हम अपने पाठकों को नवसंवत की शुभ कामनाएं प्रेषित करते हैं। तथा कामना करते हैं कि हमारे देश के वासी अपने इस संवतसर को अधिकाधिक व्यवहार में लाएं। आज के वातावरण में कालगणना की इस पद्धति का व्यवहार क्योंकि अधिक व्यापक नहीं है इसलिए भले ही इसे व्यवहार में लाना कठिन है, परन्तु वह इस कालगणना की वैज्ञानिकता, प्रकृति अनुकूलता तथा महत्व को समझें, इसके प्रति श्रद्धा रखें। इस के महत्व को भी अधिकाधिक प्रचारित करें ताकि धीरे-धीरे समाज में इसका प्रचलन बढ़ता जाय।
समाज आज भले ही कैलेण्डर वर्ष को उपयोग में लाए परन्तु वे इस सत्य को अपने हृदय में स्थापित रखें कि हमारा संवतसर ही श्रेष्ठ है। और हम उसको एक दिन अवश्य व्यवहार में लाने में सफल होंगे क्योंकि वह हमारी संस्कृति का पोषक और संरक्षक है।
इस की वैज्ञानिकता के पक्ष में सर्व प्रथम तथ्य है कि हमारी संस्कृति प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर चलती है हमारे अनेक त्यौहार प्रकृति अर्थात् मौसम के परिवर्तन के अनुसार मनाए जाते हैं। जैसे पेड़ों पर कोंपले आती हैं तो हम बसंत मनाते हैं, फसल पक कर आती है तो हम वैशाखी मनाते हैं वर्षा की तीज में बगीचों में झूले डाल कर आनंद मनाया जाता है वर्षा के बाद घर की सफाई सजावट दीवाली के साथ मनाई जाती है। हर त्यौहार को प्रकृति के साथ जोड़ कर मनाया जाता हे।
मनुष्य की दैनिक दिनचर्या भी प्रकृति के अनुकूल हो तो वह स्वस्थ रहता है। वह यदि सूर्योदय से पूर्व पक्षियों के कलरव के साथ जागता है और दिन का समय कार्य के लिए तथा रात्रि का समय विश्राम करता है वह अपेक्षाकृत स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होता है। प्रकृति के विरुद्ध आचार व्यवहार करने वाला रोगी हो जाता है इसी प्रकार जो संस्कृति प्रकृति के साथ सामंजस्य करके चलती है वह स्वस्थ एवं गतिशील रहती है।
हमारा यह संवतसर भी पूर्णतया प्रकृति के जागने के साथ आरंभ होता है। जब प्रकृति में पतझड़ के बाद नई कोपलें आने लगती हैं, पेड़ पौधे मुस्कराने लगते हैं, कोयलें प्रकृति के इस नये जन्म के स्वागत के लिए गाने लगती है तो हमारा नया वर्ष प्रारंभ होता है।
कालगणना का एक उपयोग वर्ष भर का लेखा जोखा करना भी होता है
हमारा कैलेण्डर वर्ष क्योंकि भारत की प्रकृति के अनुकूल नहीं है इसलिए आर्थिक दृष्टि से लेखा जोखा करना इस वर्ष के अनुसार संभव नहीं है। इसलिए आर्थिक लेखा जोखा के लिए सरकार ने 1 अप्रैल से 31 मार्च को ही वर्ष माना हुआ है। लगभग दो तीन दशक पूर्व एक बार सरकार ने ईस्वी वर्ष को ही आर्थिक लेखा जोखा मानने की घोषणा की परन्तु एक दो वर्ष में ही उन्हें अपना निर्णय बदलना पड़ा क्योंकि भारत का आर्थिक उत्पादन का आकलन उसमें संभव न था। हमारे देश में मुख्यतः दो फसलें होती हैं इस काल में एक फसल घर आ चुकी होती है और दूसरी खेत में पक कर तैयार हो जाती है। अतः आर्थिक समृद्धि का आकलन सम्वतसर के अनुसार ही व्यावहारिक है। वह भारत की प्रकृति के अनुकूल है। इसलिए यह कहा जाय कि थोपा गया ईस्वी वर्ष हमारे लिए व्यावहारिक नहीं है।
शिक्षा की दृष्टि से गणना के लिए भी ईस्वी वर्ष को व्यावहारिक न मान कर शिक्षाविदों ने शिक्षा सत्रें का आयोजन संवत के अनुसार अप्रैल से मार्च तक ही किया हुआ है।
हमारी दिव्य विभूतियों के जन्म दिन इसी संवत के अनुसार मनाए जाते हैं। रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, महावीर जयन्ती बुद्धपूर्णिमा, नानक जयन्ती सभी तो संवतसर की तिथियों के अनुसार मनाए जाते हैं, इस गणना को हम विस्मृत कर देंगे तो महापुरुषों के कृतित्व को कैसे स्मरण रखेंगे। यदि दशमी की गणना का हिसाब नहीं जानेंगे तो विजयदशमी कैसे मनाएंगे।
गहराई से न सोचने वालों को कई बार लगता है सम्वत के अनुसार किसी वर्ष एक त्यौहार एक तारीख को पड़ता है अगले वर्ष वही त्यौहार दूसरी तारीख को पड़ता है। इससे उन्हें कुछ अटपटा लगता है।
वस्तुतः ईस्वी वर्ष की गणना सूर्य पर आधारित है और इस्लामी देशों की कालगणना (सेमेटिक गणना) चन्दमा पर आधारित है। सूर्य की गणना में पृथ्वी 365 दिन$ लगभग 6 घंटे में सूर्य के परिक्रमण में एक वर्ष पूर्ण करती है। इसे एक वर्ष कहते हैं। जो घंटे अधिक हैं उसके कारण हर चौथे वर्ष फरवरी में एक दिन बढ़ाकर इसका समायोजन किया जाता है। परन्तु इस कैलेण्डर का प्रचलन ईसा से 753 वर्ष पूर्व हुआ था। तब इस में दस मास थे। सितम्बर सातवां, अक्टूबर आठवां, नवम्बर नौवाँ तथा दिसंबर दसवां मास था बहुत बाद में इन में हुए अनुसंधानों के कारण दो मास जोड़े गए।
सेनेटिक वर्ष अर्थात् इस्लामी वर्ष चन्द्रमा की गति पर आधारित है। चन्द्रमा की गति के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग सात दिन का अन्तर पड़ जाता है। इसलिए सेमेटिक कैलेण्डर में मुसलमानों को त्यौहार मनाने में अत्यंत कठिनाई होती है। कभी ईद गर्मियों में कभी सर्दियों में आती है।
भारतीय संवतसर की गणना सूर्य और चन्द्रमा दोनों के समन्वय पर आधारित है। सूर्य के अनुसार गणना में ग्रेगेरियन कैलेण्डर के अनुसार दिन तिथि नहीं बदलते हैं जैसी वैशाखी सदा 13 अप्रैल तथा मकर संक्रांति सदा 13 जनवरी को होती है परन्तु चन्द्रमा के अनुसार प्रतिवर्ष में लगभग सात दिन का अन्दर पड़ जाता है। अतः इस का सामजस्य सूर्य की गणना के साथ करने के लिए हर चौथे वर्ष एक मास बढ़ा दिया जाता है जिसे मल मास या अधिक मास कहा जाता है। जिसके कारण त्यौहार में मात्र न्यूनाधिक सात दिन का अन्तर पड़ता है। इस कारण व्यवहार में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है।
चन्द्रमा और सूर्य के अनुसार गणनाओं का अपना-अपना महत्व है। वैज्ञानिक अनुसंधान की गहराईयों में न भी जाएं तो प्रत्यक्ष व्यवहार में सौर मास की गणना तो दिन के उदय के साथ होती है। इसलिए इस की गणना केवल दैनदिन व्यवहार के लिए उपयोगी है।
चन्द्रमा के अनुसार गणना का अपना महत्व है। आज हम तारीख का निर्धारण अखबार देखकर या रेडियो टी वी देखकर लगा सकते हैं परन्तु चन्द्रमा की तिथि का निर्धारण गांव में तथा वनों में रहने वाला सामान्य जन भी आकाश की ओर देखकर लगा सकता है कि आज पूर्णमासी है अथवा आज एकादशी है। यह तिथि जानने का एक स्वयंसिद्ध तरीका है। व्यावहारिक प्रचलन का यह लाभ भी बड़े महत्व का है।
इस के अतिरिक्त अनेक उपवास एवं व्रत चन्द्रमा की तिथियों के साथ जुड़े हुए हैं। उनका महत्व इस रूप में देखा जा सकता है। चन्द्रमा के घटने बढ़ने का प्रभाव सृृष्टि के प्रत्येक तत्व पर पड़ता है। समुद्र पर इस का प्रभाव तो स्पष्ट रूप से ज्वार भाटा के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार मानव शरीर पर भी इसका प्रभाव अनेक रूपों में पड़ता है। भारतीय मनीषियों ने इसी प्रभाव का आकलन कर तिथियों के साथ व्रत उपवासों को जोड़ा है इसलिए व्यवहार में चन्द्रमा की तिथियों का महत्व आज भी हिन्दू घरों में अधिक प्रचलित है।
यहां तो इस विश्लेषण का प्रयोजन इतना ही है कि भारतीय संवतसर किस प्रकार हमारे जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ है। हमारे आज भी शुभ कार्यों के मुहूर्त चाहे वह गृह प्रवेश हो या विवाह संस्कार इस का शोधन भारतीय तिथियों के अनुसार ही किया जाता है।
हमारा निवेदन यह है कि जब हमारा संवतसर इतना प्राचीन, इतना वैज्ञानिक एवं इतना व्यावहारिक है तथा हमारी संस्कृति का आधार है फिर हम इसकी जानकारी आने वाली पीढ़ी को क्यों नही देते। आज नई पीढ़ी को पूछिए। वह संवतसर वर्ष के बारह मास चैत्र, वैशाख आदि पूरे बारह नाम भी नहीं बता सकेंगे। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस की सामान्य जानकारी भी अपनी भावी पीढ़ी को नहीं है।
अपनी संस्कृति के प्रति दूसरे देश के लोग कितने सचेत रहते हैं इसका उदाहरण देखिए। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के कारण परास्त हुआ परन्तु जैसे ही वह अमेरिका के प्रभाव से मुक्त हुआ तो उसने पहला काम अपनी कालगणना को व्यवहार में लाने का किया। क्योंकि वह जानता था कि कालगणना से ही अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान जागृत होता है।
एक दूसरा उदाहरण देखिए। सब दुनिया जानती है कि संख्या में शून्य का हिन्दसा भारत की देन है। रोमन की गिनती में एक को एक डंडा, दो को दो डंडे तथा तीन को तीन डंडों से पहचाना जाना जाता है। पांच के लिए वी (ट) जैसा चिह्न लगाया जाता था। यह अंक आज भी कई-कई घड़ियों में देखे जाते है। यह गिनती भले ही प्रचलित न हो, परन्तु आज भी भारत के बच्चों को भी पाठ्यक्रम में इस गिनती को पढ़ाया जाता है।
लेकिन हमारी कालगणना कितनी वैज्ञानिक है, प्राचीन है कि आज भी उसके अनुसार चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का पल, घड़ी का गणित लगाया जाता है और हजारों वर्षो से लगाया जा रहा है जबकि पश्चिमी कालगणना में तो जमीन गोल है इस की घोषणा करने वाले वैज्ञानिक गेलेलियों को ही फांसी पर चढ़ा दिया गया था क्योंकि चर्च यह मानता था कि जमीन चपटी है।
अपनी हर दृष्टि से वैज्ञानिक और संस्कृति की पोषक कालगणना के क्रम की सामान्य जानकारी भी बच्चों को नहीं दी जाती।
अंग्रेंजों की पराधीनता के समय तो यह न पढ़ाया जाना तो समझ में आता है परन्तु आज 75 वर्ष हुए आजादी मिलने के बाद भी इसकी सामान्य जानकारी भी बच्चों को क्यों नहीं दी जाती। पूरा खगोल शास्त्र या ज्योतिष शास्त्र की बात नहीं की जा रही है। केवल मात्र सम्वतसर की गणना चन्द्र और सूर्य दोनों दृष्टि से है एवं किस प्रकार यह वैज्ञानिक है। बारह मासों के नाम तो उन्हें बताए जाएं परन्तु दुर्भाग्य तो यह है कि आज बच्चों को पाश्चात्य संस्कृति को परोसने का इतनी मनोवैज्ञानिक षड्यंत्र चल रहा है कि बच्चे हिन्दी के अंक उन्नीस, उनतीस या उनचास भी भूलते जा रहे हैं उन्हें अंग्रेजी के अंक में ही थर्टीनाइन और फाटी नाइन बताने पड़ते हैं। इसका प्रभाव दूरगामी होगा अंग्रेजियत के प्रति इतनी भक्ति का प्रभाव हमें दो तीन पीढ़ी बाद पता चलेगा।
हमें चाहिए कि हम अंग्रेजी वर्ष का व्यवहार भले ही विवशता वश करते रहे, परन्तु अपने सम्वतसर का प्रचार और व्यवहार इतना अधिक करे कि समाज में अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान जागृत हो और वह इसे अपने दैनिक जीवन में व्यवहार में लाए। इस संकल्प के साथ हम नव संवत को मनाए कि वह संवतसर के प्रचार के लिए कम से कम अभिनंदन पत्र तथा एस एम एस कर के लोगों को बधाई दें, उपहार दें ताकि धीरे-धीरे वातावरण में इस प्राचीन संवत के प्रति लोगों की भावनाएं श्रद्धा से भरें।