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शहीदों के जीवन की अंतिम शाम

जेलर आश्चर्यचकित थे।
मौत सामने खड़ी है और यह 18 साल का युवक
अट्टहास कर रहा है।

अगस्त, 2023
स्वाधीनता विशेषांक

परिकल्पना एवं स्क्रिप्ट डॉ. मनोहर भंडारी

मौत, जी हां मौत। इस दो अक्षरों के छोटे से शब्द में यकीन मानिये दुनियाभर का खौफ समाया हुआ है। इसका नाम सुनते ही अच्छे-अच्छे सूरमाओं की रूहें पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगती है और जब मौत अपनी लंबी-लंबी दोनों बांहों को फैलाए हुए सामने खड़ी हो, तब व्यक्ति के डर को शब्दों में बयां करना, जनाब, दुनियाभर के शब्दकोषों के बूते की बात नहीं है।
हकीकतन पूरी दुनिया में लोग यदि किसी मंत्र का सबसे ज्यादा जाप करते हैं तो वह है महामृत्युंजय या इसी किस्म के अपना कोई मजहबी मंत्र।
मगर, मगर भारत की सरजमीं पर ऐसे लाखों लोग हुए हैं जिनकी आंखों में तैरते देशभक्ति के सागर को खौलते देख मौत भी पनाह मांगने लगती थी। इतिहास के लाखों पन्ने गवाह हैं, जिनकी कालजयी आंखों ने वह मंजर हमारे लिये देखे हैं। उन्होंने देखा है मौत को थर-थर कांपते हुए। ये लोग सूरमा नहीं थे, ये लोग तोप गोलों और ए-के- 47 से लैस नहीं थे। ये लोग छोटे-छोटे दूरदराज के गांवों कस्बों और शहरों के थे, पढ़े लिखे और अनपढ़ भी, गरीब और अमीर भी, हिन्दू और मुसलमान भी, निहत्थे और हथियारबंद भी, बच्चे भी थे तो बूढ़े भी थे, समझदार थे तो भोले-भाले लोग भी थे। अपनी कोमल कलाइयों में चूड़ियां पहनने को उतावली किशोरियों तक को मौत को सरे राह ललकारते हुए सूरज, चांद और सितारों ने देखा है। वह कौन सी ताकत थी जिसके बूते पर लाखों साधारण लोग गली-मोहल्लों से निकल-निकलकर मौत के दिल में खौफ पैदा करने पर आमादा हो चुके थे। आखिर, आखिर वह कौन-सा जज्बा था, कौन सा जुनून था, जो उन्हें सपनों भरी उम्र में देश के लिए मर मिटने का हौसला दे गया? आखिर कौन सी ताकत थी वह।
वह ताकत आसमान से नहीं उतरी थी, वह ताकत रूहानी नहीं थी, वह ताकत मादरे वतन की मिट्टी में थी। ये तमाम लोग अपनी मातृभूमि को, अपने वतन को आजाद देखना चाहते थे। उस मातृभूमि को जिसे क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत महर्षि अरविन्द ने इन शब्दों में परिभाषित किया है-‘भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्र पुरुष है, हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट, दो विशाल जंघाएं हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं। चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। यह वंदन की भूमि है, अभिनंदन की भूमि है। यह तर्पण की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए। भारत माता का यह जीवंत चित्रण ही शहीदों के भीतर हर पल प्राण फूंकता रहा है। हालांकि वह उनके जीवन की अंतिम शाम थी परन्तु उनके भीतर देशभक्ति की भावना जेठ की दुपहरी के सूरज की तरह प्रखर थी। वे चाहते थे हंसते-हंसते दी गई उनकी कुर्बानी करोड़ों देशवासियों के भीतर सोयी हुई देशभक्ति की चिंगारी को धधकते शोलों में बदल डाले।
आइये, हम आज आपको लिए चलते हैं ऐसे चंद मंजरों की तरफ जहां मासूम चेहरों की चमकती आंखों ने मौत की खौफनाक आंखों में खौफ की बड़ी-बड़ी लकीरें खींच डाली थी।

मंगल पांडे
19 जुलाई 1823 को बलिया के नगवा गांव के इस सपूत ने 1849 में ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिक के रूप में प्रवेश किया लेकिन मंगल पांडे के दिलो-दिमाग में फिरंगियों के खिलाफ ज्वालामुखी धधक रहा था जो 1857 में फूट पड़ा। सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन मंगल पांडे की बंदूक का पहला शिकार बना। उसके तुरंत बाद लेफ्रिटनेन्ट बॉब को तलवार के वार से धाराशायी कर दिया। इस तरह आजादी की पहली जोरदार चिंगारी सन् 1857 में भड़की। मंगल पांडे ने ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का शंखनाद किया था। 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी दी गई।
फांसी वाला स्थान
मजिस्ट्रेट:- तुम्हारी कोई आखिरी ख्वाइश हो तो बोलो मंगल पांडे।
मंगल पांडे:- (ठहाका लगाते हुए)- हां, पहली तो ख्वाइश यह है कि तुम लोग बगैर गोली खाए देश छोड़ दो और दूसरी यह है कि मैं एक संदेश देना चाहता हूं।
मजिस्ट्रेट:- ठीक हाय, बोलो अपना संदेश। अपने घर वालों को संदेश देना चाहते हो न?
मंगल पांडे:- नहीं! घर को तो नहीं, संदेश देश को भेजना है।
मजिस्ट्रेट:- अच्छा संदेश देश को भेजना है। हम उसे देश को भेजने की कोशिश करेगा। बोलो-बोलो (घड़ी देखता है।)
मंगल पांडे:- मेरे देशवासियों को कहना-तुम्हें मंगल पांडे के खून की सौगंध है कि जब तक तुम अंग्रेजों को अपने देश से नहीं मार भगाते, तब तक, हां तब तक, कभी चैन से नहीं बैठना, क्योंकि गुलामी ही सबसे बड़ा अधर्म है।
मजिस्ट्रेट:- ठीक हाय, ठीक हाय (घड़ी देखता है) जल्लाद। जल्दी करो। टाइम पूरा हो गया है।
मंगल पांडे:- टाइम हमारा नहीं, तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा, पूरा होने को है। हम तो मर कर फिर पैदा होंगे और तुम्हें चैन नहीं लेने देंगे। तुम्हें यहां से जाना ही होगा, तुम्हें यहां से जाना ही होगा। और वह हंसते-हसते शहीद हो गया।

रानी लक्ष्मीबाई
रानी लक्ष्मीबाई को कौन नहीं जानता। रानी लक्ष्मीबाई 19 नवंबर 1828 को काशी विश्वनाथ में जन्मी और 1858 में अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई। रानी लक्ष्मीबाई को भारत की प्रथम महिला सैन्य ब्रिगेड बनाने का श्रेय जाता है। इस ब्रिगेड में एक दो नहीं, पूरी 300 सौ वीरांगनाएं थीं। उन्होंने छोटी सी उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती दे दी। इस वीरांगना ने इस जयघोष के साथ लड़ते हुए मृत्यु का वरण किया कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नहीं दूंगी। महारानी लक्ष्मीबाई ने 18 जून 1858 को लाल कुर्ती पहन रखी थी। कमर में दोनों और तलवारें लटकाइंर् और दो भरी हुई पिस्तौलें अपने पास रखीं। युद्ध के मैदान में वह रणचंडी बनकर अंग्रेजों की सेना को गाजर-मूली की तरह काट रही थी। लक्ष्मीबाई ने अपनी अंतिम इच्छा इन शब्दों में प्रकट की थी।
रानी लक्ष्मीबाई (रघुनाथ सिंह से)-आज युद्ध का अंतिम दिन दिखाई देता है। यदि मेरी मृत्यु हो जाये तो इस बात का ध्यान रहे कि मेरा शव इन फिरंगियों के हाथ न पड़े। मैंने जीते जी अंग्रेजों को झांसी पर राज नहीं करने दिया और मुझे विश्वास है कि यह लड़ाई आजादी मिलने तक निरंतर चलती रहेगी। मैं तो खून की आखिरी बूंद तक लड़ती रहूंगी।
और ऐसा ही हुआ। असाधारण साहस की प्रतीक और महापराक्रमी रानी लक्ष्मीबाई मरते दम तक देश के लिए लड़ती रही और ग्वालियर के पास कालपी नदी के निकट 18 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते उन्होंने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावार कर दिये। वे जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आइंर्। संत गंगादास ने कुटिया में आग लगाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया।

तात्या टोपे
स्वतंत्रता संग्राम के एक और महानायक हैं तात्या टोपे। 1814 में जन्मे तात्या को अंग्रेज गुरिल्ला युद्ध का कुशल रणनीतिकार मानते थे। इस स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस शूरवीर योद्धा ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति देकर लाखों युवाओं में देशभक्ति की अलख जगा डाली। 18 अप्रैल 1859 के दिन फांसी के लिए आंखें ढकने के लिए जब टोप पहनाया जा रहा था तो तात्याटोपे ने कहा था इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, मैं अपनी मौत को आमने-सामने देखने के लिए तैयार हूं। उन्होंने फांसी का फंदा स्वयं खींचकर अपने गले में डाला था।
(फांसी वाला स्थान)
जनरल मीड-तात्या, टुम दया की अपील करना मांगटा है?
तात्या टोपे – मैं किसी की दया का मोहताज नहीं हूं, तुम्हें जब फांसी देना हो दे देना।
जनरल मीड-तुम बहुत अक्खड हो।
तात्या टोपे-योद्धा हूं और योद्धा की तरह मरना चाहता हूं।
जनरल मीड- हम तुम्हारा इज्जत करता है। तुम अपने परिवार से मिलना चाहोेगे?
तात्या टोपे-नहीं। उनका और मेरा जन्म-जन्मान्तर का संबंध है। और उन्हें पता है कि फिरंगियों से लोहा लेने का क्या अंजाम हो सकता है।
जनरल मीड – अच्छा, लोगों से अंतिम विदाई ले लो। अब वे फिर कभी तुम्हें देख न सकेंगे।
तात्या टोपे-नहीं मीड, इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं मौत को मौत नहीं समझता। (गीता हाथ में लेकर फंदे की तरफ बढ़ते हुए गुनगुनाते हैं ‘नैंनम् छिन्दति शस्त्रणि, नैनं दहति पावकः’, धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए गीता थमा कर फांसी तक पहुंच जाते हैं।) बेडियों की आवाज डालें (मीड कांपते हाथों से जल्लाद को इशारा करता है।)
तात्या टोपे-‘वंदे मातरम्, वंदे मातरम्’

वासुदेव बलवंत फड़के
इस कड़ी में एक और अमर शहीद को हमेशा याद किया जायेगा, जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं। इस शहीद का नाम है वासुदेव बलवंत फड़के। नवंबर 1845 में जन्मे वासुदेव फडके 17 फरवरी 1883 को वीरगति को प्राप्त हुए। वे न्यायमूर्ति श्री महादेव गोविन्द रानडे और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित थे। वासुदेव ने गांव-गांव, जंगल-जंगल घूमकर सहयाद्री की घाटियों में रहने वाले जनजातीय लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ इकट्ठा कर उनमें स्वाधीनता की लौ जगाई।
वासुदेव बलवंत फडके-एक मां है जिसे हम सब को मिलकर बचाना चाहिए। वह मां हम सबकी मां है, वह भारत माता है। हम सबको मिलकर अपनी भारत माता को विद्वेषी दासता के चंगुल से मुक्त कराना चाहिए। मेरे ये देशवासी उसी माता के पुत्र हैं, जिसका मैं हूं। वे भूखों मरे और मैं जानवरों की तरह चरता रहूं, यह विचार भी असंभव है। उनकी सहायता करने और उन्हें स्वतंत्र करने के प्रयत्न में प्राण न्यौछावर कर देना कहीं अच्छा है। मैं देश को स्वतंत्र कराने के लिए क्रांतिकारी संगठन का सदस्य बना हूं, और इस ध्येय की पूर्ति के लिए मैं किसी भी संकट से नहीं डरुंगा। और मैंने जो कुछ भी किया देश को स्वतंत्र कराने के लिए किया, समाज के हित के लिए किया। परन्तु देशवासियों से यही विनती है कि मुझे क्षमा करें क्योंकि मैं अपना काम पूरा नहीं कर पाया। जाते-जाते मैं इस देश की मिट्टी को अपने हाथों में लेना चाहता हूं क्योंकि इसी के लिए मैंने अपने प्राणों की आहुति दी।

खुदीराम बोस
भारत को आजाद कराने के लिए सिर्फ युवाओं ने ही नहीं, बल्कि किशोरों ने भी अपने प्राणों की आहुतियां दी और इसका उदाहरण अमर शहीद खुदीराम बोस से बेहतर भला कौन होगा। 3 दिसंबर 1889 को जन्मे इस निर्भीक क्रांतिकारी ने ही अंग्रेजों के विरुद्ध पहला बम फेंका और अंग्रेजी हुकूमत को एक करारा जवाब दिया। अपने इसी अद्भुत साहस की कीमत उन्हें 19 वर्ष की अल्पायु में 19 अगस्त 1908 को शहादत देकर चुकानी पड़ी। भारत मां का यह प्यारा किन्तु वीर बालक मर कर भी अमर है। खुदीराम बोस को क्रांति के लिए उनके शिक्षक सत्येन्द्रनाथ बोस ने प्रेरित किया था।
फांसी के एकदम पहले की यह सत्य घटना शहीदों के जज्बे को बयां करने में सक्षम है। 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी पर चढ़ाया जाना था। रात को उनके पास जेलर पहुंचा। जेलर और उनका परिवार खुदीराम से पुत्र की तरह स्नेह करने लगा था वह 10 अगस्त की रात को चार रसीले आम खुदीराम को देकर गया ताकि उसे संतोष रहे कि मरने वाले को मैंने थोड़ा आनंद तो दिया। खुदीराम ने आम रख लिए और कहा कि थोड़ी देर बाद मैं आम चूस लूंगा। 11 अगस्त की सुबह आमों को वैसे देखकर जेलर ने कहा कि तुमने मेरा उपहार स्वीकार क्यों नहीं किया। खुदीराम ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया-अरे साहब! जरा सोचिए तो कि सुबह जिसको फांसी के फंदे पर झूलना हो, क्या उसे खाना-पीना सुहाएगा। जेलर ने कहा-कोई बात नहीं, इन्हें मैं तुम्हारा उपहार समझकर चूस लूंगा। यह कह कर जेलर ने आमों को उठाया तो वे पिचक गये। खुदीराम ने जोर का ठहाका लगाया और काफी देर तक हंसता रहा। वास्तव में खुदीराम ने आमों को तरकीब से चूस कर उनमें हवा भर कर फुला कर रख दिया था। जेलर महोदय आश्चर्यचकित थे, मौत सामने खड़ी है और यह 18 साल का युवक अट्टहास कर रहा है। मातृभूमि के लिए मर मिटने वाली यह जिन्दादिली भारतीय क्रांतिकारियों के सर्वथा अनुरूप थी।
मजिस्ट्रेट – जो तुम्हें फांसी की सजा सुनाई गई है, क्या तुम उसका अर्थ जानते हो?
खुदीराम बोस-हां, मैं इसका अर्थ अच्छी तरह से जानता हूं।
मजिस्ट्रेट-तुम्हें कुछ कहना है?
खुदीराम बोस – हां, मैं देश के युवकों को यह बताना चाहता हूं कि बम किस तरह बनाया जाता है। वीरों की तरह मैं देश की स्वाधीनता के लिए मरना ज्यादा पसंद करूंगा। फांसी के विचार से मुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ। दुःख सिर्फ इतना है कि किंग्सफोर्ड को मैं नहीं मार सका। जितनी जल्दी मैं अपना जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित करूंगा उतनी ही जल्दी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए मेरा पुनर्जन्म होगा। ‘वन्दे मातरम्!

मदनलाल धींगरा
वे एक छैल-छबीलेे नवयुवक थे। वे घंटाें आइने के सामने खडे़़ रहकर सजा-संवरा करते थे। वे इंग्लैड में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया और वे देश के लिए मर मिटने वाले जांबाज और दुःसाहसी युवक बन गये। सर कर्जन वायली ने इंग्लैण्ड में एक सार्वजनिक सभा में कहा था ‘हिन्दू और मुसलमान भारत में मेरी दो बीवियां हैं।’ यह भाषण मदनलाल ने वीर सावरकर के साथ अपने कानों से सुना था। उन्होंने भारतीयों का अपमान करने वाले इस चालाक और निर्मम अंग्रेज को मार डालने का उसी दिन निश्चय कर लिया था। घटना के दिन मदनलाल धींगरा ने सूट पहन कर टाई लगाई और सिर पर आसमानी रंग का साफा बांधा। आंखाें पर गहरे रंग का चश्मा लगाया। दोनों भरे हुए रिवाल्वर अपनी जेबों में डाले और दो चाकू भी अपने साथ रख लिए। एक जुलाई 1909 को इम्पीरियल इंस्टीट्यूट के जहांगीर हाल में कर्जन वायली के सीने में गोलियां दाग कर उसे वहीं खत्म कर दिया। उन्हें 17 अगस्त 1909 को फांसी दी गयी। उस समय उनके हाथों में गीता और हाेंठों पर राम आैर कृष्ण का नाम था।
मदनलाल धींगरा-मैं एक हिन्दू हूं। मैं अपने राष्ट्र के अपमान को अपने देवता का अपमान मानता हूं। मैं बहुत शक्तिमान् नहीं हूं। अपने लहू के अतिरिक्त मैं मातृभूमि को और क्या समर्पित कर सकता हूं। मेरे लिए भारत माता की सेवा ही श्रीराम और श्रीकृष्ण की सेवा है। इसलिए उसके लिए मैं अपने प्राण न्यौछावर कर रहा हूं। मुझे इस बात का गर्व है। मेरी यही चाह है कि जब तक भारत माता स्वतंत्र नहीं हो जाती तब तक, बार-बार भारत में मेरा जन्म हो। मैं बार-बार भारत के लिए अपने प्राणों का बलिदान करना चाहता हूं। ईश्वर मेरी यह चाह पूरी करें। ‘जय हिन्द, वन्दे मातरम्।

अशफाक उल्ला खान
धीरे-धीरे आजादी की यह चिंगारी लोगों के हृदय में धधकती आग बन चुकी थी। जहां एक ओर हर हिंदुस्तानी अब देश की आजादी की दुआ कर रहा था, वहीं उत्तरप्रदेश में सन् 1902 में अमर शहीद अशफाक उल्ला खान का जन्म हो चुका था। उनकी उम्र के बढ़ने के साथ ही देश को स्वतंत्र कराने का उनका जज्बा भी बढ़ता गया। काकोरी कांड में दोषी पाये जाने पर 19 दिसंबर 1927 को उन्हें फांसी दी गई। उस दिन अशफाक ने अपने लिए खासतौर से मंगवाए गए नए कपड़े पहने। उन कपड़ों पर उसने इत्र छिड़का।
अशफाक उल्ला खान:- मैं देश के गरीब किसानों और दुखियारे मजदूरों की हालत देखकर रोया करता था। मैं हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख्वाहिशमंद हूं जिसमें गरीब खुशहाली से रहें और कोई ऊंच-नीच न हो। क्या यह बात तुम्हारे लिए गर्व की नहीं होगी जब तुम सुनोगे कि तुम्हारा एक भाई हंसता हुआ फांसी पर चढ़ गया और मरते वक्त भी खुश था। मुझको फक्र है कि मैं एक सच्चा क्रान्तिकारी होकर मर रहा हूं। और अब और भी ज्यादा फख्र होगा कि मैं हिन्दुस्तान के सात करोड़ मुसलमान भारतवासियों में से पहला मुसलमान हूंगा, जो हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए फांसी पर चढूंगा। मौत तो एक बार आती है, फिर उससे क्या डरना? और इसके बाद वह कुरान शरीफ का बस्ता कंधाें पर टांग कर कलमा पढ़ते हुए खुशी-खुशी फांसी के तख्ते पर चढ़ गए। फिर उन्होंने रस्सी को चूमा और रस्सी की तरफ देखकर वह बोलेे मेरी महबूबा मुझे मालूम था कि निकाह के लिए तू मेरा इंतजार कर रही थी। लो, मैं आ गया और हम दोनों अब इस तरह मिलेंगे कि कोई हमें जुदा नहीं कर सकेगा। ला इलाही इल्ल अलाह, मुहम्मद उर रसूल अल्लाह।
कुछ आरजूं नहीं है,
है आरजू तो यह।
रख दे कोई ज़रा सी
खाके वतन-कफन में।।
दरो दीवार पर हसरत से
नज़र करते हैं।
खुश रहो अहले वतन,
हम तो सफर करते हैं।।

रामप्रसाद बिस्मिल
भारतीय इतिहास में अग्रणी क्रांतिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। भारत माँ के इस सपूत का जन्म उत्तरप्रदेश में सन् 1879 में हुआ था। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में काकोरी रेल डकैती बड़ी महत्वपूर्ण है। वीर रामप्रसाद बिस्मिल ने ही इसकी योजना बनाई और 9 अगस्त 1925 की शाम काकोरी में अंग्रेजों का खज़ाना लूटकर ब्रिटिश हुकूमत के गाल पर ऐसा करारा तमाचा मारा जिसकी गूंज इंग्लैंड तक सुनाई दी। 19 दिसंबर 1927 को भारत के इस वीर ने शहादत दी। फांसी के दो घण्टे पूर्व बिस्मिल को दण्ड पेलते देख कर जेलर ने हंसते हुए कहा था कि क्या तुम भूल गये हो कि तुम्हें दो घण्टे बाद फांसी पर लटकाया जाने वाला है? तब बिस्मिल ने जवाब दिया था हाँ, मुझे अच्छी तरह मालूम है। मैं तो अगले जन्म की तैयारी कर रहा हँू ताकि देश को आजाद कराने के लिए मैं अधिक बल के साथ जन्म ले सकूँ।
दृश्य आठ
रामप्रसाद बिस्मिल:- यदि मातृभूमि के लिए मुझे एक हजार बार भी मौत का सामना करना पड़े तो मुझको दुःख नहीं होगा हे ईश्वर, मुझे भारत में ही एक हजार बार जन्म दो। और मुझे यह वरदान दो कि मेरा यह जीवन मातृभूमि की सेवा करते हुए ही समाप्त हो। हे ईश्वर, आप महान् हो, मुझे यह वरदान दो कि अपनी अंतिम सांस तक और लहू की अंतिम बूंद तक मैं अपने देश की सेवा कर सकूं। भारतीय संस्कृति मेरा आदर्श है और अपने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराना मेरा परमकर्त्तव्य है। जिस किसी ने भी मुझ पर भरोसा किया, मैंने कभी उसे धोखा नहीं दिया। और ये करोड़ों देशवासी जो मुझसे आज़ादी की उम्मीद लगाए बैठे हैं, उन्हें मैं नाउम्मीद कैसे कर सकता हूं? अपने देश के लिए मैं हजार बार अपने प्राणों की आहुति हंसते-हंसते दे सकता हूं।
अंग्रेज जेलर-तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?
रामप्रसाद बिस्मिल-मैं अंग्रेजी साम्राज्य का विनाश चाहता हूं। यह कह कर उन्होंने आसमान की तरफ देखते हुए कहा-मालिक! तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे। जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।
जयहिन्द ! जयभारत! वन्दे मातरम्!

चंद्रशेखर आज़ाद
चंद्रशेखर आज़ाद – झाबुआ के भाभरा गांव का एक युवक चंद्रशेखर तिवारी सदैव चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से अपनी पहचान बताता रहा। लाला लाजपत राय की हत्या के दोषी सांडर्स को ठिकाने लगाने में चंद्रशेखर आज़ाद की महती भूमिका थी। एक बार दिसम्बर की कड़कड़ाती ठण्ड में जब इन्हें जेल में नंगे बदन बंद कर दिया तो वे रात भर दण्ड पेलते रहे और पसीने-पसीने हो गए और एक दिन मौका पाते ही वे जेल से भाग निकले परंतु इलाहाबाद के अलफ्रर्ड पार्क में इन्हें घेर लिया गया।
27 फरवरी 1931 के दिन जब अंग्रेजों से मुठभेड़ करते हुए आखिरी गोली बची तो अंग्रेजों के हाथ पड़ने के बजाय वह गोली उन्होंने अपनी कनपटी पर मार ली। आज वही पार्क चंद्रशेखर आज़ाद पार्क के नाम से जाना जाता है। ऐसे ही रणबांकुरों के कारण इस देश की एक अलग पहचान बनी है और हमारी आज़ादी आई है।

शहीद ऊधमसिंह
13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में जनरल डायर और पंजाब के गवर्नर माइकेल ओडायर ने हजारों निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाने का आदेश दिया था। इस निर्मम काण्ड में एक हजार लोग मारे गए और 1200 लोग घायल हुए थे। इस काण्ड का प्रत्यक्षदर्शी था ऊधमसिंह। उसके भीतर प्रतिशोध का बीज अपनीे जड़ें जमा चुका था। बदला लेने के लिए एक नवयुवक ऊधमसिंह इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बहाने इंग्लैण्ड जा पहुंचा। माइकेल ओडायर रिटायर होकर इंग्लैण्ड पहुंच चुका था। जलियांवाला काण्ड के लिए उसका वहां नागरिक अभिनन्दन हुआ और बीस हजार पौण्ड की राशि भेंट की गई। 13 मार्च 1940 को केक्स्टन हाल, लंदन में उधमसिंह ने पिस्तौल से पाँच गोलियां चला कर ओडायर के शरीर को ठण्डा कर दिया। जैसा होता आया है, न्याय का नाटक रचा गया और ऊधमसिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। पकड़े जाने पर उन्होंने कहा था जलियांवाला नरसंहार का दोषी ओडायर मृत्युु दण्ड का ही अधिकारी था। न मुझे कोई चिंता है और न मौत का डर।
दृश्य दस
न्यायाधीश:- मिस्टर ऊधमसिंह तुम्हें कुछ कहना है?
ऊधमसिंह:- जी हां, महोदय! मुझे ऊधमसिंह के नाम से नहीं, राममोहम्मदसिंह डिसूजा के नाम से पुकारिए।
न्यायाधीश:- सरकारी वकील ने तो तुम्हारा नाम ऊधमसिंह बताया है। तुम सिक्ख हो या मुसलमान ?
ऊधमसिंह:- मैं हिन्दुस्तानी हूं।
न्यायाधीश:- तुम्हारे नाम का रहस्य क्या हैै।
ऊधमसिंह:- जी, नाम का रहस्य यही है कि हिन्दु का राम, मुसलमान का मोहम्मद, सिक्ख का सिंह और ईसाई का डिसूजा मेरे नाम में सम्मिलित है। हिन्दुस्तानियों की एकता के प्रतीक रूप में ही तो मैंने अपना नाम राममोहम्मदसिंह डिसूजा रखा है।
न्यायाधीश:- अच्छा मिस्टर ऊधमसिंह! अपनी सफाई में तुम्हें कुछ कहना है।
ऊधमसिंह:- मुझे यही कहना है कि माइकेल ओडायर को मैंने मारा है। न्याय का नाटक लम्बा न चला कर जल्दी फांसी का हार मेरे गले में डाला जाए। (यही हुआ 12 जून 1940 को भारत-माता के उस वीर-पुत्र ने इंग्लैण्ड की भूमि पर हंसते-हंसते फांसी का फन्दा चूम कर भारत के सम्मान को बहुत ऊँचा उठा दिया।)

सुभाषचंद्र बोस
सुभाषचन्द्र बोस बेहद होनहार थे। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से हाईस्कूल परीक्षा पूरे विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद से विद्रोह की प्रेरणा मिली। एक दिन एक अंग्रेज प्राध्यापक मिस्टर ओटन ने भारतीयता को गालियां दीं तो सुभाषचन्द्र बोस के साथियों ने उसे पीट दिया। चूंकि सुभाषचन्द्र बोस कक्षा प्रतिनिधि थे, इसलिए उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् उन्हें दूसरे कॉलेज में प्रवेश मिल गया। उन्हें बाद में पिताजी के आग्रह पर आई-सी-एस- करने इंग्लैण्ड जाना पड़ा। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने सिर्फ आठ माह में नौ विषयों का अध्ययन कर प्रावीण्य सूची में चौथा स्थान प्राप्त किया परन्तु वे द्वितीय भारतीय थे, जिन्होंनेे वैभव और दासता के प्रतीक आई-सी-एस- को ठुकरा दिया। इंग्लैण्ड की सरकार ने उनसे आई-सी-एस- करने का पूरा खर्चा वसूल किया, जिसे उन्होंने मित्रें के सहयोग से पूरा खर्च चुका दिया।
पहली बार सुभाष को अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण जब 6 माह की सजा सुनाई गई तो उन्होंने आपत्ति करते हुए कहा था – बस केवल छह महीने की सजा। क्या मैंने किसी की मुर्गी चुराई है। सुभाष को तब पता नहीं था कि उन्हें ग्यारह बार जेल जाना पड़ेगा और देश निर्वासन भी भोगना पड़ेगा।
जब वे अंग्रेज सरकार के कड़े पहरे के बावजूद काबुल होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच कर हिटलर से मिले तो हिटलर ने उनका स्वागत करते हुए कहा, ‘मैं फ्राइज इण्डीश फूहरर (भारत के नेता) का जर्मनी में स्वागत करता हूं और श्रीमान् के बर्लिन सुरक्षित पहुंचने पर बधाई देता हूं। तभी से वे ‘नेताजी’ के नाम से जाने जाने लगे। जर्मनी में ही उन्होंने आजाद हिन्द संघ और फौज का निर्माण किया। फौज में भर्ती होने के लिए प्रवासी भारतीयों में होड़ लग गई। कुछ ही दिनों में फौज इतनी सशक्त हो गई कि अभ्यास-युद्धों में वह जर्मनी की सेना को भी हराने लगी। नेताजी ने जर्मनी में आजाद-हिन्द-रेडियो-सेवा प्रारंभ कर अंग्रेजों की नींद उड़ा डाली। याद रहे, 1946 का नौसैनिक विद्रोह आजाद-हिन्द-वीरों पर चलाए गए मुकदमे की चेतना के कारण हुआ था। उस विद्रोह ने अंग्रेजों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया था कि अब भारत में राज्य करना असंभव है। इंग्लैण्ड की संसद में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मि- एटली ने स्वीकार किया था कि ‘हम लोगों ने भारत को आजादी देने का निर्णय इस कारण लिया है कि भारतीय फौजें अब हमारे प्रति वफादार नहीं हैं और हम लोग भारतीय फौजों के बिना भारत पर राज नहीं कर सकते।’
इस तथ्य को अंग्र्रेज इतिहासकार मि- मुसले ने इस प्रकार स्वीकार किया है- ‘जिन दिनों हम लोग भारत को आजादी देने का निर्णय ले रहे थे, सुभाषचन्द्र बोस का भूत हमारे दिमागों पर छाया हुआ था।’
इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह बात साफ हो जाती है कि देश की आजादी में सुभाष बाबू का योगदान कितना महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता संग्राम के प्रखर योद्धा एवं आज़ाद हिन्द फौज के संगठक नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत ही नहीं, पूरा विश्व जानता है। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ उनके इस नारे ने देश के लाखों युवाओं के खून को खौलने के लिए मजबूर कर दिया था।
जब उन्हें यह लगने लगा था कि अब वे बच नहीं सकेंगे तब उन्होंने अपने साथी हबीबुर्ररेहमान से ये वाक्य कहे थे।
दृश्य ग्यारह
सुभाष चंद्र बोस-हबीब! मेरा अंत बहुत निकट आ गया है। अपने देश की आज़ादी के लिए मैं जीवन भर लड़ता रहा हूं। तुुम जाकर देशवासियों से कहना कि वे भारत की आज़ादी की लड़ाई जारी रखें। भारत आज़ाद होगा और बहुत शीघ्र ही।

सरदार भगत सिंह
आजादी की लड़ाई अब देश के हर नागरिक की लड़ाई बन चुकी थी। हर रोज अंग्रेजों के विरुद्ध सरदार भगत सिंह के अभूतपूर्ण योगदान को भला कौन भुल सकता है। 28 सितम्बर 1907 को जन्मे इस जोशीले सिख का मानना था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ही जरूरत होती है। और सचमुच उनके द्वारा किए गए बम धमाके ने पूरी ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी। वह धमाका एक चेतावनी था अंग्रेजों की बर्बरता, उनकी निर्दयता और अन्याय के खिलाफ। 23 मार्च 1931 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यह सेनानी अपने साथी सुखदेव और राजगुरु के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।
दृश्य बारह
शहीद भगत सिंह-‘क्रांति अमर रहे।’ यदि बहरे सुन सके तो उसके लिए आवाज बहुत ही जोरदार होना जरूरी है। हमने जब बम गिराया, तब हमारा इरादा किसी की हत्या करने का नहीं था। हमने तो ब्रिटिश सरकार के ऊपर बम फेंका था। अंग्रेजों को भारत छोड़कर चले जाना चाहिए ताकि हमारा देश आजाद हो सके। ‘इंकलाब जिन्दाबाद, भारत माता की जय!’

राजगुरु
भगतसिंह जैसे ही वीर और साहसी क्रांतिकारी राजगुरु का जन्म सन् 1909 में हुआ था। राजगुरु ने लाला लाजपतराय की हत्या के लिए जिम्मेदार साण्डर्स को लाहौर में मौत के घाट उतार कर देश के सपूत की हत्या का बदला लिया। 23 मार्च 1931 को जहां डूबता सूर्य क्षितिज पर अपनी रंगीनियां बिखेर रहा था, वहीं राजगुरु को भगतसिंह और सुखदेव के साथ शहीद होने का मौका मिला। राजगुरु अपने सभी साथियों से पहले फांसी पर चढ़ना चाहते थे।
पहले मुझे फांसी दो
राजगुरु-कहीं तुम लोगों में से कोई मुझसे पहले शहीद हो गया तो वह मुझसे बाजी मार ले जायेगा और वह स्थिति मैं कभी सहन नहीं कर सकूंगा। मैं सबसे आगे मरने को शहीदी मानता हूं। मौत को ललकार कर ही मैं यह जान सका हूं कि दुनिया हसीन और रंगीन भी है। क्या तुम समझते हो कि जिन्दगी भर मौत को ललकार कर अब मैं उससे मात खा जाऊंगा। ऐसा हरगिज नहीं होगा। यदि हम लोग मौत को अपना कर भी देश को नवजीवन दे सकें तो यह हमारे जीवन की सबसे अधिक सार्थकता होगी। क्रांतिकारियों के लिए मौत मुंह मांगा वरदान है। भारत माता की जय।

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