लेख आचार्य चन्द्र
मार्च, 2023 अंक
नवसंवत विशेषांक
कालगणना की भारतीय पद्धति सूर्य मान व चन्द्र मान की मिश्रित पद्धति है। इसमें वर्ष सूर्य के अनुसार और मास चन्द्र की गति के अनुसार नियंत्रित होते हैं। इस कारण सबसे अधिक शुद्ध और वैज्ञानिक है।
समय की विभिन्न इकाइयों का निर्धारण सर्वत्र सूर्य व चन्द्र की गति के आधार पर ही किया गया है। द्रष्टव्य है कि सूर्य व चन्द्र की गति में वर्ष में कुछ दिनों का अंतर रहता है।
आज विश्व में काल गणना की तीन पद्धतियां प्रचलित हैं। गेगोरियन (ईसाई) कलेंडर (2) हिजरी (मुस्लिम) कलेंडर, और (3) आर्य (भारतीय) पंचांग पद्धति।
ग्रेगोरियन कलेंंडर सूर्य की गति पर आधारित है। इसके अनुसार रात्रि के 12 बजे के बाद दिन का आरंभ माना जाता है, जो कि नितान्त अवैज्ञानिक है। आधुनिक सूर्य सिद्धान्त के अनुसार, एक वर्ष 365 दिन से कुछ अधिक समय का होता है, जिससे 1400 वर्षों में 23-2 दिन का अन्तर आ जाता है।
काल गणना की दूसरी पद्धति चन्द्र-मान अर्थात् चन्द्रमा की गति से नियंत्रित होती है। इसमें साधारणतः वर्ष 354 दिन का होता है। हिजरी सन् (मुस्लिम कलेंडर) इसी पर आधारित है। मुसलमान शुक्ल पक्ष की द्वितीया से मास का आरंभ मानते हैं। अतः हर वर्ष 11/12 दिनों का ”ास होता जाता है। फलतः उनका हर त्यौहार वर्ष के हर मौसम में आता रहता है। अतः यह गणना भी अवैज्ञानिक है।
कालगणना की तीसरी पद्धति भारतीय पद्धति है, जो सूर्य मान व चन्द्र मान की मिश्रित पद्धति है। इसमें वर्ष सूर्य के अनुसार और मास चन्द्र की गति के अनुसार नियंत्रित होते हैं। सूर्य व चन्द्र के वर्षो में जो अंतर रहता है, उसके लिए इस पद्धति में लौंद का वर्ष (लीप ईयर), अधिक मास का प्रावधान करके, रखा गया है। यह भारतीय काल गणना सूर्य-मान और चन्द्र मान के समायोजन पर आधारित होने के कारण सबसे अधिक शुद्ध और वैज्ञानिक है। उल्लेखनीय है कि यहूदी कलेंडर भी इसी पद्धति पर आधारित है।
भारतीय काल गणना को संवत्सर कहते हैं। उसे ऐसा इसलिए कहते हैं कि उसमें (वर्ष भर में) सभी ट्टतुएं सम्यक् रूप में वास करती है (अपने-अपने समय पर सम्यक् रूप से आती हैं)। हमारा कलेंडर पंचांग (पांच अंगों वाला) कहलाता है। इसके पांच अंग हैं-तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण)।
आर्य मान्यता के अनुसार, संसार की सृष्टि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (प्रथम दिन) को हुई।
हमारी इस संवत्सर पद्धति के अनुसार, एक वर्ष में दो अयन (सूर्य की गति) होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन। दोनों अयन छह-छह मास के होते हैं। माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ इन छह मासों में सूर्य उत्तरायण रहता है तथा श्रावण, भाद्रपद, आश्विन (क्वार), कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) इन छह मासों में सूर्य दक्षिणायन रहता है। उत्तरायण में देवताओं का दिन होता है और दक्षिणायन में देवताओं की रात्रि होती है-ऐसी आर्य मान्यता है। अतः हमारे यहां सभी शुभ कार्य उत्तरायण में ही सम्पन्न किए जाते हैं।
एक वर्ष में छह ट्टृतुएं होती हैं: बसंत (चैत्र, वैसाख), ग्रीष्म (ज्येष्ठ, आषाढ़), वर्षा (श्रावण, भाद्रपद), शरद् (आश्विन, कार्तिक), हेमन्त (मार्ग-शीर्ष, पौष) और शिशिर (माघ, फाल्गुन)। मोटे रूप में तीन ट्टतुएं होती हैं: ग्रीष्म, वर्षा और शरद।
एक दिन 24 घंटों का होता है। बारह घंटों का दिन और बारह घंटों की रात्रि। सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन और सूर्यास्त से सूर्योदय तक रात्रि। तीस दिन का एक मास होता है। मास में दो पक्ष (पखवारा) होते हैं-शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। दोनों पक्ष 15-15 दिन के होते हैं। शुक्ल पक्ष का अन्तिम (पन्द्रहवां) दिन पूर्णिमा कहलाता है, जबकि कृष्ण पक्ष का अन्तिम (पन्द्रहवां) दिन अमावस्या कहलाता है। छह मास को ‘अयन’ कहते हैं। बारह मास को वर्ष, दस वर्ष को ‘दशाब्दी’ सौ वर्ष को शती या शताब्दी तथा हजार वर्ष को सहस्राब्दी कहते हैं।
शाश्वत समय को हमारे पूर्वजों ने चार युगों में विभाजित किया है-सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, और कलियुग। सतयुग के शीर्ष पुरुष सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र, त्रेतायुग के शीर्ष पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र, द्वापर के शीर्ष पुरुष लीला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण चन्द्र और कलियुग के शीर्ष पुरुष न्यायकारी श्री विक्रम चन्द्र (विक्रमादित्य) हैं, जिनके नाम से ही हमारा राष्ट्रीय संवत् विक्रम संवत् कहलाता है।
यहां उस महानायक के बारे में भी जान लेना उचित होगा, जिसने हमारा यह राष्ट्रीय संवत (विक्रम संवत) प्रवर्तित किया और उन कठिन परिस्थितियों पर भी दृष्टिपात करना समीचीन होगा, जिनका उसने धैर्यपूर्वक सामना किया और अन्ततः विजय श्री का वरण कर संवत् प्रवर्तन किया।
भारतीय लोक मानस में श्री राम और श्री कृष्ण के पश्चात् श्री विक्रमादित्य का नाम ही सर्वाधिक आदर और श्रद्धा का स्थान बनाए हुए है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी अनुपम उपलब्धियों के कारण ही गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय से लेकर हेमचन्द्र भार्गव (हेमू) तक बीसियों वीर शासकों ने विक्रमादित्व की उपाधि धारण करने में गौरव का अनुभव किया। ऐसा जादू है विक्रमादित्य नाम में, जो इस कारण है कि श्री विक्रमादित्य एक आदर्श सम्राट् थे।
ईसा पूर्व प्रथम शती में विदेशी शकों ने भारत भूमि पर भीषण आक्रमण करके देश की हृदय स्थली उज्जयिनी को भी अपने अधिकार में ले लिया था। 57 ईसा पूर्व में महेन्द्रादित्य के, जो उज्जयिनी के शासक थे और शत्रुओं का सामना करते समय स्वर्ग लोग सिधार चुके थे, पुत्र श्री विक्रमादित्य ने उज्जयिनी स्थित शकों पर भीषण प्रत्याक्रमण किया और उन्हें पूर्णतया पराजित किया। वीर विक्रमादित्य उज्जयिनी को वापस लेकर ही संतुष्ट नहीं हुए, बल्कि उन्होंने शकों को खदेड़ते हुए उन्हें उनके गढ़ अरब से भी पीछे भगा दिया तथा विजय के उपलक्ष्य में संवत् प्रवर्तन किया और अपने आराध्य भगवान् शिव के नाम पर उस प्रदेश का नाम ‘हर वर्ष’ रखा जो बिगड़ कर अरब हो गया है तथा अरब के मक्का नगर में महाकाय (विशाल काय) शिवलिंग की स्थापना कर मंदिर निर्माण कराया। इस महाकाय शिवलिंग की प्रसिद्धि के कारण ही नगर का नाम भी ‘महाकाय’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया, जो विकृत होकर ‘मक्का’ हो गया है।
श्री विक्रमादित्य की इस अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जिरहाम बिनतोई ने, जो हजरत मोहम्मद से 165 वर्ष पूर्व हुए थे, बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। उनकी यह कविता ‘सीयर उल ओकुल’ नामक पुस्तक के पृष्ठ 315 पर वर्णित है, जो मकतबे सुल्तानिया पुस्तकालय (इस्ताम्बुल) में अभी भी सुरक्षित है।
विक्रमादित्य विश्व के महानतम शासक थे। सिकन्दर, सीजर, चंगेजखान, नेपोलियन आदि की उपलब्धियों विक्रमादित्य की उपलब्धियों की तुलना में तुच्छ थीं। ये लोग निरंकुश शासक थे, जिन्होंने गणराज्यों को कुचल दिया था, जबकि सम्राट् विक्रमादित्य महान गणतंत्रवादी थे। यहां तक कि उन्होंने अपने संवत् का नाम भी ‘मालव संवत’ और ‘कृत संवत्’ रखा। बाद में कृतज्ञ जनता ने ही ‘मालव संवत्’ और ‘कृत संवत्’ को ‘विक्रम संवत्’ कहना आरंभ किया।
सम्राट विक्रमादित्य ने किसी भी जनतांत्रिक राज्य को नष्ट नहीं किया, बल्कि उसे पुष्ट ही किया (अविश्रामो{यं लोकतंत्रधिकारः)। उन्होंने सर्वजनों व सर्व सम्प्रदायों के साथ स्नेहपूर्ण समान व्यवहार किया। इसीलिए सभी उन्हें अपना समझते थे।
अपनी अनुपम उपलब्धियों के कारण ही विक्रमादित्य अपने जीवन काल में ही ‘किंवदन्ती’ बन गए थे। उनकी कथाएं देश के अंदर ही नहीं, विदेशों में भी बहुत प्रचलित हैं।
ऐसे सर्वगुणसम्पन्न सम्राट् विक्रमादित्य द्वारा प्रवर्तित ‘विक्रम संवत्’ ही वास्तविक रूप में हमारा राष्ट्रीय संवत् है, क्योंकि-
यह संवत् हमारा अपना संवत् है। यह ईसाई या इस्लामी कलेंडर की तरह आक्रमकारियों द्वारा यहां आयतित संवत् नहीं है।
यह सर्वथा शुद्ध और वैज्ञानिक संवत् है।
यह हमारी अस्मिता और स्वाधीनता के अनुरक्षण तथा शत्रुओं पर विजय का प्रतीक है।
यह भारतीय जन मानस में रचा-बसा संवत है। अनपढ़ ग्रामीण भी अपने सभी कार्य इसी संवत् के अनुसार करते हैं।
यह ट्टतु परिवर्तन और नई फसल के आगमन का सूचक है।
हमारे सभी धार्मिक, सामाजिक कार्य, तीज त्यौहार और महापुरुषों के जन्मोत्सव इसी संवत् पर आधारित गणना के अनुसार ही सम्पन्न किए जाते हैं।
विक्रम संवत् सभी प्रचलित संवतों से प्राचीन है और हमें हमारे प्राचीन गौरव, पुरुषार्थ और स्वाधीनता के भावों का स्मरण कराता है।
अतः हम सभी भारतवासियों को यह व्रत लेना चाहिए कि जैसे हम अपने कार्यों के लिए विक्रम संवत का व्यवहार करते हैं उसी प्रकार चैत्र शुक्ला प्रतिपदा (वर्ष प्रतिपदा) के दिन (इस वर्ष 22 मार्च को) ही अपना नववर्ष मनाएंगे।