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वृद्धावस्था जीवन का स्वर्णिम काल है

. परिवार .

. वृद्धावस्था जीवन का स्वर्णिम काल है .
-गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’

. वृद्धावस्था में कुछ आवश्यक बातें जिन पर ध्यान देना श्रेयस्कर होगा .

जीवन का एक कटु सत्य है कि वृद्धावस्था अर्थात बुढ़ापा सबको आता है। यह जीवन का अंतिम और अनिवार्य पड़ाव है। ज्याें-ज्यों मनुष्य की आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे समस्त इंद्रियों की कार्य क्षमता का हृास होने लगता है।
आयु प्रक्रिया एक जैविक वास्तविकता है, जिसकी अपनी एक विशिष्ट गतिशीलता है, जो मानव नियंत्रण से परे है। विश्व के अधिकांश विकसित देशों ने 65 वर्ष की आयु के व्यक्ति को वृद्धजन स्वीकार किया है, वहीं अफ्रीका जैसे देश यह पश्चिमी अवधारणा नहीं मानते हैं। वहां 50 से 65 वर्ष की आयु वृद्धावस्था मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ 60 वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्ति को वृद्ध मानता है। इन्साइक्लोपीडिया बिटेनिका में सांख्यिकीय एवं लोक प्रशासन उद्देश्यों के लिए 60 या 65 वर्ष आयु को वृद्धावस्था माना है। पश्चिम देशों में इस आयु को सेवानिवृत्ति एवं सामाजिक सुरक्षा के पात्रता योग्य समझते हैं। प्रायः यही प्रक्रिया भारत में भी लागू है।
संयुक्त राष्ट्र संघ एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि विश्व के देशों में ही नहीं, भारत में भी वृद्धजन की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
60 वर्ष या इसके ऊपर वृद्धजन का अनुपात 2000 में 9-9 प्रतिशत बढ़ा, वर्ष 2025 में 14-6 प्रतिशत तथा वर्ष 2050 तक 21-1 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है। यूएनएफपीए भारत प्रमुख के अनुसार 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या 2050 तक 34-6 करोड़ हो जाएगी। यह वर्तमान से लगभग दोगुनी होगी। इस अर्थ में लगता है कि भारत वृद्ध होते लोगों का देश के रूप में सामने आ रहा है।
हमारे यहां वृद्धजन को वरिष्ठ नागरिक कहकर मान दिया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 14 दिसंबर, 1990 को सदस्य राष्ट्रों की सहमति से 1 अक्टूबर को प्रतिवर्ष ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
वृद्धावस्था के सामाजिक पहलू वृद्ध पीढ़ी के आयु संबंधी प्रभावों, सामूहिक अनुभवों एवं साझा किए मूल्यों के पारस्परिक समन्वय द्वारा प्रभावित होते हैं। परिवार और समाज में वृद्धजन का सदैव सम्मानजनक स्थान रहा है।
किन्तु 21 सदी में तेजी से बदलते परिवारों में उनका स्थान लगातार नीचे गिरता जा रहा है। विश्वभर में बढ़ रही घोर प्रतिस्पर्धा से नैतिक एवं पारिवारिक एकता के मूल्यों का पतन होता जा रहा है। वृद्धों पर इसका प्रभाव अधिक है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वे बेटों और परिवार के सुख से वंचित हो रहे हैं।
उन्हें बुढ़ापे का भय, अकेलापन, सहगामी कठिनाइयां, दौर्बल्य, संयुक्त परिवारों का विघटन, पीढ़ी अंतराल एवं संघर्ष, अवसरवादी मनोवृत्ति, जीवनयापन की आवश्यक सुविधाओं का अभाव आदि की चिंता प्रतिपल सताती रहती है। वर्तमान समय उनकी ये समस्याएं रौद्र रूप दिखा रही हैं। और अनेक प्रकार से प्रताड़ित कर रही हैं। वे परिवार में अकेले पड़ गए हैं क्योंकि आजकल युवकों को स्वदेश में इच्छित कार्य के अवसर नहीं मिल रहे हैं। विदेशों में पढ़ने तथा अधिक धन कमाने एवं वहां स्थायी रूप से बसने वाले युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। आधुनिक सुख सुविधाओं की चाह में वे स्वयं तो विदेशों के बड़े शहरों में रहना चाहते हैं लेकिन अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम या गांव कस्बे में अकेला छोड़ना चाहते हैं। युवाओं के समक्ष भी विवशता है कि उन्हें गांव घर के आसपास आजीविका का कोई साधन नहीं मिलता और वे शिक्षित बेरोजगार भी कब तक रह सकते हैं।
आधुनिक जीवन की व्यस्तता और पारिवारिक जीवन के टूटते बिखरते संबंधों ने वृद्धजन को गहरे से प्रभावित किया है। आज रिश्ते नातों की गर्माहट जताने का समय भी………

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