मेरे द्वारा जाह्नवी मासिक का प्रकाशन प्रारंभ करना तथा आज 57 वर्ष तक इसका निर्बाध् रूप से सफलता पूर्वक चलना एक अद्भुत संयोग ही है। मैं इसे ईश्वर की कृपा तथा ईश्वर की कोई योजना ही मानता हूं, अन्यथा मेरे जैसे सामान्य परिवार के व्यक्ति द्वारा बिना साधनों के पत्रिका प्रकाशन जैसे कठिन कार्य में सफल होना, कैसे सम्भव हो सकता है।
प्रकाशन के प्रारम्भ की कहानी इस प्रकार है-
हमारा परिवार गत 90 वर्ष से गोभक्त रहा है। मेरे पिताजी ने 35 वर्ष तक अन्न का ग्रहण नहीं किये । केवल गाय के दूध् और फल ही उनका आहार रहा। हम पहले रावलपिंडी ;पाकिस्तानद्ध में तथा 47 के बाद दिल्ली में रहे हैं। परन्तु कभी भी हमारा घर बिना गाय के नहीं रहा। दिल्ली करोल बाग में हमारे घर में आवश्यक जरूरत का सामान नहीं था परन्तु दो गाय थी। हम गाय के दूध् के सामान्य से कुछ अधिक ही दीवाने थे।
हमारा विश्वास बना हुआ था कि हमारे शरीर के सभी अवयव, मन, बुद्धि आदि हमारे भोजन से ही बनते हैं शुद्ध जीवन के लिए सात्त्विक भोजन लेना चाहिए और गाय का दूध् इन सब में उत्तम है। इसलिए हमारे घर में दूध् पहली प्राथमिकता थी।
मैंने दिल्ली की हायर सैकेण्डरी ;11 वीं कक्षा की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। मैं स्कूल के कला और वाणिज्य ग्रुप में प्रथम आया था। गणित में विशेष योग्यता थी। स्वाभाविक रूप से मुझे बी.कॉम . में प्रवेश लेना चाहिए था परन्तु परिवार का आग्रह था कि शुद्ध दूध् पीने के लिए गाय जरूरी है परन्तु गाय पालन दिल्ली में कठिन होता है। इसलिए गो पालन के लिए जमीन खरीदनी चाहिए। अतः हमने जिला नैनीताल के हलद्वानी से 12 किलोमीटर दूर एक जमीन का टुकड़ा खरीदा जिस में अच्छी नस्ल की गाय पाली जायँ।
मैं और मेरे भाई साहब जिला फिरोजपुर में तहसील फाजिलका में जाकर गांव-गांव घूम कर साहीवाल नस्ल की दो वर्ष की बछिया खरीद कर ट्रक भर कर लाए। इस तरह अच्छी नस्ल की गाय पालने का पूरा प्रबन्ध् हो गया। छह वर्ष तक मैंने वहां खेती की। धान और गन्ना बोया और उसमें अच्छी उपज पैदा करने का सरकारी इनाम जीता।
शेष परिवार तो दिल्ली में रहता था। इस बीच मुझे जुलाई 1956 में दिल्ली आने का अवसर मिला। माता जी कहने लगी कि यह तो पढ़ाई में अच्छा था इसे तो आगे पढ़ना चाहिए था। बस घर में वातावरण बन गया और मैंने दूसरे दिन खालसा कालेज, करोल बाग में बी.ए. की कक्षा में प्रवेश ले लिया। वह प्रवेश के लिए अन्तिम दिन था। कालेज में बी.ए. आनर्स ;हिन्दीद्ध अच्छे अंकों से पास किया। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी एम.ए. किया। खालसा कालेज में हिन्दी के हैड आपफ डिपार्टमेंट डा. हरिभजन सिंह जी थे। बहुत मिलनसार स्वभाव के थे। उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला था। उनसे स्नेह हो गया था। उन्होंने परिणाम आने पर एड-हाक स्तर पर कालेज में लैक्चरार बनने के लिए मेरे सामने पेशकश की। उनका कहना था कि बाद में रेगूलाइज होने में दिक्कत नहीं होगी। मेरे लिए यह बहुत ही आकर्षक पेशकश थी। परन्तु मैंने तो 2 वर्ष के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बनने का निर्णय ले रखा था। अतः मैंने उन्हें जब इससे इंकार किया तो वह बहुत हैरान थे। लोग लैक्चरार बनने के लिए सिपफारिशें लगाते हैं और हम इसे पेशकश कर रहे हैं, यह इंकार कर रहा है। उन्हें यह जिज्ञासा हुई कि रा.स्व. संघ में ऐसा क्या आकर्षण है, यह उन्होंने समझना चाहा। तभी 27 मई 1961 को लाल किले के परेड ग्राउंड में पूजनीय गुरु जी का भाषण था, उसमें मैं उन्हें भाषण सुनने के लिए ले गया। इस प्रकार वह धीरे-धीरे संघ को समझने का प्रयास करते रहे।
1989 में संघ ने जब डा. हेडगेवार शताब्दी वर्ष मनाया तो डा. हरिभजन सिंह मेरे प्रेम भरे आग्रह के कारण उसकी दिल्ली समिति के सदस्य भी बन गए। उनका व्यक्तित्व बड़ा सीधा और सच्चा था, जिस बात को सही मान लेते थे, उसके लिए स्वीकृति दे देते थे। बाद में वह दिल्ली विश्वविद्यालय में मार्डन इण्डियन लंैग्वेज के अध्यक्ष बन गए। अपना कार्यकाल पूर्ण करते हुए वह विश्वविद्यालय के डीन के पद से रिटायर हुए। ऐसी महान विभूति का प्रिय शिष्य होने का मुझे गर्व है।
मैं दो वर्ष तक अम्बाला छावनी में संघ का प्रचारक रहा। वापस आने पर पिफर से कालेज में नौकरी के लिए प्रयास किया तो काफी निराशा हुई, हालांकि पूरे शिक्षाकाल में मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। एम.ए. में मेरा डिस्र्टेशन ;रिसर्च वर्कद्ध डा. विजयेन्द्र स्नातक जी, रीडर, दिल्ली विश्वविद्यालय के निर्देशन में पूर्ण हुआ था। जिसे बाद में दिल्ली के हिन्दी साहित्यिक पुस्तकों के एक नामी प्रकाशक ‘नेशनल पब्लिशिंग हाउफस’ ने छाप भी दिया था। परन्तु दिल्ली विश्वविद्यालय की अपनी विवशताओं के कारण जिनका उल्लेख करना यहां प्रासंगिक नहीं होगा। मुझे लेक्चरार पद मिलना असंभव जैसा था। ऐसा मुझे डा. विजयेन्द्र स्नातक जी ने कहा, कि हमने पूरा जोर लगा लिया है आप दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ नहीं सकते।
उस काल में हिन्दू धर्म के नकारात्मक पक्ष को उजागर कर हिन्दू धर्म की कमियां निकालने वाली कुछ पत्रिकाएं हिन्दी जगत में प्रचलित थीं। जिसे देखकर मन में ग्लानि होती थी कि वह हमारे धर्म की कमियों को उजागर कर धर्म के प्रति अनादर उत्पन्न कर रही है । धर्म रूपी कांच पर आई कालिमा को तो नष्ट किया जाना चाहिए परन्तु उस कारण कांच को ही तोड़ देने का काम वह कर रही है । अतः मन में ध्यान आया कि ध्र्म के सही स्वरूप को दर्शाने वाली पत्रिका समाज के सम्मुख लाई जाय। एक लकीर के महत्त्व को कम करने के लिए उसके साथ बड़ी लकीर खींच दी जाय।
अतः विश्व हिन्दू परिषद के प्रथम अधिवेशन के अवसर पर प्रयागराज में 1966 के जनवरी मास में जाह्नवी का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरकार्यवाह माननीय माधव राव जी मुल्ये जी द्वारा वीर सावरकर जी के ‘गोमान्तक’ नाम का उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रथम अंक से ही धरावाहिक रुप से प्रकाशित किया गया।
इस प्रकार जाह्नवी का पावन प्रवाह मनोरंजन और संस्कार के द्विमुखी उद्देश्य को लेकर निसृत हुआ और अनवरत आज तक जन जन के सहयोग से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है।
इसके मुख्य सहयोगी जिनकी प्रेरणा से प्रारंभ हुआ वह माननीय माधव राव जी मुल्ये थे। वह साहित्यिक प्रवृति के व्यक्ति थे। साहित्य की आत्मा को समझते थे। उनका मार्गदर्शन और सहयोग अतुलनीय था।
बिना किसी अनुभव के पत्रिका चलाना कितना कठिन होता है, यह तो प्रकाशन करने के बाद अनुभव में आया। फिर भी प्रभु की कृपा तथा साहित्य प्रेमी पाठकों, लेखकों तथा विज्ञापनदाताओं के सहयोग से पत्रिका अनवरत प्रकाशित हो रही है।
जिन अनेक बंधुओं ने सहयोग दिया है वह सब लम्बी सूची को लिखना कठिन होगा। अतः सभी को नमन एवं सभी का आभार।
जाह्नवी प्रकाशन के कार्यकाल की कुछ उपलब्ध्यिां इस प्रकार हैं:-
जाह्नवी ने तीन बार अखिल भारतीय स्तर की कहानी प्रतियोगिता की।
प्रथम कहानी प्रतियोगिता 1996 में संपन्न हुई। जिसमें 60 हजार के पुरस्कार थे।
प्रथम पुरस्कार 25,000 रु.,
द्वितीय पुरस्कार 15,000 रु. तथा
तृतीय पुरस्कार 10,000 रु. था।
10 विशेष पुरस्कार प्रत्येक पुरस्कार 1000 रु.।
उस काल में एक कहानी पर 25000 का पुरस्कार बहुत बड़ा पुरस्कार था।
पुरस्कार वितरण समारोह
मुख्य अतिथि श्री अटल बिहारी जी की अध्यक्षता तथा श्री सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी के आशीर्वाद से हुआ। निर्णायक थे हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार डा. राम दरश मिश्र, श्रीमती शशि प्रभा शास्त्री तथा श्री हिमांशु जोशी। प्रतियोगिता में 410 कहानियाँ प्राप्त हुई थी।