कहानी
डॉ. अशोक रस्तोगी
हर बात को पलट कर अपनी बात ऊपर रखना, कई लोगों की कमजोरी होती है। इसी को उजागर करती एक भावपूर्ण कहानी।
उद्योगपति विश्वंभर शरण जैन के आठ वर्षीय पौत्र की भोजन विषाक्तता के कारण आकस्मिक रूप से मृत्यु हो गई। सांत्वना प्रदान करने तथा सहानुभूति व्यक्त करने वालों का जमावड़ा लग गया उनके विशाल भवन पर। जैन साहब का उद्योग जगत में जाना-माना नाम है, धनपति हैं, सर्व प्रकार समर्थ हैं। राजनीति में भी अच्छी खासी घुसपैठ रखते हैं। किन्तु उदार हृदयी हैं, परोपकारी भी हैं, दान-धर्म में भी पीछे नहीं रहते। और सुप्रसिद्ध समाजसेवी का अलंकरण तो उन्हें प्राप्त है ही। समय-समय पर निर्धन कन्याओं का विवाह, कंबल वितरण, आध्यात्मिक कथाएं, भंडारे आदि करते करवाते रहते हैं। अपने उद्योगों में भी क्षेत्र के अनेकों लोगों को नौकरियां प्रदान करने में पीछे नहीं रहते। उनके विषय में ऐसा प्रचलित है कि कोई भी अभावग्रस्त दीन-दुःखी उनके द्वार से निराश नहीं लौट सकता। अतएव इस संकटकालीन समय में हर व्यक्ति किसी न किसी तरह उनके दृष्टिपथ में आ जाना चाहता था ताकि उन्हें महसूस हो कि यदि उन्होंने लोगों की सहायता की है तो लोग भी इस असहनीय दुःख के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ खड़े हैं। मृतक यदि किसी अन्य सामान्य व्यक्ति का पौत्र होता तो शायद लोग यह सोचकर उपेक्षित कर देते कि बच्चा ही तो था दूषित खानपान के कारण बीमार हो गया और अच्छा उपचार न मिलने से मर गया। उसके लिए क्या सहानुभूति व्यक्त करने जाना, क्या आवश्यकता है उसके परिवार को सांत्वना प्रदान करने की?
परन्तु यहां मामला विशेषतम था। सुप्रसिद्ध गणमान्य व्यक्ति होने के कारण जैन साहब के घर सहानुभूति रजिस्टर में उपस्थिति अंकित करवाना हर किसी को अपना पुनीत कर्तव्यबोध हो रहा था।
जिस समय लोगों का शोक संवेदना व्यक्त करने के लिए आवागमन प्रारंभ हुआ जैन साहब मौन मूक व शांत मुद्रा में प्रांगण में बैठे इस दारुण आघात को भीतर ही भीतर पी जाने की चेष्टा कर रहे थे। उन्हें दूर से ही इस शांत मुद्रा में देखकर कुछ लोगों के हृदयोद्वार होठों की सीमा लांघकर बाहर छलक पड़े-‘‘अरे! कितना पत्थर दिल हैं जैन साहब का, घर में लाडले बालक की लाश पड़ी है और इनकी आंखों में एक भी आंसू नहीं? क्या इन्हें उसके मरने का जरा सा भी गम नहीं?’’
उनके कुछ ज्यादा शुभेच्छु लोग तो उनके वक्ष से दृढ़तापूर्वक चिपक कर दहाड़े मार कर रो पड़े। तो जैन साहब का भी रुदन फूट पड़ा। तब उन शुभेच्छुओं को भी अपना रोना सार्थक प्रतीत हुआ फिर वही लोग उनके आंसू पोंछने के लिए प्रयत्नशील दिखे-‘‘चुप हो जाइए जैन साहब! मत रोइए। धैर्य रखिए। आपको रोता देखकर इन परिवार जनों का धैर्य भी साथ छोड़ जाएगा। यूं समझ लीजिए जैन साहब कि बस उसका इतना ही साथ था। वह हमारे मध्य बस आया ही चार दिन के लिए था। लेकिन बच्चा था बहुत सुंदर और होनहार। हमारी आंखों से तो उसकी मनमोहक सूरत किसी भी तरह निकल नहीं पा रही। ऐसा लगता है कि वह कहीं यहीं आसपास ही खेलकूद रहा होगा और अभी अगले ही पल हमारे सामने आकर शरारत करने लग जाएगा। हे भगवान! तूने यह कैसा अत्याचार कर डाला!’’ कहते-कहते वे लोग पुनः सुबकियां लेने लगे और जेब से रुमाल निकालकर सूखी आंखों को मसलने का प्रयास करने लगे।
जैन साहब के एक घनिष्ठ मित्र उन्हें भीड़ केे मध्य से उठाकर यह कहते हुए कक्ष के भीतर ले गए कि यहां सब लोगों के बीच में आपका दिल ज्यादा घबराएगा और वहां कुछ हल्का फुल्का खा पी भी सकते हैं। सबके सामने तो ऐसे अच्छा नहीं लगता। लोग सोचेंगे कि पौत्र के मरने का आपको कोई दुःख नहीं है।
कक्ष में बैठे उन्हें अभी कुछ ही देर हुई थी कि उनके साथ प्रातःकालीन भ्रमण पर निकलने वाले कुछ लोग आए और अपनत्व भाव प्रदर्शित करते हुए उन पर बरस पड़े-‘‘अरे जैन साहब! बाहर आपसे मिलकर दुःख दर्द साझा करने वालों की भीड़ लगी पड़ी है और आप यहां अलग कमरे में बैठे हैं। लोग यह नहीं सोचेंगे क्या कि आपको पौत्र की अकाल मृत्यु का कोई दुःख नहीं है? चलिए बाहर सब लोगों के बीच में ही बैठिए!’’
और वे उन्हें अपने कंधों का सहारा देकर प्रांगण में जुटी भीड़ के मध्य ले आए।
फिर वही लोग कुछ दूर हटकर जैन साहब के प्रति सहानुभूति पूर्ण चिंता व्यक्त करने लगे-‘‘अरे भई! जैन के सिर पर इतनी भारी विपत्ति…………………………
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