कहानी छाया श्रीवास्तव
एक मास में विधवा हो जाने पर भी दीपा ने अपने जीवन की राह कैसे निकाली।
एक स्वाभिमानी लड़की की प्रेरणादायी रोमांचक कहानी।
जुलाई, 2023
स्वास्थ्य विशेषांक
भैया उमेश और भाभी शालिनी के शब्द सुन कर दीपा के पांव बाहर ही ठिठक गए, जो उसकी अनुपस्थिति की बात समझ कर जोर-जोर से बोले जा रहे थे, बहस उसी को लेकर चल रही थी।
‘अच्छा होता आप दीपा का पुनर्विवाह करके छुट्टी पाते, यों जन्म भर छाती पर तो न बैठी रहती हमारे भी तो बेटा-बेटी हैं, उन्हें भी तो पोसना है। कल को मधु, विधु, विवेक, बड़े होंगे तो उनकी पढ़ाई से लेकर ढेरों खर्च बढ़ेंगे अलग से स्टडी रूम भी तो चाहिये। आप कुछ नहीं सोचते।
‘सब सोचता हूं-पर इससे होगा क्या?’
निराश्रित बहन को घर से निकाल दूं? फिर वह नौकरी भी तो करती है पूरे डेढ़ हजार तुम्हारे हाथ पर रख देती है। एक छोटे से कमरे में पड़ी है वह भी तुम से नहीं देखा जाता।’ उमेश झल्ला कर बोला।
डेढ़ हजार रुपयों से क्या इस मंहगाई में एक आदमी की गुजर बसर हो सकती है। बहुत बड़ा रोकड़ा रख देती है हाथ पर?
धोती कपड़ा, खाने-पीने का खर्च आने जाने का किराया क्या नहीं लगता। यदि आज अलग से घर लेकर रहे, तो क्या इतने में पूरा पड़ जाएगा डेढ़ हजार रुपट्टी में? वह छोटा कमरा ही तो बच्चों का स्टडी रूम बन सकता है। दो कमरों का घर इतनी बड़ी फैमिली के लिए पर्याप्त है क्या?
मधु पूरे बारह की, विधु नौ की, विवेक छः वर्ष का हो गया है। उन्हें अब अलग रूम चाहिये।’
‘देखो शालिनी। तुम दीपा को लेकर रोज किचकिच मत किया करो। जैसा है उतने ही में निभाओ। न मैं अलग दूसरा मकान किराए पर ले सकता हूं न दीपा को निकाल सकता हूं। रोज-रोज मेरा दिमाग मत खराब करो। जैसा है उसे वैसा ही चलने दो। मैं छाती ठोक कर उसे जन्म भर निभाने का वायदा करके लाया था। क्या उससे मैं मुकर जाऊं? मान लो तुम्हारी सगी बहन होती तो क्या तुम उसके साथ भी ऐसा दुर्व्यवहार करती?’
‘खबरदार। अपनी बहन के दुर्भाग्य से मेरी बहन का भाग्य मत जोड़ना। सबका दुर्भाग्य दीपा जैसा होता है क्या? तुम्हारे मुंह से निकली कैसे ये बात?’
‘जैसे तुम मेरी बहन के भाग्य के लिए दिन रात ताने देती रहती हो, उसके विरुद्ध मेरे कान भरती रहती हो, रोज-रोज जहर भरती रहती हो, वैसे ही मैंने जहर उगला तो तुम कैसे तिनक गई? कैसी मिर्च लगी तुम्हें। रुपयों का रोना रोना। एक छोटे से कमरे के लिए हाय-हाय करना। मान लो अभी उसकी शादी न हुई होती तो क्या उसे घर से निकाल देता। कुल उन्नीस वर्ष की थी जब पापा ने उसे ब्याह दिया। आज वह कुल पच्चीस वर्ष की है, आज कल तो इतनी उम्र में लड़कियों के विवाह होते हैं-
बेचारी ने सुख ही क्या देखा। तीन ही माह में तो सुहाग उजड़ गया। तब रही कितने दिन पति के पास। परीक्षा के कारण एक माह ही का तो सानिध्य प्राप्त हुआ था उसे जब स्कूटर सहित, ट्रक उसके पति को चटनी बनाता चला गया था। दीपा तो उसका अंतिम समय मुख भी नहीं देख पाई। फिर अब ससुराल में बचा ही क्या था उसके लिए जहां वह रह कर तानो, घृणा, उलाहनों के व्यंग्य बाण सहती सुनती रात दिन सिसकती। इससे ले आया। मेरे लिए वह मधु समान ही है, पूरे दस वर्ष छोटी है मुझसे।
‘तभी तो कहती हूं कि कहीं दुबारा ब्याह दो झंझट मिटे। अपने आप समस्या हल हो जाएगी।’
जब वह दुबारा शादी को तैयार हो तब तो ब्याह दूं?
वह तो जैसे दिल में दहशत लिए बैठी है। उसे लगता है कि कहीं दुबारा वही दुर्भाग्य न घटित हो जाए।
‘सब ठीक हो जायगा तुम लड़का तो तलाशो पहले, हम जबरन घेर घार कर ब्याह देंगे।’
वह बच्ची नहीं है अब। अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयास कर रही है। उसकी इच्छा के विरुद्ध कभी जबरन विवाह नहीं कर सकता। अब बंद करो ये बकवास। उसके आने का समय हो गया है। और एक बात और कान खोल कर सुन लो-उसे ये सब कभी भी नहीं अनुभव होना चाहिये कि तुम उसे सहन नहीं कर पा रही हो। ये नहीं सोचती कि तुम्हें मुफ्रत में एक सहायक ट्यूटर मिल गई है। आराम से बैठे-बैठे बकर-बकर करती हो। वह चली गई तो पता लगेगा। अपनी लड़कियों को तो तुमने खाक नहीं सिखाया। दीपा के भरोसे हैं।’
‘सब करने लगेंगी। अभी उमर क्या है दोनों की, फिर मैं क्या झूला झूलती हूं? दीपा ही पूरी गृहस्थी उठाए है सिर पर? बैठे-बैठे तो कोई खिला नहीं सकता। रही ट्यूशन की बात तो जब स्कूल में पढ़ा सकती है। तब घर पर बच्चों को पढ़ा देती है तो इसमें अहसान क्या है और जब घर पर रहेगी तो घर गृहस्थी का काम तो करना ही पड़ेगा।’
तुम बहुत अहसान फरामोश हो शालिनी। अत्यंत तुच्छ विचार की। बस मुझ से बहस मत करो यहां से जाओ। मैं रोज-रोज की कलह से तंग आ गया हूं। तुम सी मूढ़ औरत मैंने पहले कभी नहीं देखी।
क्या कहती होगी अम्मा बाबू जी की आत्माएं? बाबू जी अम्मा बेटी के गम ही में तो चल बसें। बाबूजी का निधन अम्मा नहीं सह सकी। अब है कौन तुम दोनों भाई बहन के सिवाय इस दुनिया में?
वह अवरूद्ध कंठ से बोला। अम्मा बाबू जी की बात सुनते ही दीपा के कंठ से एकाएक सिसकियां फूट पड़ी। मुख में साड़ी का छोर ठूंसे वह अपने छाती में न समाते रुदन को न रोक पाई।
उमेश ने उठ कर बाहर झांका तो स्तब्ध रह गया। उसे समझते देर नहीं लगी कि दीपा ने उन दोनों की सब बातें सुन ली हैं-उसने उसे खींच कर छाती से लगा लिया फिर स्वयं अपने आवेग को रोकता हुआ वाष्प कंठ से बोला-‘दीपा रो मत बहन। अगर तूने सब सुन लिया है तो क्षमा कर। तेरी भाभी बहुत उथले स्वभाव की है। पर तू चिन्ता मत कर? मेरे रहते तुझे कोई कष्ट नहीं होगा। वैसे ये बात नहीं है कि शालिनी तुझे चाहती न हो। महंगाई, दो-दो बेटियों की चिन्ता ने उसे अधैर्य कर दिया है। पर तू चिन्ता न कर अगर घर पर एक रोटी होगी तो आधी तेरी होगी आधी पूरे घर की।’
वह उसे अंदर लाता हुआ बोला। शालिनी का मुख शर्म से सफेद पड़ गया। अब तक चलती जीभ पर जैसे ताला पड़ गया।
दीपा ने मुख से एक शब्द नहीं कहा वह रोती हुई अपने कमरे में घुस गई और अंदर से सटकनी लगा कर सिर पटक पटक कर बिछावन पर रोने कलपने लगी। उमेश के कितने ही निहोरों पर उसने किवाड़ नहीं खोले फिर दोनों पति पत्नी में जम कर वाकयुद्ध होता रहा। उस दिन न दीपा ने अन्न छुआ न उमेश ने न शाम को दीपा अपने भतीजे भतीजियों को पढ़ा ही सकी। उसका स्कूल सुबह से लगता था इससे वह नहा धोकर बिना चाय पिए ही घर से निकल गई। उस दिन उसने किसी काम को हाथ नहीं लगाया। न किसी से बात ही की।
शाम को ही देर से लौटी और नीचे अपने कमरे में घुस गई तब तक उमेश नहीं लौटा था।
शाम को जब उमेश लौटा तो मधु उनकी प्रतीक्षा में जैसे बाहर ही खड़ी थी, बरामदे ही में उनके कान के पास मुंह ले जाकर बोली-पापा! पापा! बुआ ने कल से खाना नहीं खाया तो मम्मी ने डांटा है। वह किवाड़ नहीं खोल रही थी तो बाहर से कह रही थी कि ऐसे नखरे यहां नहीं चलेंगे, भीतर बुआ रो रही थी। पापा, मम्मी से मत कहना ये, नहीं तो वह मारेगी।’
उमेश की शिराएं तन गई। वैसे तो कल उसने भी खाना नहीं खाया था परन्तु सुबह दस बजे खाकर गया था और शाम को आते ही गरम रोटियां खाता था। शालिनी रसोई में थी। खाना बनाने में जुटी थी तभी वह मुंह पोंछता कुर्सी पर आ बैठा खाने की टेबिल बाहर बरामदे में ही रहती थी। आंगन से लगी रसोई पास ही थी। अन्त का कमरा दीपा का था।
‘मधु! थाली लगा लाओ। खाना बन गया न?’
‘हां पापा। बन गया मम्मी रोटी सेंक रही है वह रसोई में दौड़ गई।
‘दीपा! दीपा! चलो खाना तैयार है बाहर आओ।’
परन्तु न उत्तर आया न द्वार खुले, तब वह स्वयं उठ कर किवाड़े थपथपा कर बोला-‘दीपा बाहर आजा, बड़ी जोर से भूख लगी है, थाली लग गई है’ परन्तु कोई उत्तर नहीं आया।
‘तुझे अपने भैया की कसम न आए तो। कहते-कहते गला भर आया, वह हारा थका सा फिर कुर्सी पर आ बैठा। तभी भड़ाक से किवाड़ें खुल गई और दीपा कमरे से निकल कर बाहर आई और हौले-हौले पांव रख कर बाश बेसिन में मुंह धोकर आंचल से मुंह पोंछती उसके निकट डली कुर्सी पर आ बैठी मधु एक ही थाली लाई थी उसी से रोटी का बड़ा सा टुकड़ा तोड़ कर ही उमेश ने सब्जी में डुबो कर मुंह से फूंक कर दीपा के मुंह में ठूस दिया फिर दूसरा अपने मुंह में रख कर मधु से बोला-‘जा दो पापड़ सिका ला और अचार भी ले आ आम का। शालिनी ने रसोई से सारा दृश्य देख लिया बोली कुछ नहीं यद्यपि वह अपनी आदत के अनुसार बहन पर इतना लाड़ देख कर जल भुन कर कबाब हुई जा रही थी। कहीं कुछ कहते ही उमेश भड़क कर खाना न छोड़ दें, इससे चुप रह गई। इधर दीपा के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। जैसे भाई का यही निश्छल प्यार तो उसे जीने की ललक देता रहा है। यदि भइया बदल जाते तो पांच वर्ष वह कैसे निकाल पाती। मायके में उन्हीं की प्रेरणा से उसने एम-ए- किया। बी-एड किया फिर एक प्राइवेट विद्यालय में नौकरी पाई थी। पति की मृत्यु फिर एक वर्ष के अंतर में पिता फिर मां की मृत्यु उसे जैसे मिट्टी में मिला गई थी, कितनी हंसमुख चुलबुली थी वह सौम्य, निश्छल मन की। परन्तु नियति की क्रूर मार ने जैसे उसे ठूंठ वृक्ष सा पतझड़ की मार से वीरान कर दिया था। हंसी तो अधराें से लोप हो गई थी।
खाना खाकर वह अपने कमरे में आकर आंख बंद करके लेट गई और सोचती चली गई कि कब तक वह भैया भाभी के संघर्ष में पिसती रहेगी। इस छोटे नगर में सिवाय छोटी नौकरी के कभी बड़ी की आशा नहीं कर सकेगी, न उसका वेतन बढ़ेगा, न वह इनका पिंड छोड़ पाएगी। ननिहाल भी है तो देहात में, चाचा हैं इसी नगर में परन्तु साथ देने वाला कोई नहीं। एक मौसी है सगी वह भी विधवा। अपने बेटे बहू के अधीन वह स्वयं दुखी है। तब और कौन है जो उसका साथ दे सके। तभी उसे ध्यान आया कि देहली में मां की पक्की सहेली है नीलम आंटी। जब पापा अन्य नगर में नौकर थे तब उनसे मम्मी का अच्छा घरोबा था। दो बेटे एक बेटी थी। उनके मां के पास देहली से पत्र भी आते थे। उनका बड़ा बेटा तब फौज में भर्ती हो गया था। वह लेफ्रटीनेन्ट था। तब छोटा देहली में पढ़ रहा था। बहन की देहली में ही शादी हो गई थी। रिटायर होने के बाद वे लोग भी देहली में मकान खरीद कर वहां जा बसे थे। तब वह दस बारह वर्ष की थी परन्तु उसे सब अच्छे से याद है। अगर वह उनके यहां पहुंच जाये तो काम बन जाए, देहली में तो सैकड़ों फैक्टरियां हैं, कहीं न कहीं लग सकती है। उसने उठकर बंद पड़ा मां का बाक्स खोल कर ढूंढना शुरू कर दिया मां पढ़ी लिखी थी। इससे पत्र आदि लिखने का उन्हें बहुत शौक था। उसकी मेहनत रंग लाई। मां की डायरी में उनका पता व फोन मिल गया। यद्यपि पत्र व्यवहार बहुत समय से बंद हो चुका था। मां को ही आलस आने लगा था वह अगले ही दिन शाला जाने से पूर्व देहली को फोन लगा बैठी। घंटी बजी और फोन किसी औरत ही ने उठाया।
‘आप कौन बोल रही हैं?’
‘मैं इस घर की नौकरानी हूं’
‘ये उदय सिंह जी का मकान है न?’
‘हां उन्हीं का है आप कौन बोल रही हैं?’
तुम नीलम आंटी या उदय सिंह जी को बुला दो मैं उन्हीं से बात करना चाहती हूं।
‘परन्तु वे तो घर पर नहीं है, थोड़ी देर से आएंगे।’
‘तो ठीक है, उन्हीं से बात करूंगी, उनके आने पर।’ उसने फोन रख दिया और इत्मीनान से कुछ निश्चय कर सोने का प्रयास करने लगी अब फोन करना जरूरी नहीं था।
दूसरे दिन ही उसने अपने-अपने जमा रुपये निकाल लिए अन्य और भी चुपके-चुपके तैयारी करती रही और फिर एक दिन बहुत सुबह उठकर उसने एक हफ्रते के पश्चात रसोई में कदम रखा। चाय बनाकर पी। फ्रिज से आटा निकाल कर पराठें बनाए नाश्ता किया और रास्ते के लिए अचार सहित पांच छः परांठे का पैकेट रख भी लिया। वह सदैव सुबह ही उठती थी। पाठशाला सात बजे तक जाना पड़ता था। पूरा घर तब तक सोता ही रहता था। वह अपने कमरे में टेबिल पर एक पत्र भैया को लिख कर रख आई थी। टेªन के जाने का पता वह एक दिन पूर्व लगा आई थी।
जब टेªन में बैठ गई और टेªन चल पड़ी तब उसने चैन की सांस ली। देहली वह छः बजे पहुंच गई, फिर टैक्सी करके आंटी के घर। वह उसे पहले तो पहचान नहीं पाई, पर जब उसने अपना परिचय दिया तब याद आया और उन्होंने उसे खींच कर छाती से लगा लिया।
‘मैं नहीं जानती थी कि शारदा की बेटी इतनी सुंदर, इतनी बड़ी हो गई है। बाबू जी मां और उमेश, बहू शालिनी कैसे हैं और बच्चे कितने हैं।
‘आंटी मम्मी-पापा दोनों का एक वर्ष के भीतर स्वर्गवास हो गया और भैया-भाभी तीनों बच्चे मजे में हैं और पढ़ाई कर रहे हैं।’
‘अरे! वह चौक गई इतना जल्दी दोनों ने संसार छोड़ दिया। ईश्वर से यह अंधेर कैसे हो गया। कम से कम बेटी के तो हाथ पीले कर जाते।’ उनके नेत्र नम हो आए।
‘हाथ पीले हो जाते शब्द सुन कर कलेजे पर पत्थर सा पड़ा। मुख विवर्ण हो गया, सिर झुक गया, आंटी को क्या पता कि हाथ पीले होकर सफेद पड़ गए हैं। अपने दुर्भाग्य की कहानी कैसे कहे अपने मुख से। यही पीड़ा तो उसे गीले वस्त्रें सा निचोड़ देती है। बहुत रोकने पर भी वह अपने आंसू नहीं रोक सकी। दोनों हाथों से मुंह ढक कर फूट-फूट कर रो पड़ी।’
‘अरे चुप हो जा दीपा। भाई तो है, भाभी है मां पिता के स्थान पर, सब हो जायेगा समय आने पर।’ वह उसके सिर पर हाथ फेरकर बोली, फिर आवेग रुकने पर वह अपने दुर्भाग्य की कहानी बताती चली गई। सुनकर वह स्तब्ध रह गई और दुखी भी हुई। दीपा ने अपने आने का प्रयोजन भी कह सुनाया और सहायता की याचना भी की और ये भी स्पष्ट कर दिया कि यदि कही जुगाड़ नहीं बना तो वापस चली जाएगी अपने नगर। वैसे वह अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है, किसी पर बोझ बन कर नहीं।’
‘आंटी। अंकल नहीं दिख रहे हैं?’
‘वह अस्पताल में हैं दीपा। थोड़ी देर में आने वाले हैं। मैं भी कुछ समय पूर्व वहां से लौटी हूं।’ वह उसांस लेकर बोली किसी को देखने गए थे क्या?
‘हां! देखने क्या रात में एक को रहना भी पड़ता है। बड़ा बेटा दुष्यन्त अस्पताल में तीन माह से भर्ती है।’
‘अस्पताल में इतने समय से क्या लम्बी बीमारी हो गई उन्हें?’
वह तो फौज में थे न तब, जब आप लोग यहां आए?’
‘हां बेटी। अब वह कैप्टन है और कारगिल युद्ध में जख्मी होकर लौटा है और दुखान्त बात ये है कि उसकी एक टांग घुटने से युद्ध भूमि में कुर्बान हो गई, कई जगह से अंग-अंग यानी फैक्चर हो गए थे। प्लास्टर चढ़े हैं। घाव भरने में अभी पूरा एक माह और लगेगा। बस ईश्वर ने उसकी जान बचा दी, कई शौर्य पुरस्कार उसे गणतंत्र दिवस में मिलेंगे। बहुत बहादुरी का परिचय दिया उसने युद्ध भूमि पर। दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। जहां देखो उसकी वीरता के गुणगान होते हैं।
दीपा अवाक सी उनका मुख देख रही थी। जहां रंचमात्र ये गम नहीं था कि पुत्र विकंलाग हो गया है। कितना स्नेह कितना गर्व है उनके मुख पर। उसका मुख उल्लास से भर उठा। भारत देश वीरों का देश है-और ऐसी देश भक्ति से परिपूर्ण माताएं हैं, पत्नियां हैं जो प्राण निछावर करने वाले रण बांकुरों पर एक आंख से रोती है, तो एक से हंसती है।
‘धन्य हैं आप आंटी और अंकल, जिनका ऐसा प्राण निछावर करने वाला बेटा है। आपका और वंश का नाम ऊंचा कर दिया उन्होंने आंटी। मैं भी उन्हें देखने चलूंगी। और छोटे भैया निशंक कहा पर हैं और हेमा दीदी? मैं सबके बारे में पूछ ही नहीं पाई।’
निशंक अपनी दीदी हेमा के पास अमरीका में है। दामाद की नौकरी वही लग गई थी किसी फैक्टरी में तो निशंक को वहीं बुला लिया। हर माह आते हैं दुष्यन्त को देखने। आठ दिन हुए गए हैं।
‘शादियां हो गई सबकी?’
‘नहीं केवल हेमा की हुई है दो बेटे हैं उसके। दुष्यन्त की सगाई यहीं देहली में हो गई थी परन्तु वह टूट गई। भावी दामाद एक पांव गवां बैठा है न, इससे उन लोगों ने तोड़ दी। वो एक बार देखने आए थे फिर एक दिन फोन से समाचार आया कि उनकी इकलौती बेटी एक अपंग को जन्म भर नहीं झेल सकती। बस यही दुख सर्वाधिक साल गया है दीपा।
‘काश! मैं फौज में भरती हो पाती आंटी। मेरी उत्कट इच्छा है। यदि दुष्यन्त जी सिफारिश कर दें तो मैं देश के लिए गर्व से जी सकूंगी।’ ‘अब तू ही उससे बात करके देखना।
तभी उदय सिंह जी ने प्रवेश किया। बात-चीत में गाड़ी का हार्न नहीं सुन पाई। उन्हें देख कर दीपा अकचका गई वह उठ खड़ी हुई फिर हाथ जोड़ कर प्रणाम कर के सिर झुका कर खड़ी रह गई। खुश रहो। कौन है भाई ये, मैं तो पहचान नहीं पाया।
वह पास डली कुर्सी पर बैठते हुए बोले-‘बैठो बेटी।’
पहचानोगे कैसे तब यह छोटी थी दस ग्यारह वर्ष की। ये मेरी सहेली शारदा की बेटी। अपन लगभग पांच वर्ष एक ही नगर में रहे थे मोहन लाल जी उन्हीं की बेटी है ये।
‘अरे! तो यहां कैसे बिना खबर किए?’
‘अंकल एक हफ्रते पहले मैंने फोन किया था तब आपकी नौकरानी ने फोन उठाया था शायद वह बतलाना भूल गई।’
‘अरे! याद आया वह कुछ बता तो रही थी पर ठीक से नहीं बतला पाई कि किसका फोन था कहां से आया था।’
‘भूल हो गई होगी। दीपा स्वयं अपनी गलती पर शर्मिन्दा हो गई। उसने अपना पूरा परिचय दिया ही कहाँ था। फिर नीलम आंटी ने पति से पूरी बातें बता डाली। सुन कर वह भी द्रवित हो गए कि इतनी सी आयु में वह विधवा हो गई और अब अपने पैरों पर खड़ा होने की चेष्टा में है और वह फौज में भर्ती होना चाहती है।
‘जरूर करेंगे बेटी तेरे लिए कुछ इत्मीनान रख। फौज में न सही अन्य कहीं भी लगवा दूंगा। अच्छा है तेरी आंटी को हेमा के बाद दूसरी बेटी का सहारा मिल जाए।’
अंकल मैं——-मैं पास ही कहीं आप लोगों के संरक्षण में मकान लेकर रह लूंगी। मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। यही कृपा क्या कम होगी कि आप मुझे स्वावलम्बी बनाने में सहयोग देंगे।
‘ये खुदारी तो बहुत अच्छी है परन्तु तू बोझ कैसे लगेगी मेरी प्यारी सहेली की बेटी है। समझूंगी मेरी दो बेटियां हैं।’
चल पहले तू नहा धो ले। चाय नाश्ते से क्या होता है मैं झटपट खाना बनाती हूं और हां दुष्यन्त को क्या खाना बतलाया है डाक्टर ने दलिया तो वह सुबह मना कर रहा था।
वह सूखी गोभी की सब्जी परांठे की मांग कर रहा था और हरा धनिया टमाटर मिर्च की चटनी साथ में।
‘लो! मैं अभी तैयार करती हूं। दीपा। तू आज घर पर आराम कर कल सुबह चलना। मैं तो रात में अस्पताल ही में सोती हूं।
‘ठीक है आंटी! कल ही चलूंगी कई दिन से यहां आने की चिन्ता में सो नहीं पाई। कल ही चलूंगी। फिर वह नहा धोकर खाना खा पीकर कमरा बंद करके जो सोई तो सुबह ही उसकी आंख आंटी के जगाने से खुली। वह अस्पताल से लौटी थी और अंकल के हाथों बेटे के लिए चाय नाश्ता बनाकर भेज चुकी थी।
वह भी शीघ्रता से नहा धोकर चाय नाश्ता निपटा कर रसोई में घुस आई और जबरन उनके साथ खाना बनवाने में जुट गई यद्यपि वह मना करती रही। उसने थोड़ी ही देर में उनकी रसोई की सारी जानकारी हासिल कर ली। खाना बनाने का उसका शौक व कुशल रसायन का परिचय आंटी का मन मोह गया। रिटायर होने के पश्चात उदय सिंह जी भी एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करते थे। वह ग्यारह बजे आफिस जाते व शाम के पांच बजे लौटते। उनके जाने पर आंटी दिन भर या आधे दिन को अस्पताल में रह आतीं फिर अंकल के दफ्रतर से आने के पूर्व लौट आती।
उस दिन अंकल के आफिस जाने के पश्चात वह भी आंटी के साथ जाने को झटपट तैयार हो गई जब तक आंटी ने कमरों के दरवाजे आदि बंद किए, उसने सलाद आदि काट कर टिफिन तैयार कर लिया। जब आंटी रसोई में घुसी, टिफिन ढूंढने लगीं तो वह बाहर से चिल्ला कर बोली।
‘आंटी। टिफिन मैं तैयार कर लाई हूं।’
‘अच्छा! पहले दिखा तो मुझे वह चटनी पापड़ के बिना खाना नहीं खाता।’
‘वह सब मैंने रख लिया है। आप ताला लगाकर बाहर आ जाएं वह गाड़ी में टिफिन पानी की बोतल दूध का थर्मस आदि रखती हुई बोली।’
‘आंटी प्रसन्न हो उठीं। गाड़ी में बैठते ही उसका सिर थपथपा कर बोली बहुत होशियार है दीपा तू। देख तो आज मुझे कितना सहारा मिल गया। अकेले तो बहुत परेशान हो जाती थी, नौकरी लगे या न लगे। तुझे अभी जाने नहीं दूंगी। लगता है हेमा आ गई है घर पर।’
सुनकर वह मुस्कुरा दी।
जब वे दोनों अस्पताल पहुंची तो दुष्यन्त जैसे उन्हीं की प्रतीक्षा में बैठा था। आंटी ने दीपा के आने की सूचना दे दी थी। बचपन की देखी वहीं नन्हीं पतली दुबली नाजुक सी बालिका उसके नेत्रें में घूम गई। कितनी चंचल कितनी चुलबुली थी भूरे बाल, भूरी ही सी बड़ी बड़ी आंखें और अब विधवा के रूप में कैसी लगती होगी वह? मन संवेदना से भर उठा।
तभी वह सफेद शलवार कुर्ते में टिफिन व अन्य सामान लिए आंटी के पीछे-पीछे चली आई। पास के रेंक पर सामान रख कर उसने अब ठीक से देखा दुष्यन्त को और नमस्कार कर अभिवादन किया। ‘हैलो दीपा? कैसी हो? मम्मी ने रात में बतलाया तो बहुत खुशी हुई कि तुम हमारे गरीब खाने में आई हो।
‘और मुझे भी बहुत हर्ष हुआ यह जान कर कि आप अपने वतन के लिए इतनी वीरता से शौर्य प्रदर्शन करके आ रहे हैं। वह खुश हो उठा। एक अपूर्व दीप्ति से उसका पीताभ रंग दमक उठा।’ ‘धन्यवाद। बहुत बड़ी हो गई हो दीपा तुम, साथ ही वाक्पटु मेरी नजरों में तो वही नन्हीं बालिका डोल रही थी। अब तो बहुत स्मार्ट लग रही हो।’ वह मुस्करा कर बोला सहसा लज्जा से दीपा का मुख अरुणाभ हो उठा। उसके बड़े-बड़े नेत्र लाज से झुक गए।
‘हां! दीपा वास्तव में बहुत अच्छी लड़की है और आज तो सारा काम उसी ने निपटाया। मैंने तो इसे सामान भर बतलाया और उसने फटा-फट खाना बना डाला। तेरे पापा भी बहुत तारीफ कर रहे थे। तेरा मन चाहा खाना भी इसी ने तैयार किया है। लो हाथ धो लो और खाना खाओ फिर बतलाओ कि हम लोग सच कह रहे हैं या असत्य।’
‘सच दीपा। तुम्हारी दोनों सब्जियां जायकेदार बनी हैं और ये दही में फ्रूटस की मीठी डिश जिसमें गुलाब की सुगंध आ रही है। लगता है खाता जाऊं पर अब है ही कहां?’
वह बोला तो वे दोनों हंस पड़ी दीपा झेंपती हुई बोली, ‘धन्यवाद प्रशंसा के लिए। मेरा श्रम सार्थक हुआ।’
तभी दुष्यन्त ने खाना समाप्त किया तो उसने वाशिंग पाट उठा कर उसके हाथ धुला दिए और टावेल उठा कर पोंछ भी दिए। जब वह लेटने को नीचे सिखका तो दीपा ने जख्मी पैर को सहारा देकर तकिये के ऊपर पसार दिया इतने हौले से कि उसे रंचमात्र पीड़ा नहीं हुई। बरबस उसके मुख से फिर धन्यवाद निकल गया।
‘अरे आप ये, बात-बात पर धन्यवाद कब तक देते रहेंगे?’ ‘जब तक तुम मेरी सेवा करोगी।’ वह हंस पड़ा।
‘ठीक है देते रहिये, उसके लिए मुझे बैग नहीं लाना पड़ेगा।’ ‘अरे, तुम बैठो तो सही। जब से आई हो खड़ी हो या काम कर रही हो। वह उसके पायदाने बैठ गई। आंटी कुर्सी पर बैठी थी टेबिल पर सामान रखा था। तथा उसकी दृष्टि भी सामने पड़े एक सैनिक पर पड़ गई जिसकी टूटी टांग ऊपर बंधी थी। वैसे पूरे कमरे में जख्मी सैनिक लेटे थे ये उसने आते ही देख लिया था।
वह सैनिक टांग टंगी होने से निकट रखे स्टूल से पानी का गिलास उठाने का प्रयत्न कर रहा था, टेढ़ा होने पर पीड़ा से मुख से सिसकारी निकल जाती थी। उसके पास उस समय कोई नहीं था। तभी दीपा उधर दौड़ गई। उसने गिलास का पानी फेंक कर दूसरा भर कर उसे पकड़ा दिया फिर उसके पानी पीने तक उधर ही खड़ी रही फिर गिलास रखकर वह अकेले पडे़ सैनिकों से फल दूध पानी की पूछ कर और देकर लौटी जब पुनः उसी स्थान पर बैठी तो अपनी ओर एकटक देखते मां बेटे की झेंप मिटाने को बोली।
‘लो। धन्यवाद सच में कोई वस्तु होती तो मुझे सच में रखने को बैग न मिलता।’
‘दीपा। तुम फौज में जाना चाह रही हो न तो इससे बढ़ कर और काम क्या होगा, मैं समझ नहीं पाती। कितने धन्यवाद कितने आशीर्वाद तुम्हें मिल रहे हैं कि झोली में नहीं समाएंगे’ आंटी बोली।
‘सच में आंटी! मैं सोचती हूं कि नित्य आकर मैं सेवा करूं। अपने सैनिक भाइयों की, पत्र-पत्रिकाओं से रोचक समाचार पढ़ कर सुनाऊं, उनके मन चाहे कार्य करूं। जब तक अंकल मेरी सर्विस नहीं लगवा देते मैं नित्य आकर नर्सो की भांति आनरेरी सेवा करूंगी। वैसे भी मुझे काम करने, दूसरों को खिलाने पिलाने बनाने में अगाध सुख मिलता है।
‘तो करना आकर बेटी। इससे बड़ा पुण्य और क्या होगा? हेमा रहती है तो मैं घर पर रह कर गृहस्थी का काम देखती हूं। अब तू आ गई है तो निश्चिन्त हुई मैं। अब तू ही साज बाथ देकर कपड़े बदलवा दिया करो। अब तो ये खुद ही सब कर लेता है। बस सामान उठा कर देना पड़ता है। बस पर्दे की आड़ करनी पड़ती है वह कोने में रखा है।
दूसरे दिन से जैसे यह उसकी दिनचर्या बन गई। वह घायलों के हर वार्ड में जा जाकर सेवा करने लगी यद्यपि नर्से समय समय पर राउन्ड लेती थी परन्तु केवल दवा इन्जेक्शन देने तक वह किराए से ढेरो नई पुरानी पत्रिकाएं उठाकर बांट आती। फिर शाम को वापस लाकर जमा करती। आंटी के साथ घर का ढेरों काम समेट देती। दुष्यन्त की हिचक दूर हो गई थी और स्वयं उसका शर्मीलापन यद्यपि दुष्यन्त को ज्ञात था कि दीपा वैधव्य का शाप भोग रही है। ऊपर से ठीक दिखने वाली दीपा भीतर से कितना दर्द संजोए हैं। ऐसे ही होते हैं ऊंची भावना वाले लोग अपना दर्द पीकर दूसरों को अमृत बांटते हैं।
उसका नित्य का नियम यथावत् चलता रहा। उसमें व्यवधान नहीं आया। पूरे वार्डो में वह एक सेवा मूर्ति सी प्रतिष्ठित हो गई। कई तो भाव विह्वल उसके पांव भी छू लेते। अपने साथ लाए रुपयों से जब तब फल या आवश्यक वस्तुएं खरीद कर दे जाती।
एक माह कब निकल गया वह कोई जान नहीं पाया। फिर एक दिन दुष्यन्त को वे लोग घर ले आए। अब उसे कुर्सी के सहारे या बैसाखी के सहारे चलाना पड़ता था। अंकल-आंटी तो जैसे उसे अपने घर की बेटी ही मानने लगे वह ऊपर से सामान्य थी परन्तु मन उसका सदैव अपने भाई के पास डोलता रहता था। पत्र में वह लिख आई थी कि न वह पेपर में उसकी फोटो दें, न दूरदर्शन में। जब वह ठीक से जम जाएगी तब वह स्वयं पत्र डालेगी।
मधु-विधु विवेक भैया के लिए मन कचोट उठता तो वह दिन भर की पीड़ा रात में अपने बिछावन पर रो-रो कर निकाल लेती। यहां आकर सदैव चुप-चुप रहने वाली वह काफी वाचाल व शहरी वातावरण में ढल गई थी। कई बार मन में आया कि वह पत्र डाल दे परन्तु उसे प्रतीक्षा थी अपने पैरों पर खड़ी होने की उसने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था। एक माह की छुट्टी की अर्जी दे आई थी। अब छुट्टियां खत्म हो रही थी।
वह जानती थी कि भैया उमेश ने उसके स्कूल में अवश्य पता लगाया होगा कि वह एक माह की छुट्टी लेकर गई है। तब तक अवश्य लौटेगी। फिर चाहे टी-वी- में या पेपरों में विज्ञापन दे। उसका भाभी के कटुवाक्य उसका हृदय सदैव मुग्ध कर जाते, वह तो अब बहुत सुखी होगी उनके घर का कांटा जो निकल गया।
यदि उसकी नौकरी नहीं लगी तो ‘लौट के बुद्धू घर को आए’, जैसी फजीहत होगी। उसकी वही भाभी और शायद भैया उसकी हरकत को काफी माफ नहीं करेंगे। शायद भैया ने अवश्य उसकी ससुराल में भी पता लगाया हो। भैया कितना तड़पे होंगे उसके लिए और वह कभी क्षमा नहीं करेंगे।
वह रात भर सो नहीं पाई तो उसका क्लान्त तन मन मुख पर अपने अवसाद की छाप छोड़ गया। उस दिन उसका अस्पताल जाने का भी मन नहीं हुआ। घर का काम निपटा कर वह अपने कमरे में जा पड़ी। उसने निश्चय कर लिया था कि आज वह अंकल के आफिस आने पर बात करेगी या पराए घर में पड़े-पड़े कब तक किसी के यहां रोटियां तोड़ेगी।
उस दिन दोनों मां बेटे को आश्चर्य हुआ कि दीपा यों कमरे में कैसे चुपचाप पड़ी है। अवश्य उसे अपने घर की याद आ रही है।
‘मां! दीपा को तो देखो वह आज सुबह से उदास सी दिख रही है। कहीं उसकी तबियत तो खराब नहीं है। उसके भाई भाभी का पत्र भी तो नहीं आया कोई दुष्यन्त ने कहा।
‘हां बेटे! मैं भी कई दिन से यही सोच रही हूं कि क्या बात है? कहीं बिना बतलाए तो नहीं भाग आई। देखो पूछती हूं जाकर। मुझे भी यही चिन्ता लगी है।’
जब वह कमरे में पहुंची तो देखा वह अलसाई सी दीवाल की ओर मुंह किए पड़ी है, वह उसके निकट बैठ गई। फिर उसका सिर सहला कर बोली-‘आज तू दीपा——–तेरी तबियत तो ठीक है ना?’
‘दुष्यन्त भी चिन्तित है। आज तू सेवा के लिए भी नहीं गई। दीपा अकचका कर उठ बैठी। मां का सा अपने सिर पर स्नेह भरा स्पर्श पाकर उसके नेत्र छलक आए।
‘आंटी! तबियत तो ठीक है। मैं सोच रही थी कि अब तो बहुत दिन हो गए। यहां नौकरी का भी कुछ नहीं हो पाया। याें पड़े पड़े मुफ्रत में——उसने आगे शब्द नहीं कहे।
‘रोटिया तोड़ रही हूं। यही ना? अरे पगली। मैं तो तुझे घर की बेटी समझती हूं। मैं क्या तेरे अंकल दुष्यन्त सब ही तो। कहां बेगानापन लगा तुझे? बस। यही न कि उमेश का या तेरी भाभी का कोई पत्र नहीं आया, न शायद तूने ही डाला। एक बात मन में कई दिन से उठ रही है कि कहीं तू घर से भाग कर तो नहीं आई?’
दीपा का मुख फक्क पड़ गया। सच में उसने अब तक न ये बतलाया था कि वह नौकरी करती थी, न ये कि वह चुपके से घर से भाग कर आई है उसका मान घटे, वह यह नहीं चाहती थी परन्तु अब?
‘आंटी ये सच है कि मैं कुछ परिस्थितियों वश घर पर पत्र रख कर चुपचाप वहां से आई हूं। फोन लगा कर इसी से पता लगाया था कि आप लोग यहां हैं या नहीं? तभी घर से पांव निकाला।’
‘परन्तु ऐसा क्यों किया दीपा तूने? कुछ कारण तो होगा?’ ‘आंटी! घर की बात है इससे मैं सच नहीं कह पाई। क्षमा करें। कह कर वह रो पड़ी। ‘अरे रो मत मैं तेरी मौसी हूं न, बता क्या हुआ था। क्या भाई भाभी का व्यवहार ठीक नहीं था?’
‘हां आंटी भाई तो कभी कुछ नहीं कहते बहुत प्यार करते हैं परन्तु भाभी को मेरा वहां रहना एक आंख नहीं भाता। असल में मेरी दो भतीजियां बड़ी हो रही है, मकान छोटा है और मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हूं जिससे केवल डेढ़ हजार रुपया मिलते हैं। वह मैं भाभी के हाथ पर रख देती हूं। परन्तु इतने से एक जने का खर्च कैसे पूरा पड़ सकता है। पांच प्राणी हैं, छठी मैं,
फिर उसने उस दिन की पूरी घटना कह सुनाई और फूट फूटकर रो पड़ी।
‘चल तू चिन्ता मत कर। कल तेरे अंकल कह भी रहे थे कि तेरे लिए एक फैक्टरी में बात लगभग तय है वहां लगती है तो ठीक है अन्यथा फौज की भर्ती अभी हो रही है। ‘दुष्यन्त अवश्य लगवा देगा। तभी दुष्यन्त बैसाखी के सहारे आ खड़ा हुआ। वह चौंक गई। उसे देख कर वह उठ खड़ी हुई और बैसाखी की एक ओर रखते हुए बोली-‘बैठिये।’
‘दीपा! मैंने तुम्हारी मां की पूरी बातें सुन ली है। तुम अब भी इस घर को पराया समझती हो ये जानकर दुख हुआ।’
‘नहीं पराया तो नहीं समझती। यदि समझती तो यहां न आती। बस एक ही आकांक्षा है कि मैं किसी लायक हो सकूं तो भैया भाभी को गर्व से लिख सकूं कि मैं अब किसी पर बोझ बन कर नहीं रह रही हूं। संरक्षण तो आंटी अंकल का रहेगा ही। यहां तो अपनी मम्मी पापा से बढ़कर प्यार मान सम्मान मिला है।’
वह आंसू पोंछ कर बोली। ‘अगर यहां मन माफिक नौकरी नहीं मिली तो हम अपनी हेमा दीदी निशंक के पास तुम्हें भेज देंगे। वे लोग इसी हफ्रते आने वाले हैं।’ सुनकर वह पुलकित हो उठी। उसने कृतज्ञ नेत्रें से उसे भर दृष्टि निहारा, जिसमें श्रद्धा विश्वास नेह छलक रहा था।
इस बीच किसी के आ जाने से आंटी उठ कर बाहर चली गई थी। तभी हौले से अपने बेड से उठी और उसके पांव छूने को झुकी तो वह अकचका गया। उसने लपक कर उसके दोनों नरम हाथ कस कर अपनी मुट्ठी में दबा लिए। फिर अचरज से बोला।
‘ये क्यों भला? इतनी श्रद्धा क्यों? मैंने ऐसा क्या किया है तुम्हारे लिए कि तुम चरण छूने झुक गई हो बल्कि मुझे छूने चाहिये तुम्हारे क्योंकि जब से आई हो मेरी सेवा कर रही हो, सेवा स्नेह की मूर्ति हो तुम।’
कह कर हंस कर उसके पैरों की ओर झुका तो वह पीछे खिसक गई और लाज से दोनों हाथों से मुख छुपा कर बाहर भाग गई। वह आश्चर्य चकित सा देखता रह गया सोचता हुआ कि उसने ऐसा क्यों किया उसने तो कभी कोई ओछी या ऐसी वैसी हरकत अपनी मंगेतर से भी कभी नहीं की थी फिर अब तो अपंगता की हीन भावना से ग्रस्त वह अपने लिए कुछ भी आंकाक्षा पालने की भूल कर भी नहीं सकता था। शायद दीपा के यहां चरण छूने की रिवाज हो सोच कर वह आकर अपने कक्ष में जा पड़ा।
फिर सोचता चला गया अपनी मंगेतर शिवानी के विषय में। कितना अन्तर है दोनों में वह भी उच्च शिक्षिता थी दीपा भी उतनी ही, पर वह एक कर्नल की बेटी बड़े शहर की शिक्षित दीपा मध्यम परिवार कर एक सामान्य परिवार की परन्तु शहरी लड़कियों से कहीं उच्च संस्कारयुक्त सर्वगुण सम्पन्न स्नेही, भावुक सेवा की साक्षात मूर्ति। काश! ऐसी ही लड़की जीवन में आई होती तो क्या वह भी? पर दीपा ने तो कभी न कोई घृणा दिखलाई, न विरक्ति। लगता है जैसे जन्म से ही यहीं की हो।’
कंठ से ठण्डी श्वास निकल गई और नेत्रें से आंसू बह पड़े।’
तभी शाम के समय अंकल ने आकर जो खबर दी उसे सुनकर दीपा मारे खुशी के उछल पड़ी। आंटी-दुष्यन्त भी हर्ष विभोर हो उठे, अंकल की सिफारिश से दीपा को सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई। वेतन था पांच हजार रुपये। उस दिन घर पर मिठाई बंटी। फिर दूसरे ही दिन से उसने अविलम्ब सर्विस ज्वाइन भी कर ली और उसी सप्ताह कनाडा से हेमा दीदी व छोटा भाई निशंक भी आ गए। साथ में दोनों बच्चे घर में जैसे बहार आ गई। दीपा से वे सब ऐसी आत्मीयता से मिले जैसे जन्म से परिचित हो। वह भी शीघ्र ही सबसे हिल मिल गई। वह अब भी गृह कार्य पूर्ववत ही बड़े भोर से उठ कर संभालती थी। उसके बाद काम पर जाती। उसने सोच लिया था कि भीड़-भाड़ छंटने के पश्चात ही वह भैया को पत्र लिखेगी——वह अब परम संतुष्ट थी।
निशंक तो जैसे उसके आगे पीछे ही घूमता था। दोनों बच्चे भी उससे खूब हिल मिल गए थे। जब से उसने सुना था कि दीपा विधवा है वह उससे भांति-भाांति के प्रश्न पूछता रहता। एक दिन तो वह स्पष्ट पूछ बैठा-दीपा जी आपने अपने हसबैण्ड की डेथ के बाद दूसरी शादी क्यों नहीं कर ली। इतनी पढ़ी लिखी हैं खूब सूरत हैं, स्मार्ट हैं। फिर आपके कोई बच्चा भी नहीं है कुल एक माह आप उनके पास रही हैं। सब झंझट खत्म। कनाडा वगैरह में देखिये पति मरा तो बच्चे तक को धता बता कर चट से दूसरी शादी कर लेती हैं कई-कई बच्चों की मां भी।’
‘भैया! ये मत भूलो यह भारत है साध्वियों का देश, जहां बचपन की विधवा उसी पति के नाम पर लड़कपन से जवानी बुढ़ापा सब गुजार देती है। एक विधवा को ऐसी बातें सोचने का कोई हक नहीं होता। तुम कुछ वर्ष परदेश में रह कर अपने देश के रीति रिवाज परम्पराएं भूल गए?’
‘व्हाट नानसेंस मैं कहता हूं तोड़ दो ये सब और धड़ल्ले से मन चाहे जवान से शादी कर लो।’
‘कौन करेगा एक विधवा से शादी, फिर बिना दान दहेज के? यहां तो एक से एक कुंवारियों को बिना दहेज के कोई नहीं पूछता, कोई दिखावे को ब्याह भी ले गया तो सता सता कर दहेज की बलि वेदी पर चढ़ा दी जाती है।’
‘ऐसे दानवों को तो फांसी की सजा दे दी जानी चाहिये। परन्तु हमारा तो पूरा परिवार दान दहेज के सख्त खिलाफ है। दुष्यन्त भैया की शादी में मम्मी-पापा ने साफ मना कर दिया था। तो भी उन लोगों ने हमारे परिवार और भावनाओं को नहीं समझा। सगाई तोड़ दी। भैया को गहरा धक्का लगा था इससे।’
‘सच में, बड़े हृदयहीन हैं वे लोग, जो इतने श्रेष्ठ व्यक्तियों को नहीं समझ पाए।
‘दीपा तू धन्य है। तेरे विचार मैं देर से खड़ी खड़ी सुन रही हूं काश। तू मेरे भाई के जीवन में पहले आई होती तो हम सब भी निहाल हो जाते।’
‘दीपा’। यदि मैं तेरे सामने अपने प्यारे भाई दुष्यन्त का प्रस्ताव रखूं तो क्या तू स्वीकार नहीं करेगी? सच में वह तुझे बहुत पसंद करता है। मम्मी-पापा, निशंक सभी की इच्छा है कि तू इस घर की बहू बने। बस सब कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि तुझसे एक अपंग व्यक्ति का हाथ थामने को कैसे कहें? यदि तुझे कोई मलाल न हो तो हम सर्वप्रथम तुझे पसंद करेंगे। देख ये ढेरो पत्र और फोटो। तेरे समान विचारधारा की कई लड़कियों के पत्र फोटो आए हैं परन्तु अभी हम लोगों ने कहीं हां नहीं की। उत्तर देंगे इससे चुप साध गए अभी कुछ ही समय तो हुए जब वह अस्पताल से घर आया है। तू भी सोच ले। अपने भाई उमेश से पूछ ले तब उत्तर देना।
दरअसल दुष्यन्त स्वयं तुझसे बात करना चाहता था परन्तु संकोच के कारण कुछ नहीं कह सका कि कहीं तू इसे कुछ अन्यथा न ले ले।
पहले तो आश्चर्य से दीपा की आंखें फैल गई सदा चुपचाप रहने वाला दुष्यन्त मन ही मन उसे पसंद करता है। इससे उसका मुख अरुणाभ हो उठा। अपनी लज्जा पर नतमुख वह गंभीर वाणी में बोली-‘दीदी यदि मैं अपने जीवन के उस तूफान से न गुजरी होती तो सच में मुझ सी भाग्यशाली स्त्री कौन होती परन्तु सबसे कड़े वे सत्य का विशेषण तेरे साथ लगा है, वैधव्य का उससे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। अपने भाग्य की विडम्बना पर मुझे रंच मात्र विश्वास नहीं है, सच दीदी, डरती हूं मैं अपने से।’
‘नहीं दीपा, डर भय निकाल दे मन से, अतीत को भूल कर नया जीवन, नई राह पकड़ो। गलत मत सोचो। कुछ एक बार जो बीत गया वह बार-बार थोड़े होगा। भाग्य बदलना तो इंसान के हाथ में है, समझदारी से काम ले। यह तेरे जीवन का सुनहरा अवसर है। नौकरी लग गई, मां पिता का आश्रय मिल गया, अपने जीवन को पूर्णता दे। जल्दी नहीं है अभी तो समय है जब तक दुष्यन्त अपने पैरों पर न खड़ा होगा हम विवाह नहीं करेंगे। तब तक तू सोच विचार कर ले।’
कह कर वह चली गई। दीपा ने अन्य कुछ नहीं कहा। गहरे सोच में डूबती चली गई।
फिर उसी दिन अपने भाई उमेश को पत्र लिखा कि वह देहली में है, नीलम आंटी के यहां। उसे विश्वास था कि वह आठ नौ वर्ष पूर्व के इन परिचितों को भूला नहीं होगा। ठीक एक हफ्रते पश्चात आंधी तूफान सा उमेश दौड़ता आया ‘यहां बहन को सही सलामत देख कर उसे कलेजे से लगा कर फूट-फूटकर रोया। वह पहले तो इस बात से बहुत नाराज हुआ कि इस प्रकार घर छोड़ कर क्यों आई, वह भी अकेली। उसे बतला देती तो वह स्वयं उसे यहां छोड़ जाता। उसने कहां कहां नहीं तलाशा उसे। रिश्तेदारों में ढूंढा, पेपरों में दिया और अब दूरदर्शन में देने की तैयारी कर रहा था।
परन्तु आंटी हेमा दुष्यन्त ने उसके क्रोध से उसकी रक्षा की। जो हो गया उसे भूल जाने की सीख दी। दिल से प्यार करने वाला भाई उन सबके बीच जैसे सारे दुख भूल गया। उसका मन भी वहां रम गया। जब से दीपा घर छोड़ कर आई थी उसने शालिनी से बोलना छोड़ दिया था। घर का वातावरण अशान्त हो उठा था। ये बात पूरे मुहल्ले में जाहिर हो चुकी थी कि दीपा भाभी के अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ कर कहीं चली गई है। मुहल्ले भर ने सगे संबंधियों ने जम कर प्रताडि़त किया उसे। उमेश पत्नी ही को दोषी मानता था।
फिर आंटी ने एक दिन पुनर्विवाह की बात उठाई और उसे अपनी बहू बनाने की हार्दिक इच्छा जताई। दीपा के ऊंचे विचारों से भी अवगत कराया और बताया कि कैसे वह दुष्यन्त को पसंद करती है। उमेश वैसे मन ही मन इस घर और सबके स्वभाव से संतुष्ट था। हिचक थी तो केवल ये कि विवाह हो रहा है तो एक ऐसे व्यक्ति से जो अपंग है, वह खुल कर दीपा से इस बात की चर्चा करेगा तब बात आगे बढ़ाएगा।
परन्तु जब दीपा के पास बैठा तो एक अनजाने संकोच ने घेर लिया-‘दीपा’ ये लोग तुझे अपने घर की बहू बनाने के इच्छुक हैं। वैसे ये सब अपने अच्छे से जाने माने लोग हैं। शादी तो करनी ही पड़ेगी तुझे। पूरे जीवन उसी के नाम पर बैठे रहना अक्लमंदी नहीं है। अभी ही तो तेरी आयु हुई है शादी की। अतीत को भूल कर भविष्य को देख। अब सुनहरे पल तेरी हां की प्रतीक्षा में पलक बिछाए बैठे हैं। यदि मन में दुष्यन्त की अपंगता का कोटा खटक रहा हो तो दबाव में मत आना। सोच समझ कर हां करना।’
वह थोड़ी देर सिर झुकाए मौन बैठी रही फिर एक दीर्ध श्वास लेकर बोली-
‘भैया। उनकी अपगंता पर तो मुझे गर्व है जो देश के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी देकर आया हो वह तो अति महान है। परन्तु अभी कुछ दिन ठहरना पड़ेगा। कुछ आर्थिक सहायता के योग्य हो जाऊ तब बात करेंगे, अभी तो वास्तव में इस पर सोच नहीं पाई। आप तो अब फिर आएंगे न?’
‘हां! क्याें नहीं, परन्तु अभी तो तू आएगी। तेरे भतीजे भतीजियां तेरे लिए व्याकुल हैं उन्हें देखने नहीं चलेगी और अपनी चिड़चिड़ी भाभी को क्षमा करने?’
‘भैया। अभी तो नई-नई नौकरी है। आप ही उन सबको यहां ले आएं, मैं अभी जा नहीं सकूंगी। भैया, आप भी क्षमा कर दें।’
वह भाई की गोद में सिर रख कर रो पड़ी। उमेश के भी नेत्र भर आए और फिर वह दूसरे दिन सोच कर उत्तर देने को कह कर विदा हो गया। उस दिन वह घर पर अकेली थी। हेमा दीदी आदि कनाडा जाने वाले थे। इससे सब बाजार खरीदारी को गए थे।
वह चाय लेकर दुष्यन्त के निकट जा बैठी। उसी के पास टेलीविजन रखा रहता था। अपनी चाय भी वह वहीं ले आई थी।
‘दीपा यदि बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’
‘कहिये।’
वह दृष्टि नीचे करके बोला-‘मेरी मम्मी, दीदी, निशंक ने जो बातें तुम से की हैं, उनका तुम बुरा मत मानना।’
‘बुरा क्यों मानूंगी?’
‘अरे। वे तुम से शादी की बात कर रहे थे न? मैं जानता हूं कि जबरन थोपा अत्याचार होगा तुम पर। तुम अपने विचार पर दृढ़ रहना। न मैं किसी की दया स्वीकार कर सकता हूं।’
दीपा के हृदय में उथल-पुथल मच गई, क्या दुष्यन्त के मन में कोई संवेदनशील कोना नहीं है उसके लिए?’
तभी दुष्यन्त ने उसका हाथ अपने हाथ में दबा लिया। ये मत समझना कि मैं तुमको पसंद नहीं करता हूं। सच दीपा, तुम हो ही ऐसी प्यारी लड़की कि किसी के भी अन्तर में तुम सहज ही उतर सकती हो। मेरे कई मित्र भी तुम्हारे बारे में बहुत उत्सुक हैं। बात करने को भी मुझसे कह चुके परन्तु मैं—-अपने स्वार्थवश तुम्हें किसी को सौंपने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूं। तुम चाहो तो अपने दोस्त अमित को जिसे तुम कई बार देख चुकी हो। तुम्हारी बात चलाऊं?’
‘छिः, मैं किसी अन्य के बारे में सोच भी नहीं सकती’, वह तमक कर उठ खड़ी हुई। दुष्यन्त का मुख उतर गया। उसने उसका हाथ अब भी नहीं छोड़ा था।
‘क्या मेरे बारे में भी नहीं सोचोगी?’ उसने बांह झटक कर पूछा।
‘सिवाय आपके बारे में,’ कहकर वह अंदर दौड़ती चली गई। क्षण भर को वह अवाक् उसे देखता रहा। फिर चिल्ला कर उठ कर बैठ गया, अपनी बैशाखी संभालने को।
‘दीपा! दीपा! बात तो सुनो मेरी—–।
‘अभी नहीं फिर कभी।’ वे सब लौट आए हैं। गाड़ी का हार्न नहीं सुन पाए क्या? ‘और एक बात और——–कभी फिर बीच में मत छेड़ना, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’
‘पगली। पाषाणी एक बार तो आ।’
‘ना, अभी नहीं।’