एक राखी का त्यौहार जब दस बरस के मिलिंद को अठारह बरस की रक्षा राखी बांध रही है। मिलिंद ने पूछा, ‘दीदी आप मुझे राखी क्यों बांधती हो?
अगस्त, 2023
स्वाधीनता विशेषांक
लेख संदीप पांडे, ‘शिष्य’
मिलिंद अपनी बहन रक्षा से आठ बरस छोटा था। अपनी मां से भी ज्यादा प्रभाव अपनी बड़ी बहन का उसके जीवन पर था। खुद मां को उसे किसी कार्य के लिए राजी करने के लिए दीदी को शिकायत करने का डर दिखाना पड़ता था। वह दीदी से डरता भी था तो सबसे ज्यादा लाड भी उसी से पाता था। उसके कपड़े, खाना, पढ़ाई, दोस्त सबका हिसाब रक्षा के पास था। दीदी ने अगर किसी काम के लिए कह दिया है तो वह उसके लिए पत्थर की लकीर बन जाता। माता-पिता भी अपने बेटे के लिए एक अतिरिक्त अभिभावक पा कर संतुष्ट थे। और तो और दोस्तों में भी रक्षा दीदी का भय था कि अगर मिलिंद को किसी से भी कोई प्रताड़ना मिली तो रक्षा दीदी उसकी अच्छी खैर लेगी।
एक राखी का त्यौहार जब दस बरस के मिलिंद को अठारह बरस की रक्षा राखी बांध रही है। मिलिंद ने पूछा, ‘दीदी आप मुझे राखी क्यों बांधती हो? पापा मम्मी को क्यों नहीं बांधती?’ ‘मेरे प्यारे मीलू, आज का यह त्यौहार भाई बहन का ही होता है। बहन अपने भाईयों को यह स्नेह डोर बांध उनके मंगल की कामना करती है और बदले में भाई अपनी बहन की सदा रक्षा का वचन देता है।’ ‘पर मेरी रक्षा तो सदा आप ही करते आए हो, आगे भी आप ही करोगे। आज से मैं आपको भी राखी बांध आपके मंगल की कामना करूंगा। फिर आप भी मुझे पैसे देना जैसे मम्मी आपको देने के लिए देती है।’ घर के सभी लोग ठहाका लगा के हंस पड़े। रक्षा बोली, ‘मेरे लाडले मीलू, यह पैसे भी तो तुम्हारी चाकलेट लाने के काम आयेंगे। मुझे तो इन पैसों की जरूरत भी नहीं पड़ती। पापा मुझे वैसे ही खूब सारे दे देते हैं।’ तो फिर हम किसी जरूरतमंद को यह पैसे क्यों नहीं दे देते? मिलिंद का बाल सुलभ प्रश्न सुन रक्षा के साथ माता-पिता भी हैरान हो गए। रक्षा कुछ देर विचार कर बोली, ‘भाई तूने बात तो सही बोली। चल मेरे साथ और रक्षा उसे हाथ पकड़कर बाहर ले गई। कपड़े की दुकान से एक पांच बरस की बच्ची का फ्राक खरीदा और फुटपाथ के कोने में छोटे से तंबू के प्रवेश पर डेªस का पैकट रख दिया। और दोनों एक पेड़ की ओट में खड़े हो गए। कुछ देर बाद एक छोटी बच्ची बाहर निकली जिसके बदन पर कपड़ों के नाम पर कुछ चिथड़े थे। वह पैकेट से डेªस निकाल कर खुशी से उछल रही थी। उसने अंदर जा कर बताया तो उसकी मां भी बाहर आयी और इधर-उधर निहारने के बाद अपनी बेटी के साथ अंदर चली गई। कुछ ही पल में वह लड़की फ्राक पहन बाहर आयी तो मस्ती में झूम रही थी। गोल घूम फ्राक के घेरे के साथ घूमती इतनी आनंदित हो रही थी कि उसकी अनुभूति मात्र से रक्षा और मिलिंद अपने को खुशियां के सातवें आसमान पर पा रहे थे। वहां से घर लौटते दोनों ने प्रण कर लिया था कि वह अब हर वर्ष रक्षाबंधन ऐसे ही बनाएंगे जिससे किसी अन्य की जरूरत की भी पूर्ति हो और उनकी खुशियों को विस्तार मिले।
आज बीस बरस हो गए हैं। रक्षा और मिलिंद का राखी का पर्व अब उल्लास की नई ऊंचाई छू रहा है। एक फ्राक देने के सुख से प्रारंभ हुआ यह उत्सव अब एक बार में सौ जरूरतमंद लोगों को पोशाक बांटता है। पर उसे देने का नियम आज भी यही है कि लेने वाले को अपने सामने झुका हुआ महसूस न कराया जाए और न ही अपने आप में देने के दंभ को महिमामंडित किया जाए। खुशी बांट स्वयं के भीतर प्रफुल्लता को अनुभव करना उनके लिए राखी के पर्व को नए मायने प्रदान करें।