इतिहास कथा डॉ. अशोक रस्तोगी
युद्ध के लिए अदावत शुरू होने पर भी कैसे निर्दोष और
सामान्य जनों को भी कष्ट भोगना पड़ता है इसका एक प्रसंग।
जापान और ब्रिटिश शासन द्वारा अण्डमान के अखाड़े पर
युद्ध शुरू होने पर साधारण जन को कैसे मृत्यु की प्रताड़ना सहन करनी पड़ी,
हृदयविदारक घटना।
मार्च, 2023
नवसंवत विशेषांक
30 जनवरी 1944 बसंत पंचमी थी उस दिन जब पूरा देश होली की तैयारियों में जुटा था। परन्तु अंडमान निकोबार द्वीप समूह के दक्षिण भाग में स्थित हाफ्रीगंज नामक गांव में एक विचित्र प्रकार की होली खेली गई थी-एक ऐसी होली जो इतिहास के पृष्ठों में एक कलंकित अध्याय के रूप में अंकित हो गई।
दैवदुर्योग से वह होली इतनी चर्चित नहीं हो सकी कि उसमें बलिदान होने वाले अभागों को हमारा देश स्मरण रख पाता—–उनकी स्मृति में मेलों का आयोजन कर पाता। महात्मा गांधी के बलिदान दिवस की तरह उस दिवस को शहीद होने वाले सेनानियों को भी याद रख पाता।
कई वर्षो तक तो वह बलिदान स्थल गुमनामी के अंधेरे में खोया रहा। परन्तु देश स्वतंत्र हो जाने पर हाफ्रीगंज गांव के कुछ जागरूक राष्ट्र प्रेमियों ने ‘हाफ्रीगंज स्मारक समिति’ नामक संस्था की नींव स्थापित कर एक सफेद संगमरमर के ऊंचे शिलापट पर उन चबालीस बलिदानियों के नाम अंकित किए ताकि प्रतिवर्ष उनकी पुण्य तिथि पर पुष्पांजलि अर्पित की जा सके। यह स्तंभ आज भी वहां स्थित है।
कितने दुर्भाग्यशाली रहे अंडमान के दक्षिणी भाग के वे निवासी जिन्होंने पहले तो अंग्रेजों की पराधीनता का भयंकर कष्ट भोगा। और दूसरे महायुद्ध में जापानियों के कहर का दंश झेलने को विवश होना पड़ा। जापान ने विलक्षण कूटनीति अपनाते हुए अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को चारों ओर से घेरकर आकस्मिक आक्रमण किए। पहले आक्रमण को तो अंग्रेजों ने अपनी सतर्कता व कूटनीति से विफल कर दिया। परन्तु दूसरे भयंकर युद्ध की व्यूह रचना को वे नहीं भेद पाए और परास्त हो गये। अंग्रेजों ने अपनी सतर्कता व कूटनीति से विफल कर दिया। परन्तु दूसरे भयंकर युद्ध की व्यूह रचना को वे नहीं भेद पाए और परास्त हो गये। अंग्रेजों को वहां से भागना पड़ा। किन्तु जाते-जाते वे अपने कर्मचारियों तथा गोरखा सैनिकों को साथ लेते गये। द्वीपवासियों को वे जापानियों की दयादृष्टि पर निहत्था छोड़ गये। जापानी सैन्य अधिकारियों ने वहां अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
लेकिन चाथमजेदी नामक बंदरगाह पर जापानियों के मालवाहक जहाज व युद्धपोत अब भी अंग्रेजों के आक्रमण का अचूक निशाना बनते जा रहे थे। जापानी अधिकारियों को पूर्ण विश्वास था कि अंग्रेज जाते-जाते भी अपने गुप्तचरों को विभिन्न रूपों में वहां छोड़ गये हैं ताकि उनकी कार्रवाई व अतिविधियों की सूचना अपने अंग्रेज अधिकारियों तक पहुंचा सकें।
जापानियों का यह संदेह था भी सत्य, अंग्रेजों का गुप्तचर मेकार्थी अपने विश्वसनीय सहयोगी सरदार ज्ञान सिंह, तुंगल सिंह व हरभजन सिंह के साथ अंडमान के दक्षिणी भाग के जंगलों में छिपा था। वहीं से वह अपनी गतिविधियां सुचारू रखे हुए था। मथियस, फजल इलाही व आदिवासियों को उसने संचार माध्यमों के रूप में स्थापित कर रखा था। ये लोग बस्तियों में बांस, बल्ली, लकड़ी, फल सब्जी आदि बेचने जाते थे और वहीं जापानियों की गतिविधियों की टोह लेते रहते थे। तथा सूचना मेकार्थी तक पहुंचाते थे। मेकार्थी वायरलैस प्रणाली के माध्यम से तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों तक प्रसारित करता रहता था।
अंग्रेजी गुप्तचरों का पता लगाने के लिए जापानी अधिकारी नोबुनागा के नेतृत्व में जासूसों का एक दल वहां फैल गया। और बहुत सारे निवासियों को पकड़-पकड़कर विभिन्न प्रकार से प्रताडि़त किया जाने लगा। ताकि वे अंग्रेजी गुप्तचरों की सूचना दे सकें। उन पर खौलते पानी की धार छोड़ी जाती थी। गरम शलाकाएं आंखों में चुभोई जाती थीं। गुप्तांगों में नुकीली छड़ों से प्रहार किया जाता था। महिलाओं के वक्षस्थल पर बरछी चुभोई जाती थी। और सभी के सामने उनसे बलात्कार किया जाता था। जिससे वे अपमानित व आहत होकर गुप्तचरों का पता बता सकें। परन्तु वे अभागे कुछ बताते तो तब जब उन्हें कुछ पता होता।
अतएव जापानी अपने सारे हथकंडे अपनाकर भी अंग्रेजों के इस तंत्र को भेदने में विफल रहे। इस विफलता एवं निराशा का गुबार जापानियों ने निकाला वहां के निवासियों पर। विभिन्न प्रकार के आरोप लगाकर विभिन्न मुकदमें ठोककर। लगभग दो सौ लोग जिनमें चिकित्सक, कृषक, साहूकार, व्यापारी, शिक्षक, वकील जैसे उच्च वर्ग के लोग भी थे, जेलों में ठूंस दिए गए। तथा एक पक्षीय कार्रवाई में आजीवन कारावास अथवा मृत्यु दण्ड प्रस्तावित कर दिया गया।
एक मुकदमा जो बेबुनियाद, असत्य व जालसाजी भरा जासूसी मुकदमा था 17 अक्तूबर 1943 को प्रारंभ किया गया था। लगभग तीन सौ निरपराध लोगों को गिरफ्रतार करके अंडमान की ऐतिहासिक काल कोठरी में भेड़ बकरियों की तरह ठूंस दिया गया था। सब चिल्ला-चिल्लाकर अपने निर्दोष होने का प्रमाण देने का प्रयास कर रहे थे। परन्तु वहां था ही कौन उन प्रारब्ध हीनों की पुकार सुनने वाला? उसी कोठरी में मल मूत्र विसर्जन, उसी में बैठना, उसी में गठरी की तरह सोना। नमी के कारण मक्खी मच्छर तथा अनेक प्रकार के कृमि रेंगते रहते थे जो न दिन में चैन लेने देते थे न रात को। भोजन में कंकड़ पत्थर मिश्रित रोटियां व दाल सब्जी का पानी जिसमें कीड़े तैरते रहते थे, चावलों में रेत मिट्टी मिला दी जाती थी ताकि ढंग से न खाया जा सके। जो नहीं खाता था उसे कोड़े खाने पड़ते थे। वैसे भी छोटी-छोटी बातों पर कोड़ों की मार पड़ना तो स्वाभाविक था ही।
कोड़ों की मार से शरीर के विभिन्न भागों में व्रण बन जाते थे। जिनमें क्रूर जेल अधीक्षक आशिकागा नमक मिर्च भर देता था। और जब वे तीव्र वेदना से चीखते थे तो वह अट्टहास करता था। व्रणों में लम्बे-लम्बे कृमि रेंगने लगते थे, हड्डियां सड़ने लगती थीं और मांस गलकर टूटने लगता था। कोई उपचार न मिलने से पूरे शरीर में दुर्गंध आने लगती थी। और धीरे-धीरे उनकी मृत्यु हो जाती थी।
जन उत्थान सेवा समिति व इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के संचालक सरदार डाक्टर दीवान सिंह पर जापानी अधिकारी नोबुनागा ने यह आरोप लगाकर गिरफ्रतार कर लिया कि उन्होंने जापानी विरोधी संगठन बना रखा है। और वे जासूसी भी करते हैं। उन्हें जेल में कठोर एवं क्रूरतम यातनाएं दी गई। बीमार होने पर भी उन्हें कोई उपचार नहीं दिया गया। शारीरिक वेदना से वे हर समय तड़पते रहते थे।
आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 29 दिसंबर 1943 को जापानी अधिकारियों के साथ अंडमान पहुंचे थे। वे पूरे द्वीप समूह का भ्रमण करने निकले थे।
ऐतिहासिक सेल्युलर जेल देखने भी उन्हें जाना था। तब जापानी अधिकारियों ने जनता को कठोर चेतावनी दी थी कि यदि किसी ने भी कोई शिकायत नेता जी से की तो उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा। उधर नेताजी के चारों ओर भी ऐसा अभेद्य जाल फैला दिया गया कि कोई भी व्यक्ति उनसे न िमल सके, न ही किसी भी प्रकार जापानियों के कुकृत्यों का पर्दाफाश किया जा सके। जापानियों ने उन्हें ऐतिहासिक सेल्युलर जेल भी दिखाई। परन्तु वह कालकोठरी नहीं दिखाई जिसमें अनेक निर्दोष द्वीप वासी कीड़ों मकोड़ों की भांति नारकीय जीवन जीने को विवश थे। इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा छोड़े गए द्वीपसमूह के दौरे की औपचारिकता पूर्ण कर दी गई। नेताजी भी संतुष्ट थे कि भारत के पक्ष में जापानियों ने अंग्रेज सरकार से अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को मुक्त करा लिया था। उन्हें यह कहां पता था कि जापानी कैसी षड़यंत्र भरी कुचालें चलकर भारतीयों का दमन कर रहे थे।
उधर डॉ- दीवान सिंह के सामाजिक कार्यो में सहयोगी क्रांतिकारी साधूराम जी ने वकीलों की सहायता से उन्हें बचाने का भरसक प्रयास किया परन्तु सफल न हो सके। डॉ- दीवान सिंह को अत्यधिक कठोर यंत्रणाएं दी गई। 14 जनवरी 1944 को सारे बंधनों को तोड़कर पंचतत्वों में विलीन हो गये। अन्य भी अनेकों लोग इसी प्रकार कालकवलित होते चले गये।
44 बंदी लोहपुरुष थे, वहीं जीवित बचे रहे। जापानियों के अत्याचार अपने तन पर झेलने के लिए। उन पर न रोग प्रभावी हो पाया और न ही पूयग्रस्त व्रण उनकी जीवन यात्र को बाधित कर पाए। शायद विधाता भी उन्हें जापानियों की यंत्रणा से चीखते चिल्लाते, अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का असफल प्रयास करते देखकर प्रसन्न हो रहा था। तभी तो उनकी सांसों की डोर इतनी लंबी हो गई थी किसी भी प्रकार टूटने में न आ पा रही थी।
उधर साधूराम जी विभिन्न स्थानों पर सभाएं करके द्वीपवासियों की प्रषुप्त शक्ति को अर्जित कर रहे थे। उनमें आत्मविश्वास जगाकर उन्हें जापानियों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष करने का आहवान कर रहे थे। लोग लामबंद होकर जापानियों का विरोध करने का बिगुल बजाने को तत्पर होने भी लगे थे कि किसी देशद्रोही ने धनलोभ के वशीभूत यह सूचना जापानियों तक पहुंचा दी। परिणामस्वरूप जापानी अधिकारी साधूराम जी के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। साधूराम जी ने अपना डेरा घने जंगल के मध्य जमा लिया और वहीं से अपनी गतिविधियां संचालित करने लगे। परन्तु बाद में वे न जाने कहां गायब हो गये? उन्हें धरती निगल गई अथवा आकाश ने छिपा लिया या फिर जापानियों ने ही कुछ कर दिया, कुछ भी तो पता नहीं चल पाया?
एक बार पुनः जापानी अधिकारी हिडेयाशी ने उन 44 बंदियां को भयंकर यातनाएं देकर पूछा कि अंग्रेजी सरकार को यहां की सूचनाएं कौन पहुंचाता है? परन्तु बंदीगण चीख-चीखकर कहते रहे कि वे निर्दोष हैं, न वे स्वयं कोई सूचना अंग्रेजों तक पहुंचाते हैं और न ही सूचना पहुंचाने वाले जासूसी तंत्र के बारे में उन्हें कोई जानकारी है। लेकिन न जाने वह क्रूर सैन्य अधिकारी हिडेयाशी किस मिट्टी का बना था कि किसी भी करूण पुकार का उस पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता था। आखिर जापानी सरकार द्वारा उन निरपराध बंदियों को सबक सिखाने का दायित्व भी तो उसे सौंपा गया था।
उनसे कोई भी सुराग उगलवाने में असफल रहने पर हिडेयाशी बुरी तरह तिलमिला गया। तब उसने उन अभागों के लहू से होली खेलने की योजना बनाई।
वह मनहूस तिथि थी 30 जनवरी 1944 और दिवस था बसंत पंचमी का।
कूटनीतिक घोषणा की गई कि सभी बंदियों को स्वाधीन कर दिया जाएगा। अतएव सभी के परिजनों को उनके लिए जलपान आदि की व्यवस्था करने का आदेश दिया गया।
समस्त बंदियों को जेल के सामने एकत्रित किया गया। सगे संबंधी तो अपने-अपने प्रियजनों से मिलने को न जाने कब से अधीर हो रहे थे। अतएव सूर्योदय से पूर्व ही विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ लेकर वहां आ गए थे। सबने मिलकर सामूहिक रूप से सुस्वादु खाद्य पदार्थो का आनंद उठाया। सभी परस्पर सम्मेलन की प्रसन्नता से सराबोर हो रहे थे कि यकायक वहां जापानी अधिकारियों की कारें एवं शस्त्र सज्जित लारियां एक वृक्ष के चारों ओर आकर खड़ी होने लगी तो लोगों को किसी षडयंत्र का एहसास हुआ। किंतु कर भी क्या सकते थे पूर्णतया लाचार और विवश थे।
सशस्त्र सैनिकों ने सभी बंदियां को लारियों में चढ़ाया। सभी ने चिल्ला-चिल्लाकर हाथ जोड़कर कहा कि वे निर्दोष निरपराधी हैं उन पर अत्याचार मत करो। परन्तु वहां कौन किसकी सुनने वाला था?
एक बंदी था फरजद अली। उसने सभी के परिजनों को संबोधित कर कहा कि हम सब बेकसूर हैं, इन जापानी कुत्तों के षडंयत्र का शिकार बने हैं। आप सब इनसे बचकर रहना। तभी एक जापानी ने बंदूक की बट का तीव्र प्रहार उसके सिर पर किया तो वह गिर गया और उसके सिर से रक्त का फव्वारा फूट पड़ा।
एक बंदी प्रेमशंकर पांडेय ने भी उच्च स्वर में अपने संबंधियों को संबोधित किया-‘हम सभी निर्दोष निष्पाप हैं। अकारण दैवदुर्योग से इन जापानी आतताइयों के अत्याचाराें का शिकार बने। हमारा अंतिम नमन स्वीकार करो। और अपने बच्चों का पूर्ण ध्यान रखते हुए इन्हें जापानियों की छांव से बचाकर रखना।
फिर सभी ने हाथ जोड़कर, नेत्र मूंदकर, सिर को झुकाकर अपने आराध्य से अपने प्राणों की रक्षा की प्रार्थना की। परन्तु शायद उन अभागों के लिए तो वह जगतनियंता न्यायाधीश भी निष्ठुर बन गया था अथवा वह भी उनके शोणित की होली देखने को लालायित हो रहा था।
आखिर वह मनहूस पल भी आ ही गया। जब उन चवालीस प्रारब्धहीनों की पांच लारियां सेल्युलर जेल से चलकर अंडमान के दक्षिण में 18 किमी- दूर हाफ्रीगंज गांव में एक किनारे पर आ रुकीं। उन्हें वहां से पैदल ही एक टीले पर ले जाया गया। जहां एक काफी लंबा चौड़ा गड्ढा पहले से ही खोदकर रखा गया था। सभी बंदी बार-बार हाथ जोड़कर अश्रुओं से डबडबाई कातर आंखों से उन जापानी आतताइयों को निहारते हुए याचना करने लगते थे कि वे निरपराध हैं उनके साथ न्याय किया जाए, उनकी रक्षा की जाए। परन्तु हिडेयाशी उनकी करुण पुकार पर आकाश की ओर मुंह करके उन्मुक्त अट्टहास करने लगता था।
बेचारे वे चबालीस बंदी जिनमें कोई वैद्य चिकित्सक था तो कोई इंजीनियर, कोई वकील था तो कोई शिक्षक, कोई तहसीलदार तो कोई क्लर्क, कोई व्यापारी तो कोई कर्मचारी सभी कातर व भयातुर दृष्टि से मृत्यु को अपने समक्ष खड़ी देख रहे थे। परन्तु यहां था ही कौन उन कर्कश आतताइयों से उनकी रक्षा करने वाला?
सभी की आंखों पर पट्टी बांधकर गड्ढे के किनारों पर बैठा दिया गया और हाथ पीछे की ओर बांध दिए गए। और फिर एक-एक को गोली का निशाना बनाकर गड्ढे में गिरा दिया गया। आकाश गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा। उन चबालीस प्रारब्धहीनों के रक्तरंजित शवों से वह गड्ढा भर गया और वहां रक्त का दरिया बन गया।
ग्रामवासियों की भीड़ दूर-दूर के वृक्षों पर चढ़ी हुई मौत का यह भयंकर तांडव अपनी भींगी लाचार आंखों से चुपचाप देखने को मजबूर थी। क्योंकि हिडेयाशी ने उन्हें आसपास न फटकने की कठोर चेतावनी दी थी।
समूचे वातावरण में हाहाकार मच गया, आसमान लाल हो गया, धरती कांप उठी। कराह उठी धरती मां उन चबालीस बलिदानियों को अपनी गोद में समाकर।
तो यह थी जापानी दरिंदों की बसंत पंचमी के दिन निरपराध भारतीयों के शोणि्ात से खेली गई होली। जिसकी कहीं कोई विशेष चर्चा नहीं हुई, न ही उसके समाचार अखबारों की सुर्खियां बनी, न ही उनकी स्मृति में कहीं मेलों का आयोजन किया गया, बेचारे गुमनामी के घेरे में कैद अभागे बलिदानी।