लेख
गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’
वे अपने समय में ही इतनी श्रद्धास्पद बन गई थीं कि समाज ने उन्हें देवी का अवतार मान लिया। 8 मार्च, 1787 ई. के ‘बंगाल गजट’ ने यह लिखा कि देवी अहिल्या की मूर्ति भी सर्वसामान्य द्वारा देवी रूप में प्रतिष्ठित और पूजित की जाएगी।
भारतीय इतिहास उन प्रातः स्मरणीया वीरांगनाओं की अद्भूत शौर्य और पराक्रम की गाथा गाता रहा है, जिन्हांने देश की मान मर्यादा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। लोकमाता पुण्यश्लोक महारानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम ऐसे ही नारी शक्ति की जीवन्त प्रतीक के रूप में अग्रगण्य है।
जब पूरे देश में अराजकता व्याप्त थी, इस्लामी आक्रमण चरम पर था, यूरोपीय आक्रमण अपने पैर पसार रहा था, ऐसे संकटकाल में पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होल्कर ने अपने शौर्य, विवेक, कूटनीति, सुयोग्य नेतृत्व, राजनीतिक समझ, धर्मनिष्ठा, न्यायप्रियता, सादगी, सहजता, संवेदनशीलता, कर्तव्यपरायणता, स्वाभिमान, प्रशासनिक क्षमता, प्रजावत्सलता, आत्मत्याग से अपना नाम विश्व की उन गिनी चुनी महिला शासकों में अंकित कराया, जिन्होंने न केवल अपना साम्राज्य चलाया, अपितु उस समय तक पितृसत्तात्मक कहे जाने वाले झूठे दृष्टिकोण को खण्डित करते हुए, भारत की महान नारी होने का दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया।
लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई, 1725 ई- को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड़ा कस्बे के चॉडी ग्राम में हुआ था। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे मराठा सेना में सैनिक थे। माता सुशीलाबाई एक सामान्य किसान परिवार से थीं।
माँ धार्मिक विचारों की थीं, उसी प्रकार पुत्री अहिल्याबाई भी शैशवकाल से ही मंदिर में पूजा करने जाया करती थी। एक दिन जब ये अपने गांव में शिव मंदिर पूजा करने गयीं, तो वहां आए सूबेदार मल्हारराव होल्कर की दृष्टि उन पर पड़ी। अहिल्याबाई के मुख पर ऐसा अनोखा तेज और लावण्य था कि उन्होंने उसे अपने इकलौते पुत्र की वधू बनाने का निश्चय कर लिया। फलतः आठ वर्ष की अवस्था में ही अहिल्याबाई का विवाह मल्हार राव के पुत्र खाण्डेराव के साथ हो गया। मल्हार राव ने अहिल्याबाई को अपनी पुत्री-सा स्नेह देकर धार्मिक शिक्षा के साथ, युद्ध कौशल एवं शासन प्रशासन की शिक्षा दिलायी।
पति श्री खाण्डेराव की आदतें अच्छी नहीं थीं। वे बुरे व्यसनों के शिकार थे। अहिल्या ने अपने विवेक और कुशल व्यवहार से धीरे-धीरे अपने पति को बुरी आदतों से बचा लिया। 1745 ई- में अहिल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम मालीराव रखा। तीन वर्ष बाद एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम मुक्ताबाई रखा गया।
1754 ई- में खाण्डेराव की एक युद्ध में अपने सैनिकों के निरीक्षण के समय तोप की आग से मृत्यु हो गयी। 29 वर्ष की अवस्था में अहिल्याबाई विधवा हो गयीं। पति की मृत्यु पर वह पति के साथ सती होना चाहती थीं, किन्तु श्वसुर मल्हार राव के समझाने पर उन्होंने अपना निर्णय बदलते हुए जीवित रहने का निश्चय किया। इसके बाद मल्हार राव ने उन्हें सैन्य एवं शासन के मामलों में प्रशिक्षित किया, परन्तु पुत्र-शोक के कारण उनकी 20 मई, 1766 ई- को मृत्यु हो गई। 23 अगस्त 1766 ई- को अहिल्याबाई के इकलौते पुत्र मालेराव होल्कर इक्कीस वर्ष की अवस्था में इंदौर के शासक बने और उन्हें पेशवा की पदवी मिली, परन्तु उनका भी 5 अप्रैल 1767 ई- में असामयिक निधन हो गया।
रानी इस संकट के समय में एकदम अकेली हो गयीं। अवसर पाकर वहां के सरदारों ने राज्य हड़पने का षड़यंत्र रचा। सरदार चन्द्रचूड गंगाधरराव, जो कि परम विश्वासी समझा जाता था, घर का भेदी हो गया। उसने पूजा में सरदार राघोवा (रघुनाथ राव) को इंदौर पर आक्रमण करने का गुप्त निमंत्रण भेजा। रानी को इस षड़यंत्र का पता चल गया। उन्होंने कहा-‘‘मैं एक वीर शासक की पुत्रवधू हूं, एक की पत्नी हूं, एक की माता हूं। मेरा कर्तव्य है कि मैं इस संकट की घड़ी में राजकाज संभाल कर शत्रु का घमंड चूर कर दूं।’’
प्रजा उन्हें अत्यधिक चाहती थी। उसने उनका साथ दिया। उन्होंने अपने से दो वर्ष बड़े सरदार तुको जी राव को सेनापति बनाया। उनसे सम्मति करके अहिल्याबाई ने तुरंत मराठा सरदारों मावराव पेशवा, महादजी शिंदे आदि को सांडनी सवारों द्वारा संदेश भेजें। उन्होंने उनका पक्ष लिया। अहिल्याबाई ने पांच सौ महिलाओं की भी एक अच्छी सेना तैयार की। इनकी सशक्त तैयारी देखकर राघोवा डर गया और लज्जित होकर चुप बैठ गया। रानी की चतुराई, साहस, बुद्धि और शौर्य की दूर-दूर तक यश कीर्ति फैल गई। उन्होंने इंदौर से अपनी राजधानी उज्जैन में परिवर्तित की। तुकोजी रानी से बड़े थे, फिर भी उन्होंने अहिल्याबाई को माता माना और राज्य का कार्य पूर्ण निष्ठा तथा सच्चाई के साथ किया।
अहिल्याबाई की इसी कूटनीति, सैन्य क्षमता एवं दृढ़ता के बाद इनका स्वतंत्र शासन काल आरंभ होता है। उन्होंने 20 मई, 1766 ई- से 5 अप्रैल, 1767 ई- तक राज्य प्रतिनिधि के रूप में कार्य भार संभाला। उनका राजतिलक 11 दिसंबर, 1767 ई- को हुआ। अठाईस वर्षों के अपने शासन काल में उन्होंने असाधारण उपलब्धियां अर्जित की।
उनके राज्य में चोर, डाकुओं, लुटेरों का आतंक बढ़ा, तो उन्होंने घोषणा की कि जो युवक इन डाकुओं का आतंक समाप्त कर देगा, उसी के साथ वे अपनी पुत्री का विवाह करेंगी। एक साहसी युवक यशवंतराव फणसे ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए, राज्य के सैनिकों की सहायता से डाकुओं का दमन किया। रानी ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए अपनी कन्या मुक्ताबाई का विवाह यशवंतराव के साथ कर दिया। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम नत्थूबा था। समय पर नत्थूबा का विवाह हुआ। उसकी दो पत्नियां थीं। घरेलू जीवन कुछ ही समय सुख से बीता, 1789 ई- में नत्थूबा की अज्ञात बीमारी से मृत्यु हो गई। बाद में हैजे से यशवन्तराव की भी मृत्यु हो गई। मुक्ताबाई ने अहिल्याबाई के लाख समझाने के बाद भी सती होने का निश्चय किया। इस अपार दुःख ने अहिल्याबाई को अंदर तक झकझोर दिया और वे हताश हो गईं। फलतः सत्तर वर्ष की अवस्था में 13 अगस्त, 1795 ईं- को उन्होंने अंतिम सांस ली।
उनके अट्ठाईस वर्ष के शासनकाल को स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। उन्होंने उदार कर प्रणाली से प्रजा के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा की। वे मंत्रियों को भी उदारवादी कदम उठाने के लिए समझाती थीं। जब सभी तरह के उपाय असफल हो जाते थे, तभी वे अपराधी को मृत्युदण्ड देती थीं। प्रजा उन्हें मातृस्वरूपा मानती थी। इसी कारण वे लोकमाता कहलायीं।
अहिल्याबाई अति उदार एवं विनम्र शासक के रूप में लोकप्रिय थीं। वे सत्ता को दायित्व की तरह लेती थीं। वे कहती थीं-‘‘ईश्वर ने मुझे जो दायित्व दिया है, उसे मुझे निभाना है। मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है। मैं यहां जो कुछ भी कर रही हूं, उसका ईश्वर के यहां मुझे जवाब देना पड़ेगा।’’
अहिल्याबाई के मराठा प्रांत के शासन में कानून था कि यदि कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी सम्पत्ति राजकोष में जमा हो जाती थी। उन्होंने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपने पति की सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकारी बनाया। उन्होंने महिला शिक्षा पर जोर दिया। वे महिला सशक्तीकरण के लिए प्रेरणास्रोत बनीं।
वे परम शिवभक्त थीं। उनकी राजाज्ञाओं पर ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। वे अपने समय में ही इतनी श्रद्धास्पद बन गई थीं कि समाज ने उन्हें देवी का अवतार मान लिया। 8 मार्च, 1787 ई. के ‘बंगाल गजट’ ने यह लिखा कि देवी अहिल्या की मूर्ति भी सर्वसामान्य द्वारा देवी रूप में प्रतिष्ठित और पूजित की जाएगी।
उनके शासनकाल में कला, साहित्य, और सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुए। कहते हैं, उनके काल में कारीगरी के छेनी हथौड़े की आवाज कभी बंद नहीं हुई। उन्होंने कारीगरी और बुनकरों के लिए स्थाई व्यवसाय की व्यवस्था की थी। वहां की महेश्वरी साड़ी आज भी प्रसिद्ध है। उनके राज्य में मालवा पर कोई भी आक्रमण नहीं कर पाया। मालवा स्थायित्व सुख और शांति के प्रतीक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ।
अहिल्याबाई ने मात्र अपने राज्य की ही भलाई नहीं की, अपितु संपूर्ण भारत के लिए परोपकार के कार्य किए। वे धार्मिक क्षेत्र में दान-पुण्य में रुचि लेती थीं। हिमालय से लेकर दक्षिण भारत तक के तीर्थस्थानों पर उन्होंने विश्रामालय तथा धर्मशाला निर्माण कराए। उन्होंने गर्मियों में यात्रियों के लिए पेयजल की व्यवस्था करायी तथा शिशिर ट्टतु में दीन-हीन लोगों के लिए भी गर्म कपड़ों की व्यवस्था करायी। साथ ही सड़कें और कुएं बनवाए, जहां छायादार वृक्ष लगवाए। उन्होंने कई सारे मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार भी करवाया। बद्रीनाथ, द्वारका, ओंकारेश्वर से लेकर पुरी, गया जी तक प्रत्येक तीर्थस्थान पर किसी न किसी रूप में योगदान दिया। उन्होंने श्रीनगर, हरिद्वार, प्रयाग, नैमिषारण्य, उज्जैन, उडूपी, गोकर्ण, काठमाण्डू जैसे क्षेत्रें का उद्धार कराकर संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में आबद्ध किया। इसमें अधिक स्मरणीय कार्य हैं काशी का प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर, जिसका उन्होंने पुनः निर्माण कराया। उन्होंने भारत देश में सशक्त नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया। वह न केवल कुशल प्रशासक थीं, अपितु समाज उत्थान एवं पर्यावरण संवर्द्धन की भी प्रणेता कही जा सकती हैं।
अहिल्याबाई मुहम्मद गजनबी द्वारा ध्वस्त किए गए सोमनाथ मंदिर को देखकर अत्यंत दुखी हुईं। उन्होंने 1783 ई. में भूमिगत मंदिर में शिवलिंग की स्थापना का निर्णय लिया, जिससे वह दूषित न हो सके, उसकी पवित्रता बनी रहे। उन्होंने दक्षिण भारत के तीस से भी अधिक मंदिरों में………………………
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