Pradhanmantri fasal beema yojna
Homeसांस्कृतिकलोकसंस्कृति में तीर्थयात्रI की परंपरा

लोकसंस्कृति में तीर्थयात्रI की परंपरा

भारत दर्शन डॉ. सुमन चौरे

मई, 2023
भारत दर्शन विशेषांक

तीर्थयात्रI कितना महान पुण्य कार्य है,
इस लेख को पढ़कर आपकी धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ जाएगी।

ईश्वर उपासना और ईश्वर प्राप्ति के कई साधन हैं। देव स्थान दर्शन और पवित्र नदियों-सरोवरों में स्नान अर्थात् तीर्थयात्रI को ईश्वर प्राप्ति का एक प्रमुख मार्ग बताया गया है। तीर्थ स्थानों में सामूहिक रूप से वन्दना, स्तवन, पूजा-आराधना की जाती है। देवी-देवताओं से सभी के मंगल की प्रार्थना की जाती है। लोक में इस बात का श्रद्धापूर्वक पालन किया जाता है कि व्यक्ति जब अपने कर्तव्यों और पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो जाता है, तब वह तीर्थ यात्रI का नियोजन करता है। या फिर कोई युवा अपने परिवार के वृद्ध सदस्य को तीर्थ करवाने ले जाता है।
निमाड़ क्षेत्र मध्य प्रदेश के दक्षिण पश्चिम हिस्से में है। निमाड़ में तीर्थयात्रI से संबंधित एक पुष्ट लोक परंपरा रही है। तीर्थ यात्रI के लोकगीत की इस परंपरा समृद्ध करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि शासकीय सेवानिवृत्ति और पारिवारिक जिम्मेदारियों के पूरा होने के बाद कोई व्यक्ति निजी तौर पर प्लान बनाए और तीर्थयात्रI पर निकल पडे़। आम बोलचाल के शब्दों में कहें तो ऐसे ही कोई उठा और छूटा जैसे तीर्थयात्रI नहीं करता। तीर्थयात्रI पर निकलने की तैयारी पूरे विधि विधान से होती है।
निमाड़ क्षेत्र का लोक चारों धामों की यात्रI में सबसे पहले जगन्नाथ धाम की यात्रI करता है। इस धाम से तीर्थ यात्रI प्रारंभ करने का एक प्रमुख कारण यह माना जाता है कि शुभारंभ पूर्व दिशा से हो। इस धाम के बाद पश्चिम दिशा में द्वारकाधीश धाम के दर्शन करते हैं। इसके पश्चात उत्तर में पर्वतराज हिमालय के आंचल में स्थित बदरीनाथ विशाल, केदारनाथ जी, गंगोत्री, यमुनोत्री के दर्शन करते हैं। इस धाम की यात्रI, मार्ग की कठिनाइयों के कारण सर्वाधिक दुष्कर है। तीर्थ-यात्री गंगोत्री से जल भरकर लाते हैं। इस जल को दक्षिण के धाम रामेश्वरम में शिवजी को अर्पित करते हैं। निमाड़ के तीर्थयात्री वापस लौट कर ओंकार महाराज (ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर जी) को भी जल अर्पित करते हैं और नर्मदा मैया में डुबकी लगाते हैं।
कई दशकों पहले आवागमन के साधनों की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, तब लोग कठिनाइयाें को पार करते हुए तीर्थयात्रI पूरी करते थे। इसलिए तीर्थयात्रI पर जाना दुष्कर था। ऐसे में कई लोग मिलकर जाते थे जैसे किसी एक गांव या आसपास के कुछ गांवों के पन्द्रह बीस लोग मिलकर जाते थे। इस समूह को निमाड़ में ‘पोहो’ शब्द से संबोधित करते थे।
वर्तमान में तो लोग आवागमन के साधनों की सुविधा के अनुसार यात्रI का नियोजन करते हैं। इसके लिए मुहूर्त निकालने और उसके पालन करने जैसी प्रथा मुश्किल से ही दिखती है। लेकिन कुछ दशकों पहले तक मुहूर्त निकालकर तीर्थयात्रI प्रारंभ होती थी, तब आखा तीज का मुहूर्त पोहो के अनुकूल रहता था।
तीर्थयात्रI जाने के बहुत पहले ही यात्रI शुभारंभ की तिथि निश्चित हो जाती थी। गांव के पटेल (मुखिया) इस यात्रI में सम्मिलित होने वाले यात्रियों के नाम लिख लेते थे। तीर्थ यात्रियों के नाते रिश्तेदार उनसे मिलने आते थे। यात्रI प्रारंभ होने वाले दिन तीर्थ यात्री के रिश्तेदार उसे लोकगीत गाते हुए परात (कांसे की मोटे पेंदे वाली थाली) बजाते हुए मंदिर तक ले जाते थे। जिस भी तीर्थ को जाते थे, उनके अधिष्ठाता देवता का नाम लेकर गीत गाया जाता था। लोकगीतों में आस्था और देवता के प्रति भक्त का अपनापन झलकता है, जब देवता ही कागज पर चिट्ठी लिखकर भक्त को बुलावा भेजते हैं। देवता पूछते हैं कि दूसरे स्थानों के भक्त आ गए हैं, तू क्यों नहीं आया अभी तक।
गीत:
बद्रीनाथ{ न{ लिख्या कागज दईभेज्या{
तू{ रे वीरा{ बेगोआव{
सगळोपोहो रे मान आई गयो
नई आई म्हारीभोळईनिमाड़{
भोळईनिमाड़ का मानवयी असोबोल्या{
तोर{ रे जुवार{ को म्हरा धावणू{
मिरया कपास{ मं{ मन{ बिलमाय{
घूमाण{ का नान्द्या रोकी रहयाज{
पाळणा{ की ममता{ रोकी रहयीज{
पोहोतेजोव{ वाट{ कसा आँवा{ देव{
तीरथ{ ख{
पूरे गीत का भावार्थ : उत्तर के बद्रीनाथ स्वामी ने कागज लिखकर संदेश भेजा है कि ‘हे भाई तू दर्शन करने क्यों नहीं आया?’ सभी स्थानों से दल के दल तीर्थ करने आ गए, भोली-भाली निमाड़ का मानस नहीं आया। इस संदेश पर निमाड़ के भाई कहते हैं कि ‘हमारे खेत में मिरी (मिर्ची) कपास फूल रही है, तुवर और जुवार को खेत से निकालना है। मिरी में मन बिलम रहा है। घुवाण में खड़े नन्दीगण राह रोक रहे हैं। पालने में झूलते बालक की ममता रोक रही है, यहीं घर परिवार से मोह नहीं छूट रहा है और पोहो रास्ता देख रहा है। इसी से विलम्ब हो रहा है।
लोक अपने आत्मीय जन को मंदिर तक पहुंचाकर पुनः अपने घर आ जाते हैं। तीर्थ जाने वाले लोग रात को भूमि पर या चटाई पर सोते हैं और भोर होते ही तैयार हो जाते हैं। इस दिन लोग मंदिर पहुंचकर यात्रियों को गांव से विदाई देते हैं। तीर्थ यात्रI में कैसे कष्ट हो सकते हैं, इसकी जानकारी एक रात में ही मंदिर में भूमि पर सोने से मिल जाती है। जो लोग दृढ़ निश्चयी नहीं होते या आराम पसंद हैं, वे अपने गांव से निकलकर ओंकार महाराज के दर्शन करके तुरंत वापस गांव लौट आते हैं। गांव से विदा लेने के बाद तीर्थ यात्रियों को तीर्थवासी शब्द से संबोधित किया जाता है।
घर वालों को तीर्थ यात्रियों की याद आती है तो उनके घर की महिलाएं तीर्थ गीत गा कर अपने मन को समझा लेती हैं।
गीत-
सोन्नारूप्पा{ की बाई थारीभायरी{
या भायरी{ काई{ कव्हाय{?
हमारा{ दादाजीमांय{ तीर्थ{ गया{
या भायरीमारग{ झड़ाय{
हीरा मोती की बाई थारी छाबड़ी{
चा छाबड़ी काई{ कव्हाय{?———–
या आरती{ जोत{ जळाव{
पूरे गीत का भावार्थ: हे बहन, सोना चांदी की यह झाड़ू किस काम की है? तब बहन कहती है कि मेरे आजा दाजी और आजी माँय तीर्थ यात्रI हो गये हैं। मैं इस झाड़ू से मार्ग झाडूंगी ताकि उन्हें भी कंटक विहीन मार्ग मिले। हे बहन हीरे मोती से गठी यह छाबड़ी किस काम की है। बहन कहती हैं कि मेरे माता-पिता तीर्थ गए हैं इस छाबड़ी को भरकर फूल लाकर मार्ग में डालूंगी ताकि उनके मार्ग फूल जैसे कोमल हो जायें। हे बहन यह तांबा पीतल के जल भरे घड़े किस काम के लिए रखे हैं? बहन कहती है कि मेरे भाई भाभी तीर्थ यात्रI करने गये हैं, इन घड़ों से जल भरकर मार्ग पर डालूंगी ताकि उन्हें शीतल मार्ग मिले। हे बहन, सोने रत्न की यह आरती किस काम की है? बहन कहती है, मेरे रिश्तेदार हितैषी तीर्थ गए हैं, इस आरती में मैं जगमग जोत जलाऊंगी।
तीर्थवासियों को घर से निकले बहुत दिन हो गये हैं। परिवारजन अनुमान लगाते हैं कि जब आम का पौधा लगाकर गए थे अब उस वृक्ष में कैरियां लग रही हैं, गाय के बछड़ा-बछिया होने के बाद गए थे अब गोवंश इतना बढ़ गया है कि गोठान में नहीं समा रहा है आदि। बिम्बों के माध्यम से कालगणना का अद्भुत गीत है।
तीरर्थ{ वासी{तिरवेणीअसनान{तो{
अँव{ घर{ आओ तीरथ{ वासी{

नानो सो अम्बो{ खेत{मेढ़ड गाड़ी गया{

अँव{ घर{ आओ तीरथ{ वासी{
पूरे गीत का भावार्थ: हे तीरथ वासियों! अब तक तो आपने पवित्र त्रिवेणी में स्नान कर लिया होगा। देव दर्शन भी कर लिए होंगे। अब आप घर लौट आइये। आपने खेत की मेढ़ पर आम का जो छोटा सा रोपा लगाया था, वह अब वृक्ष हो गया है और उसमें लटालूमकैरियाँ लगने लगी हैं। हे तीरथवासी आप जल्दी घर वापस आ जाओ। हे तीर्थवासी! आपने घर के आंगन में जो चम्पा का पौधा लगाया था, वह इतना बड़ा हो गया है कि उसकी डालियाँ गुजरात तक पहुंच गई हैं। हे तीरथवासी! आप जल्दी घर वापस आ जाओ। आपने गोठान में जो छोटी-सी बछिया छोड़ी थी उसके जाये (बछड़े, बैल, गाय) इतने बड़े हो गए हैं कि गोठान और बक्खर में नहीं समा रहे हैं। हे तीरथवासी! आप जल्दी घर वापस आ जाओ। हे तीरथवासी आप जब तीरथ यात्रI पर निकल रहे थे, तो झोली में एक नन्हा सा बालक छोड़ गए थे। नन्हा बालक बड़ा हो चुका है और उसकी संतानें इतनी सारी हो गई हैं कि घर-आंगन में नहीं समा रही हैं। हे तीरथवासी आपको यात्रI पर निकले बहुत लम्बा समय हो गया है अब जल्दी घर वापस आ जाओ। इतने लम्बे समय में तो आपने पवित्र त्रिवेणी में स्नान कर लिया होगा और सभी देवी-देवताओं के दर्शन भी कर लिए होंगे। अब आप घर लौट आइये।
घर परिवार के लोगों को जितनी याद अपने तीरथवासी परिवारजनों की आती है, उतनी ही याद तीरथवासी भी अपने परिवार की करते हैं। यह भाव जब मातु गंगा के दर्शन होते हैं, तब और भी आवेग से फूट पड़ते है। गंगा में उन्हें सतत्प्रवाहिणी ममता की छवि दीखती है।
गीत:
ओ देवी गंगा वय{ हो सुरंगा{
तो थारीझब्बर{म्हारोनिरमळ{ अंग{
गंगा का लयर चढ़ाओ रे काप{
तो आई मिल{न{म्हारोसमरथ{ बाप{
गंगा की ल“यर ढाको रे साड़ी{

तो आई मिल{ न{म्हारीमयाळू माड़ी

तो थारीझब्बरम्हारोनिरमळ अंग{
पूरे गीत का भावार्थ: हे देवी गंगा! तुम बड़ी सुहावनी बह रही हो। तुम्हारी झब्बर लहर-लहर के स्पर्श से मेरा अंग तो निर्मल हो गया है, और मेरा मन आल्हादित हो उठा है। हे माता! तुम्हारे दर्शन से मेरा मन मेरे परिवार में पहुंच गया है। हे देवी गंगा! मैं आपकी लहर – लहर को कपड़ा चढ़ाऊंगी, तुम मुझे अपने पिता से मिलवा दो। हे देवी गंगा! तुम बड़ी निर्मल होकर बह रही हो, तुम्हारी लहर-लहर को मैं साड़ी ओढ़ाऊंगी। हे ममतामयी! तुम प्रसन्न हो मां, और मुझे मेरी मां से मिलवा दो। हे देवी गंगा मैं तुम्हारी नाव को हीरो से जड़वा दूंगी, तुम मुझे मेरे भाई से मिलवा दो। हे देवी गंगा! मैं त्रिवेणी में वेणी दान कर दूंगी, तू मुझे स्नेह में गूंथी मेरे बहन से मिला दे। हे देवी गंगा! हम तुम्हारी आरती उतारते हैं। मां मुझे कृपापूर्वक प्रसाद दे और मुझे अपने संपूर्ण परिवार से मिला दे।
हे मां! तू ममतामयी है, तेरे दर्शन और स्पर्श से मेरा पारिवारिक स्नेह जाग उठा है। सबसे भेंट करने के लिए मन उतावला हो रहा है। इस गीत में गंगा के सामर्थ्य का उदात्त वर्णन तो है ही, मां कह-कहकर गंगा मैÕया से प्रार्थना भी की गई है।
तीर्थ स्थल भक्ति और आराधना के पुरातन जागृत स्थल हैं। इन स्थलों पर अनन्त काल से देव आराधना जप-तप साधना, भजन-कीर्तन किए जाते रहे हैं। इन स्थानों पर देवाकर्षण की भावमय तरंगे तरंगित होती हैं। इन स्थानों से व्यक्ति भक्ति की धारा में बह जाता है। कई व्यक्ति ऐसे होते थे, कि वे मानते थे कि अब संसार के माया मोह में पुनः नहीं लौटते, और वे अपने मन को ईश्वर में लीन कर तीर्थो में ही रूक जाते थे। किन्तु जब तीरथवासियों की कोई सूचना नहीं मिलती थी तो उनके परिवारजनों को चिन्ता होती थी। महिलाओं के कारण स्वर फूट पड़ते थे।
गीत-
तू काँ रे लोभाण्योम्हार तीरथ{ वासी{
तीरथ{करी न{बेगोआव{
काई रे वीरा तू{ पुरी म{लोभाण्यो
जगन्नाथ स्वामी को भात{तुख{भायो{
कि तू समुन्दर की ल“यर म{बिलमाण्यो
तीरथ{करी न{बेगोआव{——————–
कि रे इक्कीस वावड़ीमं{बिलमाण्यो{
तीरथ{करी न{बेगोआव{
पूरे गीत का भावार्थ: हे मेरे तीरथवासी वीरा (भाई) तू किस और लोभ में आ गया। तुझे तीर्थ में किसने रमा लिया? तू तीर्थ कर जल्दी से घर लौट आ। हे वीरा, क्या तुझे जगन्नाथपुरी बहुत भा गई या जगन्नाथजी का प्रसाद अधिक स्वादिष्ट लगा या समुद्र की लहरों में रम गया? तू तीर्थ करके घर जल्दी वापस आ जा। हे वीरा! तू क्या द्वारका के लोभ में आ गया? या तुझे द्वारकाधीश जी की सांवली मूरत रूप ने अपने में रमा लिया? या समुद्र और गोमतीजी के संगम में तेरा चित्त जग गया है? हे वीरा! तू तीर्थ कर घर जल्दी से लौट आ। हे भाई क्या तू बद्रीनाथजी में रम गया है? क्या तुझे बद्री विशाल का रूप व चंदन भात पसंद आ गया था। तपतकुण्ड के स्नान में तेरा मन रम गया? तू तीर्थ करके जल्दी घर आजा। हे वीरा! क्या तू रामेश्वरम् धाम में रम गया है? क्या तुझे शिवजी की पिण्डी ने लुभा लिया है या इक्कीस कुँओं के स्नान ने तेरा मन रमा लिया? हे वीरा! तू तीर्थ कर घर जल्दी से लौट आ जा।
आज जब लोग अपने पराये, देश विदेश के पल-पल के समाचार रखते हैं, तब उस काल में कोई व्यक्ति घर से बहुत दूर अनजान स्थानों से होते हुए तीर्थ यात्र पर गया और उसके लौटकर आने की कोई निश्चित कालावधि नहीं रहती थी, तो सूचना संप्रेषण का माध्यम आत्मिक बल ही हुआ करता था। तब तीर्थयात्रियों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती थी, इस समय में निमाड़ में प्रचलित तीरथ गीतों को बिछोह के करुण गीतों की उपमा दें, तो अत्युक्ति नहीं होगी। कल्पना कीजिए जिस परिवार का एक युवा सदस्य जो घर की धुरी है, तीर्थ यात्र पर जाता है, तब उस घर की स्थिति कैसी होती है। मार्मिक भावों से भरे तीरथ गीतों को सुनते ही आंखें नम हो जाती है। मन तड़प उठता है जब यादों का ज्वार उफन पड़ता है। परिवारजन अपनी विवशता दर्शाते हैं, कि हमने न तो बाहर की दुनिया में कदम नहीं रखा हमारे लिए तो घर की दहलीज पर्वत जैसी, और आंगन दूसरे मुल्क जैसा है।
गीत:
ढेळ तो परवतभई, न{अँगणोंभयो परदेश{
म्हारावीरा{ रे{ तीरथ{करी{ न{बेगोआव{
कचेरी बसन्त थारा पिताजी झूर{
हिण्डोळ{झूलन्तीथारीमाँय{म्हारावीरा{ रे{
तीरथ{करी{ न{बेगोआव{

फृतळयाखेलन्ता{थाराबाळ{ गोपाल झूर{

तीरथ{करी{ न{बेगोआव{
पूरे गीत का भावार्थ: हे हमारे भाई! हमारे पुत्र हमारे लिए तो घर की ढेल पर्वत जैसी ऊँची कठिन है। और आँगन ऐसा है, मानो परदेश हो। हे हमारे सगे! तू तीरथ करके घर जल्दी लौट आ। कचहरी (घर का मुख्य बैठक कक्ष जिसमें अतिथि आते हैं) में बैठने वाले तेरे पिताजी तेरी याद में भीतर ही भीतर घुल रहे हैं। ऐसी ही स्थिति झूले पर झूलने वाली तेरी माता की हो रही है। तू जल्दी से तीर्थ कर घर लौट आ। खेल-खिलौनों से खेलने वाले तेरे बाल गोपाल भीतर ही भीतर तेरी याद में रंज रहे हैं। तेरी पत्नी चूल्हा चौका (रसोई) करते-करते तेरी प्रतीक्षा में घुट रही है। तू तीरथ करके शीघ्र घर लौट आ। ससुराल में रहने वाली तेरी बहन तेरी याद में टूट रही है, और भुजा जैसा तेरा भाई तेरी याद में गल रहा है। खेती में तेरे साथ हल हकाते बैल तेरी याद में बिलख रहे हैं, जिन्हें दूध दुहता था वे गाय भैंस भी तेरी याद में दूसरे के हाथ से दूध दुहने नहीं दे रही हैं। तू तीरथ से जल्दी लौट आ। चावड़ी पर बैठने वाले तेरे सगे-संबंधी भाई और खेती का सहयोगी तेरा साझीदार भी तुझे याद कर रहा है। अब तू तीरथ करके जल्दी आ जा। हे मेरे भाई। तुझे किस तीर्थ के देव ने मोहित कर लिया है। कौन सा देवता तेरी खातिरदारी कर रहा है। तू जल्दी से घर आजा। उन देवता का भी साथ ही ले आ।
यादों की कितनी विचित्र पीर है। मन कुलबुला उठता है, याद कैसी सताती जाती है, लोकगीतों में आए इन शब्दों का कोई पर्याय नहीं है। वह गहन पीर तो केवल भावाभिव्यक्ति है। जो संवेदनशील है वह उस दुःख को परानुभूत कर लेता है।
तीर्थ स्थानों के आनन्द और उनके कृपापूर्ण वातावरण में आस्थावान्ती रथवासी ऐसा रम जाता है, कि उसे किसी बात की चिन्ता नहीं रहती। वह सांसारिक घटनाओं से बाहर निकल आता है। जब तक मन उस तीर्थ में लगा, तब तक वहीं ठहर जाते हैं। तीरथ वासी के संदेश कभी-कभी उनके गांव तक पहुंच जाते थे। जैसे किसी आस-पास के गांव के तीर्थ यात्री लौट रहे हैं तो वे उस रुके हुए यात्री के कुशल मंगल का समाचार उसके गांव घर तक पहुंचा देते थे।
गीत:
गया गोमती{ का तीर{ गंगाजी मं{ करया असनान
तिरवेणी कर योवेणी दान{
पयलो असनान पुरी सागर मं{
जगन्नाथ स्वामी न{ परी मन{ की पीर
गंगाजी मं{ करया असनान{———————————
-गंगाजी मं{ करया असनान{
पूरे गीत का भावार्थ: हमने गया का तीर्थ कर लिया है। गोमती नदी में स्नान कर लिया है। गंगाजी की त्रिवेणी में वेणी का दान कर दिया है। पहला स्नान हमने पूर्व दिशा के सागर में किया, जगन्नाथ स्वामी जी ने हमारे सब के सब संताप दूर करके, आनन्द भर दिया। दूसरा स्नान समुद्र और गोमती नदी के संगम पर किया। द्वारकाधीश स्वामी के दर्शनों ने मन में आनन्द भर दिया। तीसरा स्नान हमने बद्रीनाथ स्वामी के तपते हुए कुण्ड के जल से किया। मन हल्का हो गया। बद्रीविशाल के दर्शन करके हमारे मन में आनन्द की वर्षा हो गई। चौथा स्नान हमने रामेश्वरम् जी के इक्कीस कुण्डों के जल से किया। फिर गंगोत्री जी से लाए जल से भगवान् शिव का अभिषेक किया। हमारे मन में हर्ष छा गया। पांचवा स्नान हमने नर्मदा मैया में किया। श्री ओम्कार-ममलेश्वर महाराज को जल चढ़ाया और आत्म संतोष से भर गए। ज्योतिर्लिंगओम्कार-ममलेश्वर महाराज निमाड़ के रक्षक देव हैं। यहां आकर तीरथवासी को ऐसा अनुभूत होता है, कि वह अपने घर ही आ गया।
तीर्थयात्र संपन्न करके
गांव में आगमन
निमाड़ के लोक की प्रबल आस्था है कि कितने ही तीर्थ कर लो, किन्तु रेवा मैया में स्नान करने के बाद ओम्कार महाराज को जल नहीं चढ़ाया, तो तीरथ यात्र पूर्ण नहीं मानी जायेगी। गांव के, कुटुम्ब के लोग उन्हें ओम्कारेश्वर में लेने आते हैं। वे सभी भावविभोर होकर तीरथवासियों के चरण स्पर्श करके, उन्हें आत्मीयता से गले लगाते हैं। फिर वे सब बैल गाडि़यों में उत्साह के साथ तीरथदेव की महिमा के गीत गाते हुए जाते अपने-अपने गांव की रवाना होते हैं।
भोर होते ही पूरा गांव ढोल और परात की थाप पर गाते हुए तीरथवासियों को लेने जाते हैं। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत का उदार भाव देखिए कि गांव के सभी वर्ग के लोगों को ससम्मान बुलाया गया है।
गीत:
बद्रीनाथ देव न{हुकुमाकरी{रजाभरी
चारई धाम{ का देव{नं{ न{रजाभरी
तू{ रे तीरथ{वासी बेगो घर जाव{
धोया धड़{ आया रे तीरथ{वासी{

हुई रही{ जय जय{ कार{

गंगा माँय{ की आरती उतार{
हुई रही जय जय कार{
पूरे गीत का भावार्थ: चारों धामों की यात्र कर चुके तीरथवासियों से चारों धाम के देवताओं ने कहा-हे तीर्थवासी भाइयो! हम प्रसन्न हैं, तुम्हारी भक्ति से। हम तुम्हें अपने घर लौट जाने की अनुमति देते हैं। गांव की सीमा पर तीरथवासी पहुंच गए हैं। हे कुम्हार भाई! मैं तुमसे विनती करती हूं कि तुम मिट्टी का घड़ा गढ़कर ले आओ ताकि गंगाजी को उसमें स्थापित कर सकें। तीर्थों की जय बोलो। हे सुनार भाई! मैं तुमसे अरज कर रही हूं, कि तुम चन्दन की सुन्दर बाजूट गढ़कर ले आओ। उस पर तीरथवासियों को बैठाएँगे। हे झमराल भाई! मैं तुसे विनती करती हूं कि अच्छा सा झालरदार पंखा गूँथकर ले आओ। हम तीरथवासियों पर पंखा झेलेंगे। हे बजाज भाई। तू मसरू के कपड़ों के थान और काप लेकर आ जा। हम सभी तीरथवासियों को नए वस्त्र भेंट ओढ़ायेंगे। हे हलवाई भाई! तू स्वादिष्ट मिठाई बनाकर ला, सभी पोहा को हम भोजन करायेंगे। हे मोठीबईण! तू दीप, कुंकुम, चोखा (अक्षत) की आरती सजाकर ला। और सभी तीरथवासियों को बधाकर, हम उन सबको प्रणाम करेंगे। गंगा मैया की जय बोलो। चारों धामों की जय जयकार हो।
सभी लोग गँाव की सीमा पर बैलगाडि़यों से उतर कर पैदल मंदिर की ओर चलते हैं। गाँव और तीरथयात्रियों के कुटुम्बीजन पारम्परिक वाद्य ‘ढोल-परात’ के साथ दीपक लगाकर आरती की थाली सजाकर उन्हें बधावा गीत गाते हुए मंदिर ले जाते हैं। आगमन की रात्रि को तीरथ यात्री मंदिर में ही रुकते हैं। जैसे वे लोग तीरथ यात्र पर जाने के पहले घर से विदा होकर, मंदिर में एक रात रुकने के बाद ही गांव से बाहर तीर्थयात्र पर निकले थे। यहां भी वही गणित काम करता है, कि जिसे घर परिवार में जाना है वह जाय वरना देवधर्म में मार्ग पर पुनः तीर्थ की ओर लौट जाय। मंदिर में ग्रामीण यथाशक्ति उनका सत्कार करते हैं।
प्रातःकाल सब लोग तीरथ यात्रियों को बधाकर उनको कुंकुम अक्षत लगाकर आरती उतारते हैं और बधावा गीत गाते हुए घर लाते हैं। उनके घर की ओर के मार्ग में लोग तीरथ यात्रियों के चरण धुलाते हैं, चरणों पर कुंकुम हल्दी लगाते हैं। उन पर पुष्पवर्षा भी करते हैं। कुछ लोग तीरथयात्रियों पर छत्र लगाकर उनको अपने घर भी ले जाते हैं। उनके स्वयं के घर पहुंचने पर तो हर्ष का अलग ही वातावरण हो जाता है।
शुभागमन के इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में तीरथ और तीरथयात्रियों की महिमा और उनकी अंग कान्ति का वर्णन मिलता है।
गीत:
झारी{ म{ को गंगा जळ{झळक{ रहयो{
जळ{ झ{क{ रहयो रे हिवड़ोहरक{ रहयो{
थारीसाँवळई मूरत{ मुरझाये रे{
थारीपातळईकम्मर{ झोला खाय{रे

म्हारा तीरथ{ वासी झारी मं{ को गंगा जळझळक{ रहयो{

जळझळकर“यो{
पूरे गीत का भावार्थ: तीरथवासी तीर्थ यात्र संपन्न कर के गांव लौट आए हैं। उनके हाथ में गंगा जल से भरी झारी है। इस झारी से जल छलक रहा है। हे तीरथवासी! देव दर्शन करने से तेरे शरीर में देवत्व का वास हो गया है। तेरा शरीर कान्तिवान हो गया है। तेरी पतली सी कमर में लचक आ रही है, जो हमारे मन को मोहित कर रही है। लगातार पदयात्र करने के कारण तेरा रूप सांवला हो गया है और तेरा शरीर कुम्हला गया है। तथापि रूप का लावण्य टपक रहा है। तीर्थवासी जब गांव की सरहद पर आये, तब गौ चराते हुए चरवाहे अपनी गायों को भूल कर, तीरथवासियों के रूप में मोहित हो गए। तब तीरथवासी गांव के बाहर के बाग में आए तो वहां खेलते हुए बच्चे खेलकूद भूलकर तीर्थवासियों के रूप में आकर्षित हो गए। तीरथवासी गांव में आए, तो गांव के लोग उनके दिव्य रूप को देखकर मोहित हो गए। जब तीरथवासी गांव के पनघट पर पहुंचे, तो पनिहारिन अपने घड़ों को भरना भूलकर तीरथवासियों के रूप में मुग्ध हो गई। जब तीरथवासी अपने घर के आंगन में आए तो परिवार के लोग उनके कान्तिमय रूप को मंत्रमुग्ध होकर देखते रह गए। तीर्थवासियों की गंगाजल की झारियों से जल छलक रहा है।
तीरथवासियों के घरों और अड़ोस- पड़ोस में कई महीनों तक आनन्द का वातावरण रहता है। उन दिनों सूचना संप्रेषण के साधन विरल थे। जैसे-जैसे लोगों को पता चलता था कि तीरथवासी लौट आए हैंं तो उनसे मिलने आते रहते थे। तीरथवासियों के घर लौटने पर ऐसा वातावरण रहता था, जैसे उनका पुनर्जन्म हो गया हो। नाते-रिश्तेदार मिलने आते हैं और उनको वस्त्र भेंट करते हैं।
तीरथ यात्रियों के गृह आगमन के बाद दो परम्पराएं और हैं। एक लोकरीति हैं-सांजी बांटना और दूसरी है गंगा पूजन और ब्राह्मण भोजन का आयोजन।
नित्य रात्रि, तीरथ वासी जब यात्र पर रहते हैं, तब उनके घर तीरथ के गीत गाए जाते हैं। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते रिश्तेदारी आदि गांव की कई महिलाएं गीत गाने के लिए आती हैं। सभी मिलकर ये पारम्परिक लोकगीत गाते हैं। गीत गाने के लिए आने वाले लोगों को प्रसाद में जुवार की धानी या सेंगळई (मूंगफल्ली) उनके आंचल में दी जाती हैं।
जबकि ‘साँजी बांटना’ बहन, बुआ और बेटियों द्वारा तीरथ वासियों के तीर्थयात्र पूर्ण करके आने के अवसर पर हर्ष व्यक्त करने का माध्यम है। इस अवसर पर भी गीत गाए जाते हैं। तीरथ वासी की बहन-बुआ आदि वस्त्र लाते हैं और सांजी बांटते हैं। उसमें गुड़ शक्कर या बताशे बांटे जाते हैं। ये वस्त्र तीरथ से लौटे यात्रियों को भेंट किए जाते हैं। इस परंपरा को ‘तीरथ के गीत गवाना’, ‘तम्बोल बंटन’, ‘शक्कर बांटना’ भी कहते हैं।
तीर्थ यात्र की परम्पराओं और संबंधित लोकगीतों में लोक का पारस्परिक स्नेह और सम्मान का भाव झलकता है। इन परम्पराओं से एक ओर जहां लोक के एकत्व भाव भी व्यक्त होता है। तो तीरथ वासी और गांव में छूटे उसके परिवार की धैर्य और आस्था की परीक्षा के कठिन दिनों को भी सरलता से समझा जा सकता है।
गंगा पूजन
निमाड़ में गंगा पूजन का भी बड़ा महात्म्य है। बद्रीनाथ स्वामी जाने वाले तीर्थयात्री गंगोत्री और यमुनोत्री के दर्शन भी करते हैं। गंगोत्री से गंगा जल लाते हैं। जिसमें से जल से भरी एक झारी तो रामेश्वरम् धाम में चढ़ाते हैं जबकि कुछ अन्य झारियां वे अपने-अपने गांव लाते हैं। अपने गांव, फिर परगांव के लोगों को और संबंधियों को बांटने योग्य भारी मात्र में जल लाना तो संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में एक विधान है-गंगा पूजन का। निमाड़ क्षेत्र में गंगा पूजन का भव्य आयोजन किया जाता है। अनमोल होता था गंगोत्री से लाया गया गंगाजल। गंगा पूजन के अवसर पर झारी को निकाल लिया जाता था। गंगा पूजन में शास्त्रेक्त पक्ष कम और लोकोक्त रीति अधिक दिखाई पड़ती है। गांव-परगांव, नाते रिश्तेदारों सभी को गंगापूजन में आने का बुलावा दिया जाता है। गंगा माता को कितने घड़ों में लाना है, यह पूजन का आयोजन करने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है। गंगा जल की झारी से जल को गांव के कुएं या सरोवर में डालकर, घड़ों में भर दिया जाता है। सुहासिन अपने सिरों पर इन घड़ों को रखकर जल स्रोत से घर तक लाती हैं। सभी लोग पंक्तियों में बैठ जाते हैं, फिर सभी को कुंकुम लगाकर दक्षिणा देकर घड़ों में से जल को निकाल कर सभी लोगों में वितरित किया जाता है। सभी बड़ी श्रद्धा से अपने हाथों में जल लेकर पी लेते हैं।
तीर्थ यात्र के नियम
परम्परागत तीर्थयात्रI भक्ति और श्रद्धा के साथ संकल्प, संयम और नियम का संगम होती है। ऐसी यात्रI को तपस्या के समान ही माना जाता है। तीरथवासी और घर में रह रहे उनके परिवारजनों के धैर्य की परीक्षा भी इस यात्रI में होती है। परम्परागत तीर्थयात्री कई प्रकार के संकल्प लेकर यात्रI प्रारंभ करते हैं साथ ही यात्रI के बीच में भी संकल्प जोड़ लेते हैं। जैसे बद्रीविशाल-केदारनाथ और गंगोत्री के दर्शन करके जल लाकर रामेश्वरम् में शिवजी को चढ़ाना। गंगापूजन करना। तीर्थ में विविध प्रकार के संकल्प करके आते हैं। जैसे कोई तीरथवासी अपने प्रिय फल को ग्रहण करना त्याग देता है, तो कोई अपनी रूचि की सब्जी खाना छोड़ देता है। इसी तरह कई तीरथवासी अपना प्रिय मिष्ठान्न और नमकीन खाना छोड़ देते हैं। किसी के घर मरण भोज ग्रहण नहीं करना, श्राद्ध के अवसर के भोजन ग्रहण नहीं करना। वैसे प्याज और लहसून को तो तीरथवासी यात्रI शुरु करने के पहले ही त्याग देते हैं। तो कुछ लोग मौन होकर भोजन करना प्रारंभ करने का संकल्प ले लेते हैं। कुछ अन्य प्रचलित संकल्प हैं, बिना जूते चप्पल के चलना, पलंग और खटिया छोड़कर भूमि पर सोना प्रारंभ करना। झूठ नहीं बोलना, क्रोध नहीं करना, यथाशक्ति दान करना, दान को गुप्त रखना, तीरथ भाई-तीरथ बहनों से संबंध निबाहना आदि।
तीर्थयात्रI देश की अखण्डता को अक्षुण्ण बनाए रखती है। देश की सामाजिक सांस्कृतिक आध्यात्मिक संरचना को सुदृढ़ करती है। यह भारतवासियों को एक सूत्र में बांधने का मूल मंत्र है। तीर्थयात्रI की परम्पराओं को देश के हर क्षेत्र की लोक संस्कृति प्रभावित करती है और इन तीर्थयात्रओं से बहुत कुछ ग्राह्य करके ये लोक संस्कृतियां समृद्धतर होती जाती हैं।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments