक हम सुनते हैं बार-बार
क्या कोई समझ पाया इसमें छिपे जीवन का सार।
पहले चूड़ियों की खन-खन तो पायल की छन-छन
चुरा-चुरा सा लेती थी साजन का मन।
पहले हाथ भी पकड़ता था भोला सा पिया
धक धक धड़कता था सजनी का जिया।
पति-पत्नी आंखों के समझ लेते थे इशारे।
इंतजार करते कब घर के सारे जाएंगे सारे।
न फोन न फेसबुक न व्हाट्सएप न नेट
भावों के कनेक्शन से रिश्ते रहते थे सेट
साधन कम, सुविधा कम, प्रेम का इजहार कम
मिलजुल कर बांट लेते थे खुशी और गम।
प्रेम त्याग और समर्पण के मजबूत धागे
गृहस्थी की गाड़ी पीढ़ी दर पीढ़ी भागे।
पहले उम्र कच्ची पर पक्की रिश्तों की पकड़
अब उम्र पक्की पर खोखली होती रिश्तों की जड़।
अब सात जन्म तो छोड़ो विवाह चले न एक जन्म
आज के दौर में न पति ना पत्नी ही कम।
पश्चिम की जहरीली हवा इस कदर हो गई हावी
विवाह को झंझट समझ लिव इन चाहे पीढ़ी भावी।
अब तो कोई कितना भी पुकारे बेबी, जानू, हनी
भीतर ही भीतर गहरे बस रहती है सिर्फ मनी।
आज शादी टूटने का कोई क्यों बनाए शोक।
अब तो ब्रेकअप पार्टी भी शान से बनाते हैं लोग।
जल्दी से जल्दी पा लेना चाहते हैं सब कुछ
मानवीय संवेदनाएं और रिश्ते उनके आगे हैं तुच्छ।
पहले विवाह होता था मंदिर के दीए सा पवित्र
सबसे बड़ी दौलत होती थी लोगों का चरित्र।
आज ज्यादा से ज्यादा स्वच्छंदता चाहता है हर कपल
जरा सी बात पर जिंदगी से कर देता है बेदखल।
कहां से कहां पहुंच गए हमारी संस्कृति हमारे संस्कार
भारतीय जीवन दर्शन के सारे अर्थ कर दिए बेकार।
यह रिश्ता जितना पुराना उतना ही सुगंधित जैसे चंदन है।
विवाह कोई कांट्रैक्ट नहीं स्वर्ग में बना पवित्र बंधन है।