Pradhanmantri fasal beema yojna
Homeसम्पादकीयवैसाखी बलिदान का सन्देश देती है

वैसाखी बलिदान का सन्देश देती है

सम्पादकीय भारत भूषण चड्ढा


अप्रैल, 2023
शिक्षा विशेषांक

वैसाखी, महावीर जयन्ती आदि कई पर्व इस मास में हमें अपने कर्त्तव्यों का स्मरण करा रहे हैं। सब का अलग-2 महत्व है। अपने-अपने काल की परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने समाज का मार्ग दर्शन किया है।
वैसाखी का पर्व वैसे तो मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। इस दिन की दो प्रमुख घटनाएं हैं। प्रथम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा खालसा पंथ की नींव रखी गई उस समय औरंगजेब के राज्य में हिन्दुओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा थी। समाज हीन भाव से त्रस्त हो गया था। समाज में पुनः आत्मबल को जागृत करने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पूर्वजों की वीरता का स्मरण कराकर एक युगान्तरकारी कदम उठाया। खालसा पंथ का निर्माण किया अर्थात् सज्जन (खालस) पुरुषों को संगठित कर समाज की रक्षा का दायित्व उन्हें सौंपा। उन्हें सिंह का नाम दिया, उन्हें बताया कि उनमें इतनी शक्ति है कि एक-एक सिंह सवा लाख शत्रुओं से लड़ने के लिए सक्षम है। उनकी ललकार थी, ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ तब गोविन्द सिंह नाम कहाऊं।’ इस हुंकार ने राष्ट्र में शौर्य का उदय हुआ। पंजाब में तो हर घर में बड़े लड़के को सिक्ख अर्थात् गुरु का शिष्य बनाने की परम्परा चल पड़ी। उस काल परिस्थितियों के अनुसार इस का आकलन कीजिए, कितना युग प्रवर्त्तक कदम था।
समाज ने उनके नेतृत्व को स्वीकार किया क्योंकि उन का निज का जीवन बलिदानों से भरा हुआ था। उनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर ने काश्मीर के पण्डितों के धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए स्वयं आकर दिल्ली में शहादत दी थी। उन के दो बेटे जिन्दा दीवार में चुनवा दिए गए। दो बेटे युद्ध में लड़ते हुए शहीद हुए। उन्होंने समाज की रक्षा के लिए हर शिष्य को प्रेरित किया कि वह अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने बड़े बेटे को राष्ट्र रक्षा के लिए गुरु को अर्पित करे। कल्पना कीजिए राष्ट्र रक्षा के लिए कितनी सुदृढ़ नाकेबन्दी की गई थी। यदि इस प्रकार की बलिदान की भावना से प्रतिरोध न होता तो जैसे विश्व के अनेक देशों में मुसलमानों ने समूचे समाज को मुसलमान बना लिया था, भारत में भी वैसा ही परिणाम होता। अपने राष्ट्र रक्षा के लिए और भी अनेक वीरों ने सन्तों ने इस आक्रमण का मुकाबला किया। उन सब का गुणगान भी किया जाना चाहिए।
महाराष्ट्र में शिवाजी का उदय हुआ उन्होंने बड़े-छोटे स्तर से प्रयास प्रारम्भ किया और अपने साहस, कौशल और देश के प्रति समर्पण की भावना से एक दिन विशाल साम्राज्य खड़ा कर दिया। उन के बारे में महाकवि भूषण ने बड़े प्रखर शब्दों मेें लिखा है कि ‘शिवाजी न होते तो सुनत होती सबकी।’
हर काल की परिस्थितियां अलग होती हैं इसलिए उनके समाधान भी अलग होते हैं परन्तु हमें अपने वीरों और हुतात्माओं को याद कर उन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर समाज के लिए अपने आप को कैसे समर्पित कर सकते हैं।
एक बात बड़े महत्व की है कि परिस्थितियाँ और शत्रु समय के अनुसार बदलते रहते हैं परन्तु एक लड़ाई हर समय हर आदमी के भीतर भी चलती रहती है। इस लड़ाई में एक ओर हमारा स्वार्थ है, निजी सुख-सुविधाएं हैं और दूसरी ओर समाज पर आए कष्टों को दूर करने के लिए कुछ त्याग करने की आवश्यकता है।
हर पल हर व्यक्ति के भीतर चल रही इस लड़ाई में यदि हम अपने कुप्रवृत्तियों पर विजय पा लेते हैं तो हमारे हाथ से समाज के बड़े-बड़े कार्य सहज ही हो सकते हैं। यदि हम पूरे समाज को अपना मान लेते हैं तो हम किसी से रिश्वत कैसे ले सकते हैं। किसी भी वस्तु में मिलावट कैसे कर सकते हैं। यह हमारा क्षुद्र स्वार्थ ही हमें गलत कार्यों के लिए प्रेरित करता है। जैसे उस समाज के वीर अपने शरीर का भी विचार न करते हुए समाज के लिए बलिदान हो जाते थे। हमें भी समाज के जिस कार्य के लिए आज आवश्यकता महसूस होती है उसे करना चाहिए।
हम लोग शहीदों को याद करके उनका गुणगान करें, यह अच्छी बात है परन्तु हम उनके गुणों को अपने आचरण में कितना लाते हैं यह प्रमुख बात है।
समाज के लिए आज हमारा समर्पण कितना है? इस का आकलन कैसे करें। यदि आप अपनी सन्तान को अच्छी शिक्षा दे रहे हैं तो भी समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं क्योंकि समाज को अच्छे नागरिक समर्पित कर रहे हैं।
यह भी देशभक्ति है। आप कोई व्यवसाय कर रहे हैं उससे समाज का हित हो रहा है तो यह भी समाज के ताने-बाने को सुदृढ़ कर रहे हैं यह भी राष्ट्र कार्य है।
प्रश्न इतना है कि आपका इसके पीछे भाव क्या है।
पहले किसान खेती करता था तो वह इस समाज को अन्न देना यह कर्त्तव्य समझ कर करता था। अध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाता था तो वह अपने देश के बालकों को अच्छा मानव बनाने के लिए पढ़ाता था। आज किसान अधिक धन पैदा करना चाहने लगा है। अध्यापक अपने वेतन के लिए पढ़ाने लगा है। उन्हें वेतन या धन मिलना चाहिए। इस का समाज को चिन्तन करना चाहिए। परन्तु उनका दृष्टिकोण यही चाहिए कि वह समाज के उत्थान के भाव से यह कार्य कर रहे हैं। अतः वृति में सुधार की आवश्यकता है। भाव में थोड़े से परिवर्तन से समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होगी।
आज सारा वातावरण इतना भौतिकवादी हो गया है कि बड़ों से लेकर बच्चों तक के मस्तिष्क में एक ही विचार भरता जा रहा है कि अधिक से अधिक पैसा कमाओ, उससे अधिक सुख मिलेगा।
यह बात ठीक है कि अधिक से अधिक सुविधाओं से आदमी के काम की गति बढ़ती है। परन्तु इस से आनन्द नहीं मिलता। आनन्द तो मन की स्थिति है। अर्थ की आवश्यकता को शास्त्रें में नकारा नहीं गया है। इसे चार पुरुषार्थी में से एक माना है। धर्म-अर्थ-काम इन तीनों की प्राप्ति से मोक्ष अर्थात् आनन्द स्वयं प्राप्त होता है।
धर्म के बारे में हमारी धारणा कुछ विकृत हो चुकी है, हम उपासना पद्धति को ही धर्म मान बैठे हैं और हमें धर्म करना चाहिए इस का अर्थ इतना ही बनता जा रहा है कि हमें मंदिर जाना चाहिए, कुछ गरीबों को दान करना चाहिए आदि-आदि। जबकि यह कर्म केवल मन में सात्विक भाव पैदा करने के लिए हैं।
धर्म से अभिप्राय तो आपके जीवन के कर्मों की अवधारणाओं से है जैसे पति धर्म, पत्नी धर्म, पुत्र धर्म, शिष्य धर्म, प्रजा धर्म, राज धर्म आदि। इन्हीं अवधारणाओं को आज की भाषा में संस्कृति कहा जा सकता है। हमारा जीवन के प्रति सोचने का दृष्टिकोण क्या है? हमारे हर कर्म में धर्म प्रकट होना चाहिए, अध्यात्म प्रकट होना चाहिए। हम दूसरे से व्यवहार करते हुए सोचें कि इस के भीतर भी वही आत्मा है, जो मेरे में हैं अतः हम उस से ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ व्यवहार करें।
शास्त्रें में एक वाक्य है ‘आत्मानि प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।’ अर्थात् जो आचरण मेरे लिए अनुकूल नहीं है वैसा आचरण मैं दूसरों के साथ न करूं। बस यही कसौटी है धर्म की। इस भावना को यदि हम जन-जन में जागृत कर दें तो बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाएँगी। हमारी संस्कृति की यही विशेषता रही है इसलिए अतीत में भी हर संकटों, आक्रमणों को उसने सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया।
हमारी बात वैसाखी की बलिदानी परम्परा को लेकर प्रारम्भ हुई थी। उस दिन विशेष की एक ओर घटना जलियांवाला बाग की है जिसमें अंग्रेजों के अमृतसर में सन् 1919 में हजारों निहत्थे लोगों को गोलियों से भून दिया था। उन्हें बचने के लिए भी कोई रास्ता नहीं था। यह घटना नृशंस है इसकी विश्व में निन्दा की गई। परन्तु ब्रिटिश राज्य ने गोली चलवाने वाले जनरल डायर की पदोन्नति कर दी थी। यही घटना हमें बताती है कि नृशंसता के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। अंग्रेजों को नृशंसताओं के कारण ही एक दिन भारत को छोड़ कर जाना पड़ा। जो भी मानवता के विरुद्ध कर्म करेगा, उस का फल उसे भुगतना पड़ेगा।
अतः वैसाखी के सन्देश से हम यही प्रेरणा लें कि अतीत के बलिदानों से प्रेरणा लेकर हम भी अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर आज की समाज की जो समस्याएं है उनके लिए अपने कर्त्तव्य का पालन करें। एक-एक व्यक्ति के जागरण से ही समाज जागृत होगा। समाज के जागरण से हर व्यक्ति का उत्थान होगा।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments