पराधीनता से मुक्त होने वाले देशों ने अपनी भाषा के लिए प्राण प्रण से संघर्ष किया। अपने देश में तो और भी जटिल स्थिति थी।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
लेख
दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जिसके सामने संघर्ष के दरवाजे न कभी बंद थे और न आज बंद हैं। फिर भी यह स्वस्फूर्त भाव से निरंतर प्रगतिमान है। वास्तव में भाषा कोई भी हो, केवल विचार विनिमय का माध्यम नहीं होती। वह अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना की संरक्षक और संवाहक होती है। इसमें लोगों के सपने पलते हैं। इस तथ्य को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विधिवत पहचान लिया था। वह अपनी ‘निज भाषा’ शीर्षक कविता में कहते हैं-
निज भाषा उन्नति अहै
सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के
मिटत न हिय के सूल।
अंग्रेजी पढ़िके जदपि
सब गुण होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन
रहत हीन के हीन।
उनका आशय यह था कि अंग्रेजी पढ़ के सभा संगोष्ठी और रोजी रोजगार के स्तर पर हम सफल हो सकते हैं, लेकिन आत्मविश्वास, आत्मविकास और आत्मोत्कर्ष के धरातल पर कमजोर रह जाएंगे। भाषा ज्ञान का माध्यम है, पराये माध्यम से हमारा मानस कितना मजबूत बन सकता है? पराधीनता से मुक्त होने वाले देशों ने इसीलिए अपनी भाषा के लिए प्राण प्रण से संघर्ष किया। अपने देश में तो और भी जटिल स्थिति थी। यहां राज भाषा की राह में हिन्दी के मुकाबले में उर्दू एक तरह से बढ़त की स्थिति में थी। इसलिए महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास, पं- श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे हिन्दी सेवियो को इसे राजभाषा के दरवाजे तक पहुंचाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी।
अंततः संविधान सभा में यह बात मानी गई कि आजादी की लड़ाई के दिनों में ‘हिन्दी’ ही वह भाषा थी, जो पूरे देश के अंदर स्वतंत्रता सेनानियों के बीच संपर्क का सेतु बनी थी। अस्तु 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारतीय गणराज्य के कामकाज की राजभाषा घोषित किया था। इतिहास में झांकने पर हम पाते हैं कि संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव तमिल भाषी गोपाल स्वामी अयंगर ने रखा था। इसका समर्थन और अनुमोदन करने वालों में मराठी भाषी शंकरराव देव, तेलगू भाषी दुर्गावती, उर्दू भाषी मौलाना अबुल कलाम आजाद, गुजराती भाषी के-एम-मुंशी और कन्नड़ भाषी कृष्णमूर्ति थे। इनका समेकित मत था कि राष्ट्रीयता एकता और विकास का आधार हिन्दी ही हो सकती है।
हिन्दी राजभाषा बन तो गई, लेकिन कहा गया कि हिन्दी में अभी प्रशासनिक, वैज्ञानिक तकनीकी एवं विधि संबंधी शब्दावली का अभाव है। साथ ही अहिंदी भाषी क्षेत्र के कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच इसका जनाधार कमजोर है। इसलिए तत्काल हिन्दी नहीं लागू की जा सकती है। ऐसी स्थिति में हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रही। आगे चलकर कुछ नकारात्मक राजनीतिक कारक भी उभरने लगे, विशेषकर अहिंदी भाषी क्षेत्र के राजनेता एवं स्थानीय राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता वहां के लोगों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए हिन्दी विरोध को एक भावात्मक हथियार के रूप में अपना लिये। जबकि यही राजनेता अपने बच्चाें को उन स्कूलों में पढ़ाते हैं, जहां हिन्दी भी सीखने की व्यवस्था होती है। क्षेत्रीय विरोध के कारण केन्द्रीय सत्ता भी खुलकर हिन्दी की पक्षधरता का प्रदर्शन नहीं कर पाती है।
हिन्दी की विकास यात्र
गतिमान है
इसके बाद भी हिन्दी की विकास यात्र गतिमान है। आज स्थिति यह है कि प्रोद्योगिकी, चिकित्सा, विधि, पुरातत्व, वाणिज्य, प्रशासन जैसे किसी भी क्षेत्र और विषय की तकनीकी शब्दावली की हिन्दी में कमी नहीं है। प्रतियोगी परीक्षा हो, या फिर शोध, न्यायालय, संसद और प्रशासन तकनीकी रूप से सब जगह हिन्दी के लिए दरवाजे खुल चुके हैं। मगर इसके बाद भी अभी हिन्दी की राह में बड़ी रुकावटें हैं। मोरारजी देसाई की ‘जनता पार्टी’ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे, तब संयुक्त राष्ट्रसंघ में उन्होंने अपना भाषण पहली बार हिन्दी में दिया था। इसकी खूब प्रशंसा हुई थी। बाद में सांसदों ने इसके लिए बधाई दी थी।, बाजपेयी जी ने कटाक्ष किया था-‘आपकी बधाई मुझे तब स्वीकार होगी, जब आप संसद में अपना भाषण हिन्दी में देंगे।’ यह कटाक्ष दोहरी मानसिकता पर था।
संयुक्त राष्ट्र संघ की कामकाज की आधिकारिक भाषा बनी हिन्दी
अभी सैद्धान्तिक रूप में भले ही हिन्दी के लिए कोई दरवाजा न बंद हो, मगर व्यावहारिक स्तर पर उच्च व उच्चतम न्यायालय, अंतरिक्ष विज्ञान, प्रोद्योगिकी संस्थान, प्रबंधन शैक्षणिक संस्थान, शोध संस्थान और संसद से लेकर बड़े-बड़े सेमीनार में अंग्रेजी का दबदबा है। यहां तक कि हिन्दी बोलने वाला इन स्थानों पर स्वयं झेंप महसूस करने लगता है। यानि हिन्दी अपने ही घर में पिट रही है। सन् 2014 के बाद माननीय नरेन्द्र मोदी जी की सरकार ने वैश्विक स्तर पर हिन्दी को पहचान दिलाने का काफी प्रयास किया है। परिणामस्वरूप अभी 10 जून 2022 को हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, पुर्तगाली, फारसी और स्वाहिली के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ की कामकाज की आधिकारिक भाषा के रूप में चुनी गई है। कुछ दिन पहले संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबूधावी में वहां की सरकार ने अरबी और अंग्रेजी के साथ ही हिन्दी को भी अपने यहां की आधिकारिक अदालती भाषा के रूप में शामिल किया है। विदेश में 150 मान्य विश्वविद्यालयों के अलावा सैकड़ों स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में शोध स्तर तक हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है।
विश्व की प्रथम भाषा
हिन्दी भाषा का निरंतर बढ़ता जनाधार भी इसका दबदबा बनाने में सहयोगी सिद्ध हो रहा है। सन् 1991 की जनगणना में हिन्दी को अपनी मातृभाषा बताने वालों की संख्या 33 करोड़ 72 लाख 72 हजार 114 थी, जबकि अंग्रेजी भाषी 33 करोड़ 70 लाख थे। (स्त्रेत-‘राजभाषा भारती-स्वर्ण जयंती अंक) इस प्रकार हिन्दी बोलने वाले अंग्रेजी भाषियों से अधिक थे। तब हिन्दी भाषियों की संख्या विश्व में दूसरे स्थान पर बताई गई थी। अभी जो तात्कालिक आंकड़े उपलब्ध हैं, सन् 2011 की जनगणना में देश की जनसंख्या 1-21 अरब थी, इनमें सर्वाधिक 41-03 प्रतिशत हिन्दी भाषी है। इस प्रकार इस भाषा समुदाय की संख्या 49 करोड़, 64 लाख, 63 हजार बनती है। इसके आधार पर कुछ विद्वान इसे चीन की मंदारिन से भी सघन जनाधार वाली भाषी मानते हुए हिन्दी को विश्व की प्रथम भाषा घोषित करते हैं। आज की तारीख में डेढ़ करोड़ से अधिक भारतीय अन्य देशों में कार्यरत हैं। यह वह लोग हैं, जो देश के अन्दर क्षेत्र, सम्प्रदाय और भाषा के स्तर पर भले ही बंटे रहते हैं, मगर विदेश में जाकर वहां की चमक-दमक के पीछे छिपी वास्तविकता को देखने और अकेले पड़ने की आशंका के बाद उनको भारतीयता, भारतीय संस्कृति और देश की राजभाषा हिन्दी पर बड़ा भरोसा बन जाता है।
हिन्दी सबसे अधिक लाभ देने वाली भाषा
यह देश-विदेश में फैला हिन्दी भाषी समुदाय अपने अंदर एक बड़ा मध्यम वर्ग समेटे है। पिछले कुछ वर्षों में इस मध्य वगर् की क्रय शक्ति बहुत बढ़ गई है। इसे दुनिया एक मजबूत बाजार के रूप में देख रही है। इसे प्रभावित करना, इसके बीच पैठ बनाकर अपना माल बेचना यह सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उद्देश्य है। यह तभी संभव है, जब उपभोक्ता की आवश्यकता और सोच को पहचानने और अपने उत्पादों के पक्ष में उसका मानस बनाने के लिए उसी की भाषा में संवाद स्थापित किया जाए। उदारीकरण के शुरुआती दिनों में जब विदेशी कंपनियां भारत में आयीं तो अपने साथ अंग्रेजी का तामझाम लायी थी। मीडिया महारथी रूपर्ड मरडोक स्टार चैनल के साथ अवतरित हुए। यह धूमधाम से अंग्रेजी में चला। सोनी, डिस्कवरी, एनिमल वर्ड अपने कार्यक्रम अंग्रेजी में लेकर आए। मगर इनको विवश होकर हिन्दी की तरफ मुड़ना पड़ा। क्योंकि इनको अपनी दर्शक संख्या बढ़ानी थी, लाभ और व्यापार आगे ले जाना था। आज टीवी चैनल, फिल्म और मनोरंजन की दुनिया में हिन्दी सबसे अधिक लाभ देने वाली भाषा है। कुल विज्ञापनों का लगभग 75» हिन्दी माध्यम में होते हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया तंत्र हों या बहुराष्ट्रीय कंपनियां, उनको अगर भारतीय परिक्षेत्र में अपनी जगह बनानी है तो इसके लिए हिन्दी को अपनाना उनकी विवशता है। दूसरों की यह विवशता हिन्दी की शक्ति और सामर्थ्य की द्योतक है।
एक बार यह कहा गया था कि कंप्यूटर इंटरनेट के मामले में हिन्दी पिट जाएगी। मगर सूचना प्रोद्योगिकी की दिशा में हिन्दी के बढ़ते कदम इसके विरोधियों को बेचैन करने के लिए काफी है। बस जरूरत है, हिन्दी भाषी अज्ञानता, निराशा और हीनभावना को त्याग कर हिन्दी के हिट में कर्मरत हो जाएं। क्योंकि ग्लोबल विलेज में अपनी पहचान और संस्कृति को सुरक्षित रखने का काम हिन्दी भाषा के भरोसे ही हो पाएगा।