कहानी सावित्री रानी
मई, 2023
भारत दर्शन विशेषांक
जीवन के अन्तिम पड़ाव में पति पत्नी को
एक दूसरे के साथ की ज्यादा जरुरत होती है।
इस उक्ति को चरितार्थ करती एक भावपूर्ण कहानी।
जीवन संध्या की दहलीज पर खड़ी मैं सोच रही थी कि उम्र के इस पड़ाव में जीवन साथी का साथ कभी-कभी इतना बेमानी क्यूं लगने लगता है? वह एक दूसरे के साथ की अनवरत चाह, वह चुंबकीय खिंचाव वह आंखों पर चढ़ा एक दूसरे के नाम का चश्मा, क्या हुआ वह सब? वह हर वक्त एक दूसरे में कुछ खोजती पाती सी निगाहें, कहां गए वह पल छिन, वह चाह, वह उत्साह?
एक तो इतने साल साथ रहने के बाद, एक दूसरे के बारे में कुछ भी जानने समझने को शायद बचता नहीं है। दूसरे दोनों ही एक दूसरे की पक्की हुई आदतों से बेजार और कुछ भी बदलने या बदलवाने की नाकाम कोशिशों से हलकान हो चुकते हैं। एक दूसरे के लिए पूरी तरह प्रिडिक्टेबल और अपने से ज्यादा दूसरे के बारे में जानने लगते हैं।
तो क्या इसी का नाम रिटायर्ड लाइफ है। क्या तमाम उम्र घर गृहस्थी और दुनियादारी की आपाधापी में मशगूल, हम इसी मंजिल के लिए दौड़ रहे थे? ये कैसी मंजिल है जो खुद रास्तों को खोज रही है?
या फिर अब भी कोई शोला कोई चिंगारी बची है इस राख के ढेर में?
यदि नहीं, तो फिर वह क्या है जो हमें साथ रखे हुए हैं?
क्या बच्चों का भविष्य?
कौन सा भविष्य, बच्चे तो अपनी लाइफ में कब के सैटल्ड हैं।
तो क्या समाज का डर?
इतनी दुनिया देखने के बाद, अब समाज का डर भी तो हमारे दिलों में अपना खौफ खो चुका है।
तो फिर शायद प्यार?
प्यार, रोमांस या शारीरिक सुख जो भी था, वह भी तो अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।
मैं अपने इन्हीं सवालों के झंझावात से जूझती कोई भी वाजिब वजह अपने दाम्पत्य को नहीं दे पा रही थी।
कभी-कभी तो लगता है कि अब हम अपने दोस्तों और भाई बहनों का साथ ज्यादा इन्जॉय करते हैं। क्योंकि न तो वहां कोई पति की जिम्मेदारी होती है न पत्नी की ही कोई जवाबदेही।
मैं सोफे पर बैठी, अपने इन्हीं ख्यालों में आंकठ डूबी हुई थी। जब मेरे पति आमोद ने आकर पूछा-
‘प्रिया, मेरे कालेज के कुछ दोस्तों ने भारत भ्रमण का प्रोग्राम बनाया है। पन्द्रह दिन का टूर है। तुम साथ आना चाहोगी?’
‘नहीं, मैं थकान फील कर रही हूं। कुछ दिन रैस्ट करना चाहती हूं, तुम जाओ।’ मैंने बेमतलब का बहाना बनाया।
-तुम रह लोगी इतने दिन मेरे बिना? आमोद ने चिंतित होकर पूछा।
-क्यूं नहीं, मैं कोई बच्ची थोड़ी हूं। मैंने लापरवाही से कहा।
‘कुछ दिन ही सही, मुझे अपने ढंग से रहने को, जीने को तो मिलेगा। फिर मैं अपने आप को फुरसत में खंगालना चाहती हूं कि इस रिश्ते में कोई अहमियत, कोई गर्माहट कुछ बचा भी है या हम ऐसे ही, लकीर के फकीर बने जिंदगी को घसीटते जा रहे हैं’, मैंने सोचा और खुशी-खुशी आमोद को अकेले जाने की अनुमति दे दी।
आमोद को गए चार दिन हो चुके थे और मैं बैंगलोर की इस शानदार सोसाइटी में पन्द्रहवीं मंजिल पर बने अपने अपार्टमेंट की बालकनी में बैठकर अपनी फेवरेट अदरक की चाय के साथ अपना एकांत बांट रही थी। पहली बार मिला यह स्वराज मेरी सांसों में चाय के साथ घुल रहा था। मैं खुद को पंख सी हल्की हवा में तैरती महसूस कर रही थी।
दोपहर सहेलियों के साथ गप्पे लगाने में बीती। कल रात भी मैंने अपनी पसंद का खाना बनाया और बैड पर बैठकर अपना पसंदीदा ड्रामा देखते हुए खाया। आमोद को बैड पर बैठकर खाना खाना बिल्कुल पसंद नहीं है।
लेकिन अब न किसी की रोक-टोक, न चिक-चिक, न कोई नाराजगी का डर। जो चाहो सो करो। पहली बार कितना खुला-खुला कितना हल्का महसूस कर रही थी मैं। वरना तो तमाम उम्र, कभी मां बाप से डरती रही तो कभी सास-ससुर से, कभी बच्चों की जिम्मेदारी, तो कभी गृहस्थी की, इन सब में जिंदगी कहां स्वाहा हो गई, पता ही नहीं चला।
मैंने सोचा कि ‘मेरी आमोद को लेकर अगर मेरी ऐसी सोच है, तो क्या वह भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचता होगा? क्या मेरी उपयोगिता का स्तर उसकी नजरों में भी इतना ही नीचे आ चुका होगा? क्या वह भी यही सोचता होगा कि पत्नी नाम का ये एक्स्ट्रा बैगेज अब भला क्यूं ढोना चाहिए?
तो क्या उम्र के इस पड़ाव पर आकर, हर पति-पत्नी एक दूसरे से यूं ही बेजार हो जाते हैं? क्या प्यार का स्रोत जवानी और शारीरिक सुख से ही गुलजार रहता है?
ये सभी सवाल मेरे दिल दिमाग पर छाए, आज इस रिश्ते का महत्व तलाश रहे थे। मेरे दिमाग में एक ऐसा प्रश्न पत्र था, जिसके जवाब देने के लिए कोई स्लेबस मुकर्रर नहीं किया गया था।
जिंदगी की किताब, जिंदगी के सवाल
हर किसी के पास अपनी-अपनी किताब, अपना-अपना प्रश्न-पत्र कोई किसी की मदद करें भी तो कैसे?
इन्हीं ख्यालों में उलझी मैं बालकनी से उठी और बैडरूम में जाकर पैर फैलाकर बैड पर बैठ गई। टीवी का रिमोट उठाकर बटन दबाया ही था कि मुझे पेट में एक अजीब सी हलचल महसूस हुई।
ये क्या हो रहा है यार, ये क्यूं हो रहा है? मैंने तो कुछ गलत खाया भी नहीं। मैं बड़बड़ाई और सीधी होकर लेट गई।
लेकिन लेटना, टहलना, इनो, अजवाइन कोई भी टोटका कुछ काम नहीं कर रहा था। यह हलचल घंटे भर में एक भयंकर दर्द में तब्दील हो गई। दर्द से छटपटाती मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं किससे मदद मांगू। पड़ोस में रहने वाली अपनी फ्रेंड्स को फोन किया तो पता चला कि एक तो शहर से बाहर है और दूसरी ट्रैफिक में फंसी है।
मेरे अभ्यस्त हाथों ने आमोद को फोन लगा दिया।
क्या हुआ जान?
मेरी दर्द में डूबी आवाज सुनकर आमोद प्यार से बोला।
प्यार के एक बोल से, मेरे धैर्य का बांध टूट गया और मैं फफककर रो पड़ी।
-क्या हुआ पियू, बताओ तो सही। वह घबराकर बोला।
मुझे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। मैंने किसी तरह अपनी रूलाई रोककर बताया।
तुम परेशान मत हो पियू, मैं अभी अपनी वापसी की फ्रलाइट बुक कराता हूं। तुम तब तक कोई पेन किलर ले लो। आमोद ने सुझाया।
‘पेन किलर तो तुम्हारा साथ और तुम्हारा हाथ है। वह कहां है यहां?’ मैंने सोचा।
‘मैं दो पेन किलर ले चुकी हूं लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ रहा।’ मैंने कराहते हुए बताया।
कुछ ही देर पहले की अपनी तथाकथित आजादी अब मुझे पिंजरे में छटपटाते पंछी सा महसूस कर रही थी। आमोद घर होते तो अब तक मैं डाक्टर के सामने होती। लेकिन अब मेरे पास दर्द से तड़पने और आमोद का इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं है। अगर इस बीच मुझे कुछ हो गया तो अंतिम समय गंगाजल भी नसीब न हो सकेगा। मेरी सोच की गाड़ी ने स्पीड पकड़ी।
जिंदगी में हर उम्र एक ही बार आती है और किसी काम को पहली बार करने में जितनी गलतियां होने की संभावना होती है वे सभी मुझे अपनी कुछ देर पहले की सोच में साफ नजर आ रही थी। मेरे प्रश्न पत्र के हर सवाल का जवाब मुझे वक्त ने जल्दी ही दे दिया था। मेरे जीवन के हर समीकरण का हल मेरे सामने खड़ा था। आमोद और प्रिया नामक पिलर पर हमारा अस्तित्व टिका था। जीवन की गाड़ी के दोनों पहिये गाड़ी को अपने-अपने हिस्से की रफ्रतार देते हैं। किस मोड़ पर कौन सा पहिया ज्यादा घूमा और कौन सा कम, इसका हिसाब रखना बेमानी है। असल मुद्दा तो सफर है, वह खुशगवार होना चाहिए।
अपने पेट को दोनों हाथों से दबाए बैड पर पड़ी मैं, पलटियां खा रही थी और उस घड़ी को कोस रही थी जब मैंने आमोद को अकेले जाने दिया था। मैंने ये सोच भी कैसे लिया कि आमोद की अहमियत मेरी जिंदगी में कभी कम हो सकती है। मैं खुद को डांटते हुए बड़बड़ाई। तभी घर के दरवाजे की घंटी बजी। जैसे तैसे मैंने दरवाजा खोला और एक अनजान व्यक्ति ने स्टेªचर के साथ घर में प्रवेश किया।
-चलिए मैम, एम्बुलेंस नीचे खड़ी है। सर का फोन आया था। वे भी दो तीन घंटे में पहुंच जाएंगे, उन्हें वापसी की फ्रलाइट मिल गई है।
अपने दर्द से बिलबिलाते शरीर को डाक्टर के हाथों में सौंपकर, मैं बेहोशी की नींद सो गई।
शाम को जब मुझे होश आया तो आमोद मेरा हाथ अपने हाथों में लिए मेरे पास बैठा पूछ रहा था।
-अब तबियत कैसी है पियू?
-अब ठीक है, लेकिन मुझे हुआ क्या था?
-मैंने उस भयंकर दर्द का कारण जानना चाहा।
अपैनडिक्स-वह प्यार से निहारते हुए बोला।
तो अब?-मेरा दिल अब भी उस दर्द को याद करके दहला जा रहा था।
-अब क्या, सर्जरी हो चुकी है और तुम पूरी तरह सेफ एण्ड साउन्ड हो। मेरी जान सुरक्षित तो मैं सुरक्षित।
आमोद ने एक मीठी सी मुस्कान के साथ मेरे बालों में उंगलियां फिराते हुए अपना प्यार मेरे माथे पर अंकित कर दिया।
मैंने अपने आमोद के चेहरे को हथेलियों में भर लिया और अश्रु पूर्ण आंखों से बोली,
-नहीं रह सकती, तुम्हारे बिना। एक दिन भी नहीं, एक पल भी नहीं। फिर कभी मुझे छोड़कर तो नहीं जाओगे ना?
-कभी नहीं। -आमोद प्यार से आर्द्र गले से बोला।
-वैसे भी, अभी तक तो हम अपनी जिम्मेदारियाें और जरूरतों से बंधे थे। एक दूसरे से बंधने का वक्त तो अब आया है। कहते हैं न, कि जब मोहब्बत शरीर के दायरों से आगे निकलकर दिल और आत्मा में बस जाती है, तभी तो परवान चढ़ती है। मोहब्बत का असली स्वाद तो हमें अब चखने को मिल रहा है। बस अब कहीं नहीं जाना। कह कर आमोद ने कुर्सी से पीठ लगाकर अपने पांव सामने फैलाते हुए दोनों हाथ सर के पीछे लगा लिए।
सांझ की धूप सा उसका शांत चेहरा, मुझे बड़ा सुहावना और मनभावन लग रहा था। इस एक इंसान के साथ से बढ़कर, कोई आजादी, कोई सुख हो सकता है भला मेरे लिए? एक लंबी सांस छोड़ते हुए मैंने सोचा और एक झटके के साथ दिल दिमाग के सारे जाले झाड़कर अपनी बांहें आमोद की ओर खोल दीं।
खिड़की से आती सांझ की सजीली धूप ने अपने हस्ताक्षर इस मैरेज के सर्टिफिकेट पर करके इस रिश्ते की गर्माहट को पुरसुकून कर दिया।