(प्रथम भाग)
कहानी
श्याम कुमार पोकरा
एक होनहार अति गरीब घर का लड़का और एक सब से अमीर घर की लड़की कालेज में सहपाठी थे। दोनों परस्पर आकृष्ट हुए और विवाह की कसमें खा लीं। कैसे चला उनका जीवन एक भावपूर्ण कहानी।
रोज की तरह आज भी शाम हो गई। सूरज पश्चिम में पहाड़ों के पीछे डूब गया। दिन भर के थके हारे पशु-पक्षी, मजदूर अपने अपने घरों को लौटने लगे। चारों ओर शाम का धुंधलका पसरने लगा। शहर में बत्तियां जगमगाने लगीं।
सांझ का समय। न दिन और न रात। जाते हुये दिन का और आती हुई रात का समय। इस समय की वह प्रतिदिन बेसब्री से प्रतीक्षा करता है। यह समय उसे अच्छा भी लगता है, बुरा भी लगता है। यह समय उसकी स्मृतियों को झकझोर देता है, हृदय को उद्वेलित कर देता है। यह समय उसे खुशी भी देता है और पीड़ा भी देता है। मन इसे आत्मसात कर लेना चाहता है।
प्रतिदिन शाम को पांच बजे वह ड्यूटी से घर लौटता है। आंगन के गेट का ताला खोलता है। घर के दरवाजे का ताला खोलता है। फिर स्कूटर को आंगन में खड़ा करके घर में प्रवेश करता है। हाथ में लटके ब्रीफकेस को सैफ में रखता है। सिर पर लगा हेलमेट उतार कर खूंटी पर टांगता है। फिर कपड़े चैंज करता है। किचन में जाकर अपने लिए चाय बनाता है और चाय का कप पकड़ कर बाहर आंगन में चला जाता है। चाय की चुस्कियों के साथ वह सांझ को ढलते हुये देखता है। समय के इस तीव्र परिवर्तन को वह महसूस करता है।
उसकी दृष्टि सामने पार्क में खड़े वृक्षों पर जाकर ठहरती है। आम, नीम, शीशम व युक्लिप्टस के ऊंचे-ऊंचे पेड़। हवा में झूमती उनकी टहनियां और टहनियों पर झूलते पक्षियों के घौंसले। सूखी लकड़ियों के बने कौओं के घर। ऊपर अनन्त तक फैला नीला आसमान। खुले आकाश में विचरण करते पक्षी, रंग-बिरंगी चिड़ियां, तोते और कबूतर। नीम की एक डाली पर बैठा मोर-मोरनी का जोड़ा। पक्षियों की चहचहाहट सुनकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। हृदय आनन्द की अनुभूति से भर उठता है।
चाय पीकर वह सिगरेट जला लेता है। लम्बा कश खींचता है और आंगन में पड़ी एक कुर्सी पर आ बैठता है। तभी उसकी दृष्टि आंगन के फर्श पर फैले हुये सूखे पत्तों पर पड़ती है। मुरझाये हुये पौधों को वह एकटक देखने लगता है।
धीरे-धीरे आंगन में अंधेरा पसरने लगता है। यह चारों तरफ से उसे घेरने लगता है। अंधेरे के काले महीन कण त्वचा के छिद्रों से होकर बदन में उतरने लगते हैं। शिराओं में घुसकर एक में प्रवाहित होने लगते हैं। जो हृदय में घुसकर उसकी संवेदनाओं को जाग्रत करने लगते हैं। वह तड़पने लगता है। बार-बार सिगरेट के कश खींचकर अपनी छटपटाहट को काम करने का प्रयास करता है। मन एक बार फिर अपने अतीत में डूब जाना चाहता है। उसका सुहनरा अतीत, कड़ुवाहट भरा अतीत। अतीत ही तो है जो उसके जीवन को खींच रहा है। उसे सांसे दे रहा है।
मन पिछले दो दशक एक साथ पार कर गया है। वह कालेज के प्रांगण में खड़ा है। राजकीय महाविद्यालय विजयगढ़। महलों सी बनी विशाल पुरानी इमारत। प्रांगण में खड़े आम व नीम के बड़े-बड़े पेड़। पेड़ों के नीचे छाया में बैठे छात्र-छात्रएं। कालेज के मुख्य द्वार के ऊपर बना घंटाघर। गुम्बज में लगी विशाल गोलाकार घड़ी। घड़ी में घूमते घंटे और मिनट के बड़े-बड़े कांटे।
घंटाघर के सामने ही बना है सुभाष स्मारक। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आदमकद प्रतिमा। युवा चेहरे पर झलकता हुआ आत्मविश्वास और दृढ़ता। जब भी वह नेताजी की आंखों में देखता है, भावविह्ल हो उठता है। देश के लिए उनका बलिदान उसकी आंखों में तैर जाता है। स्वतः ही उनमें पानी छलछला जाता है। कालेज की बाउण्ड्री में प्रवेश करके सबसे पहले वह नेताजी को नमन करता है। फिर उनके चरणों में सीढ़ियों पर बैठ जाता है।
प्रतिदिन दस बजे कालेज लगता है। धीरे-धीरे प्रांगण में लड़के-लड़कियों की भीड़ बढ़ने लगती हैं। छात्र-छात्रओं के कई समूह नजर आने लगते हैं। कुछ बैंचों पर बैठकर गपशप करते हैं। कुछ पेड़ों की छाया में खड़े होकर बातें करते हैं।
सुभाष स्मारक पर वह अकेला बैठा रहता है। उसकी नजरें गेट के बाहर सड़क पर टिकी रहती हैं। वह रोज एक लाल रंग की मर्सिडीज कार की प्रतीक्षा करता है। दस बजते-बजते गेट पर आकर कार रुकती है। फुर्ती से कार का ड्राइवर उतरकर कार का पिछला गेट खोलता है और किताबें हाथों में पकड़े कार में से वह नीचे उतरती है।
लम्बा कद, तीखे नाक-नक्श, गोरा रंग, आधुनिक वेशभूषा, हवा में लहराते रेशमी केश और आंखों पर काला चश्मा। कार में से नीचे उतरते ही कई लड़कियां उसे घेर लेती हैं। हाय प्रिया—हेलो प्रिया—–हंसते मुस्काते हुये सहेलियाें के साथ वह कालेज में प्रवेश करती है। उसकी सुंदरता, उसकी सौम्य मुस्कान उसके हृदय में उतर जाती है। उसे देखते ही उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है। रोमांचित होकर वह खड़ा हो जाता है। उसके नजदीक से होकर वह गुजर जाती है। तभी दस बज जाते हैं, घंटाघर से घंटे बजने लगते हैं, टन—–टन—-टन———।
यह बी-एससी- प्रथम वर्ष की कक्षा है। कुल छात्रें की संख्या है पचास। लगभग आधे लड़के हैं और आधी लड़कियां। यह कक्षा दो भागों में बंटी हुई है। दायीं ओर की टेबल कुर्सियों पर लड़कियां बैठती हैं और बायीं ओर लड़के बैठते हैं। सामने प्रोफेसर के लिए बड़ी टेबल है, कुर्सी है, दीवार पर लगा ब्लैक-बोर्ड है। क्लास में उसे सबसे पीछे की सीट पर स्थान मिलता है। आगे की सीटों पर शहर के अमीर घरानों के लड़के-लड़कियां बैठते हैं, या फिर बड़े सरकारी अधिकारियों के बेटे-बेटियां।
वह बहुत ही गरीब घर का है। गांव में उसकी बूढ़ी दादी मां मेहनत मजदूरी करके उसे पढ़ा रही है। कालेज की फीस भी वह कठिनता से जमा करा पाता है। प्रिया प्रथम पंक्ति में आगे बैठती है। प्रोफेसर के आने से पहले क्लास में हल्ला मचा रहता है। लड़के-लड़कियां आपस में गपशप में लगे रहते हैं। वह शर्मीला है। बातें कम करता है। लेकिन एक अजीब सा मृदु आकर्षण उसे प्रिया की ओर आकृष्ट करता है। दूर से ही उसे हंसते मुस्काते बातें करते हुये देखकर वह प्रसन्न हो उठता है।
उसे कालेज में पढ़ते हुये कई दिन गुजर गये हैं। अपनी कक्षा के अधिकांश लड़के-लड़कियों से वह परिचित हो गया है। खास कर प्रिया के बारे में भी उसे कुछ जानकारी मिल गई है। वह इस शहर के एक अमीर घराने की लड़की है। उसके पिता इस शहर के मेयर हैं और कई फैक्ट्रियों के मालिक। प्रिया तीन भाइयों की इकलौती बहिन है। पिता की सबसे छोटी लाडली संतान है।
हर रोज वह नये कपड़े पहनकर कालेज आती है। वह अपनी कलाई पर सोने की घड़ी पहनती है। उसके पैराें के सैंडिल, रेशमी बालों में लगा क्लिप, उसकी हर वस्तु कीमती होती है। फिर वह स्वयं को देखता है। उसके कपड़े साधारण हैं। पैंट फटी हुई है और पैरों में प्लास्टिक के जूतों में कई जगह जोड़ लगे हैं। उसकी गरीबी कई बार लड़कों की हंसी का शिकार हो चुकी है। लेकिन वह फिर भी प्रिया की ओर आकृष्ट रहता है। उसे देखते ही हृदय एक मृदुल अनुभूति से भर उठता है।
वह कालेज के होस्टल में रहता है। होस्टल के नाम पर दो पुराने माल गोदाम के बड़े-बड़े शेड हैं। जिनकी छतों पर कबूतरों ने घर बना रखे हैं। नीचे फर्श पर दो कतारों में लकड़ी के तख्ते रखे हैं। तख्ते के साथ एक छोटी सी अलमारी है। जिसमें सब अपने खाने पीने की वस्तुएं रखते हैं। तख्ते पर बैठकर वे पढ़ते हैं। तख्ते पर ही सोते हैं। शेडों के बाहर खुला मैदान है। मैदान में नल लगे हैं। यहां लड़के नहाते हैं। चूल्हा जलाकर खाना बनाते हैं। होस्टल में अधिकांशतः उसके समान गरीब लड़के ही रहते हैं। धनी परिवारों के लड़के शहर की सुविधा संपन्न कालोनियों में मकान किराये पर लेकर रहते हैं।
उसका गांव यहां से सौ किलोमीटर दूर है। गांव में उसका छोटा सा घर है। बूढ़ी दादी मां है। दादी मां ने उसे पाल-पोश कर बड़ा किया है। अपने माता-पिता को उसने नहीं देखा है। छोटी कद काठी की उसकी दादी मां बूढ़ी व दुर्बल है। वह बहुत ही जीवट वाली औरत है। मुसीबतों से कभी नहीं घबराती है। गांव में मेहनत मजदूरी करके वह उसे कालेज में पढ़ा रही है।
यहां से टेªन में बैठकर हर महीने वह अपने गांव जाता है। दादी मां उसे गले लगा लेती है। उसके सिर पर हाथ फेरकर वह उसे प्यार करती है। जब वह शहर लौटता है, तो अपनी महीने भर की कमाई वह उसके हाथ में रख देती हैै। खाने-पीने की चीजें बांधकर वह उसका थैला भर देती है। गांव के बाहर सड़क तक वह उसे छोड़ने आती है।
दादी मां पूरे महीने की बचत उसके हाथ में रख देती, लेकिन फिर भी उसका महीना नहीं निकलता। किताबें-कॉपियां, पेन-पैंसिल, आटा-सब्जी, नमक-मिर्ची और भी अनगिनत खर्चे। दादी मां के रुपये दो तीन सप्ताह में ही खर्च हो जाते। वह भूखे ही सो जाता लेकिन महीना पूरा होने से पहले गांव नहीं लौटता। कुछ रुपये वह मित्रें से उधार लेता और किसी तरह महीना निकाल लेता। लेकिन अगले महीनेे फिर वही समस्या सामने आ खड़ी होती।
दो चार महीने तो इसी तरह खींचतान में गुजर गये। लेकिन अब दिन निकालना कठिन हो गया। वह पढ़ाई छोड़ देगा, लेकिन दादी मां को परेशान नहीं करेगा। इसी परेशानी में वह होस्टल से निकल जाता और दिशाविहीन इधर-उधर भटकता रहता। चलते-चलते वह थक जाता लेकिन उसे अपनी परेशानी का कोई समाधान नजर नहीं आता।
उस दिन उसकी जेब में एक भी रुपया नहीं रहा। शाम को वह भूखा प्यासा कालेज से लौटा। उसने अपनी अलमारी खोलकर एक बार फिर टटोली। सारे डिब्बे खाली पड़े थे। न आटा था और न ही कोई खाने की वस्तु। मित्रें से वह पहले ही ले चुका था और मांगने की हिम्मत नहीं कर सका। हताश होकर वह तख्ते पर लेट गया और आंखें मूंद कर सुस्ताने लगा। अनायास ही एक विचार उसके दिमाग में दौड़ गया। दूसरे ही क्षण झटके के साथ वह उठ खड़ा हुआ। मटके में से एक गिलास ठंडा पानी भरकर उसने हलक में उड़ेला और होस्टल से बाहर निकल गया।
थोड़ी ही देर में वह रेलवे लाइन पार करके इन्द्रप्रस्थ इंडस्ट्रियल एरिया में पहुंच गया। छोटी बड़ी यहां सैकड़ों फैक्ट्रियां नजर आईं। एक-एक फैक्ट्ररी में जाकर वह काम तलाशने लगा। दो घंटे बीत गये। रात हो गई। एक-एक फैक्टरी को उसने छान मारा। लेकिन उसे कहीं काम नहीं मिला। थक हार कर वह एक फैक्टरी के द्वार पर आकर बैठा। ‘भारत कोल इंडस्ट्रीज। उसने एक बार फिर हिम्मत की और फैक्टरी के अंदर पहुंचा। बंगाली फोरमेन ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और काम पर लगा लिया।
रात भर वह कोयले के लड्डूओं को ढोता रहा। टेª में से निकालकर वह लड्डुओं को बैग में भरता। बैग का वजन करता। फिर बैग के मुंह को बंद करके गोदाम में पहुंचा देता। सुबह के पांच बजते-बजते वह पस्त हो गया। उसके कपड़े कोयले में काले पड़ गये और नींद के मारे सिर बोझिल हो गया।
पांच बजते ही बंगाली फोरमेन ने उसे आवाज लगा दी। पचास का नोट उसके हाथ में रखकर वह बोला-‘‘जब चाहो तब रात की शिफ्रट में काम पर आ जाना। आठ घंटे के पचास रुपये मिलेंगे।’’ पचास का नोट हाथ में पाकर उसकी नींद खुल गई। फोरमेन को सलाम करके वह फैक्टरी से बाहर निकल गया। जब वह होस्टल पहुंचा तब उसे सब सोये हुये मिले। उसने अपने काले कपड़े उतारकर बिस्तर के नीचे दबा दिये। कपड़े बदल कर वह तख्ते पर लेट गया।
इसके बाद अक्सर ऐसा होने लगा। जब कभी उसे रुपयों की आवश्यकता होती वह कोयला फैक्टरी पहुंच जाता। बंगाली फोरमेन हंसकर उसका स्वागत करता। वह उसे काम पर लगा लेता। रात भर वह वहां काम करता और सुबह होने से पहले होस्टल पहुंच जाता। कपड़े बदल कर थोड़ी देर वह तख्ते पर आराम करता, फिर कालेज के लिए तैयार होने लगता।
उस दिन की घटना को वह आज तक नहीं भूल सका है। रात भर वह कोयला फैक्टरी में काम करके लौटा था। कक्षा में उसका मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। नींद के मारे सिर बोझिल हो रहा था। लंच होते ही सारे छात्र-छात्रयें कक्षा से बाहर निकल गये। वह कहीं नहीं गया। अपनी सीट पर बैठा रहा। सिर टेबल पर टिकाकर वह सुस्ताने लगा। पता नहीं कब उसकी आंख लग गई।
अचानक प्रोफेसर भारद्वाज का कर्कश स्वर सुनकर उसकी आंखें खुली। हक्का-बक्का होकर वह इधर-उधर तांकने लगा। पूरी क्लास ठहाका मारकर हंस पड़ी। लंच के बाद फिजिक्स की क्लास शुरू हो गई थी। प्रोफेसर भारद्वाज ने उसके नजदीक आकर फिर व्यंग्य कसा,
‘‘गांवड़ेल—–सारी दुनिया सुधर गई, लेकिन तुम नहीं सुधरोगे। तुम लोगों को सरकार ने सारी सुविधाएं दी हैं, लेकिन तुम्हें अक्ल नहीं आई। तुम लोग क्या सामझोगे पढ़ाई का महत्व। बैल के बाप ही रहोगे तुम सब। मेरी बात मान और अपने गांव लौट जा। यह सब तेरे बस का नहीं है। क्याें यहां अपने मां-बाप के पैसे बर्बाद कर रहा है तू।’’
प्रोफेसर की बात पर एक बार फिर पूरी क्लास ठहाका लगाकर हंस पड़ी थी। सबके साथ प्रिया को भी उसने उस पर हंसते हुये देखा था। कालेज से छुट्टी होने के बाद वह होस्टल में आ गया था। लेकिन प्रोफेसर भारद्वाज के व्यंग्य बाण अभी तक उसके हृदय में चुभ रहे थे। सारी कक्षा उस पर हंस रही थी। प्रिया उस पर हंस रही थी।
इसके बाद सब उसे गांवडेल के नाम से पुकारने लगे। शहर के लड़के अक्सर उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते। वे उसके फटे कपड़े, फटे जूते व कंधे पर लटका किताबों का थैला देखकर जोर से हंसते। वह खामोश रहता, मंद-मंद मुस्काता और अपमान के कड़वे घूंट को सहजता से पी जाता। कक्षा में सबसे पीछे जाकर वह अकेला बैठ जाता और किताबों में मन लगाने का प्रयास करता।
कुछ ही दिनों बाद पहला क्वाटर्ली टेस्ट हुआ। सबसे पहले प्रोफेसर भारद्वाज फिजिक्स का रिजल्ट लेकर आये। रिजल्ट का नाम सुनते ही पूरी कक्षा में खामोशी छा गई। आज पहली बार प्रोफेसर ने उसे नाम लेकर पुकारा। अपना नाम सुनते ही वह खड़ा हो गया। सहमते हुये वह प्रोफेसर की ओर देखने लगा। तभी पूरी क्लास ठहाके लगाकर हंस पड़ी। लेकिन आज प्रोफेसर ने सबको डांटकर चुप करा दिया। फिर गंभीर शब्दों में वे बोले,‘‘ही इज द् टॉपर।’’
प्रोफेसर की यह घोषणा सुनकर सब चौंक पड़े। विस्मय पूर्वक सब उसे देखने लगे। प्रोफेसर भारद्वाज ने आगे बढ़कर उसकी पीठ थपथपाई। हाथ मिलाकर उन्होंने उसे बधाई दी। पूरी कक्षा ने एक साथ जोर से तालियां बजाकर उसका स्वागत किया। प्रिया को भी उसने तालियां बजाते हुये देखा, तो उसके मन में खुशी की लहर दौड़ गई।
प्रथम टेस्ट के रिजल्ट की घोषणा हो गई। कक्षा में वह प्रथम स्थान पर रहा। इसके बाद सबका उसके प्रति व्यवहार बदल गया। कक्षा में उसे आगे की पंक्तियों में बैठने का स्थान मिलने लगा। जो छात्र-छात्रएं कभी उससे घृणा करते थे, वे आगे बढ़कर उससे बातें करने लगे। प्रिया भी उसे पहचानने लगी।
दिन में कई बार प्रिया से उसकी नजरें मिल जाती। एक क्षण वह प्रिया की काली आंखों में देखता। एक सिहरन उसके पूरे बदन में दौड़ जाती। दूसरे ही क्षण उसकी नजरें किताबों में गढ़ जाती। हृदय मीठी अनुभूति से भर उठता।
कालेज से निकलने के बाद भी प्रिया का चेहरा उसकी आंखों में नाचता रहता। रात को जब वह पढ़ने बैठता तब बार-बार वह उसकी आंखों में प्रकट हो आती। वह उसके मन में उत्साह व उमंग का संचार कर देती। प्रिया का आकर्षण उसके हृदय में नव ऊर्जा का स्राव कर देता। और उस तक पहुंचने के लिए वह पढ़ने में लीन हो जाता।
इस बार उसने दो किताबें खरीद लीं तो उसके महीने का बजट ही डगमगा गया। दादी मां के रुपये पहले सप्ताह में ही खत्म हो गये। दूसरे सप्ताह से ही उसे कोयला फैक्टरी में काम पर जाना पड़ा। शाम को कालेज से लौटते ही वह पढ़ने बैठ जाता। घंटे दो घंटे पढ़ने के बाद वह अपने लिए खाना बनाता। तख्ते पर बैठकर खाना खाता। खाने के बाद होस्टल के लड़के घूमने निकल जाते । मौका पाकर वह काले कपड़े पहनता और होस्टल से निकल जाता। तेज कदमों से चलता हुआ वह थोड़ी ही देर में रेलवे लाइन पार कर जाता।
आज भी रात के नौ बजते-बजते वह कोयला फैक्टरी पहुंच गया। बंगाली फोरमेन ने हंसकर उसका स्वागत किया और हमेशा की तरह उसे काम पर लगा लिया। आज उसे कोयले के बड़े-बड़े ढेलों को फोड़ने का काम मिला। एक हथोड़ा लेकर वह भी सबके साथ काम पर लग गया। हथोड़ा चलाते हुये थोड़ी ही देर में वह पसीने से लथपथ हो गया। थक कर वह पस्त हो गया। थोड़ी देर के लिए आंखें मूंद कर वह सुस्ताने लगा।
‘‘सोम——–।’’
अचानक किसी की पुकार सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने नजरें उठाकर देखा तो सामने खड़ी प्रिया को देखकर विस्मित रह गया। विस्फारित नेत्रें से वह उसे देखने लगा। प्रिया ने उसे फिर पुकारा, ‘‘सोम तुम यहां, इस हालत में।’’
‘‘हां प्रिया जी——लेकिन आप यहां।’’
‘‘यह फैक्टरी हमारी है। मैं डैडी के साथ यहां आई हूं।’’
यह सुनकर वह खड़ा हो गया। अपने काले कपड़ों की धूल झाड़कर वह मुस्काया।
‘‘मैं बहुत गरीब घर का हूं प्रिया जी। गांव में मेरी बूढ़ी दादी मां रहती है। मैंने अपने माता-पिता को नहीं देखा। दादी मां गांव में मेहनत मजदूरी करके मुझे पढ़ाती है। लेकिन शहर का खर्चा तो आप जानती ही हैं। जब भी रुपया खत्म हो जाता है, मैं मजदूरी करने यहां चला आता हूं।’’
वह हंसकर बोला। लेकिन उसका एक-एक शब्द प्रिया के हृदय की गहराइयों में उतर आया। स्तब्ध होकर वह अपलक उसे देखने लगी। तभी बंगाली फोरमेन ने आकर उसे पुकारा,‘‘प्रिया मेमसाब, साहब गाड़ी में बैठे आपका वेट कर रहे हैं।’’
फोरमेन की आवाज सुनकर अचानक…………………………………………..
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