प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना प्रशासन का कर्तव्य होना चाहिए।
इनका विचार था कि लोकतंत्र भारत का जन्मसिद्ध अधिकार है न कि अंग्रेजों के द्वारा दिया गया कोई एक उपहार।
अगस्त, 2023
स्वाधीनता विशेषांक
लेख डॉ. उमेश प्रताप वत्स
पुण्यभूमि भारतवर्ष सदा से ही प्रेरणादायी वंदनीय महापुरुषों की तपस्थली रहा है। ऐसे ही महान व्यक्तियों में महान दार्शनिक, विचारक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, इतिहासकार पत्रकार के रूप में विख्यात एवं एकात्मवाद के प्रणेता, महान देशभक्त पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का नाम गर्व से लिया जाता है। उत्तरप्रदेश में मथुरा के नगला चन्द्रभान गांव में 25 सितम्बर 1916 को दीना नाम के इस महान बच्चे का जन्म हुआ।
दुर्भाग्यवश जब उनकी उम्र मात्र ढाई वर्ष की थी तो उनके पिता का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा। यहां आकर उनका परिवार दुखों से उबरने का प्रयास कर ही रहा था कि तपेदिक रोग के इलाज के दौरान उनकी मां दो छोटे बच्चों को छोड़कर संसार से चली गई और दस वर्ष की अवस्था में उनके नाना का भी निधन हो गया। छोटी अवस्था में ही अपना ध्यान रखने के साथ-साथ उन्होंने अपने छोटे भाई के अभिभावक का दायित्व भी निभाया परन्तु दुर्भाग्य से भाई को चेचक की बीमारी हो गयी और 18 नवंबर, 1934 को उसका भी निधन हो गया। दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक झंझावातों का सामना किया तथा कई उतार चढ़ाव देखे, परन्तु दृढ़ निश्चयी होने के कारण जिन्दगी में आगे बढ़ते कदमों को रुकने न दिया। जिस आयु में जीवन में आगे बढ़ने के लिए परिवार के सदस्यों, विशेष रूप से माता-पिता के आशीर्वाद एवं सानिध्य की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, उस आयु में एक-एक करके अकस्मात सदस्यों का परलोक गमन दीनदयाल को अकेला करता जा रहा था किन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। निराशा को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने सीकर से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। उन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा जीडी बिड़ला कालेज, पिलानी और स्नातक की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कालेज से पूरी की। जन्म से कुशाग्र बुद्धि के मालिक और उज्ज्वल प्रतिभा के धनी दीनदयाल को स्कूल और कालेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। इसके पश्चात उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की। यद्यपि आम जनता की सेवा का संकल्प लेने के बाद उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा पास कर नौकरी की चाह का परित्याग कर अपना पूरा जीवन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को समर्पित कर दिया।
उन्होंने राष्ट्र को समर्पित तत्कालीन एकमात्र संगठन स्वयंसेवक संघ के सुदृढ़ीकरण में प्रचारक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ- केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवरकर जी के सानिध्य में रहकर उनके साथ विचार-विमर्श कर संघ कार्य को सुदृढ़ करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
राजनीति में राष्ट्रीय विचारों के महत्व को समझते हुए भारतीय जनसंघ के महामंत्री एवं अध्यक्ष का दायित्व निभा कर एक नई राह का निर्माण किया। उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतंत्र का आंख बंद कर समर्थन का विरोध किया। यद्यपि उन्होंने लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार कर लिया, लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र, शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ इंकार कर दिया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने और जनता की बातों को आगे रखने में लगा दिया।
समाज सेवा के प्रति समर्पित
दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षो से ही समाज सेवा के प्रति अत्यधिक समर्पित थे। वर्ष 1937 में अपने कालेज के दिनों में वे कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जुडे़, जहां वे श्री नाना जी देशमुख तथा श्री भाऊ जुगाड़े के प्रभाव में आ गए। फिर उन्होंने आर-एस-एस- के संस्थापक डॉ- हेडगेवार से बातचीत की और संगठन के प्रति पूरी तरह से अपने आपको समर्पित कर दिया। वर्ष 1942 में कालेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने न तो नौकरी के लिए प्रयास किया और न ही विवाह का, बल्कि वे संघ शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आर-एस-एस- के 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए। आर-एस-एस शिक्षा वर्ग में अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे संघ के आजीवन प्रचारक बने। इसी तरह जब भारतीय जनसंघ की स्थापना डा- श्यामा मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में की गई एवं दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। तब वे लगातार दिसंबर 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिविधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि अगर मेरे पास एक दो और दीनदयाल हों तो मैं हिन्दुस्तान की राजनीति का चरित्र बदल सकता हूं। परन्तु अचानक वर्ष 1953 में डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आकस्मिक निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। वास्तव में पं- दीनदयाल उपाध्याय ने कांग्रेस के विकल्प के तौर पर कार्यकर्ताओं के निर्माण पर जोर दिया। उनका उद्देश्य ऐसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक नई श्रेणी तैयार करना था जिसका एक स्वतंत्र चिंतन हो, राष्ट्रभक्ति से प्रेरित हो और राष्ट्र समाज को समर्पित हो। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति संगठन को वैचारिक अधिष्ठान देने, कार्यकर्ता के निर्माण और संगठन के विस्तार में लगा दी। आज संघ और भाजपा जिस मुकाम पर है उस विचार की नींव में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का भी योगदान था। इस प्रकार लगभग 15 वर्षो तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा करने के बाद भारतीय जनसंघ के 14 वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
स्वतंत्रता के बाद
भारत के विकास का आधार
अपनी भारतीय संस्कृति हो
दीनदयाल उपाध्याय एक उच्च कोटि के पत्रकार थे। उनके अंदर की पत्रकारिता तब प्रकट हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म में वर्ष 1940 के दशक में कार्य किया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रचारक रहते हुए भी इन्हाेंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य और एक दैनिक समाचार पत्र स्वदेश प्रारंभ किया। उन्होंने भारत के स्वर्णयुग के महान राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन पर एक नाटक लिखा तथा आद्य गुरु शंकराचार्य के महान उद्देश्यों एवं कार्यो को दर्शाती एक जीवनी लिखी। राजनीतिक डायरी, एकात्म मानववाद और भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के विश्लेषण सहित कई किताब लिखी।
दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि भारत स्वतंत्र तो हो गया किन्तु जब तक भारत में विशुद्ध रूप से स्वतंत्र नहीं आयेगा तब तक भारत एक मजबूत देश नहीं बन पायेगा। इनका मानना था कि स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास का आधार अपनी भारतीय संस्कृति हो न की अंग्रेजों द्वारा प्रचलित पश्चिमी विचारधारा। मैकाले की शिक्षा पद्धति से निर्मित बाबू लोग कभी भारत का हित नहीं कर सकते। यद्यपि भारत में लोकतंत्र आजादी के तुरंत बाद स्थापित कर दिया गया था, परन्तु दीनदयाल उपाध्याय के मन में यह आशंका थी कि लम्बे वर्षो की परतंत्रता के बाद भारत लोकतंत्र को सही अर्थो में जीवंत नहीं रख पायेगा। इनका विचार था कि लोकतंत्र भारत का जन्मसिद्ध अधिकार है न कि अंग्रेजों के द्वारा दिया गया कोई एक उपहार। इनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना प्रशासन का कर्तव्य होना चाहिए। इनके अनुसार लोकतंत्र अपनी सीमाओं से परे नहीं जाना चाहिए और जनता की राय उनके विश्वास और धर्म के आलोक में सुनिश्चित की जानी चाहिए।
‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा
दीनदयाल द्वारा स्थापित ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पर आधारित राजनीतिक दर्शन भारतीय जनसंघ की देन है। वे एकात्म मानववाद को प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक एकीकृत कार्यक्रम मानते थे।
‘भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है। उनकी जीवन प्रणाली, कला साहित्य दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।’
उन्होंने कहा कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत पश्चिमी अवधारणाओं जैसे व्यक्तिवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद पर निर्भर नहीं हो सकता है। उनका विचार था कि युवा भारतीय पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन महसूस कर रहे हैं। चिरकाल से विदेशी शासन के दौरान भारतीय संस्कृति कहीं न कहीं धुंधली हो चली है जिसकी धूल हटाकर फिर से उसे स्थापित करने की महत्ती आवश्यकता है अन्यथा मौलिक भारतीय विचारधारा के विकास और विस्तार में बहुत बाधा उत्पन्न होगी।
जब तक हम पश्चिमी शिक्षा, सभ्यता, मानसिकता के गुलाम रहेंगे स्वतंत्र नहीं कहला सकते
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ‘स्व’ को लेकर बहुत गंभीर थे। उनका मानना था कि जब तक हम पश्चिमी शिक्षा, सभ्यता, मानसिकता के गुलाम रहेंगे तब तक हम पूर्ण रूप से कभी भी स्वतंत्र नहीं कहला सकते। हमारी अपनी शिक्षा व्यवस्था हो जो हमारी महान संस्कृति, ट्टषि मुनियों के अनुसंधान, वैदिक ज्ञान एवं हमारे महापुरुषों के बारे में जानकारी दी। जिसे ग्रहण कर हम स्वयं को गर्वान्वित अनुभव करें। हमारी स्व आर्थिक व्यवस्था हो, जो हर प्राणी की संभाल करें। उसके जिसके अन्तर्गत कोई भी बेरोजगार न हो, स्व रोजगार की व्यवस्था हो। जिसके अन्तर्गत सबको कोई न कोई कार्य करने का अवसर प्राप्त हो। गांव-गांव में घर-घर में कुटीर उद्योग हो, अपनी अवस्था अनुसार सब काम करें। जिसका मूल उद्देश्य राष्ट्र के आर्थिक सामाजिक सुदृढ़ीकरण से जुड़ा हो। स्व-तंत्र हो अर्थात् अपना तंत्र। अपने समाज, देशकाल के अनुसार विधान होना चाहिए। जिसमें दंड का मूल उद्देश्य सुधार से जुड़ा हो। स्व- अधिकृत कानून व्यवस्था हो न कि अन्य देशों की नकल। स्व विधान ही न्याय व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाता है। राष्ट्र को मजबूत करने के लिए अपने ही देश में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग होना चाहिए। अर्थात दैनिक जीवन में स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग हो।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय इसलिए भी ‘स्व’ पर अधिक केन्द्रित रहने का आग्रह करते थे क्योंकि इसी ‘स्व’ के भाव के कारण ही हर व्यक्ति को शिक्षा, हर हाथ को काम तथा हर खेत को पानी की अवधारणा सरलतापूर्वक पूर्ण होनी सुनिश्चित थी। उनके अनुसार देश को आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने में युवाओं की महती भूमिका आवश्यक है। जिस प्रकार देश में आजादी के दौरान चले राष्ट्रीय आंदोलन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाव ‘स्व’ का था अर्थात स्वधर्म, स्वराज और स्वदेशी वैसे ही राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने में यह भाव देश के प्रत्येक नागरिक में होना आवश्यक है। वास्तव में हम जिस प्रकार के नागरिक, जैसा समाज और राष्ट्र बनाना चाहते हैं ठीक उसी के अनुरूप ही देश की शिक्षा का स्वरूप होना चाहिए। हमें ‘स्व’ पर आधारित तंत्र पर निर्भर रहना सीखना होगा। वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी अपने तत्कालीन भारतीय जन संघ के प्रथम महामंत्री, पार्टी के पुरोधा की अवधारणाओं को आत्मसात कर ही जनहित के कार्यो में सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है, जिसके लिए सरकार की यशकीर्ति विश्वभर में अपना लोहा मनवा रही है। कोई राजनीतिक दल इतने कम समय में एक विचार एक राजनीतिक व्यवस्था, एक राजनीतिक दल, विपक्ष से लेकर विकल्प तक की यात्र को पार कर ले तो यह विरासात में मिली विचारधारा के कारण ही संभव है। कोई इसे चमत्कार कह सकता है, लेकिन यह चमत्कार नहीं बल्कि संगठन आधारित राजनीति का अद्भुत उदाहरण है। जनसंघ से भाजपा के उदय तक पार्टी ने विपक्ष से राजनीति के मजबूत विकल्प की यात्र तय की है तो उसकी नींव डालने वाले व्यक्तित्व थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उन्होंने संगठन आधारित राजनीतिक दल का एक पर्याय देश में खड़ा किया। उसी का परिणाम है कि भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक संगठन आधारित राजनीतिक दल अपनी अलग पहचान रखता है।
स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण की वकालत
हाल ही में हरियाणा में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के दौरान पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को स्मरण करते हुए एवं उनकी ‘स्व’ की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए यह सुविचारित अभिमत प्रकट किया गया कि विश्व कल्याण के उदात्त लक्ष्य को मूर्तरूप प्रदान करने हेतु भारत के ‘स्व’ की सुदीर्घ यात्र हम सभी के लिए सदैव प्रेरणास्त्रेत रही है। विदेशी आक्रमणाें तथा संघर्ष के काल में भारतीय जनजीवन अस्त व्यस्त हुआ तथा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व धार्मिक व्श्वस्थाओं को गहरी चोट पहुंची। इस कालखंड में पूज्य संतों व महापुरुषों के नेतृत्व में संपूर्ण समाज ने सतत संघर्षरत रहते हुए अपने ‘स्व’ को बचाए रखा। इस संग्राम की प्रेरणा स्वधर्म, स्वदेशी और स्वराज की ‘स्व’ त्रयी में निहित थी, जिसमें समस्त समाज की सहभागिता रही। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के पावन अवसर पर संपूर्ण राष्ट्र ने इस संघर्ष में योगदान देने वाले जननायकों, स्वतंत्रता सेनानियों तथा मनीषियों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों में अंतर्निहित है। उनकी सबके लिए शिक्षा हर हाथ को काम और हर खेत को पानी की दृष्टि उनके आर्थिक लोकतंत्र के विचार में परिणत होती देखी गई। आर्थिक लोकतंत्र के अपने विचार की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं ‘यदि सभी के लिए एक वोट राजनीतिक लोकतंत्र की कसौटी है, तो सभी के लिए काम आर्थिक लोकतंत्र का एक पैमाना है। उन्होंने बड़े पैमाने के उद्योग आधारित विकास, केन्द्रीकरण और एकाधिकार के विचारों का विरोध करते हुए स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण की वकालत की। उन्होंने आगे कहा कि रोजगार के अवसरों को कम करने वाली कोई भी व्यवस्था अलोकतांत्रिक है।
शिक्षा एक निवेश है
पंडित दीनदयाल जी का मानना था कि बिना राष्ट्रीय पहचान के स्वतंत्रता की कल्पना व्यर्थ है। यह जरूरी है कि हम हमारी राष्ट्रीय पहचान के बारे में सोचते हैं जिसके बिना आजादी का कोई अर्थ नहीं है। अपनी राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा ही भारत के मूलभूत समस्याओं का प्रमुख कारण है। हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा। एक अच्छे को शिक्षित करना वास्तव में समाज के हित में है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की लालसा हर मनुष्य में जन्मजात होती है और समय रूप में इनकी संतुष्टि भारतीय संस्कृति का सार है। धर्म एक बहुत ही व्यापक और विस्तृत विचार है, जो समाज को बनाए रखने के सभी पहलुओं से संबंधित है। अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है। शिक्षा को लेकर वे कहते थे कि शिक्षा का स्तर ही किसी समाज का दर्पण होता है। शिक्षा एक निवेश है, जो आगे चलकर शिक्षित व्यक्ति समाज की सेवा करेगा। नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है। जो हमारे पूर्वज, महान ट्टषि परम्परा कोटि-केाटि वर्षो से अनुसंधान पश्चात ही हमें यह विरासत में दे गई है। जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं। यही मानव के लिए सुख का द्वार है।
हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें
दीनदयाल उपाध्याय प्रत्येक सिद्धांत को वैज्ञानिक पैमाने से परखने के बाद ही विचार प्रकट करते थे। उन्होंने पश्चिमी जगत का अंधाधुंध विरोध नहीं किया। वे कहते थे कि पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग-अलग चीजें हैं। चूंकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हमें आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के संदर्भ में यह सहरी नहीं है। यहां हमें अपनी संस्कृति को ही पूर्णतया महत्व देना चाहिए। आजादी सार्थक तभी हो सकती है जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए। भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है। उनके अनुसार हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया। डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना, लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म रेखा है। पंडित जी के एकात्म मानववाद में यह विस्तार से स्पष्ट है। इसमें उन्होंने बहुत ही गहराई से चिंतन किया है। बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है-जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल। इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं। फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते की पहचान लेते हैं। मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें। जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है। विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची बसी हुई है। मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं-एक और क्रोध और लालच तो दूसरी ओर प्रेम और बलिदान। यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन्हें अपनी महान संस्कृति के अन्तर्गत सुशिक्षित करें और इनमें राष्ट्र प्रेम व बलिदान जैसे मूल्यों मान्यताओं को रोपित करें। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की लालसा व्यक्ति में जन्मजात होती है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है। धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है। एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं। यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता।
वे सहयोगी बन जाते थे
पंडित दीनदयाल जी ने केवल पुस्तकीय ज्ञान, भाषणों व मौखिक सिद्धांतों से ही हमें प्रेरणा नहीं दी। अपितु अपने जीवन की साक्षात घटनाओं से जीवन के आदर्श अनुभव प्रस्तुत किये हैं। वे कभी स्वयं को संघ का अधिकारी या जनसंघ का पदाधिकारी मानने की बजाय कार्यकर्ता ही मानते थे। एक बार वे आगरा नगर में एक बैठक में आये। बैठक समाप्त होने के बाद सभी लोग चले गए, केवल पंडित जी बैठे थे। वे एक कार्यकर्ता से बोले नीचे तो बड़ी गर्मी है ऊपर छत पर चलते हैं। ऊपर गए तो देखा कि वहां बहुत सा कूड़ा व धूलमिट्टी पड़ी हुई थी किन्तु वह निराश नहीं हुए और झाड़ू लाने के लिए बोले। कार्यकर्त्ता झाड़ू ले आये तो उन्होंने उसके हाथ से झाड़ू ले ली और उसे नीचे से दरी और चादर लाने के लिए भेज दिया। वह जब सामान लेकर ऊपर गया तो यह देख कर दंग रह गया कि उन्होंने पूरी छत को साफ करके कूड़े का ढेर एकत्रित कर रखा था। फिर उन्होंने सारा कूड़ा एक कट्टे में भरकर उसे नीचे डाल आने को कहा। कूड़ा फैंक कर जब वह ऊपर गया तो पंडित जी दरी चादर बिछा चुके थे।
इसी तरह एक बार दीनदयाल जी कार से वाराणसी जा रहे थे। कचहरी के पास गाड़ी का टायर पंचर हो गया। गाड़ी में बैठे अन्य साथी तब तक कचहरी में परिचित मित्रें से भेंट करने के लिए चले गए। ड्राइवर ने पीछे से रिंच स्टेपनी आदि निकालकर चक्का खोला और उसे कसने लगा। इसी बीच पंडित जी पंचर हुए पहिए को ले जाकर पीछे रख कर शेष सारा सामान भी रख आये। पहिए को कसकर ड्राइवर ने देखा कि चक्का नहीं है। पंडित जी हंस दिए और बोले, ‘जल्दी करने में थोड़ा सहयोग कर दिया है।’ घटना को ड्राइवर बताते समय रो पड़ा। जहां अन्य लोग छोटी-छोटी बातों पर जल्दी करने के लिए डांट पिलाते हैं, वहीं वह जल्दी में सहयोगी बन कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे थे।
उन्होंने अपने जीवन से ही कार्यकर्त्ताओं को प्रभावित कर उनका श्रेष्ठ निर्माण किया। उनके मन में किसी भी कार्य को लेकर कोई संशय नहीं रहता था।
स्वदेशी वस्तु के लिए
उनका प्रबल आग्रह रहता था
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का स्वदेशी वस्तु के प्रयोग करने का आग्रह बड़ा प्रबल था। एक बार नागपुर में एक कार्यकर्ता शेविंग कर रहा था। वह अपने काम में व्यस्त था कि अचानक किसी ने आकर उसका शेविंग सोप उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। उसने सोचा कि किसी ने उसके साथ मजाक किया है। जब उसने गुस्से से नजर उठाकर देखा तो सामने पंडित जी खडे़ थे, पंडित जी को देखकर वह हैरान हो गया। उसने मन ही मन सोचा, पंडित जी तो कभी मजाक नहीं करते फिर आज साबुन क्यों फेंक दिया?
तब पंडित जी ने स्वयं ही कहना प्रारंभ किया-भाई नाराज न होना हम लोग स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने के लिए अपने स्वयंसेवकों को उपदेश देते हैं किन्तु अगर हम स्वयं उसका आचरण नहीं करेंगे तो हमारी बात का प्रभाव ही नहीं पड़ेगा यह साबुन विदेशी कंपनी का बना हुआ है, देसी साबुन जब मिल सकता है तब विदेशी कंपनी का बना हुआ माल क्यों उपयोग करते हो। पंडित जी की बात सुनकर उस कार्यकर्ता को अपनी गलती का भान हो गया। इस प्रकार वे स्वदेशी वस्तु के प्रयोग के लिए विशेष रूप से आग्रहशील रहते थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का संदेश भारतीय संस्कृति की नींव पर एक मजबूत और समृद्ध भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना था जो सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय का साक्षी है।
दीनदयाल जी का एकात्म मानववाद विद्वानों के मध्य शोध का विषय बना हुआ है। एकात्म मानववाद की विचारधारा का मूल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है जो समाजवाद और व्यक्तिवाद से अलग सोचने की आजादी देता है। एकात्म मानववाद एक वर्गहीन, जातिविहीन तथा संघर्ष मुक्त सामाजिक व्यवस्था जो साम्यवाद से अलग है उसके रूप में परिभाषित किया। वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तरीके से भारतीय संस्कृति का एकीकरण होना चाहिए।
अनसुलझी पहेली
जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी पूर्ण ऊर्जा के साथ भारतीय जनसंघ के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण हेतु कार्यकर्ताओं के निर्माण में लगे हुए थे तब ऐसे समय में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के निधन की दुखद घटना ने सारे देश को हिलाकर रख दिया। 10 फरवरी, 1968 को ये अपनी पार्टी से जुड़े कार्य के लिए लखनऊ से पटना जाने वाली रेल में रवाना हुए थे और इसी दौरान अगले दिन 11 फरवरी को सुबह 3-15 बजे इनका शव रहस्यमय परिस्थितियों में मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास मिला था। जब इनका शव मिला था, तो किसी को भी नहीं पता था कि ये दीनदयाल उपाध्याय जी हैं और इनके शव की पहचान काफी देर बाद की गई थी। वहीं इनकी हत्या किसने की थी इस बात का पता नहीं चल पाया था। 11 फरवरी, 1968 की सुबह मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल जी का निष्प्राण शरीर पाया गया। यह सुनकर पूरा देश दुःख में डूब गया। इस महान नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्हें 12 फरवरी, 1968 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ- जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई। आज तक उनकी मौत एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है किन्तु वे अपने स्वत्व एवं एकात्म मानववाद के विचारों से आज भी हमारे बीच अमर हैं।