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दादा दादी का साथ कितना अनिवार्य

जिन घरों में गिने-चुने लोग ही आते हैं वहां बच्चों के व्यवहार में खुलापन अथवा व्यापकता व संबंधों के निर्वाह करने की योग्यता नहीं आ पाती।

सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक

परिवार
सीताराम गुप्ता

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवारों को न केवल सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है अपितु एक संयुक्त परिवार के बहुत से लाभ भी है। आज देश भर में संयुक्त परिवारों की अपेक्षा एकल परिवारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं जैसे पढ़े लिखे युवक युवतियों की अलग रहने की चाहत, नौकरी या व्यवसाय के सिलसिले में परिवार से दूर रहने की विवशता, माता-पिता का पूर्ण सहयोग न मिलना अथवा परिवार में सदस्यों के बीच संबंधों का सामान्य न होना। कारण जो भी हो इसका सीधा असर बच्चों के लालन-पालन व चरित्र निर्माण पर पड़ता है। आज की युवा पीढ़ी में हमारी सांस्कृतिक विरासत और नैतिक मूल्यों के प्रति जानकारी का अभाव व उपेक्षा सामान्य बात है और इन सब बातों का बच्चों के सर्वांगीण विकास पर गहरा असर पड़ता है। इसके अभाव में उनका विकास सर्वांगीण न होकर एकांगी रह जाता है।
संयुक्त परिवारों में बच्चों की परवरिश में माता-पिता के अतिरिक्त दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई आदि रिश्तों की भूमिका भी बहुत महतवपूर्ण होती है। परिवार के सभी सदस्यों के साथ रहने से बच्चों को हर समय किसी न किसी का साथ अथवा सान्निध्य मिलना स्वाभाविक है। इससे बच्चों में सुरक्षा का अहसास रहता है और वे भावनात्मक रूप से सुदृढ़ व संतुलित बने रहते हैं। आज परिवारों में कम बच्चे होने से संयुक्त परिवारों का पारंपरिक रूप तो कम ही दिखलाई पड़ता है जिसमें दादा-दादी के अतिरिक्त बहुत सारे चाचा-चाचियां, ताऊ-ताइयां अथवा बुआएं हों लेकिन दादा-दादी तो सबके ही होते हैं। आज यदि चाचा है तो ताऊ अथवा बुआ नहीं है और यदि बुआ है तो चाचा या ताऊ नहीं है। हालात ऐसे है कि कइयों के न तो चाचा, ताऊ अथवा बुआ ही हैं और न मौसी अथवा मामा ही। परिवारों में सदस्यों की घटती संख्या के बावजूद यदि दादा-दादी भी साथ नहीं रहते या रह सकते तो इससे बड़े दुःख व दुर्भाग्य की बात क्या होगी?
एक संयुक्त परिवार में रहने वाले बच्चों में मिल-जुलकर रहने की भावना का विकास अपेक्षाकृत अधिक होता है अतः उनका दृष्टिकोण भी व्यापक हो जाता है। एक दूसरे के प्रति सहयोग व सहिष्णुता की भावना भी उनमें अधिक मिलती है। जब घर में कई पीढ़ियों के लोग मिल-जुलकर रहेंगे तो सभी के रिश्तेदार और परिचित भी घर पर आएंगे। इससे बच्चों का सामाजिक दायरा भी विस्तृत होगा और उनमें संबंधों के निर्वाह करने की योग्यता भी पैदा होगी। जिन घरों में कोई अतिथि नहीं आता अथवा केवल गिने-चुने लोग ही आते हैं वहां बच्चों के व्यवहार में खुलापन अथवा व्यापकता नहीं आ पाती। वे संबंधों का सही अर्थ ही नहीं जान पाते। यहां तक कि उन्हें रिश्तों के नाम तक नहीं पता होते। रिश्तों के नाम पर उनके लिए अंकल और आंटी दो ही शब्द होते हैं। संबंधों के नाम पर वे कोल्हू के बैल की भांति एक निश्चित दायरे में चक्कर लगाने को अभिशप्त होते हैं।
संयुक्त परिवारों अथवा माता-पिता से अलग रहने वाले आज के युवा माता-पिताओं का दृष्टिकोण पुरानी पीढ़ी के लोगों से भिन्न होना स्वाभाविक है। उनके नैतिक मूल्य भी अलग व विशिष्ट होते हैं लेकिन उनमें संतुलन का अभाव होता है। वह मनचाही चीजें हर हाल में फौरन पाना चाहते हैं चाहे इसके लिए उन्हें अपने सिद्धांतों को भी क्यों न ताक पर रखना पड़े। इन्हीं जीवन मूल्यों का उनके बच्चों पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है जो कई बार ठीक नहीं होता। इसके विपरीत जो बच्चे अपने दादा-दादी या अन्य बुजुर्गो के साथ रहते हैं उन पर उनका प्रभाव पड़ना भी लाजिमी है। बुजुर्ग व्यक्तियों ने नए लोगों की अपेक्षा अधिक अनुभव संचित किए होते हैं। वे जानते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से देना हमारे व्यक्तित्व की कमजोरी को दर्शाता है अतः न वे स्वयं ऐसा करते हैं और न बच्चों को ही करने देते हैं।
बुजुर्ग व्यक्ति जीवन के अच्छे बुरे समय तथा नैतिक अनैतिक परिस्थितियों से गुजर चुके होते हैं अतः उन्हें पता होता है कि यदि अच्छे दिन हमेशा नहीं रहते तो बुरे दिन भी हमेशा नहीं रहते। वे जीवन में विपरीत अथवा विषम परिस्थितियों में संतुलन स्थापित करना जानते हैं और वे अपने आचरण द्वारा इसी प्रकार के संस्कार और शिक्षा अपने साथ रहने वाले बच्चों को भी स्वाभाविक रूप से देते रहते हैं। इस प्रकार का व्यावहारिक प्रशिक्षण अन्यत्र असंभव है। बुजुर्गो का जीवनानुभव व्यापक होता है। वे जीवन के उदात्त मूल्यों का महत्व न केवल जानते हैं अपितु उन पर चलते भी हैं। वे जानते हैं कि जीवन में धनवान अथवा सफल होने का कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं होता। उन्होंने जीवन में की गई गलतियों का खमियाजा भुगतना होता है। अतः वे जीवन में आगे बढ़ने के लिए सही रास्ते का चुनाव करने पर जोर देते हैं।
बुजुर्गो के सान्निध्य में बच्चे भी सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा पाते हैं। बुजुर्गो के साथ रहने वाले बच्चे जीवन में अपेक्षाकृत कम गलतियां करते हैं। उनके अंदर स्वाभराविक रूप से नैतिकता का विकास होता है। ऐसे बच्चों में किताबी ज्ञान और अव्यावहारिक काल्पनिक जीवन मूल्य नहीं अपितु अनुभवजन्य वास्तविक ज्ञान व व्यावहारिक नैतिक मूल्य स्वतः विकसित हो जाते हैं।
यह न केवल बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य है अपितु परिवार, समाज व राष्ट्र सब के लिए भी ठीक है। बच्चों का सही विकास चाहते हैं तो ऐसी स्थितियों का निर्माण कीजिए जिससे बच्चों को दादा-दादी की पीढ़ी के लोगों का साथ अवश्य मिल सके। इससे युवा भी अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य की भावना में शिथिलता से उत्पन्न अपराध बोध और ग्लानि से बचकर अपेक्षाकृत अधिक गरिमापूर्ण जीवन जी सकेंगे।

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