माता का दूध पीकर शिशु धीरे-धीरे सारे आहार को पचाना सीख जाता है। इसी तरह जिस बच्चे को अपनी मातृभाषा में दक्षता प्राप्त हो जाती है उसके लिए दूसरी सारी भाषाएं सीखना, जानना और समझना बहुत आसान हो जाता है।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
लेख
अवधेश तिवारी
एक कहानी मुझे बहुत प्रिय लगती है। एक उपवन में कमल और गुलाब पास-पास खिले हुए थे। गुलाब को कमल बहुत अच्छा लगता था, इतना अच्छा कि वह दिन भर कमल की ओर ही देखता रहता। धीरे-धीरे गुलाब के मन में भी आकांक्षा पैदा हुई कि क्यों न मैं भी कमल हो जाऊं? बस फिर क्या था, गुलाब ने अपने रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से विद्रोह आरंभ कर दिया। वह अपने व्यक्तित्व को झूठा और कमल को सच्चा समझने लगा। गुलाब की इस आत्महीनता का उसके व्यक्तित्व पर गहरा असर हुआ। कुछ समय बाद गुलाब की रंगत उड़ने लगी। धीरे-धीरे उसके अपने रूप, रस आदि प्रभा विहीन होने लगे। उसकी जड़ें सूखने लगी। गुलाब न गुलाब रहा, न वह कमल ही हो पाया।
इसी तरह हमारे गांव में भी एक लोककथा प्रचलित है।
एक शेर और एक सियार में गहरी मित्रता थी। मैत्रीभाव में दोनों एक दूसरे को अपने अपने भोजन में हिस्सा देने लगे। परस्पर स्नेह का आदान-प्रदान करते हुए एक दिन दोनों ने यह तय किया कि क्यों न हम एक दूसरे की भाषा भी बदल लें। बस, फिर क्या था, दूसरे दिन से शेर हुआ-हुआ करने लगा और सियार दहड़ाने लगा। यह कहा जाता है कि उस दिन से न शेर-शेर रहा, न सियार सियार रहा।
बचपन में मुझे फल-फूल खाने का बड़ा शौक था। लेकिन फल-फूल के नाम पर गांव की बंजारी जामुन, देसी बिही, साड़ी की बेर तथा छिंदवाड़ा की पहचान छींद ही अक्सर उपलब्ध हो पाती थी। हां, मई, जून में देसी आम मिल जाया करते थे। जब वे पक कर पेड़ से टपकते तो हम उन्हें ‘साँहें’ कहा करते थे। तो अपने गांव के छींद, बेर, सॉहे, जामुन आदि खाकर हम खूब मस्त और स्वस्थ रहते थे। लेकिन हमारे घर के सामने जो धनाढ्य परिवार रहता था उसके सदस्य अक्सर अपने स्वास्थ्य की जांच कराने शहर जाते और लौटते समय शहर से अमेरिकन सेब लेकर आते (और हमें दिखा-दिखाकर खाते) उन्हें इतना कीमती फल खाते देखकर हमारे मुंह में भी पानी आ जाता था लेकिन हमारे भाग्य ऐसे कहां कि हम अमेरिकन सेब का स्वाद ले पाते। मेरी यह पीड़ा हमारे एक स्कूल शिक्षक समझ गए। एक दिन उन्होंने हमें कक्षा में बताया, ‘बेटा, जितना लाभ तुम्हें तुम्हारे गांव के देसी फल-फूल पहुंचाएंगे न, उतना अमेरिकन सेब कभी नहीं पहुंचाएगा क्योंकि गांव के फल-फूल उसी वातावरण में पैदा हुए पले और बढ़े हैंं, जिसमें तुम पैदा हुए हो। इसलिए तुम्हारे और उनके बीच सहोदर का रिश्ता है—दोनों की जन्मभूमि एक ही है न? लेकिन अमेरिकन सेब तुम्हें फायदा कर ही दे इसकी कोई गारंटी नहीं, वह नुकसान भी कर सकता है।
एक दिन किसी पुस्तक के पन्ने पलटते-पलटते ट्टग्वेद की एक ट्टचा पढ़ने में आई ‘इला सरस्वतीमही तिस्रो देवीर्मयो भुवः —’ अर्थात् मां, मातृभाषा और मातृभूमि ये तीन देवियां ऐसी हैं जिनके आशीर्वाद के बिना कभी कोई आगे नहीं बढ़ता। ट्टग्वेद की इस ट्टचा ने मेरे मन को अभिभूत कर दिया। ट्टग्वेद तो दुनिया की सबसे प्रथम पुस्तक है। यदि उसमें भी अपनी मातृभाषा, मां और मातृभूमि को लेकर इतनी स्पष्टता से ऐसे विचार व्यक्त किए गए थे तो यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आज से हजारों हजारों साल पहले ही हम माता, मातृभाषा मातृभूमि का महत्व समझ चुके थे। लेकिन इतिहास की विडंबना, कि हम पिछले लगभग एक हजार वर्षो में अपने गौरव को पूरी तरह भुला बैठे। फिर परिणाम वही हुआ जो गुलाब और कमल के साथ या शेर और सियार के साथ हुआ था। हम जो थे वह नहीं रह पाए। मैंने इस ट्टचा को पढ़ते ही अपने शब्दों में ट्टग्वेद के उस मंत्रदृष्टा ट्टषि भावों को नमन किया जिसके मन-मस्तिष्क में संसार में सर्वप्रथम यह यशस्वी विचार आया था-
एक कर्म के पाठ पढ़ाती
एक ज्ञान के दीप जलाती-
एक भक्ति के फूल खिलाती
इन तीनों ने सदा संवारा
जीवन का पथ मेरा
हे भारत की तीन देवियो!
तुम्हें नमन है मेरा—-
भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वधर्म की बात कही है-‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।’ अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना श्रेष्ठ है लेकिन दूसरों के धर्म का अंधानुकरण करके जीना उचित नहीं। मैंने सुना कि पाश्चात्य देशों में भगवतगीता के इस श्लोक के आधार पर बहुत पहले ही यह तय कर दिया गया था कि बच्चों की शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही होगी, लेकिन इन विचारों का जनक भारतवर्ष स्वयं अपने नौनिहालों से उनसे इस स्वधर्म का पालन नहीं करा पाया। ब्रिटेन के शिक्षाविद मैकाले ने अपनी सरकार को सलाह देते हुए कहा था कि भारतीयों की शिक्षा व्यवस्था और उनकी भाषायी परंपरा इतनी समृद्ध है कि यदि हम एक हजार साल भी शासन करेंगे तो भी उन्हें पूरी तरह विजित नहीं कर पाएंगे। यदि उन्हें जीतना है तो सबसे पहले उनकी भाषा और संस्कृति पर प्रहार करो।’ और अंत में वही हुआ। प्रहार सहते-सहते हम अपना स्वधर्म भूल गए और अंग्रेज बनने में गौरव का अनुभव करने लगे।
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘तुम्हारा स्वधर्म ही तुम्हारी योग्यता के सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ उपयोग का मार्ग खोलता है। तुम्हारा स्वधर्म ही तुम्हारी सारी संभावनाओं को साकार करता है। तुम्हारा स्वधर्म ही तुम्हें यह बताता है कि तुम्हारा जन्म क्यों हुआ है और अपने किन लक्ष्यों को लेकर तुम कितनी ऊंचाइयों तक जा सकते हो।’ लेकिन दुःख की बात है कि हममें से अधिकांश लोग पूरा जीवन बीत जाता है, अपना स्वधर्म नहीं पहचान पाते। हमारे समाज में माता-पिता बच्चे पर दबाव डालते हैं, तुम्हें इंजीनियर ही बनना है, तुम्हें डॉक्टर ही बनना है। वे यह नहीं देखते कि यदि बच्चे में इंजीनियर बनने की इच्छा नहीं है तो दबाव डालने पर वह एक एवरेज इंजीनियर ही बन सकता है। लेकिन यदि बच्चा चित्रकारी करता है तो कितने माता-पिता ऐसे हैं जिन्होंने उसे चित्रकला के क्षेत्र में स्वतंत्र छोड़ दिया हो। कोई बच्चा कविता लिखता है तो ऐसे कितने माता-पिता हैं जिन्होंने कहा कि जाओ अपने इस मार्ग में जितना चाहो आगे बढ़ो। हो सकता है, अवसर मिलता तो ऐसा बच्चा अग्रणी पंक्ति का चित्रकार या कवि बनता। लेकिन माता-पिता के अनुचित दबाव के समक्ष नतमस्तक होकर वह एक एवरेज इंजीनियर या डाक्टर बन कर रह गया, औसत सीमा से आगे नहीं बढ़ पाया। यह सब इसलिए हुआ कि हमने उसके स्वधर्म का दमन किया और उस पर भयावह परधर्म थोप दिया
कितने तुलसी और कबीर
नित यहां जन्म हैं पाते,
पर स्वधर्म जाने बिन-
माँ के पलने में मर जाते।
मैं क्या हूं? क्यों हूँ? जिस दिन
यह ज्ञान हमें मिलता है
जीवन उपवन में स्वधर्म का
प्रथम फूल खिलता है।
सत्यनिष्ठता से मन में
जब यह विश्वास जगेगा
तभी ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’
का संकल्प सधेगा।
मनुष्य अपने आपको कितना जानता है? मेरे व्यक्तित्व के यदि मैं चार बराबर भाग करूँ तो पहला भाग वह है जिसे अपने बारे में मैं भी जानता हूं और सामने वाला भी जानता है। मेरे व्यक्तित्व का दूसरा भाग वह है, जिसमें मेरे बारे में मैं तो जानता हूं लेकिन दूसरे लोग नहीं जानते। मेरे व्यक्तित्व का तीसरा भाग वह है, जिसके बारे में दूसरे लोग तो जानते हैं पर मैं स्वयं नहीं जानता। और मेरे व्यक्तित्व का चौथा भाग वह है जिसके बारे में न तो मैं जानता हूं न सामने वाला ही जानता है। इसे अरेलना, क्लोज्ड, स्पॉट, ब्लैक स्पॉट और डार्क स्पॉट कहा जाता है। यानी कुल मिलाकर मैं अपने आपको आधा ही जानता हूं और अर्धसत्य असत्य से भी अधिक भयावह होता है। जैन धर्म में इसी को स्यादवाद का नाम दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि तुम किसी भी वस्तु को एक बार में केवल आधा ही देख सकते हो इसलिए कभी भी संपूर्ण सत्य को जानने का दावा मत करो। तो इसका अर्थ यह है कि जीवन की पहचान और उसकी यात्र आधी अज्ञात होती है तथा इसी अज्ञात में कहीं हमारा स्वधर्म छुपा रहता है। इस स्वधर्म के पहचान की यात्र अपनी भाषा, अपनी भूमि और अपने परिवेश में जीकर ही संभव होती है। माँ, मातृभाषा और मातृभूमि हमें सर्वप्रथम अपने इसी स्वधर्म का ज्ञान देती है, हमें अपने इसी अज्ञात से परिचित कराती है। वे हमारी जड़ों को ऐसा पोषक रस प्रदान करती है, जिससे हमारे जीवन की हर शाखा पर यथासमय फूल खिलते रहते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि हमारे जीवन में मातृभाषा का वही स्थान है जो माता के दूध का होता है। माता के दूध को प्रकृति ने एक संपूर्ण आहार के रूप में वरदानस्वरूप प्रदान किया है। जिस बच्चे को माता का दूध भरपेट मिल जाता है उसे ऊपर और कोई आहार देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और जिस बच्चे को माता का दूध पर्याप्त नहीं मिलता उसके अशक्त और रोगी बने रहने की संभावनाएं बहुत अधिक होती हैं। माता का दूध पीकर शिशु धीरे-धीरे सारे आहार को पचाना सीख जाता है। इसी तरह जिस बच्चे को अपनी मातृभाषा में दक्षता प्राप्त हो जाती है उसके लिए दूसरी सारी भाषाएं सीखना, जानना और समझना बहुत आसान हो जाता है। उस बच्चे को अपने स्वधर्म का भी बहुत जल्दी ज्ञान हो जाता है, वह अपने जीवन के अज्ञात को अपेक्षाकृत जल्दी पहचानता है। उसके पास एक अंतर्दृष्टि होती है क्योंकि उसके पास बुजुर्गो के अनुभवों की पूंजी होती है एवं अपनी परंपराओं से मिलने वाले अनुभवों का कोष होता है। इसे माँ, मातृभूमि और मातृभाषा तीनों पर निष्ठा रखकर प्राप्त किया जा सकता है।
हमारे छिंदवाड़ा जिले में गोंडी, पवारी आदि बोलियों के साथ-साथ बुंदेली बोली मुख्य रूप में प्रचलित है, जो गाँव-गाँव में बोली जाती है। बुंदेली बहुत प्राचीन भाषा है जिसका वर्णन हमें पद्यपुराण में भी मिलता है। इसी बुंदेली के कारण हमारा क्षेत्र बुंदेलखण्ड कहलाता है। बुंदेलखंड मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश तक विस्तृत क्षेत्र में फैला है। बुंदेलखंड के इस क्षेत्र के बारे में एक दोहा कहा जाता है-‘इत चंबल उत नर्मदा,
इत जमना उत टोंस।’
‘छत्रसाल से लरन को
रहो न काहू होंस।।’
यानी चंबल से नर्मदा तक और यमुना से टोंस नदी की सीमा तक बुंदेलखंड का क्षेत्र है। बुंदेलखंड का पानी पी-पीकर और यहां की बोली-बानी बोल-बोल कर लोग आत्मविश्वास के इतने धनी हो गए हैं कि बुंदेले हरबोलों के शौर्य की कहानी सारी दुनिया में कही जाती है। यह अपनी भाषा, अपनी बोली और अपनी भूमि से प्राप्त होने वाला बल ही तो है, जो हमें लोकल से इंटरनेशनल बना देता है।
लंका-विजय के पश्चात जब भगवान श्रीराम को यह प्रस्ताव मिला कि वह स्वयं लंका के राजा बन जाएँ, तो उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था-
न शोभते स्वर्णपुरी लंका मम लक्ष्मण।’
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।’
हे लक्ष्मण मुझे सोने की ये लंका आकर्षित नहीं करती, मुझे तो अपनी जननी जन्मभूमि अयोध्या की ही याद आ रही है क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होती है।
पाठकों को याद होगा, श्री रामानंद सागर के ‘रामायण’ धारावाहिक में हमने देखा है कि राम चौदह वर्षो तक वनवास की अवधि में भी नित्य अयोध्या से लाई हुई मिट्टी की पूजा करते रहते हैं और उस मिट्टी के आशीर्वाद से वे रावण जैसे दुर्धर्ष योद्धा पर विजय प्राप्त करते हैं। आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जो अपनी जन्मभूमि से लाई हुई मिट्टी को पूजा घर में रखकर उसका माथे पर तिलक लगाते हैं तथा उससे प्रतिदिन आशीर्वाद की याचना करते हैं।
हमारे यशस्वी राष्ट्रपति डॉ- राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में निवास के दौरान बिहार से आने वाले लोगों के साथ भोजपुरी में ही वार्तालाप करते थे क्योंकि वे जानते थे कि अपनी भाषा और अपनी संस्कृति की भूमि पर ही हमारी जड़े अच्छी तरह फलती-फूलती हैं, इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी भाषा, अपनी बोली और अपनी परंपराओं का आदर करें। हम अपने पूर्वजों से मिलने वाली कहावतें, मुहावरे, सूक्तियाँ, लोककथाएँ आदि का आदान-प्रदान करें। लोक संगीत के क्षेत्र में हमारी परंपरा बहुत समृद्ध है, हम उनका संरक्षण करें। हम अपनी मातृभाषा के साहित्य का प्रतिदिन थोड़ा बहुत अध्ययन करें, अपनी बोली के शब्द सीखने और दैनिक व्यवहार में लाने की कोशिश करें। मोबाइल पर कुछ लिखते समय रोमन के स्थान पर अपनी देवनागरी लिपि का प्रयोग करें। हम अपना अधिक से अधिक काम अपनी मातृभाषा पर करें।
विदेशी भाषाओं के साथ हम एक दो भारतीय भाषाएँ भी अवश्य सीखें ताकि उन भाषाओं में सुरक्षित ज्ञान संपदा का आलोक भी हम तक पहुँच सके। हमारे विज्ञान पढ़ने वाले नवयुवक आज की टेक्नोलॉजी से अपनी भाषा को जोड़ने और उसे सुसंगत बनाने का भी प्रयास करें। संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। इसलिए संस्कृत का अध्ययन भी हमारे ज्ञान की विशेष श्रीवृद्धि करेगा।
हिंदी सभी भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन है। जिस तरह गंगा को गंगा बनाने में छोटी-बड़ी सैकड़ों नदियाँ अपना योगदान देती हैं उसी तरह हिंदी को इतना विशाल रूप उसकी छोटी-छोटी क्षेत्रीय बोलियों से ही मिलता है। यदि ये बोलियाँ समाप्त हो जाएँगी तो हिंदी पर भी संकट खड़ा हो जाएगा। हमें यह याद रखना है कि हिंदी बचेगी तो सभी भारतीय भाषाएँ बचेंगी और हिंदी खत्म हुई तो दूसरी भारतीय भाषाएँ भी खत्म हो जाएँगी क्योंकि हिंदी की नीति सबको लेकर आगे बढ़ने की है और अंग्रेजी सबको मिटा कर उनके स्थान पर स्वयं बैठ जाना चाहती है।
हमें अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए। आज विश्व की हजारों भाषाएँ और बोलियाँ समाप्त होने की कगार पर हैं। वे अपनी अस्तित्व रक्षा के आसन्न संकट से जूझ रही हैं। बहुत सी बोलियाँ तो ऐसी भी हैं, जिन्हें बोलने वाले पाँच दस लोग ही शेष बचे हैं। ऐसा लगता है जैसे यशस्वी नदी सरस्वती की धारा कालांतर में विलुप्त हो गई? कुछ इसी तरह हमारी भाषा, बोली और परंपराओं की धारा भी विलुप्त होती जा रही है। जब एक भाषा खत्म होती है तब केवल भाषा ही खत्म नहीं होती उसके साथ सभ्यता, परंपरा और मानवीय संवेदनाओं की एक बड़ी विरासत भी प्राणहीन होने लगती है। किसी भाषा के साथ उस भाषा में सदियों से संचित ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। इसलिए आज हमें चाहिए कि हम अपने घर में, परिवेश में अपनी बोली, अपनी भाषा अपनी परंपराओं का गौरव से उपयोग करें और इनके संरक्षण के प्रयास में अपना योगदान दें। हम विदेशी भाषाएँ सीखें, अधिक से अधिक भाषाएँ सीखें, लेकिन यह सब अपनी भाषा की कीमत पर न हो। हम सबकी माताओं का आदर करें लेकिन हमारी माता के आत्मसम्मान से समझौता करके नहीं। जब ऐसी दृष्टि उत्पन्न होगी तभी हम भाषा और संस्कृति की सारस्वत धारा को सूखने से बचा सकेंगे-
अपनी भाषा सदा एकरस
होती है मन से, प्राणों से
अपनी भाषा कह देती है
अपनी बातें पाषाणों से।
अपनी भाषा में होती है
माता की ममता की छाया
अपनी भाषा भी तो माँ है
इसमें माँ का प्यार समाया।’
चलो दीप से दीप जलाएँ,
अपनी भाषा के प्रकाश को
आओ, घर-घर तक पहुँचाएँ।