जून, 2025
भारत भूषण चड्ढा
हमारे पूर्वजों ने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर एक आदर्श जीवन पद्धति प्रदान की है। जब तक हम उस पद्धति का अनुसरण करते रहे। तब तक सब कुछ ठीक रहा। जैसे ही हमने उसकी अवहेलना की, हमारा पतन प्रारंभ हो गया।
गत शताब्दी में पश्चिमी देशों द्वारा की गई भौतिक प्रणाली ने हमें अभिभूत कर दिया। हमने अपने देश की परिस्थितियों की उपेक्षा करके विकास हेतु विदेश्ीा बातों को वरीयता दी। परिणाम सबके सामने है। जितना विकास हुआ, उससे कहीं अधिक समस्याओं का देश को विकट सामना करना पड़ रहा है। पर्यावरण की समस्या उनमें प्रमुख है।
अन्धाधुन्ध और अविवेकपूर्ण औद्योगिक विकास के प्रयास ने पर्यावरण की गंभीर समस्या को जन्म दिया है। आज प्रदूषण के कारण लोगों का जीना दूभर हो गया है। पीने के पानी का अकाल पड़ गया है। सांस लेने के लिए स्वच्छ वायु सुलभ नहीं। व्यावसायिक लाभ के लिए वनों की बेतहाशा कटाई, शहरीकरण के कारण ग्राम्य जीवन का संकटग्रस्त होना, कृषि के लिए कम क्षेत्र का रह जाना। उद्योगीकरण के नाम पर हर चीज का मशीनीकरण-इन सब बातों ने मनुष्य जीवन को नारकीय बना दिया है। अब सबके समक्ष यह यक्ष प्रश्न मुंह उठाए खड़ा है कि पृथ्वी को प्रदूषण से कैसे बचाया जाए और पर्यावरण (परि$आवरण=पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और प्रकाश) को किस प्रकार स्वच्छ रखा जाए। जिससे प्राणिमात्र के लिए पैदा हुए संकट से उबरा जा सके। यों तो इस संबंध में पर्यावरणविदों द्वारा पृथ्वी सम्मेलन भी आयोजित किया जा चुका है और हर वर्ष 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के रूप में भी घोषित किया जा चुका है किन्तु खेद की बात है कि पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या का कोई संतोषजनक समाधान नहीं निकला है।
हमें प्रदूषण के मूल पर प्रहार करना होगा तभी पर्यावरण का परिरक्षण संभव होगा। आज मानव का मल मैला हो गया है। अपने तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति हेतु वह प्रकृति माता को कुपित कर रहा है जिसने हमें हजार नियामतें बख्शी हैं तभी तो नए-नए रोगों, अकाल-बाढ़, सूखा-भूकम्प और अतिवृष्टि-अनावृष्टि जैसी आपदाओं से मनुष्य ग्रस्त और त्रस्त होता जा रहा है।
इस समस्या का समाधान भी विदेशियों के पास नहीं, हमारे पास है। उनकी संस्कृति समस्यामूलक है जबकि भारतीय संस्कृति समाधानपरक है। भारतीय जीवन पद्धति में कहीं कोई विरोध नहीं है। विकास भी वरेण्य है तो संयम भी सम्यक रूप से वांछनीय है। दोनों का समुचित संतुलन से समस्याओं का शमन होता है। एकांगी दृष्टिकोण परेशानी पैदा करता है।
पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति वस्तुतः एक विकृति है। उसकी विसंगतियों से विमुख नहीं होना चाहिए। भौतिकता पर आध्यात्मिकता का अंकुश अनिवार्य है। हमारे यहां भूमि, नदी, वृक्ष, पर्वत आदि प्राकृतिक पदार्थों को दैव (पूजनीय) रूप प्राप्त है। उनके पति किया गया कोई भी गलत कार्य अक्षम्य माना जाता है। संतोष और त्याग की भावना कों श्रेष्ठ समझा जाता है। अतः स्वार्थ के स्थान पर त्याग होगा तभी विनाश से बचा जा सकता है।
व्यक्ति को विविध व्याधियों से बचने के लिए पर्यावरण की स्वच्छता और प्रदूषण का निवारण आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित बातों पर जोर देना जरूरी है। प्रकृति-प्रेम (वन-संरक्षण), शाकाहार, धूम्रपान का निषेध पॉलिथिन प्रयोग पर प्रतिबंध, परिवहन प्रदूषण से बचाव हर उपलब्ध स्थान पर वृक्षारोपण उचित जल-प्रबंधन और अंत में यज्ञ संस्कृति का पुनः विकास।
विशाल बांधों और बडे़-बड़े कारखानों ने पर्यावरण का विनाश ही किया है। अतः अब समय आ गया है कि हम अपने विकास कार्य को अपनी देशज शैली में ही आगे बढ़ाएं। भारतीय जीवन रचना में सभी जीव-जन्तुओं को जीने का अधिकार है। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था बनाई है कि हर प्राणी का अपना-अपना उपयोग है। इसी व्यवस्था के कारण सृष्टि चक्र निर्बाध गति से चल रहा है। हम जहां अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का शोषण करते है। वहीं प्रकृति इसका प्रतिकार कर व्यवस्था को सुधार लेती है। प्रकृति में वनों का अति महत्त्व है। पेड़ कार्बन-डाई-ऑक्साइड खाते हैं और बदले में ऑक्सीजन देते हैं। हमारे शास्त्रें ने इस महत्त्व को समझकर पेड़ों की पूजा तक का विधान कर दिया है।
पेड़ अधिक लगाए जा सकें, इसके लिए पक्षियों की सृष्टि की। एक अनुमान के अनुसार पूरी धरती पर, पहाड़ों पर दुर्गम स्थानों पर पेड़ कैसे लगाए जा सकते हैं। यदि सृष्टि का जनसमूह पेड़ लगाने लगे तो भी ऐसे दुर्गम स्थानों पर इतना पेड़ लगना सम्भव नहीं। यह कार्य पक्षी करते हैं। वह एक स्थान पर पेड़ का फल खाते है और दूर स्थान पर बीट करते हैं। उस बीट में बीज सुरक्षित होता है और उसी से पेड़ का आरोपण हो जाता है।
मेढ़कों के बारे में एक बार एक सर्वेक्षण आया था कि नदी या तालाब किनारे रहने वाले मेढ़कों का भोजन मच्छर है। मच्छरों का खाकर वह वहां बसने वाले मानवों को नीरोग बनाते हैं। एक बार समाचार आया है कि दिल्ली में मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाने का एक कारण यह भी है कि यहां यमुना का पानी कम हो गया है और नदी में पलने वाले मेढ़कों को पकड़कर रिसर्च के लिए अमेरिका आदि देशों को निर्यात कर दिया जाता है।। इस कारण आज दिल्ली में मच्छर अधिक है। आप खुली हवा में नहीं सो सकते है जबकि पूर्वकाल में यह अत्यन्त सहज था। आज तो पंखे के नीचे ही सोना पड़ता है।
कहने का भाव यह है कि हम प्रकृति का जीव-जन्तुओं का शोषण न करें। उनके दोहन की प्रकृति ने पूरी व्यवस्था की है। धरती में एक दाना बीज डालते हैं तो कई गुना दाने वापस आते हैं परन्तु हम अपने लालच से उसमें कृत्रिम खाद यूरिया फास्फोरस डालकर अधिक अनाज उत्पादन चाहते हैं। जबकि हम जानते हैं कि इन कृत्रिम खादों से इसकी उर्वरा शक्ति कम हो जाती है और वह एक दिन बंजर हो जाती है। हम यह भी जानते हैं कि यूरिया द्वारा अन्न उत्पन्न तो अधिक होता है परन्तु उसमें पेस्टीसाइड, यूरिया आदि के तत्व हमें रोगी भी बना रहे हैं। पंजाब में कृत्रिम खाद अधिक उपयोग में लाया गया और आज वहां कैंसर के रोगी बहुतायत से हैं। हम निजी स्वार्थों एवं अपनी प्राकृतिक प्रणाली के प्रति उदासीन हैं एवं विदेशों की प्रणलियों के प्रति अन्ध भक्ति से उसी का अनुसरण करते जा रहे हैं।
इसका परिणाम हमारे सामने हैं। रोग बढ़ते जा रहे हैं। प्रकृति के मुख्यतः पांच तत्व है. धरती, अग्नि, जल, वायु, आकाश। इसका उत्कृष्ट सन्तुलन प्रकृति ने बनाया हुआ है। सभी एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे का शोधन भी करते हैं और इसी से सृष्टि चक्र सन्तुलित होकर चल रहा है। हम इस ओर जागरुक रहें। विकास के साथ नए अनुसंधानों की ओर से विमुख न हो। सृष्टि नित्य परिवर्तनशील है। इसके साथ चलना है परन्तु ध्यान रहे कि इन तत्त्वों का शोषण न हो अन्यथा प्रकृति इसका बदला अनावृष्टि अतिवृष्टि, भूकम्प आदि अपने अनेक उपक्रमों द्वारा ले लेती है।
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