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संघ और डा. अम्बेडकर किस मुद्दों पर एकमत थे

लेख डॉ. उमेश प्रताप वत्स

जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक

संघ परिवार बाबा साहेब की राष्ट्र के प्रति निष्ठा, समाज के प्रति कर्तव्य भावना,
धर्म के प्रति वैज्ञानिकता को इन विचार गोष्ठियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम
से समाज के सभी वर्गो तक पहुंचाना चाहता है।

पूरे देश में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयन्ती मनायी जा रही है। किंतु जो ध्यान आकर्षित करने वाली बात है वह यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बाबा साहेब की जयंती सबसे छोटी इकाई शाखा स्तर तक मना रहा है। यद्यपि संघ प्रतिवर्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विषय पर विचार गोष्ठी, कार्यक्रम करता ही है और संघ का बाबा साहेब से बहुत पुराना संबंध है तथापि इस बार निचले स्तर तक कार्यक्रम करने का उद्देश्य है कि बाबा साहेब को देश का अंतिम व्यक्ति तक समझे। जबकि कामरेडो, सेकुलरों, तथाकथित दलित विचारकों एवं बहुजन के प्रचारकों को यह बात बहुत बुरी लग रही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आखिर क्यों बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती मना रहा है। क्यों संघ से जुड़े लोग भीमराव अंबेडकर का प्रचार प्रसार कर रहे हैं? किस कारण ये फासिस्ट संघ हमारे बाबा साहेब के जीवन को सार्वजनिक करना चाहते हैं, क्यों ये ब्राह्मणवादी हमारे एक मात्र बाबा साहेब को छीनना चाहते हैं? और समय-समय पर इन तथाकथित विचारकों की तरफ से यह संदेश देेने की कोशिश भी होती रहती है कि मानो बाबा साहेब अंबेडकर संघ के पुराने दुश्मन हों। जबकि सत्य यही है कि तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा खड़े किये गये इन सभी प्रश्नों के जवाब में ही संघ परिवार बाबा साहेब की राष्ट्र के प्रति निष्ठा, समाज के प्रति कर्तव्य भावना, धर्म के प्रति वैज्ञानिकता को इन विचार गोष्ठियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से समाज के सभी वर्गो तक पहुंचाना चाहता है। झूठ का प्रचार करने वाले ये तथाकथित विचारक यह बात भूल जाते हैं कि संघ और बाबा साहेब में उनके जीवित रहते कई बार विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने कभी भी संघ कार्य की आलोचना नहीं की और संघ की ओर से भी कभी उनकी आलोचना नहीं की गई। वीर सावरकर ने जब रत्नागिरि में जाति उन्मूलन आंदोलन चलाया तो बाबा साहेब ने उस आंदोलन की खुले मन से पत्र लिख कर प्रशंसा की और साथ ही कहा कि ऐसे आंदोलन पूरे देश में करने की आवश्यकता है। एक बार 1939 में नागपुर में संघ के प्रथम सरसंघचालक डा- हेडगेवार जी के मार्गदर्शन में संघ शिक्षा वर्ग लगा हुआ था। बाबा साहेब वर्ग में बिना बुलाये ही पहुंच गए। डॉक्टर साहब ने भीमराव जी का अभिवादन किया। दोनों लोगों ने दोपहर में साथ ही भोजन किया जबकि तत्कालीन समाज के ताने-बाने के अनुसार एक दलित और ब्राह्मण का साथ भोजन करना बड़ी बात थी। भोजन उपरांत अंबेडकर जी को शिक्षार्थियों से मिलवाया गया। पूछ-ताछ करने पर बाबा साहब को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहां पर कोई छूत-अछूत नहीं अपितु किसी की जाति पूछे बिना ही साथ में भोजन कर रहे हैं तथा इकट्ठे मिलकर खेल रहे हैं। बाबा साहेब यह सब देखकर इतने प्रभावित हुए कि उस दिन शाम को बौद्धिक भी उन्हाेंने अपने मन के उद्गार प्रकट किये। कामरेडो और स्वार्थी दलित विचारकों ने बाबा साहेब को इस तरह से प्रचारित किया मानो की वह धर्मविरोधी हों। जबकि वास्तविकता यह थी कि उनके लिए धर्म बहुत मायने रखता था। श्री ज्योतिबा फूले और गाडगे बाबा की तरह बाबा साहेब भी हिन्दू धर्म सुधारक ही थे। बाबा साहेब मानते थे कि ‘मंत्री देश का उद्धार नहीं कर सकते, जिसने धर्म को भलीभांति समझा है वही देश को तार सकता है।’ महात्मा फुले ऐसे ही धर्म सुधारक थे। निकृष्ट कम्युनिस्टों ने बाबा साहेब की छवि को धूमिल करने के लिए जानबूझकर उन्हें ब्राह्मण विरोधी करार दिया। इस विषय में डॉ- अंबेडकर की दृष्टि दूरगामी थी वह जानते थे कि उनका वोटों के लिए इस्तेमाल किया ही जाएगा, इसलिए उन्होंने 14 जनवरी 1946 को सोलापुर के भाषण में अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी। उन्होंने कहा ‘ब्राह्मण जाति से मेरा कोई झगड़ा नहीं है अपितु दूसरों को नीचे समझने की प्रवृति से मेरा संघर्ष है, भेदभाव की दृष्टि रखने वाले गैर ब्राह्मण से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए अभेद्य दृष्टि रखने वाला ब्राह्मण है।
बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म अपनाया था जिसके लिए उनकी उस समय बहुत आलोचना की गई। इसके विषय में उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा था ‘एक बार गांधी जी से छुआछूत के प्रश्न पर चर्चा करते हुए मैंने कहा था कि इस विषय में मेरा आप से विरोध होने पर समय आने पर मैं ऐसा मार्ग चुनूंगा जिससे देश का कम से कम अहित हो। इसलिए बौद्ध धर्म अपनाकर मैं देश का अधिक से अधिक हितसाधन कर रहा हूं। बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही भाग है। इस देश की संस्कृति परंपरा, इतिहास को जरा भी आंच न आये इसकी चिंता मैंने की है। इस देश की संस्कृति और परंपरा के विध्वंसक के रूप में इतिहास में मैं अपना नाम नही लिखना चाहता।’
देश के संस्कृति और परंपरा के प्रति इस कदर सम्मान रखने वाले बाबा साहेब पर इस देश के हर संस्कृति और परंपरा का विरोध करवाने वाले कामरेडों द्वारा कब्जा किया जाना वास्तव में चिंताजनक है। 1964 में बाबा साहेब पर एक पत्रिका का विशेेषांक निकलना था। उस समय संघ के सरसंघचालक श्री गुरु गोलवलकर थे। उनसे कहा गया कि आप भी डांॅ- अंबेडकर पर अपने विचार लिखिए।
श्री गुरु जी ने लिखा ‘स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि इस देश को अस्पृश्यता के जाल से निकालना अत्यावश्यक है और यह काम वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें आदि शंकराचार्य सी प्रज्ञा और गौतम बुद्ध सी करुणा हो, मैं जब बाबा साहेब अम्बेडकर का मनन करता हूं तो ऐसा लगता है मानो स्वामी विवेकानन्द की भविष्यवाणी बाबा साहेब के लिए ही थी और इसी रूप में मैं उनको स्वीकारता हूं। ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के लिए प्रातः स्मरणीय श्लोकों का जब संकलन हुआ जिसे एकात्मता स्त्रेतम् के नाम से जानते हैं तो उसमें डॉ- अंबेडकर का नाम भी डाल दिया गया। इस तरह से पचासों साल से बाबा साहेब संघ के सभी प्रचारकों और स्वयंसेवकों के लिए संस्थागत रूप से प्रातः स्मरणीय हो गए।
ब्राह्मणवादियाें का एक बड़ा तबका भी बाबा साहेब को गाली देने में आगे रहता है, इन्हें इस बात से आपत्ति है कि बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म का त्याग क्यों कर दिया। इस विषय में बाबा साहेब ने बड़ा सटीक उत्तर दिया है ‘मैं तो नासिक के कालाराम मंदिर में दर्शन का अधिकार प्राप्त करने के लिए सत्याग्रह करने वाला व्यक्ति हूं। आप लोगों ने ही मुझे राम जी से दूर धकेल दिया। मेरी आकांक्षा तो हिन्दू धर्म में सुधार करने की थी। बाबा साहेब को सर्वसमाज से अलग कर जो उनके विचारों का अपमान करते रहते हैं और केवल वोट प्राप्त करने के लिए उनका गुणगान करते हैं उनको तो संघ से समस्या होनी ही थी क्योंकि ऐसा न करने पर उनकी राजनैतिक दुकानें बंद हो जायेगी।
आज मूल रूप से संघ के राष्ट्रवाद एवं वामपंथ सहित कांग्रेस के सेक्यूलरिज्म के बीच एक वैचारिक बहस चल रही है। अतः इस बात पर विचार जरूरी है कि इन विचारधाराओं पर बाबा साहब किसके सर्वाधिक निकट दिखाई देते हैं और किस को सिरे से खारिज कर देते हैं। सभी तथ्य एवं बाबा साहब के भाषणों के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि बाबा साहब वामपंथ को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध मानते थे तथा देश के लिए खतरनाक मानते थे। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुआ बाबा साहब ने कहा था कि वामपंथी इसलिए इस संविधान को नहीं मानेंगे क्याेंं कि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नहीं है।
बाबा साहब के इस एक वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि बाबा साहब जैसा लोकतांत्रिक समझ का व्यक्तित्व वामपंथियों के प्रति कितना विरोध रखता होगा।
यह बात अलग है कि सरदार भगत सिंह की तरह ही बाबा साहब के चित्र लगाकर ये घोर वामपंथी जेएनयू की तरह ही अधिकतर शैक्षणिक संस्थानाें में युवाओं के बीच भ्रम का जहर फैला रहे हैं। बाबा साहेब के सपनों को सच करने का ढाेंग रचने लगे हैं। खैर, बाबा साहब और कांग्रेस के बीच का वैचारिक साम्य कैसा था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाबा साहब जिन मुदों पर अडिग थे, कांग्रेस उन मुदों पर आज भी सहमत नहीं है समान नागरिक संहिता एवं अनुच्छेद 370 की समाप्ति, संस्कृत का राजभाषा बनाने की मांग एवं आर्यो के भारतीय मूल का होने का समर्थन। बाबा साहब देश में समान नागरिक संहिता चाहते थे और उनका दृढ़ मत था कि अनुच्छेद 370 देश की अखंडता के साथ समझौता है। भाजपा-संघ सहित एकाध दलों को छोड़कर कांग्रेस सहित कोई भी राष्ट्रीय दल अथवा छोटे दल इन मुद्दों पर बाबा साहब के विचारों का समर्थन नहीं करते।
सेक्यूलरिज्म शब्द की जरूरत संविधान में बाबा साहब को भी नहीं महसूस हुई थी, जबकि उस दौरान देश एक मजहबी बंटवारे से गुजर रहा था, लेकिन कांग्रेस ने इंदिरा काल में यह शब्द संविधान में जोड़ दिया।
वैसे तो बाबा साहब सबके हैं लेकिन जो लोग बाबा साहब को अपना मानते हैं उन्हें यह स्पष्ट तो करना ही होगा कि बाबा साहब के इन विचारों को लेकर उनका दोगला रवैया क्यों है? खैर, आज जब केन्द्र में भाजपा नीत मोदी सरकार पूर्ण बहुमत के साथ आई और बाबा साहब को लेकर कुछ कार्य शुरू हुए तो विपक्षी खेमा यह कहने लगा कि भाजपा और संघ को अचानक बाबा साहब क्यों याद आए, जबकि संघ के साथ बाबा साहेब का संबंध आजादी से पहले का है। बाबा साहब को ‘भारत रत्न’ देने से पहले इंदिरा गांधी खुद को ‘भारत रत्न’ क्यों दे लेती और जवाहर लाल नेहरू खुद को खुद से ‘भारत रत्न’ क्यों बना लेते और फिर बाबा साहेब के समर्थक बनने का ढोंग करते। जिनको यह लगता है कि बाबा साहब को संघ आज याद कर रहा है उन्हें नब्बे के शुरुआती दौर का पान्चजन्य पढ़ना चाहिए जिसमें बाबा साहब को आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था। संघ और बाबा साहब के बीच पहला वैचारिक साम्य ये है कि संघ भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करता है और बाबा साहब भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करते थे। संघ भी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की बात करता है। और बाबा साहब भी इस अनुच्छेद के खिलाफ थे। समान नागरिक संहिता लागू करने पर संघ भी सहमत है और बाबा साहब भी सहमत थे।
हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव हुआ है और इसका उन्मूलन होना चाहिए, इसको लेकर संघ भी सहमत है और बाबा साहब भी जाति से मुक्त अविभाजित हिन्दू समाज की बात करते थे। वर्तमान सर संघचालक मोहन भागवत जी ने 16 दिसंबर 2015 को सामाजिक समरसता पर दिए अपने भाषण में द्वितीय सर संघचालक गुरु गोलवलकर का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने बताया कि 1942 में महाराष्ट्र के एक स्वयंसेवक के परिवार में अंतरजातीय विवाह संपन्न हुआ था। इस विवाह की सूचना जब तत्कालीन सर संघचालक गुरुजी को मिली तो उन्होंने पत्र लिखकर इसकी सराहना की और ऐसे उदाहरण लगातार प्रस्तुत करने की बात कही।
इससे साफ जाहिर होता है कि 1942 में भी संघ का दृष्टिकोण सामाजिक एकता को लेकर दृढ़ था।
अगर दोनों के बीच विरोध की बात करें तो संघ और बाबा साहब के बीच सिर्फ एक जगह मतभेद दिखता है। संघ का मानना है कि हिन्दू एकता को बढ़ावा देकर ही जाति व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि बाबा साहब ने इस कार्य के लिए धर्म परिवर्तन करना उचित समझा। यही वह एकमात्र बिंदु है जहां संघ और बाबा साहब के रास्ते अलग हैं, वरना हर बिंदु पर संघ और बाबा साहब के विचार एक जैसे हैं और एक लक्ष्य को लिए हुए हैं।

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