सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
सम्पादकीय
भारत भूषण चड्ढा
आज हिन्दी बढ़ रही है, इस में दो मत नहीं है। बिना हिन्दी के आप अपना कारोबार, नौकरी कहीं भी आगे नहीं बढ़ा सकते। लेकिन हिन्दी को दबाने वाले शक्तियां भी अपने आक्रमण को तेज किए हुए हैं।
कहीं-कहीं उन्हें भी सफलता प्राप्त हो रही है जिसके कारण धीरे-धीरे हमारी संस्कृति पर पाश्चात्य जीवन पद्धति का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इसलिए हिन्दी के लिए लड़ाई को हमे गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
कक्षा में जो प्रथम पंक्ति के विद्यार्थी हैं आज उनके सामने पथ क्या है यही न कि वह जीवन में सफल होने के लिए अंग्रेजी पढ़ें। उसमें प्रवीणता प्राप्त करें और यही प्रथम पंक्ति के विद्यार्थी ही बड़े होकर देश के प्रशासनिक पदों पर अथवा बड़े व्यापारों को संभालते हैं। वे सब अंग्रेजी भक्त बनते जा रहे हैं। इसलिए देश के अग्रणी समाज पर उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
प्रतिभाशाली विद्यार्थी अंग्रेजी पढें़गे, उसमें प्रवीणता पाने के लिए अंग्रेजी का साहित्य पढ़ेंगे और उसके ही संस्कार ग्रहण करेंगे।
इसीलिए आज अंग्रेजी मानसिकता के जो लोग उच्च पदों पर है वह पाश्चात्य संस्कृति में रंगे हुए हैं। उनके संस्कार, उन की जीवन शैली ऐसी ढल चुकी है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की बातें जल्दी समझ ही नहीं आती है। एक छोटा सा उदाहरण लीजिए।
अंग्रेजी मीडियम से पढ़े हुए बच्चों ने भले ही देश में उच्च पदों को प्राप्त कर लिया है। परन्तु उनमें एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है जो भौतिकता की रंग में इतना रंग गया है कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को वह सुख नहीं दे रहा जिसे पाने के लिए वह लालयित हैं। बूढे़ माता-पिता का बुढ़ापा उदासीन हो गया है। माता पिता की सेवा का भाव भले ही वह अच्छा मानें परन्तु व्यवहार में तो वह बूढ़े माता-पिता को वृद्धाश्रमों को जाने को विवश कर रहे हैं।
सबसे बड़ा देश की प्रतिभा का नुकसान छोटे बच्चे को पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाने से हो रहा है उसकी बुद्धि दो भाषाओं के बोझ में मन्द हो जाती है। घर में सब लोग हिन्दी बोलते है। वह अपने मित्रें से अपनी मातृभाषा में बात करते हैं लेकिन उसे जबरदस्ती अंग्रेजी शब्द सिखाए जाते है उसका कोमल मस्तिष्क दो भाषा के बोझ में किस प्रकार कुन्द हो रहा है इसका विचार कोई नहीं करता। अनेक सर्वेक्षणों में उदघाटित है कि पब्लिक स्कूलों के अंग्रेजी मीडियम पढ़ने वाले बच्चे गणित में उतने प्रवीण नहीं होते, जितने हिन्दी मीडियम के बच्चे होते है। जबकि अंग्रेजी मीडियम वाले बच्चों का प्रवीणता प्रतिशत अच्छा होना चाहिए क्योंकि वह उस वर्ग से आते हैं जिनके माता-पिता अपनी बौद्धिक प्रतिभा के कारण अच्छे पदों पर हैं। उन्हें पढ़ाई के लिए हर प्रकार की सुविधाएं भी हैं।
अंग्रेजी की अनिवार्यता का सबसे बड़ा नुक्सान यह है कि देश का बहुत बड़ा वर्ग जो गांव में रहता है जहाँ अंग्रेजी सीखने की सुविधाएं नहीं है अंग्रेजी में पिछड़ जाने के कारण आठवीं में आते-आते पढ़ाई छोड़ देता है। अंग्रेजी के कारण पढ़ाई उसके लिए बोझ होती है। इस तरह अधिकांश बच्चे सब प्रकार से प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी केवल अंग्रेजी के कारण शिक्षा में आगे बढ़ने से वंचित रह जाते है।
एक बात और भी विचारणीय है कि अंग्रेजी क्योंकि बच्चों के लिए साधारण जीवन में अभ्यास में न आने वाली भाषा है इसलिए उसे सीखने में बच्चे को अधिक समय देना पड़ता है। स्कूल में अंग्रेजी के पीरियड बाकी सभी विषयों से अधिक होने पर भी बच्चों का एक बड़ा प्रतिशत अंग्रेजी में प्रवीणता तो दूर काम चलाऊ अंग्रेजी भी शुद्ध नहीं लिख पाता।
औसत विद्यार्थी बी-ए- पास करने के बाद भी अंग्रेजी में एक अच्छा पत्र तक नहीं लिख पाता जबकि शिक्षा काल का उसका बहुमूल्य समय अंग्रेजी भाषा सीखने में ही लगा होता है।
हम यह जान लें कि भाषा एक माध्यम है, वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने का साधन है। हमारे बच्चों का अधिकांश समय भाषा सीखने में ही चला जाता है। इसके कारण वह ज्ञान की महान पूंजी से दूर ही रह जाते है।
यदि यही ज्ञान भले ही वह विज्ञान हो, तकनीकी ज्ञान हो, इतिहास, भूगोल या दर्शन हो उसे अपनी भाषा में पढ़ाया जाय तो वह उसे जल्दी सीख पाएगा और प्रवीणता प्राप्त कर लेगा।
प्रायः प्रश्न उठाया जाता है कि हिन्दी में ज्ञान-विज्ञान की उतनी अच्छी पुस्तकें उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह तो कोई बड़ी समस्या नहीं है। ज्ञान-विज्ञान की सभी पुस्तकें को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराया जा सकता है। जापान में जर्मनी में रूस, फ्रांस में सभी विश्व के आधुनिक खोजों का अनुवाद उनके देश की अपनी भाषा में कराया जाता है ताकि वहां के विद्यार्थी उस का लाभ उठा सकें।
जर्मनी की कोई खोज हुई है तो उसका अनुवाद एक दो वर्ष में अंग्रेजी में होगा फिर उसके बाद भारत के लोग उसका लाभ उठा सकेंगे। हम अंग्रेजी के पीछे आंखे बंद करके अन्धभक्ति से चल रहे हैं यदि विश्व की सभी भाषाओं के अनुवाद की व्यवस्था अपने देश की भाषाओं में करें तो हमारे देश के विद्यार्थियों, शोध कर्ताओं को उस का लाभ तत्काल मिल सकता है, अभी हम तकनीकी एवं वैज्ञानिक दृष्टि से बाकी देशों से कुछ वर्ष पीछे चल रहे हैं।
कुछ विचारकों का तो यहां तक मत है कि आजादी से पूर्व क्योंकि अंग्रेजी को पांचवी कक्षा से पढ़ाया जाना प्रारम्भ होता था इसलिए पढ़ने वालों विद्यार्थियों की संख्या का प्रतिशत कम होने पर भी देश में नोबल प्राइज जैसे पुरस्कार विद्वानों ने प्राप्त किए। अब जबकि पढ़ने वाले छात्रें, कालेजों, विश्वविद्यालयों की संख्या कई गुना बढ़ जाने पर भी प्रतिभाओं का प्रतिशत कम हो गया है। अब नोबल प्राइज भारत में नहीं आते है क्योंकि बचपन में दो भाषाओं का बोझ होने के कारण बालक का मस्तिष्क कुन्द हो जाता है। यह विषय शिक्षाविदों के लिए विचारणीय होना चाहिए।
हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं का सामान्य अक्षर ज्ञान भी सरल है। देव नागरी लिपि में वर्ण एवं ध्वनि के उच्चारण में ताल-मेल की एक वैज्ञानिक पद्धति है। जो लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है जबकि अंग्रेजी में वह वैज्ञानिकता नहीं है ओ-यू- आदि अनेक अक्षर है जो अलग-अलग शब्दों में अलग-अलग ध्वनि देते हैं जैसे सी यू पी-कप में यू अ की ध्वनि देे रहा है। और पी यू टी-पुट में यू उ की ध्वनि दे रहा है। यह बातें छोटी नहीं है। अंग्रेजी भाषा को सीखने में केवल अभ्यास ही इस का समाधान है अर्थात भाषा को सीखने में अधिक समय लगेगा।
हिन्दी की देवनागरी की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि इसके स्वर और व्यजनों का उच्चारण मुख के उच्चारण स्थान के साथ निश्चित हैं। क ख ग घ ड-, कण्ठ से बोले जाते है। च वर्ग तालू से जुड़े हैं प वर्ग ओष्ठ से बोले जाते है इस प्रकार हर वर्ग को स्थान निश्चित हैं। इस वैज्ञानिकता के कारण ही यह जैसे लिखी जाती है वैसी ही पढ़ी जाती है।
हिन्दी की हमारी दूसरी विशेषता यह है कि इसका साहित्य हमारी संस्कृति से जुड़ा हुआ है। जब आप हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए तुलसीदास का मानस पढ़ेंगे तो भगवान राम का आदर्श व्यकित्व आप के मन मस्तिष्क का एक अंग बन जाएगा। जब आप कबीरदास के दोहे और शब्द पढ़ेंगे तो फिर आप को वेदान्त शास्त्र पढ़ने की आवश्यकता नहीं पढ़ेगी। कबीर दास ने बड़े सरल शब्दों में आपको भारतीय दर्शन का सार समझा दिया है। यदि हम हिन्दी के प्रति उदासीन हो गए जैसे कि प्रवृति चल रही है तो एक दिन हम अपनी संस्कृति से भी विमुख हो सकते है। इसलिए हिन्दी केवल काम-काज की भाषा नहीं है। एक दूसरे को अपने विचार प्रेषित करने का माध्यम ही नहीं है बल्कि हमारी संस्कृति का कोष है। हिन्दी को भूल कर हम अंग्रेजी के दास बन जाएंगे तो एक दिन अपनी संस्कृति को भी भूल जाएंगे।
कुछ लोग सोच रहे है कि हम हिन्दी को कहां भूल रहे है। वह भ्रम में है। आज किसी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल के बच्चे को हिन्दी में संख्या पूछिए वह उन्नीस उनतीस आदि तो दूर सामान्य अंक भी अंग्रेजी में बोलेगा। यह छोटी बात नहीं है। यह हिन्दी की उपेक्षा है। हिन्दी के प्रति श्रद्धा को कम करती है।
हम कहते है कि आप अंग्रेजी पढ़िए, चाहे और दस भाषाएं पढ़िए परन्तु अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा को कम श्रद्धा से मत देखिए। हिन्दी हमारी मां है मां कम पढ़ी हो, कम सुन्दर हो तो भी उसके प्रति श्रद्धा कम नहीं होती। इसी प्रकार हिन्दी के माध्यम से ही हमने जगत को जाना है, इसके अपमान को हमें किसी भी स्तर पर सहन नहीं करना चाहिए। फिर हमारी हिन्दी तो संस्कृत की बेटी है, जिसमें हमारे सारे शास्त्र लिखे गए हैं, सर्व गुण सम्पन्न हैं, इसकी उपेक्षा कैसे सहन कर रहे हैं। हम जो काम हिन्दी में कर सकते हैं उसे हिन्दी में ही करें, जैसे आप की व्यावसायिक विवशताएं हैं आप को अंग्रेजी का व्यवहार करना पड़ता है लेकिन आप हस्ताक्षर तो हिन्दी में कर सकते है फिर आप हिन्दी में हस्ताक्षर क्यों नहीं करते।
जन-जन में हिन्दी के प्रति श्रद्धा भाव को जगाना है, तभी पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण के विरुद्ध हम लड़ाई जीत सकते हैं। अन्यथा यदि हम सोए रहे तो पाश्चात्य संस्कृति हमारी गौरवशाली संस्कृतियों, परम्पराओं को लील जाएगी।
इस प्रकार हिन्दी की लड़ाई हमारी संस्कृति की लड़ाई है। संस्कृति ही किसी राष्ट्र की आत्मा होती है इस प्रकार यह हमारी अस्मिता की लड़ाई है। अस्मिता को बचाना है। राष्ट्र को बचाना है तो इसे हिन्दी के माध्यम से लड़ना होगा। मैकाले का दावा था कि अंग्रेजी की शिक्षा पद्धति द्वारा इस देश में काले अंग्रेज पैदा होंगे, और किसी मात्र में उसकी योजना सफल भी हो रही दिखती है। अतः हमें इस देश की संस्कृति को बचाना हो तो इसे अन्य क्षेत्रें के साथ-साथ भाषा के क्षेत्र में भी लड़ना होगा।
अभी सरकार ने शिक्षा नीति 2020 बनाई है। उसमें भारतीय भाषाओं के विकास के लिए पूर्ण संभावनाएं हैं। आवश्यकता केवल उस नीति को द्रुतगति से समाज में स्वीकार्य बनाया जाय।
शिक्षा से ही संस्कार मिलते हैं। अतः हमें पूरा विश्वास है कि भारत में इस नीति के पूर्णतया लागू होने पर समाज सहज ही विश्वगुरु बन जाएगा।