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मई, 2023 भारत दर्शन

तीर्थ यात्र:
भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए

हमारी संस्कृति में धरती को माता कहा गया है। वेद में कहा गया है ‘माता भूमि पुत्रे{हं पृथिव्याः अर्थात् भूमि माता है और हम उसके पुत्र हैं।’
‘भारत माता की जय’ उद्घोष में भी यही भाव निहित है। परपंरा से चलते आ रहे अपने प्रातः स्मरण में हम भारत-माता को नमन करते हुए कहते हैं ‘समुद्रबसने देवि, पर्वतस्तनमण्डले, विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम् पाद-स्पर्शं क्षमस्व मे। अर्थात है भारत माता समुद्र तेरे वसन हैं। नदियां रूपी दूध की धाराएं देने वाले पर्वत तेरे स्तन हैं। हे विष्णु पत्नी मैं तेरे ऊपर अपने पैर रखता हूं इसलिए मुझे क्षमा करो।’
इस प्रकार यह भारत माता की भौतिक अवधारणा है। परन्तु एक दूसरी अवधारणा है जो अव्यक्त है, जिसके कारण हम परस्पर बंधे हुए हैं। वह अव्यक्त अवधारणा है हमारे धर्म की, जिसके कारण हम इस माता के पुत्र कहलाने के अधिकारी होते हैं। इसे समझने के लिए कवि की एक पंक्ति है, जिसे भारत के संदर्भ में कहा गया है, ‘रोमां मिश्र यूनान सब मिट गए जहां से, लेकिन अभी है बाकी नामोनिशां हमारा।’
इस काव्य पंक्ति का भाव क्या है? रोम, मिश्र, यूनान की धरती भूखण्ड के रूप में मिटी नहीं है। उस पर रहने वाले लोग आज भी उन्हीं के वंशज हैं जो हजारों वर्ष पूर्व रहते थे। परन्तु वह संस्कृति मिट गई अर्थात् वह प्राचीन संस्कृति अब शेष नहीं है।
भाव यही है कि धरती के भूखण्ड से अधिक महत्वपूर्ण वह संस्कृति है, वह धर्म है, परम्पराएं हैं, जिनका उस भूखण्ड के लोग पालन करते थे। पाकिस्तान से आए हमारे हिन्दू भाई 1947 में अपना भूखण्ड छोड़ कर भारत क्यों आए। वह वही रहते तो अपने मकान खेत उन्हें न छोड़ने पड़ते। उन्हें वह धरती छोड़नी पड़ी, क्योंकि उन्होंने धरती से अधिक अपने धर्म को माना। यदि वे मुसलमान बन जाते तो उन्हें अपना घर बार न छोड़ना पड़ता। अतः यह धर्म (संस्कृति) भारत माता का अव्यक्त रूप है। दोनों ही तत्व अव्यक्त और व्यक्त आवश्यक हैं।
इजरायल के मूल निवासी यहूदियों को अपनी धरती से हजारों वर्ष दूर रहना पड़ा, परन्तु उन्होंने अपनी संस्कृति अपनी भाषा को नहीं छोड़ा और अन्त में 14 मई 1948 को अपनी भूमि को भी प्राप्त करके रहे। आज भी अपनी धरती की रक्षा के लिए पूरी तरह संघर्षरत हैं।
अतः राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए संस्कृति और धरती दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं।
वस्तुतः दोनों तत्व अन्योन्याश्रित हैं। जिस धरती पर हमारे पूर्वजों ने अपना पराक्रम दिखाया या जहां बैठ कर तपस्या कर दिव्यज्ञान प्राप्त किया, संस्कृति की रक्षा एवं संवर्धन किया, वह हमारे लिए प्रेरणाप्रद भूमि होती है। अतः दोनों के महत्व को देखते हुए धरती के कण-कण का दर्शन करने का भाव उत्पन्न हुआ। इसी से तीर्थ यात्र का भाव समाज में उत्पन्न हुआ। तीर्थ यात्र से हम अपने पूर्वजों की जन्मस्थली अथवा कर्मस्थली का दर्शन कर उनके जीवन एवं उनकी तपस्या के प्रति श्रद्धानत होते हैं। अतः समाज के हर व्यक्ति को तीर्थ यात्र के लिए प्रेरित किया गया।
भारत विविधताओं का देश है। इसमें भिन्न-भिन्न भाषाएं है तथा भिन्न-भिन्न आचरण पद्धतियां हैं। हर बीस कोस पर बोली में अन्तर आ जाता है। मौसम एवं प्रदेश की जलवायु के अनुसार सबका रहन-सहन भी भिन्न होता है। इसलिए सब की सेाच में भी अन्तर आ जाता है। इस विविधता को हमारी संस्कृति ने मान्य किया हुआ है। वह मानती है कि हर व्यक्ति को विचार करने की स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता से ही वह विकास के पथ पर बढ़ता है। अतः विविधता का कहीं भी निरादर नहीं किया गया। इस विविधता का दर्शन व्यक्ति तीर्थ भ्रमण के रूप में स्वयं अनुभव करे और उस विविधता को आत्मसात् कर सके, इसीलिए तीर्थ यात्र को धर्म का अंग मान लिया गया है।
यहां धर्म के बारे में प्रचलित अर्थ के बारे में स्पष्टीकरण देना अति आवश्यक है। अंग्रेजों के षड्यंत्र के कारण धर्म का अर्थ बड़े भ्रामक रूप में लिया जाता है। धर्म को प्रायः हम पूजा पद्धति के साथ जोड़ देते है जबकि पूजा पद्धति मात्र मन में सात्विक भाव पैदा करने की एक प्रक्रिया है।
यह तो अंग्रेजों ने समाज को बांटने के लिए अनिवार्य कर दिया कि जनगणना में आप लिखवाएं कि आप कौन सा धर्म मानते हैं और उसके सामने विकल्प हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि आदि रखे गए। यह वर्गीकरण कितना भ्रामक है। हिन्दू नाम से भारत में कभी भी कोई धर्म नहीं रहा। मुसलमानों के आने से पहले भारतीय वाड्-मय से हिन्दू शब्द नहीं है। आक्रमणकारी मुसलमान भारत के पश्चिमी दिशा से आए और सबसे पहले उन्हें सिन्धु नदी के दर्शन हुए। क्योंकि फारसी में स को ह बोला जाता है जैसे सप्ताह को हफ्रता इसलिए सिन्धु का हिन्दू हो गया। अर्थात् तभी इस भूखण्ड के निवासियों का नाम हिन्दू हो गया। अन्यथा कहीं भी भारत देश में रहने वाले लोगों को वर्गीकृत नहीं किया गया।
यदि पूजा पद्धति के आधार पर वर्गीकृत किया जाये तो वैष्णव, शैव, शाक्त, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी आदि अनेक मत पंथों में बांटा जा सकता है क्योंकि भारत में किसी भी पूजा-पद्धति को मानने की पूरी छूट है। शास्त्रें में कहा गया है, ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’ अर्थात् सत्य एक है विद्वान् इसे बहुत ढंग से प्रतिपादित करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है ‘हरिअनन्त हरिकथा अनन्ता, विविध भांति गावहिं बुधि सन्ता।’ अर्थात् भगवान अनन्त है और उसकी कथा को अनन्त ढंग से वर्णित किया जा सकता है। अर्थात पूजा पद्धति भी अनन्त हैं।
धर्म का सही अर्थ तो जीवन जीने की अवधारणा के साथ जोड़ा गया है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जब समाज के रूप में इसे रहना है तो उनके लिए जो सामूहिक नियम बनाए गए हैं, वे भी धर्म की कोटि में आते हैं। इसे कर्तव्य बोध से जोड़ा जा सकता है जैसे पति, धर्म, पत्नी धर्म, गुरु धर्म, शिष्य धर्म, भ्रातृ धर्म, भगिनी धर्म, राज धर्म आदि। अर्थात् समाज में रहते हुए हमारे लिए करणीय क्या है वही हमारा धर्म कहा जाएगा।
हमारे आचरण में जो विविधता है, वही हमारे समाज के स्वस्थ विकास का कारण है, इसमें दूसरे की भावना का सम्मान करने की अवधारणा भी हमारे धर्म का अंग है।
तीर्थ यात्र को प्रश्रय देने का एक दूसरा कारण इसी विविधता को आत्मसात् करने से है ताकि हम दूसरे क्षेत्र के आचरण को समझ सकें। हमारे धर्म की एक धारणा है कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है इसलिए हर व्यक्ति को यदि प्रेरित किया जाये तो उसकी सात्विक वृतियां उसे एक अच्छा मानव बनने के लिए प्रेरित करती हैं इसलिए हम परस्पर दूरस्थ क्षेत्रें के लोगों से भी मिलें और उनकी भावनाओं का आदर करें।
लोग परस्पर लड़े नहीं, पूरा देश एक ही सात्विक भावना से ओत-प्रोत रहे, इसी धर्म भावना के कारण ही पूरा भारत भिन्न-भिन्न राज्यों द्वारा बंटा होने के बाद भी पूरा भारत सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहा। यह अध्यात्म भावना ही उसे एक बनाए हुए थी। वास्तव में राजाओं के अधिकार और कर्तव्य सीमित थे। वे केवल आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए ही प्रतिबद्ध होते थे। बाह्यय आक्रमणों से प्रदेश की सीमाओं की सुरक्षा करना तथा आन्तरिक सुरक्षा की दृष्टि से कोई चोर डाकू लुटेरा ठग किसी को पीडि़त न करे, यही राजा का मुख्य कर्तव्य माना जाता था। शेष सामाजिक नियमों, शिक्षा, खेती, व्यापार उद्योग में राजा का विशेष दखल नहीं होता था। कोई भी भारत के किसी कोने में जाए उस पर प्रतिबंध नहीं था। इसीलिए भारत सांस्कृतिक रूप से एक था।
यह सांस्कृतिक एकता बनी रहे इसके लिए जगदगुरु शंकराचार्य ने चारों छोरों पर चार धाम बनाए और प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति का यह कर्तव्य बताया कि उसे मोक्ष तभी मिलेगा, जब वह इन चारों तीर्थो की यात्र करे। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथ पुरी तथा पश्चिम में द्वारका। कितनी दूर दृष्टि थी उस महापुरुष की, भारत की सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने की। इसमें भी पूजापद्धति की दृष्टि से भी कई नियम बनाए जैसे उत्तर में बदरीनाथ के मंदिर में पुजारी दक्षिण का होगा आदि आदि।
वस्तुतः भारत में विविधता है, अनेक दृष्टियों से परन्तु अध्यात्म के मूल तत्व द्वारा सबको एक समान माना गया है और उसी आधार पर दूसरे का सम्मान करना सिखाया गया है। हम एकता भाई-चारा सिखाने वाले इस अध्यात्म तत्व को समझें। यही हमारे धर्म का, संस्कृति का आधार है। धर्म को पूजा-पद्धति मात्र से जोड़ने वाले भ्रामक तत्व के स्पष्टीकरण का अधिकाधिक प्रचार करें। धर्म और पंथ शब्द के भेद को शिक्षा के द्वारा नई पीढ़ी को बताया जाय और धर्म अर्थात् कर्तव्यबोध के प्रति लोगों की निष्ठा जागत की जाए। भारत दर्शन या तीर्थ यात्र से यही अभिप्राय हमारे पुरखों का था। आज भी उसी भावना से लिया जाये।

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