तिरस्कार
कहानी – डॉ. अशोक रस्तोगी
अल्हड़ नवयौवना सुधा महाविद्यालय के छात्र आशुतोष शुक्ला के प्रति मन ही मन समर्पित हो गई। जब व्यवहार में अनजाने ही वह मर्माहत हो गई तो वह तिलमिला उठी। नारी हृदय की संवेदनशीलता की भावपूर्ण कहानी।
सरस्वती संगीत कला केन्द्र गाजियाबाद के संचालक संगीत सम्राट प्रख्यात सितार वादक डॉ- परितोष शुक्ला बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अफजलगढ़ के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में पधार रहे थे।
संगीत सम्राट के कार से उतरते ही उन्हें पत्रकारों, राजनीतिज्ञों, छात्रओं तथा शिक्षिकाओं के समूह ने घेर लिया। कुछ ने अभिनंदन स्वरूप उनका कण्ठ पुष्प मालाओं से भर दिया तो कुछ ने उनके हस्ताक्षर लेने के लिए अपनी-अपनी डायरियां उनके आगे कर दी। विद्यालय की एक शिक्षिका के मन में तो उनका हस्तलेख लेने तथा उन्हें निकट से देखने की अधीरता कुछ ज्यादा ही थी। वह बार-बार आगे बढ़ती, परन्तु हर बार भीड़ का एक रेला आता और उसे कहीं से कहीं धकेल देता। कई बार के प्रयासों से एक बार वह उनके निकट पहुंच ही गई। और उसने स्फूर्ति से अपनी डायरी का प्रथम पृष्ठ खोलकर उनके सामने लहरा दिया। संगीत सम्राट ने उस पृष्ठ पर पढ़ा-‘सुर सधे जब मेरा, तुम राग की वीणा बजाना’ -सुधा गुप्ता
गीत और नाम पढ़कर चकित रह गए परितोष शुक्ला। कभी सोच भी नहीं सके थे कि किसी अनजान स्थान पर इस तरह यकायक सुधा से भेंट हो जाएगी। उनकी शांत और निर्मल आकाश जैसी आंखें कुछ सोचने वाले भाव में सिकुड़ी और फिर सुधा गुप्ता के श्यामल चेहरे पर आकर लक्षित हो गई। वे कुछ पूछने ही वाले थे कि तभी आयोजक उन्हें लेने आ पहुंचे। सुधा हताश भाव से भीड़ से निकलकर सभागार में बिछी कुर्सियों पर अग्रपंक्ति में जा बैठी।
कार्यक्रम आरंभ हुआ तो सर्वप्रथम संगीत सम्राट के सम्मान में कुछ छात्रओं ने नृत्य के साथ अभिनंदन गीत प्रस्तुत किया। और फिर उद्घोषिका ने मंच से गायन के लिए सुधा गुप्ता को पुकारा तो दृष्टि नत किए वह मंच पर चढ़ी तथा क्षणिक दृष्टिपात देश भर में अपने संगीत की धूम मचा चुके डॉ- परितोष शुक्ला के तेजोदीप्त आभामंडल पर किया और ध्वनि विस्तारक के समक्ष मुंह करके शास्त्रीय संगीत के सुरों में गाना आरंभ कर दिया-‘सुर सधे जब मेरा, तुम राग की वीणा बजाना’
डॉ- परितोष ने चौंककर गायिका की ओर देखा-उनके जीवन का सर्वाधिक प्रिय गीत जिसे वे कभी विस्मृत नहीं कर सके। और न ही उस गायिका को भूल सके जो उनके जीवन का प्रथम प्रेम थी और बीस वर्ष पुरानी जीर्ण-शीर्ण सी, तिक्त और मधुर सी स्मृतियां उनके मानस पटल पर ऐसे उभरने लगी जैसे कल की ही बात हो—-।
आयुर्वेद महाविद्यालय हरिद्वार के अध्ययन काल में कनखल में किराए पर जिस आवास में वे रहने पहुंचे थे उसमें अल्हड़ पुरवाई की तरह शोर मचाती रहने वाली, श्यामल से सामान्य से सौंदर्य वाली किशोरी से प्रथम दृष्टिपात हुआ तो पिछले दिनों घटित एक घटना अवचेतन में यकायक ही तैर गई। महाविद्यालय जाते समय उनकी साइकिल से टकराकर जो छात्र गिर पड़ी थी और उसकी पुस्तकें भी छिटककर सड़क पर बिखर गई थीं। वह यही थी। भय के साथ-साथ अपराधबोध से भी ग्रस्त हो गए थे वे। पल-पल यही आशंका बलवती हो उठती थी कि कहीं उन पर छेड़खानी का आरोप लगाकर कोई बखेड़ा न खड़ा कर दिया जाए।
कई दिनों तक वे उसके दृष्टिपथ में आने से बचते रहे। और जब एक रात्रि को वह अपनी मां के साथ उनके कक्ष में आ विराजी और ससंकोच करबद्ध अभिवादन के बाद बिना कहे ही कुर्सी पर बैठ गई तो वे कुछ आशंकित से हुए क्यों आई होगी? क्या प्रयोजन रहा होगा? कहीं उसी घटना की शिकायत करने तो नहीं आई?
सहज वे तब हुए जब उसकी मां ने वार्त्ताक्रम प्रारंभ किया-‘बेटा यह मेरी बेटी सुधा तुमसे कुछ कहने आई है।’
उन्होंने उसके चेहरे पर दृष्टि स्थिर करते हुए पूछा-‘कहिए?’
‘जी मैं इंटर क्लास में विज्ञान की छात्र हूं, क्या आप मुझे विज्ञान पढ़ा देंगे?’ सुधा के स्वर में कंपकंपाहट के साथ संकोच भी था।
‘जी नहीं।’ उन्होंने सपाट स्वर में कहा-‘मैं अपने अध्ययन में से इतना समय नहीं निकाल सकता कि तुम्हें पढ़ा सकूं।’
उसका चेहरा बुझ सा गया। कुछ देर खाली दीवारों पर दृष्टि फिराती रही फिर मां का हाथ पकड़कर बोझिल कदमों से बाहर जाने लगी।
किन्तु अगले ही पल वह मुड़ी और पैर से फर्श पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचते हुए बोली-‘यदि आपका खाना मेरी मम्मी बना दे तो तब तो आप कुछ समय निकाल ही लेंगे न?’
‘जी नहीं! मैं किसी के घर का बना खाना नहीं खाता। या तो अपनी मां के हाथ का खाता हूं या फिर स्वयं बनाता हूं। अकारण किसी का उपकार नहीं लादता फिरता। और दूसरी स्पष्ट बात यह है कि किसी लड़की को तो मैं बिल्कुल भी नहीं पढ़ा सकता।’ उन्होंने उपेक्षा भाव से कहा तो उसने साहस संजोकर पूछा-‘आपको स्वयं पर विश्वास नहीं है या मुझ पर?’
‘कुछ भी समझ लो, पर मेरा दिमाग मत चाटो! और जाओ यहां से!’ उन्हाेंने किंचित आवेश प्रकट किया तो उसकी सीप जैसी छोटी-छोटी आंखों से दो आंसू निकलकर नीचे टपक पड़े। अंगुलियों के पोरों से उन्हें पोंछती हुई वह तत्काल बाहर निकल गई।
अगले दिन जब वे विद्यालय से लौटे तो यकायक उनकी दृष्टि ऊपर गवाक्ष की ओर उठ गई। गवाक्ष में से सुधा का शरद की सुबह जैसा शांत और उदास चेहरा झांक रहा था जो उनसे दृष्टिपात होते ही ओझल हो गया। वे हाथ मुंह धोने के लिए स्नानागार में घुसे तो वह दबे पांव उनके कक्ष में प्रविष्ट हुई और मलाईदार खीर की कटोरी रखकर भाग खड़ी हुई।
फिर तो उसका यह नित्यप्रति का क्रम ही बन गया। जब कभी भी उन्हें वापस लौटने में देर हो जाती तो वह गवाक्ष में प्रतीक्षारत खड़ी मिलती और दृष्टि मिलते ही गायब हो जाती। तथा अवसर पाते ही अपने हिस्से का कोई भी सुस्वादु व्यंजन उनके कक्ष में रख जाती। एक दिन वे स्नानागार में जाकर तुरंत लौट आए। और हलवे की प्लेट रखती सुधा के सामने अड़कर खड़े हो गए। वह भी दृष्टि नत कर काष्ठ की मूर्ति बनी खड़ी रह गई। उन्होंने उस कोंपल जैसी वयस वाली सुधा की उदासी देखी तो हृदय द्रवीभूत हो उठा। मन ही मन उसका हृदय दुःखाने का पश्चात्ताप भी हुआ। कुछ पलों तक वे उसके कुम्हलाए चेहरे को निहारते रहे फिर बोले-‘जाओ! अपनी पुस्तकें ले आओ और जो कुछ पूछना हो पूछ लो। लेकिन यह हंसता मुस्कुराता चेहरा अब से कभी मुरझाया हुआ नहीं दिखना चाहिए।’
सुधा के चेहरे पर उस समय वह खुशी उभर आई जो किसी छोटे बच्चे को उसका प्रिय खिलौना मिल जाने पर होती है। अपनी पुस्तकें लाकर उनके पास बैठने में उसने पलभर का भी विलम्ब नहीं किया।
धीरे-धीरे उसका संकोच दूर होता गया और वह लगभग प्रतिदिन ही अपनी पाठयक्रम संबंधी समस्याएं सुलझाने उनके पास आने लगी। साथ ही उनके कक्ष को स्वच्छ करके अस्त व्यस्त पड़ी वस्तुओं को सुव्यवस्थित रूप देने लगी। अपने हिस्से के विशिष्ट व्यंजन तो वह उन्हें खिलाती ही थी, विद्यालय का संपूर्ण आंखों देखा घटनाक्रम जब तक वह उन्हें सुना न देती तब तक उसके हृदय को चैन न मिलता। अपनी समस्त कॉपियों और पुस्तकों पर उसने अपने नाम के साथ-साथ परितोष का नाम भी जोड़ लिया था। कोई पूछता तो बड़े गर्व से बताती कि उसके श्रद्धेय गुरु जी हैं।
घर भर में विद्रोही झोंके की तरह हड़कंप मचाती रहने वाली जिद्दी सुधा उनके एक भृकुटि संकेत पर प्रभात की ओस की बूंद की तरह शांत हो जाती थी। कब और क्यों उसने परितोष की आंखों का मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था कोई नहीं समझ पाया?
उसी मध्य में उसका जन्म दिवस पड़ गया था। समारोह में परितोष को मुख्य अतिथि ही जो बना दिया था उसने। यज्ञ भी उन्हीं से कराया, मोमबत्तियां भी उन्हीं से जलवायीं। और सर्वप्रथम केक भी उन्हें ही खिलाया। छायाकार को भी उसने स्पष्ट निर्देश दे रखा था कि प्रत्येक छायाचित्र में परितोष अवश्य दिखने चाहिए। सजी-धजी गुड़िया जैसी सुधा से परितोष ने जब कोई गीत गाने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गई जैसे पूर्व से ही सुनाने का मन बना चुकी हो। कोयल जैसे सुरीले स्वर में उसने गाना प्रारंभ किया तो वे बड़ी तन्मयता से सुनने लगे।
सुर सधे जब मेरा,
तुम राग की वीणा बजाना।
साधना संगीत में प्रिय,
साथ तुम मेरा निभाना।
हर कदम पर साथ मेरे,
ताल तुम अपनी मिलाना।
गीत जब मेरे सुनो तो,
संग-संग तुम भी गुनगुनाना।
तुम राग की वीणा बजाना—-
बहुत कर्णप्रिय लगा उन्हें वह गीत। सुनते-सुनते जैसे वह सपनों की वादियों की सैर करने पहुंच गए। आभास हुआ कि उसने वह गीत उन्हें ही परिलक्षित करके गाया है।
वह गीत उन्हें इतना भाया कि उनके होंठ उठते-बैठते वही गीत गुनगुनाने लगे। सुधा से भी उन्होंने कई बार सुना।
समय निर्बाध गति से आगे बढ़ता रहा। सुधा की निकटता भी बढ़ती रही। किन्तु परितोष ने कभी भी उसे गंभीरता से नहीं लिया था। वह उसे अभी भी भोली-भाली सरल हृदयी, नादान तरुणी ही समझते थे। उसे उदास पाकर वह कभी भी गुद्गुदा देते थे। कभी रूठ जाती तो बहला-फुसलाकर मना लेते थे।
परितोष में एक नया सांस्कृतिक तत्व था। वह बहुत शालीनता व शिष्टाचार से रहते थे। उनके मृदुल स्वभाव ने घर भर को ही नही अपितु मोहल्ले को भी अपना बना लिया था। उनकी चारित्रिक दृढ़ता पर भी सभी को इतना विश्वास था कि सुधा की निकटता पर किसी को लेशमात्र भी आपत्ति नहीं थी।
तभी घटित हुई थी वह घटना जिसने उनके तन-मन को झकझोरकर रख दिया था। उनकी जीवन धारा ही बदल गई थी। हुआ यह था कि——————-
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