Pradhanmantri fasal beema yojna

शानो

कहानी सावित्री रानी
जून, 2024 अंक

बेटे और बेटी की तुलना में प्रायः बेटे के लिए अधिक चाहत रहती है। परन्तु व्यवहार में बेटियों तो अधिक माता पिता के प्रति संवेदनशील होती है। एक भावपूर्ण कहानी।अंजली सुबह-सुबह उठी और नीम के पेड़ के नीचे बैठकर, अकेले ही गीट्टे खेलने लगी। तभी अम्मा की आवाज आई।

अंजू, दस बार उठाने के बाद तो तू उठी है और अब वहाँ नीम के नीचे जा बैठी। जल्दी से मुँह हाथ धोकर नाश्ता कर ले आकर।
अम्मा गुस्से में उसे हमेशा अंजू बुलाती थी।
‘इन बच्चों की छुट्टियाँ भी न, मेरा तो नाक में दम कर देती है। न कोई उठने का टाईम न खाने का। स्कूल खुले तो कम से कम दिन भर का कोई रूटीन तो बने। कुछ देर को बच्चे स्कूल जाते हैं तो मुझे भी कुछ पल राहत के मिल जाते हैं। अम्मा बड़बड़ाती जा रही थी।
अंजली दिल्ली के महिपालपुर गाँव में दो कमरों के छोटे से घर में, अपने माता-पिता और दो बड़े भाइयों के साथ रहती थी। दस साल की अंजली चौथी कक्षा में पढ़ती है और अभी उसकी गर्मी की छुट्टियां चल रही थी। उनके सामने वाले घर में उसके चाचा-चाची अपने तीन बेटों के साथ रहते हैं। बराबर में ऐसे ही दो और घर थे। जिनमें से एक में शर्मा अंकल आंटी और उनके दो बेटे रहते हैं और दूसरा बरसों से खाली पड़ा है। चारों घरों के बीच में एक छोटा सा आंगन और उसके बीच में एक घना छायादार नीम का वृक्ष। यही छोटा सा मुहल्ला था अंजली का।
तीनों घरों के लड़के मिलकर खूब मौज मस्ती करते। कभी क्रिकेट खेलते तो कभी कुश्ती, कभी कबड्डी तो कभी पतंगबाजी। ऐसे में अंजली बहुत अकेला महसूस करती। लड़कों को उसके साथ गुड़िया का ब्याह रचाने में कोई रुचि नहीं थी। और कुश्ती जैसा मानवीय खेल अंजली को पसंद नहीं था। वह सोचती काश उसकी एक बहन होती या फिर कोई सहेली, जो हमेशा उसके साथ रहती, कभी अपने घर न जाती।
अपनी दुनिया में गुम अंजली, अम्मा की गुस्से से भरी आवाज सुनकर जैसे सोते से जागी।
अंजू नाश्ता करने आ रही है या सुबह-सुबह सेवा करवानी है।
यह बात है सत्तर के दशक की, जब माता-पिता द्वारा बच्चों की सेवा के विभिन्न प्रकार पाए जाते थे। कभी चप्पल से आरती उतारी जाती थी तो कभी गालों पर झापड़ के भोग लगाये जाते थे। ये लड़कियों की सेवा के प्रकार थे। लड़कों की सेवा का क्षेत्र तो और भी विस्तृत था और सेवकों की संख्या का अनुपात भी खासा विस्तृत था। जिसमें पिता के साथ बड़े भाई और चाचा ताऊ आदि का भी सराहनीय योगदान रहता था। अतः सेवा का काम सुनते ही अंजली उठकर भागी।
‘हाँ अम्मा आ गई मैं, बस आ गई। और जल्दी से हाथ मुँह गीले करके रसोई में पटड़े पर जा बैठी।
जल्दी-जल्दी अपना परांठा खत्म करके, दूध का गिलास हाथ में लिए वह फिर नीम के नीचे बैठी। नीम की डालियों पर बैठी चिड़िया, तोते सब उसके साथी थे। उन्हें देखना, उनकी बात समझने की कोशिश करना और उनकी बाताें का जवाब उन्हीं की भाषा में देना उसका पसंदीदा खेल था।

उपर पेड़ की ओर देखते हुए वह एक चिड़िया की बात का जवाब दे रही थी तभी उसे किसी के हँसने की आवाज सुनाई दी। जैसे ही उसने अपनी नजरें नीचे की, एक अपनी उम्र की लड़की को सामने वाले बंद घर के दरवाजे पर खडे़, हँसते हुए पाया। उस लड़की की लंबी लंबी दो चोटियां और सांवला सलोना चेहरा उसे बड़ा भला सा लगा। उसने देखा कि उस बंद घर का दरवाजा खुला था और एक अंकल आँटी घर में सामान लगा रहे थे। दो चारपाई और कुछ गठरियों के अलावा कुछ ज्यादा सामान नजर नहीं आ रहा था। अंजली दौड़कर अम्मा के पास गई। 

अम्मा, अम्मा उस सामने वाले घर में कोई रहने आये हैं।
-हाँ बेटा, कल तेरी चाची बता रही थी कोई गढ़वाल से आए हैं। दो बेटियाँ हैं उनकी।
‘दो बेटियाँ शब्द अंजली के कानों में घंटी सा बजा। यानि एक लड़की जो हँस रही थी और एक और लड़की। अंजली की खुशी का ठिकाना नहीं था। तीन मिलकर तो रस्सी भी कूद सकते हैं। अंजली की खेलों की लिस्ट बननी शुरू हो चुकी थी।
वह फिर वहीं नीम के नीचे जाकर खड़ी हो गई। और उस लड़की का बाहर निकलने का इंतजार करने लगी। जैसे ही वह लड़की बाहर आई अंजली ने अपनी शर्माने और अंतर्मुखी होने की आदत को तिलांजली दी और इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वह लड़की धीरे-धीरे चलती हुई अंजली के पास आ गई।
-तुम्हारा नाम क्या है?
-शानो
-शानो, तुम कहाँ से आई हो?
-अपने गाँव से।
-अच्छा, खेलोगी मेरे साथ?
‘माँ से पूछ कर आती हूंँ।’ कहते हुए वह भाग गई और एक मिनट बाद आकर
-माँ ने कहा, थोड़ी देर खेल लो।
अंजली ने उसे अपनी गुड़िया दिखाई, गिट्टे दिखाए और फिर उसे हाथ पकड़कर अपनी अम्मा के पास ले गई।
-अम्मा, देखो ये शानो है। सामने वाले घर में रहने आई है। ये मेरी सहेली है। फिर शानो की ओर देखकर बनोगी न मेरी सहेली? शानो ने शर्माते हुए हाँ में गर्दन हिलाई।
तभी शानो की माँ ने उसे खाना खाने के लिए आवाज लगाई और वह चली गई।
शानो का दाखिला अंजली के स्कूल में करवा दिया गया। अब दोनों साथ में स्कूल जाती, साथ में पढ़ाई करती और सारे दिन नीम के पेड़ के नीचे कभी गुड़िया-गुड़िया, कभी रस्सी कूद तो कभी लंगड़ी टांग खेलती रहती। शानों की माँ भी घर के काम से फारिग होकर वहीं अंजली की अम्मा और चाची के साथ गप्प लगाने आ जाती। शानो अपनी माँ को माँ बुलाती थी तो अंजली ने भी उन्हें माँ बुलाना शुरू कर दिया और अंजली के अम्मा पिताजी को शानो ताई जी और ताऊ जी बुलाने लगी।
धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती गहराने लगी। जैसे-जैसे वे बड़ी हो रही थी, दोनों परिवारों के बीच की आर्थिक स्थिति का अंतर भी उन्हें समझ आने लगा। हालांकि इससे उनकी दोस्ती को कोई मतलब नहीं था। शानो के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। वे लोग गढ़वाल के किसी गाँव से आए थे और अब तक उसके पिताजी की कोई नौकरी नहीं मिली थी। कभी-कभी जब अम्मा बचा हुआ राशन या पुराने कपड़े उनके घर भिजवा देती तो उनके लिए बड़ी मदद हो जाती। लेकिन इससे ज्यादा मदद करने की स्थिति में अम्मा भी नहीं थी।
अंजली और शानो की कद काठी एक सी थी, इसलिए जब कभी शानो को कहीं रिश्तेदारी में या किसी की ब्याह शादी में जाना होता, तो वह अंजली के कपड़े पहनकर चली जाती। शानो पढ़ने में बहुत तेज थी। हमेशा कक्षा में प्रथम आती। आठवीं कक्षा तक आते-आते उसने छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालना भी शुरू कर दिया। हालांकि उसका ट्यूशन देना अंजली को जरा भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि यही तो उनका खेलने का टाईम होता था।
उधर सामने वाले शर्मा अंकल का बेटा पप्पू भी अंजली और शानो की क्लास में ही पढ़ता था। लेकिन पढ़ाई लिखाई से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। सारे दिन गलियों में आवारागर्दी करना और शाम को शानो से होमवर्क कॉपी करना उसका रोज का नियम था।
शर्मा अंकल के सपने भी अपने बेटों के लिए वही थे जो हर माता-पिता के होते हैं। बेटा ही एक ऐसा इंसान होता है जिससे बाप को किसी भी दौड़ में उससे हारने पर खुशी मिलती है। फिर वह दौड़ अगर आर्थिक हो तो बात ही क्या है लेकिन यहां ऐसे कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे। अपने बेटों को लेकर बुने गए, शर्मा अंकल के सपने, एक-एक कर उन्हें सब टूटते नजर आ रहे थे।
कई बार शर्मा अंकल शानो का रिपोर्ट कार्ड देखकर शानो को शाबाशी देते और साथ ही अपने पप्पू को डांटते हुए कहते-
-ओए शर्म कर शर्म, तेरे लिए डूब मरने की बात है। शानो को देख, न सिर्फ खुद पढ़ती है बल्कि बच्चों को ट्यूशन भी देती है। फिर भी इतने अच्छे नंबर लाती है। एक तू है हम तेरे लिए अच्छे से अच्छा ट्यूशन लगाते हैं, फिर भी तेरे पास होने के लाले पड़े रहते हैं।
लेकिन चिकना घड़ा चिकना ही रहा। जितना भी पानी डालो, सब बह जाता।
शर्मा अंकल एक सरकारी क्लर्क थे और घर गृहस्थी के लिए ठीक-ठाक कमा लेते थे। लेकिन पूत के पाँव, पालने में ही दिख रहे थे। बेटे के भविष्य का अंधकार उन्हें अभी से सताने लगा था। इन अंधेरों का समाधान ढूंढने में डूबे, शर्मा अंकल एक बार नीम के नीचे बने चबूतरे पर बैठे शानो के पिताजी से बातें कर रहे थे। शानो के पिताजी-किस सोच में डूबे हो शर्मा जी?
कुछ नहीं सदानंद जी, बस यही बात बच्चों की चिंता। शर्मा जी ने कहा
-आपको भला क्या चिंता शर्मा जी। भगवान की दया से नौकरी अच्छी चल रही है। आगे भी भगवान ने आपको दो लाल दिए हैं। न आज घर चलाने की कोई समस्या, न ही कल आपको बेटियाँ ब्याहनी।
जहाँ से आप देख रहे हैं वहाँ से नजारा बिल्कुल ऐसा ही दिखेगा सदानंद जी। शर्मा जी के दिल का गुबार निकला।
तो आपको क्या अलग दिख रहा है, मैं भी तो सुनूं जरा? अपने आज के अंधेरों में घिरे सदानंद जी बोले।
जहाँ से मैं देख रहा हूं वहाँ से मेरे नालायक बेटों के कारण भविष्य में सिवाय अंधकार के मुझे कुछ भी नहीं दिखता। जबकि आपका वर्तमान चाहे मुश्किल भरा है लेकिन आपकी बेटियों की मेहनत और लगन ने आपके भविष्य में हजारों चिराग जला रखे हैं।
लेकिन आपके बेटे तो हैं कम से कम।
आप भी क्या बात करते हैं, सदानंद जी। आपकी बेटियां सौ बेटों से बेहतर हैं। काश मुझे भी भगवान ने ये नेमत दी होती।

एक बार राखी का त्यौहार आया। अंजली सुबह से तैयार होकर अपने भाईयों को राखी बांधने की तैयारी में लगी थी। उसने देखा कि शानो नीम के नीचे बैठी ट्यूशन की कॉपियाँ जांच रही है। अंजली उसका हाथ पकड़कर उठाते हुए बोली, ‘आज राखी है शानो, आज काम की छुट्टी।’ तभी शानो की उदास आँखों की ओर उसका ध्यान गया और उसे याद आया कि, शानो का तो कोई भाई ही नहीं है। कुछ सोचकर वह बोली।

‘तू यही रहना, मैं अभी आई।’ वह दौड़कर अम्मा के पास गई।
‘अम्मा, शानो का तो कोई भाई नहीं है। क्या वह मेरे भाई को राखी बांध सकती है?’

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