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मध्यप्रदेश में मेडीकल की शिक्षा हिन्दी में प्रारम्भ

लेख डॉ- मनोहर भंडारी
एम.बी.बी.एस., एम.डी.

लगभग 4 दशकों से अंग्रेजी में मेडीकल शिक्षा प्राप्त कर रहे
विद्यार्थी कैसी विषम परिस्थितियों में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। कुछ प्राध्यापकों ने
उनकी पीड़ा को समझा और मातृभाषा में शिक्षा के लिए संघर्ष प्रारंभ किया। व्यवस्था से कैसे जूझना पड़ा, निहित स्वार्थो ने कैसे व्यवधान डाले गए, अन्त में आप कैसे विजयी हुए, संक्रमण काल के संघर्ष की गाथा पढ़िए संघर्ष में अग्रणी डाक्टर की लेखनी है।

अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक

मित्रेi!
जब से चिकित्सा शिक्षा को हिन्दी माध्यम से दिए जाने की घोषणा हुई है, तभी से अभी तक कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ चिकित्सा शिक्षकों, चिकित्सकों, पत्रकार साथियों और गैर चिकित्सीय विद्वानों तथा विद्यार्थियों ने मुझसे बातचीत में सरकार के इस कदम की आलोचना एवं घोर निन्दा की है, उपहास उड़ाया है, आत्मघाती कहा है, 19 वीं सदी में ले जाने की बात कही है, यह भी कहा है कि फिर तो संस्कृत में ही दे दी जानी चाहिए, जब पीछे धकेल रहे हो तो पूरा ही धकेल दो, यहां तक कि भावी चिकित्सकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए गए हैं, विश्व पटल पर उनकी काल्पनिक अयोग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त भी न जाने क्या-क्या नहीं कहा गया है। मोदी जी, आरएसएस और अन्य इससे जुड़े व्यक्तियों के लिए अपशब्दों का भी प्रयोग किया गया। अभी भी सिलसिला अनवरत है।
इससे मैं बहुत उद्विग्न हूं, व्यथित हूं, दुखी हूूं, हतप्रभ हूं, चिन्तित भी हूं और आक्रोशित भी हूं, मेरा आक्रोश सात्विक है।
इस स्थिति से उत्तेजित, प्रेरित होकर अत्यंत ही विनम्रता के साथ मैं सभी सुधीजनों के संज्ञान में कुछ तथ्य लाने को विवश हुआ हूं।
तुर्की की स्वतंत्रता और
उनकी भाषा
जब तुर्की स्वतंत्र हुआ तब वहां के बादशाह कमाल पाशा ने अपने अधीनस्थों से कहा था कि अब सारा कामकाज तुर्की में होगा, तो वे बोले थे कि ऐसा करने के लिए कम से कम दस वर्ष लगेंगे। बादशाह ने उत्तर दिया ठीक है, कोई बात नहीं, यही समझ लीजिये कि आज उस दस वर्ष का अन्तिम 365 वां दिन है। इस आदेश के तहत दूसरे ही दिन से तुर्की भाषा पूर्ण रूपेण अस्तित्व में आ गई।
महात्मा गांधी का उद्घोष और भाषाई पराधीनता के अन्त का शुभारंभ
स्वराज, सुराज और स्वदेशी के प्रचारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यह तीव्र मंशा थी और उन्होंने स्पष्ट रूप से यंग इंडिया में संभवतः 1931 में कहा था कि अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों एवं प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं। या उन्हें बर्खास्त कर दूं। मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूंगा। वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आएंगी। यह एक बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए।
हमें तो गर्व होना चाहिए कि गांधी जी की मंशा पूर्ण होने का शंखनाद हुआ है। गांधी जी के सिद्धान्तों को मूर्तरूप देने वाले दृढ़ निश्चयी माननीय मोदी जी ने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर इसका शुभारंभ किया है। मोदी जी के ही नेतृत्व में देश के एक हिन्दी भाषी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान तथा चिकित्सा शिक्षा मंत्री श्री विश्वास सारंग जी ने उनकी मंशा को साकार करने की दिशा में समारोह पूर्वक पहला कदम बढ़ाया है। यह तो भाषाई गुलामी से मुक्ति का महापर्व है। इस पर्व की पूर्ण सफलता में आने वाली संभावित कठिनाइयों के व्यावहारिक समाधान, मध्यप्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार को देने हेतु हमारे द्वारा युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाने की अपेक्षा थी और अभी भी है। हम सभी के सहयोग के बिना क्या कोई भी सरकार ऐसे राष्ट्रहित के कार्य को समय सीमा में व्यापक रूप में पूर्ण कर सकती है।
क्या स्वतंत्रता के तुरन्द बाद ही गांधी जी की मंशा साकार हो जाती तब भी क्या, ये सभी प्रकार की आशंकाएं आलोचनाएं हम सभी के मन मस्तिष्क में उसी परिमाण में आकार लेती? उत्तर है कदापि नहीं लेती।
क्यों, क्योंकि तब तक अंग्रेजी ने हमारे मन-मस्तिष्कों को इतना ग्रसित नहीं किया था, गुलाम नहीं बनाया था। इसलिए भी कि तब यह निर्णय आरएसएस या मोदी जी का नहीं कहलाता। इसलिए भी कि हम उस समय बाजारवाद के आक्रामक प्रचार-प्रसार से मुक्त थे। इसलिए भी कि उस समय अंग्रेजी के चंगुल से 90 प्रतिशत भारतीय मुक्त थे और आज तो शहरों और कस्बों तक में गरीब बस्तियाेंं के बच्चों पर अंग्रेजी को जबरिया थोपा जा रहा है।

हिन्दी की प्रासंगिता और प्रीपीजी मेडिकल स्टूडेंट्स
हिन्दी मातृभाषा से आए चिकित्सा विद्यार्थियों के जीवन में हिन्दी की उपयोगिता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण होगा कि जब अंग्रेजी में पढ़ाई परीक्षाओं के अनेक सोपानों को पार करते हुए साढ़े पांच वर्ष की पढ़ाई के बाद चिकित्सक जब प्रीपीजी की तैयारी करते हैं तब भी वे कांसेप्ट्स समझने के लिए हिंगलिश में उपलब्ध व्याख्यानों को सुनते हैं। प्रेपलैंडर नामक व्यावसायिक कोचिंग संस्थान ऐसे वीडियोज को अनावश्यक रूप से तो तैयार नहीं करवाएगा, यह तो बनी बात है। इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी जानने समझने वाले चिकित्सकों के लिए हिन्दी कांसेप्ट्स समझने की दृष्टि से अंग्रेजी से बेहतर है।
अंग्रेजी थोपे जाने के षडयंत्र
और उसके घातक परिणामों से
अनभिज्ञ हम भारतीय
यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में तीव्रता के साथ अंग्रेजी केवल ज्ञानार्जन के लिए नहीं पधराई गई थी, यह हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं, हमारी धार्मिकता, हमारी विश्वस्तर की धरोहरों-उपलब्धियों को अंधविश्वास सिद्ध करते हुए, उन सबकी चुपचाप (ताकि आपको पता ही नहीं चले) अंग्रेजी द्वारा जड़ें काटी जा सकें। वे पूरी तरह सफल होते ही जा रहे हैं।
हमारी विज्ञानसम्मत भाषा, देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप भूषा और भोजन आपसे विलग कर दिए गए हैं, उन्हें बड़े ही शातिराना और गुप्त तरीके से अपदस्थ किया जा चुका है। आप अनभिज्ञ हों और हमारे व्यवहार में ऐसे बदलाव आ चुके हैं कि माता-पिता को स्वप्न में वृद्धाश्रम दिखने लगे हैं, क्योंकि अनायास ही श्रवण कुमार लुप्त हो गए हैं। हम धर्म (नैतिकता), अर्थ (नैतिकता की सीमा में धनार्जन), काम (नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए सुख सुविधाओं का उपभोग) और मोक्ष (अर्जित अतिरिक्त धन का परमार्थ हेतु उपयोग, जैसे टाटा, बिरला आदि अनेकानेक धनाढय करते हैं) के क्रमिक पुरुषार्थ मार्ग से भटक कर जिस किस तरीके से धन का अर्जन करना (अर्थ) और नैतिक अनैतिक को भुलाकर अच्छी-बुरी सुख सुविधाओं का भोगने, शराब, जुआ, नशा, स्वच्छन्द, यौनाचार (काम) में ही बुरी तरह जकड़ चुके हैं। बेटियां तक मां-बाप की हत्या कर डालती हैं, केवन धन हथियाने के लिए ही नहीं अपितु मोबाइल या छप्र प्रेमी के लिए भी। हमें कोई भान ही नहीं है, इन गंभीर आत्मघाती स्थितियों के विषय में चिन्ता कदापि नहीं है, इसे जमाने की दौड़ का सहज परिणाम मान कर चुप्पी साधे हुए हैं। हमें लगा ही नहीं कि इसके पीछे के क्या-क्या संभावित कारण हो सकते हैं। आखिर इस विषय में हमने क्यों नहीं सोचा? क्या हमें नहीं सोचना था? हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए, देर आयद दुरुस्त आयद।
हे राम ओह शिट हो गया, राम-राम हेलो हाय हो गया, आपकी मां मम्मी और माम तथा पिताजी डैडी और अब डैड हो चुके हैं। पूर्णतया वैज्ञानिक और स्वास्थ्यप्रद शौच पद्धति पूर्णतया अवैज्ञानिक कमोड़ के सम्मान में लुप्तप्राय हो चुकी है। दीप प्रज्ज्वलन के स्थान पर पवित्र अग्नि देवता को थूक मिश्रित फूंक मारकर अपशगुन को आमंत्रित किया जाना एक आंदोलन बन गया है। मटके का क्षारीय पानी आरो के जहरीले एसिडिक (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) पानी से डरकर भारतीय घरों से पलायन कर चुका है, अनेकानेक स्वास्थ्य लाभों से परिपूर्ण ताम्बे का पानी बेड टी के कारण आत्मघात कर चुका है। परम्पराओं, भाषा, भूषा और भोजनादि में अंग्रेजी सभ्यता के चलते जो बदलाव आएं हैं, वे स्वास्थ्य आदि के लिए बहुत नुकसानदायक है और रोगों के अंधेरे कुएं में हमें धकेल रहे हैं। तंग और खरदुरे वस्त्रें में हमारी त्वचा सांस नहीं ले पाती है, प्रत्येक एक वर्ग इंच त्वचा पर सीमा सुरक्षा दल के मुस्तैद सैनिकों की तरह करोड़ों मित्र सूक्ष्म जीवाणु होते हैं, वे नष्ट होने लगते हैं, परिणामतः त्वचा रोगों की बाढ़ आ गई है। खड़े-खड़े, जूते मौजे पहनकर, जल्दी-जल्दी भोजन करने से एसिडिटी, अपच, मोटापा, मधुमेह और यहां तक कि कैंसर की संभावनाएं अत्यधिक बढ़ जाती हैं और हम अनभिज्ञता में अनुसरण करते चले जा रहे हैं और तो और हमारे सदियों से सत्यापन की कसौटियों पर खरे उतर चुके घरेलू नुस्खों का परित्याग कर हमने बिना डाक्टरी पर्चे के मिलने वाली किडनी नाशक दवाओं का सेवन करने को आधुनिकता मानने लगे हैं।
संस्कृत, संस्कृत से उपजी भारतीय भाषाएं और मानवीयता एवं वसुधैव कुटुम्बकम् एवं मोदी जी
जिस संस्कृत की वैज्ञानिकता पर पाश्चात्य वैज्ञानिक और नासा अपने शोधों के निष्कर्ष से हतप्रभ और प्रफुल्लित होकर उसकी अनुशंसा कर रहे हैं। महान भाषावादी और अमेरिका में लिंगविस्टिक सोसाइटी के संस्थापक लियोनार्द ब्लूमफिलेड पाणिनि अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद कहा है कि ‘संस्कृत मानवीय बुद्धिमत्ता का महानतम मंदिर है। यूनेस्को ने माना है कि संस्कृत में जाप से मन और तन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उस संस्कृत की बेटियों (भारतीय भाषाओं) की वैज्ञानिकता, संवेदनाओं का वरदान देने वाली, बौद्धिक चेतना से सम्पन्न करने वाली क्षमताओं से अनभिज्ञता के साथ घर निकाला देने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं। हमें मालूम ही नहीं है कि युद्ध या एकाधिकार की आकांक्षा, परमाणु हथियारों की बाढ़, सबको पराजित और अधीन करने की उत्कट मनोकामना, भयावह हिंसा की स्वीकार्यता धन के लिए सब कुछ जायज मानने की उत्कट लालची वृति, अहंकार, मदान्धता, सभी को गुलाम बना देने की तीव्र और तानाशाह मानसिकता के सशक्तीकरण में कहीं न कहीं भाषा का भी हाथ हो सकता है। आखिर क्यों भारत की पुण्यभूमि पर जन्म लेने वाले हिन्दू अवतारों, जैन तीर्थंकरो, गौतम बुद्ध और उनके अनुयायी शासकों ने शक्ति सम्पन्नता के उपरान्त भी शान्ति, संतुष्टि, सरलता, सहजता, अहिंसा, जियो और जीने दो, सर्वे भवन्तु सुखिनः, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो जैसे जीवनदायी मंत्रें का उद्घोष कर उन्हें जीवन में अंगीकार किया है? कबीरदास जी, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी योगानन्द, जिद्दु कृष्णमूर्ति जैसे अनेकानेक लोगों की परंपरा है, जिन्होंने जीवन पर्यन्त देश विदेश में मानवता का दिव्य संदेश दिया। हिन्दी माध्यम से पढ़े बढ़े ओशों की बुद्धिमत्ता और आभामंडल से अमेरिका की सरकार तक भयभीत रहती थी, इन सभी बातों से यही ध्वनित होता है कि अंग्रेजी और बौद्धिक श्रेष्ठता का कोई स्थायी संबंध नहीं है। प्रश्न यह है कि आखिर क्यों मोदी जी जैसे सैन्य शक्ति से सम्पन्न तथा सशक्त शासक को विश्व के अधिसंख्य नागरिक विश्वशान्ति का अग्रदूत मान रहे हैं? मेरे अभिमत में इसमें संस्कृति के साथ-साथ संस्कृत से जन्मी भाषाओं का बहुत बड़ा हाथ है।
भारतीय भाषाओं का विज्ञान
नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर, नई दिल्ली की एक प्राथमिक रिसर्च, जो करेंट नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी कि संस्कृत से जन्मी भाषाओं और अंग्रेजी में मौलिक अन्तर होने से अंग्रेजी पढ़ने से मस्तिष्क का बायां गोलार्द्ध ही अधिक सक्रिय होता है, जो तर्क, गणित, खण्ड-खण्ड विश्लेषण आदि से जुड़ा है और दायां गोलार्द्ध करुणा, शान्ति, वात्सल्य, ममता, कला, संगीत, अखण्ड दृष्टि आदि से जुड़ा है। अमेरिका और ब्रिटेन की तरह भारत में भी तेजी से हो रहे पारिवारिक विखंडन और धन प्रधान मानसिकता की पृष्ठ भूमि में अंग्रेजी के हाथ को खोजा जाना चाहिए। स्कूलों में गर्भपात की समस्त सुविधाओं के उपरान्त भी हर वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन की लाखों कुंवारी किशोरी माताओं की भयावह बाढ़ के पीछे अर्थ और काम प्रधानवाली अंग्रेेजी भाषा की भूमिका पर शोध किए जाने चाहिए। भारतीय मानस या यूं कहें, आयुर्वेद हरेक व्यक्ति को प्रकृति के संदर्भ में एक पृथक व्यक्ति सत्ता मान कर उपचार और दिनचर्या निश्चित करता है और जबकि अंग्रेजी चिकित्सा विज्ञान एक देश के सभी व्यक्तियों को एक समान मशीन मानने का ज्ञान देता है, इसलिए रोग विशेष में सभी भारतीयों के लिए अधिकांशतः समान दवाएं प्रिस्क्राइब की जाती है, मात्र उम्र के साथ बदल जाती है। आपने यह भी देखा होगा कि एक पेट रोग या स्त्री रोग या नेत्र विशेषज्ञ साढ़े पांच वर्षीय पाठ्यक्रम (एम-बी-बी-एस-) में निष्णात होने उपरान्त भी रोगी के साधारण सर्दी बुखार के उपचार के लिए जनरल फिजिशयन के पास भेजता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक विकासशील देश के मध्यम वर्गीय या निम्नवर्गीय रोगी को अनेक विशेषज्ञों के बीच फुटबाल बनाकर उसकी आर्थिक स्थिति को गंभीर रूप से प्रभावित कर डालती है।
अस्तु, ज्ञान आयोग के बाल्यावस्था में ही अंग्रेजी थोपने के निर्णय ने तो पैदा होते ही मानो कुनैन की गोली को अनावश्यक रूप से जबरिया जीवन घुट्टी का नाम देकर बच्चों के मुंह में ठूंसने का बहुत बड़ा पराक्रम किया है।
हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा और हमारी गहन चिन्ता
चिकित्सा शिक्षा हिन्दी माध्यम से दिए जाने के निर्णय से हमें इस बात की तो गहन चिन्ता हो गई है कि हिन्दी पढ़कर निकले चिकित्सक विदेशी शोध पत्रिकाओं को कैसे पढ़ेंगे? परन्तु हमने आज तक यह पता नहीं किया कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ें कितने प्रतिशत भारतीय चिकित्सक देशी और विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के शोधों को पढ़ते हैं। मैंने लगभग ढाई दशकों तक सफलतापूर्वक डिस्पेंसिंग चिकित्सक के रूप में प्रैक्टिस की मुझे तो इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जो नगण्य चिकित्सक पढ़ते हैं, वे उन शोधों को अपनी प्रैक्टिसिंग लाइफ में कितना अपनाते हैं, यदि ऐसा शोध करेंगे तो वास्तविकता का अनुमान लग सकेगा।
विदेशों की चिंता में आकण्ठ डूबे हम लोगों ने यह भी कभी पता ही नहीं किया कि हमारे गांवों के नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं अथवा नहीं मिलती है या उन सुविधाओं का स्तर कैसा है। हमारे ग्रामीण परिवार इसी के चलते, शनैः-शनैः गांवों को छोड़कर शहरों की भीड़भाड़ भरी अपरिचित जिन्दगी में अपनी अस्मिता को तिरोहित करने को विवश हो चुके हैं। हमें अपने ग्रामीण नागरिकों की चिन्ता प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है, संभव है, यह भाषाई परिवर्तन गांवों के लिए भी वरदान सिद्ध हो।

आतंकित, उपेक्षित, निराश, हताश चिकित्सा विद्यार्थी और उनकी जिम्मेदारों द्वारा आपराधिक अनदेखी
दुःख इस बात का भी है कि हमें इस बात की कभी चिंता नहीं हुई है कि हिन्दी माध्यम से प्रवेशित कितने प्रतिशत मेडिकल स्टूडेंटस अंग्रेजी के आतंक से भयातुर होकर घर से दूर अपने बंद कमरों में अकेले क्रंदन करते रहते हैं और उनकी वाणी में अनायास उतर गई निराशा की अनुगूँज को मां-बाप पहचान लेते हैं और फिर वे माता-पिता कितने व्यथित, आक्रांत और आशंकाओं के समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं? काश! अपनी साढ़े तीन दशक की सेवावधि में एक आत्मीय मित्र की तरह देखें और अनुभव किए गए उन क्रन्दनों को एक छोटे तालाब में एकत्रित कर आपके दर्शनार्थ प्रदर्शित कर पाता। विश्वास कीजिए साहब, आपकी आत्मा बुरी तरह कांप जाती। वे तो हमारे अपने बेटे-बेटियां ही हैं, विदेशी या पराए नहीं हैं। उनकी हमने कभी चिन्ता नहीं की। हमें पैरों की आग नहीं दिखाई दे रही है, परन्तु पहाड़ों की आग की गहरी चिन्ता है। एक शोध करवाइए, कितने बच्चे पिछले चालीस वर्षो में प्रथम वर्ष में अंग्रेजी भाषा के कारण अनुत्तीर्ण हुए हैं और फिर पूरक परीक्षा में पहली बार में ही सफल हुए हैं। आपको पता चलेगा कि प्रवेश परीक्षा में शीर्ष सातवां-आठवां स्थान पानेेे वाले तक असफल हुए थे, अन्यों की कल्पना की जा सकती है। यह पता करवाना चाहिए कि कितने बच्चों ने एम-बी-बी-एस- का साढे़ पांच वर्षो का पाठयक्रम आठ दस पन्द्रह वर्षो में पूरा किया है? एक विद्यार्थी ने जब 21 वर्ष में प्रथम वर्ष उत्तीर्ण किया था तो उसकी जिजीविषा पर दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने बड़ी स्टोरी प्रकाशित की थी, जो मेरे पास है, शीर्षक था उन्होंने 21 वर्षो में पास की डाक्टरी की पहली सीढ़ी उसकी और उसके परिवार तथा उसके जैसे सैंकड़ों बच्चों की पीड़ा को किसी ने नहीं सुना, न सरकार ने, न कालेज ने, न अध्यापकों ने। चिकित्सा शिक्षा में अंग्रेजी भाषा की अपरिहार्यता अनिवार्यता ने नीति निर्धारकों, अध्यापकों आदि सभी को आत्म सम्मोहित कर रखा है।
समस्या का समाधान और मैडम बोस की दूरदृष्टि तथा शैक्षणिक उन्नयन की योजना
मेरी तत्कालीन हेड डॉ- सुखवंत बोस जो स्वामी विवेकानन्द की अनुयायी हैं ने ऐसे बच्चों के दर्द को समझा और मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके अभियान में साथ दूंगा? फिर हम दोनों ने ऐसे बच्चों के मनोबल को बढ़ाने का पराक्रम शुरू किया और हिंगलिश में सरलता के साथ वर्ष में केवल दो तीन दर्जन अतिरिक्त कक्षाओं के रूप में पढ़ाना शुरू किया। हम केवल एक विषय, फिजियोलॉजी ही पढ़ाते थे।
अन्य शिक्षकों को लगा कि कहीं सरकार हमें भी इस काम में नहीं लगा दे तो उस पुनीत कार्य को ट्विस्ट कर हमारी ऊपर तक शिकायत की गई, हमें अधिष्ठाता की बहुत डांट खानी पड़ी। क्लासेस बंद हो गई, बच्चे हतप्रभ और दुखी हुए। उनका आग्रह था कि क्लासेस फिर से शुरू की जाएं। डूबता व्यक्ति मिली हुई पतवार के छूट जाने पर, जितना व्याकुल और दुखी होता है, उतने वे हुए। फिर मैडम ने एक निर्विवाद वैधानिक रास्ता निकाला, फिर अभियान शुरू हुआ। जब क्लासेस शुरू की थी, तब हर साल 35 से 40 बच्चे असफल होते थे, चार-पांच वर्ष बाद सन् 2004 के परिणाम निकलें तो यह संख्या कम होते-होते छह रह गई थी।
हमने केवल फिजियोलॉजी पढ़ाया था, परन्तु जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारा कोई सहृदयी है?, सुहद है तो उनका मनोबल बढ़ा, आत्मविश्वास जागा और वे तीनों विषयों में बेहतर परफार्म करने में सक्षम हुए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था शिक्षा विद्यार्थियों के भीतर अन्तर्निहित प्रतिभा का प्रस्फुटन करती है। हमसे वही अनायास होता चला गया। और अब सरकार ने 2004 में प्रदेश के सभी मेडिकल कालेजों से पूछा कि विद्यार्थियों के उन्नयन के लिए आपके संस्थान में क्या क्या नवाचार हो रहे हैं, तो अधिष्ठाता ने मैडम और मेरे इस नवाचार को कालेज की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया था।
मैडम के सेवानिवृत होते ही, जून 2005 के उपरान्त वह कार्य बंद हो गया। परन्तु तब से 2019 तक के ऐसे सभी बच्चों का ईश्वर ने मुझे स्थायी और विश्वसनीय मित्र बना दिया था, मैं संयोगवश स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी का निरन्तर पदाधिकारी भी रहा। बस, उनको यह विश्वास दिला देता था कि चिन्ता मत करो मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, सभी विद्यार्थियों के लिए मैं 24ग्7 उपलब्ध था। हिन्दी बहुल अंग्रेजी में पढ़ाना मेरी दैनिकचर्या हो गयी, मैंने अतिरिक्त क्लासेस के लिए विभागाध्यक्षों और अधिष्ठाताओं से अनुमति हेतु पत्र भी लिखे।
यह भी शोध किया जाना चाहिए कि विभिन्न मेडिकल कालेजों में कितने बच्चों ने इस थोपी गई अंग्रेजी के कारण निराशा, अवसाद और नशे को अपना स्थायी साथी बनाया और कितने विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। दो तीन बच्चों को तो आत्मघात से बचाने के लिए ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया है। मैंने मैडम के द्वारा किए गए पराक्रम के अनुभवों के आधार पर हिन्दी माध्यम और आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों और सकल चिकित्सा शिक्षा के उन्नयन की शून्य बजट प्रभार की सार्थक योजना को कागजों पर उतारा और अनेक चिकित्सकों, शिक्षाविद्ों आदि से उस पर टिप्पणी चाही, सभी टिप्पणियां सकारात्मक व सराहनाओं से परिपूर्ण थी।
उस योजना को, विद्वानों की टिप्पणियों के साथ मैंने 2009 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद को प्रेषित किया था। तीन जुलाई 2009 को उनका पत्र आया कि मैं इसे दिखवा रहा हूं। फिर उस योजना को अधिष्ठाता, मेडिकल, कालेज, जबलपुर को दिखाया और उनसे चर्चा की। सहमत और कन्विंस होने पर उन्होंने अपनी अनुशंसा के साथ शासन को भेजा। मैं इस योजना के क्रियान्वयन हेतु एक दिन भोपाल में चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव श्री इन्द्रनील शंकर दानी सर से मिला। उन्होंने पर्याप्त समय दिया और सभी मेडिकल कालेजों को उसे क्रियान्वित करने के लिखित निर्देश दिए। यह फरवरी 2012 की बात है। उस आदेश को लालफीताशाही समूचा निगल गई।
फिर एक दो वर्ष बाद मैं तत्कालीन अपर मुख्य सचिव श्री अजय तिर्की सर से मिला। उन्होंने इस योजना के परिणामों का आकलन कर शून्य बजट के स्थान पर धन राशि भी आबण्टित की और सभी मेडिकल कालेजों को बजट के साथ उस योजना को क्रियान्वित करने के निर्देश दिए, मेरे इंकार करने उपरान्त भी मुझे और एक सह प्राध्यापक को उसका प्रभारी बनाया गया। दुर्भाग्य देखिए कि विभागाध्यक्षों के अहंकार, हठधर्मिता और स्वयं को सुपीरियर एवं मठाधीश मानने की जिद ने अपर मुख्य सचिव के आदेश और बजट को निरर्थक सिद्ध कर दिया। तब समझ में आया कि भ्ाारत में स्टेटसको तथा व्यक्तिगत अहंकार तो अमर जड़ी खाकर आए हैं।
हताशा, निराशा और
अंग्रेजी माध्यम
अस्तु, हिन्दी भाषा की आवश्यकता को निरूपित करने हेतु, एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा, एक सामान्य श्रेणी की छात्र अपने अभिभावकों के साथ मैडम बोस से मिली, जो फिजियोलॉजी की हेड होने के साथ-साथ विद्यार्थी शाखा समिति की प्रमुख भी थी और मैं उनकी समिति का सदस्य। वे अपनी बेटी को कालेज से निकालना चाहते थे, और तत्काल ही कालेज लीविंग सर्टिफिकेट (सीएलसी) चाहते थे, क्योंकि वह अंग्रेजी के कारण निराशा और हताशा की शिकार हो चुकी थी, आत्मविश्वास खो चुकी थी। तात्कालिक व्यस्तता के चलते मैडम ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने बहुत समझाया, परन्तु तीनों अड़े रहे। मैंने उस छात्र से यही कहा कि बेटी! कठिन प्रतिस्पर्धा के बाद तेरा प्रदेश के सबसे अच्छे कालेज में एडमिशन हुआ है, इसका अर्थ यही है कि तू सर्वथा योग्य है। जब तेरे जैसे और तुझसे कमतर विद्यार्थी कालेज छोड़ने की नहीं सोच रहे हैं तो तू क्यों हताश होती है? वे किसी साइंस कालेज में एडमिशन की प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी कर चुके थे, सीएलसी जमा करने की समय सीमा निकट थी।
परन्तु मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि आठ दिन बाद यदि इसकी यही मंशा रही तो मैं एक ही दिन में इसका काम करवा दूंगा। मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि बेटी! तू आठ दिनों में सोच ले कि तुझे डाक्टर बनने का सपना छोड़ देना चाहिए या नहीं छोड़ना चाहिए। तीनों मेरी इस हरकत को तानाशाही निरूपित करते हुए बहुत अप्रसन्न हुए, उनके अधिकारों पर मेरी मनमानी को अवैध बताया, उन्हें यह लग रहा था कि उसका साइंस कालेज का एडमिशन निरस्त हो जाएगा, तो मैंने उनसे कहा कि मैं निरस्त नहीं होने दूंगा, संबंधितों से मैं चर्चा करूंगा। अत्यधिक क्रोध परन्तु असहाय भाव के साथ वे चले गए।
कुछ दिनों बाद वह बिटिया चुपचाप कालेज आने लगी और वातावरण से समरस और सहज हो गई। और जब उसे फाइनल इयर में गायनी विषय में गोल्ड मैडल मिला तो मेरे कक्ष में आई और बोली सर, आपके आशीर्वाद से मुझे यह उपलब्धि हुई है। ऐसे तमाम अनुभवों के आधार पर, मैंने एनएमसी को कई बार लिखा है कि न केवल फर्स्ट इयर के विद्यार्थियों के लिए बल्कि सभी के लिए सप्ताह में एक बार मेडिकल कालेज में ही मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी को बिठाया जाना चाहिए और स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी वास्तविक रूप में (कागजी तो सभी दूर है) अस्तित्व में होना चाहिए।
गलती और अनदेखी एमसीआई और व्यवस्था की तथा शिक्षकों की और दण्ड विद्यार्थियों को तथा रिपीटर बैच को
एमसीआई के नियम चीख-चीख कर कहते हैं कि प्रथम वर्ष में जो विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो जाएं, उन्हें कभी भी अपनी मुख्य बैच (मुख्यधारा) में सम्मिलित नहीं किया जाएगा। यानि कथित गुणवत्ता की आड़ में उनका एक वर्ष तो बर्बाद करना ही, साथ ही साथ उनके अपने सहपाठियों से विलग कर उनकी मानसिकता को कुण्ठित करना भी परोक्ष दायित्व इस नियंता संस्था ने बड़ी मुस्तैदी से संभाल रखा था, इसके विरुद्ध कोर्ट केस लगवाया तो एमसीआई ने पूरी ताकत झोंक दी थी। इस संस्था ने कभी स्वयं से यह प्रश्न नहीं किया कि आखिर प्रतिभा संपन्न बच्चे असफल क्यों होते हैं और उसका समाधान कैसे किया जा सकता है? अफसोस और धिक्कार है कि ऐसी संवेदनशून्य और विद्यार्थियों के प्रति उपेक्षा का स्थायी भाव रखने वाली संस्थाएं देश में मेडिकल एजुकेशन की उच्चतर गुणवत्ता के लिए दायित्व को सगर्व धारण करती हैं। मैंने मेडिकल कालेज, इंदौर के लगभग पांच सौ पृष्ठों के ऐतिहासिक दस्तावेज शाश्वत गाथा में रिपीटर्स की आत्मकथा पर पांच पृष्ठ के आलेख और समाधान लिखे थे। मेरा निवेदन है कि ऐसी संवेदनशून्य संस्थाओं पर हम सभी लोग प्रश्न उठाएं। मेरा कंसर्न यह है कि क्या ऐसी नियंता संस्थाएं विद्यार्थियों के साथ असंवेदनशील व्यवहार और परोक्ष शोषण कर आम नागरिकों के निर्विवाद हितैषी तथा संवेदनाओं से भरे चिकित्सकों की जेनरेशन का निर्माण कर सकेंगी? विचारणीय है।
वास्तव में रिपीटर बैच हिन्दी माध्यम के बच्चों के माथे पर सदा के लिए उकेरा (इम्बोज किया) गया कलंक है और मैं बाइस वर्षो से पत्र लिखता रहा हूं, पत्रकार मित्रें के सहयोग से समय-समय पर समस्या और समाधान पर बड़ी-बड़ी स्टोरी लिखता-लिखवाता रहा हूं ताकि अंग्रेजी के आतंक के कारण असफल हुए विद्यार्थियों को उनकी अपनी मुख्य बैच से अलग नहीं किया जाए और उन्हें विशेष कोचिंग देकर दो माह में पूरक परीक्षा लेकर फिर से मुख्यधारा में जोड़ लिया जाए। मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर के यशस्वी कुलपति डॉ- आर-एस-शर्मा साहब ने मेरे निवेदन को समझा और दो दशक बाद, 2018 में मध्य प्रदेश में रिपीटर बैच की कलंकित प्रथा को समाप्त कर दिया। और मुझे ज्ञान हुआ है कि मेरे पत्रें पर संज्ञान लेकर दशकों तक विद्यार्थियों के साथ अन्याय करने के उपरान्त, इस वर्ष से एनएमसी ने अपनी हठधर्मिता का त्याग किया है। डॉ- शर्मा साहब ने मेरे सुझाव पर उन्होंने विद्यार्थियों को वार्षिक परीक्षाओं में हिंगलिश में उत्तर लिखने की अनुमति के लिखित आदेश भी दिए, जिसके परिणाम सिग्रीफिकेंट रूप से सुखद रहे थे।
मैंने शोध प्रबन्ध हिन्दी में इसलिए प्रस्तुत किया
विभागीय परीक्षाओं में लिखे, हिन्दी माध्यम से आए बच्चों के उत्तर, स्पेलिंग और वाक्य रचना शिक्षकों के लिए उपहास का विषय हुआ करती थी, कई बार उन्हें क्लास में उत्तर पुस्तिका दिखाकर मखौल का शिकार भी बनाया जाता था। मुझे बुरा लगता था, क्याेंकि मैंने पढ़ाते समय हमेशा स्वयं को विद्यार्थियों के बीच एक छात्र के रूप बैठे देखा है, तो मुझे लगता था कि यह मेरा ही अपमान है। एक वरिष्ठ साथी समझ जाते थे कि भण्डारी को बुरा लग रहा है। तब अचानक एक दिन मस्तिष्क में विचार कौंधा और मैंने देशभर के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने का सुनिश्चित किया। हिन्दी में भी चिकित्सा विज्ञान लिखा जा सकता है, यह सिद्ध करने के लिए अंग्रेजी में तैयार हो चुकी अपनी शोध पांडुलिपियों के भाषान्तरण की ठान ली और इस तरह मैं मध्य प्रदेश का हिन्दी में अपने स्नातकोत्तर अध्ययन का शोध प्रबन्ध हिन्दी (1992) में प्रस्तुत करने वाला पहला चिकित्सक बना। उस दौर में मेरा बहुत मजाक बनाया जाता था, मेरे मनोबल को तोड़ने के भरसक प्रयास भी परोक्ष रूप से भी हुए। मुझे स्वामी विवेकानन्द जी का वह वाक्य स्मरण हो आता था कि दुनिया क्या कहेगी, हंसेगी, उसे हंसने दो। बस मैं अपने निर्णय से डिगा नहीं। ईश्वर मेरे साथ थे, हिन्दी माता मेरे साथ खड़ी थी।
अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता से दुखी और निराश विद्यार्थियाें के हितार्थ मांग तो यह उठाई जानी चाहिए थी कि हिन्दी माध्यम से आने वाले बच्चों को अंग्रेजी के आतंक से आतंकित नहीं होने देंगे और उन्हें अंग्रेजी का आवश्यक ज्ञान देने की मांग करेंगे। परन्तु आज तक किसी उपदेशक ने ऐसा नहीं किया, फेसबुक और अन्यायन्य सभी माध्यमों पर हम हिन्दी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा के शुभारंभ पर प्रश्न तो उठा रहे हैं, परन्तु मूल समस्या का हमने अनुमान ही नहीं किया और समाधान का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
और तो और, न तो सरकारी तंत्र ने, न ही शिक्षकों ने उन बच्चों के अंतस में झांकने का प्रयास किया। और न ही मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया ने और न विश्वविद्यालयों ने।
सकारात्मक सोचिए, हिन्दी समर्थ भाषा है
हम सबको सकारात्मक सोचना चाहिए, बड़ा सोचना चाहिए, हिन्दी के परम वैभव की कल्पना कर तदर्थ रणनीति बनाने का दायित्व हम पर है। हिन्दी आएगी, ज्ञानार्जन अधिक सरलता से और बेहतर होगा, ज्ञान अधिक क्षमता से आत्मसात होगा। हिन्दी भाषा से हमारे भावी चिकित्सकों में तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, निर्णय क्षमता, रोग निदान की श्रेष्ठता का आविर्भाव सहजता से होगा। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पिता के नाम से प्रसिद्ध डॉ- विलियम ओस्लर ने कहा था कि चिकित्सा पद्धतियों का आविष्कार एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य की पीड़ाओं को हरने की संवेदना से भरपूर प्रबल इच्छा के कारण होता है। बौद्धिक क्षमता का विकास अंग्रेजी से ही हो सकेगा, यह भ्रान्त धारणा है, यह तो हर विद्यार्थी की अपनी नैसर्गिक सम्पदा होती है, जिसे थोपी जा रही अंग्रेजी नष्ट कर दिया करती रही है।
भारत संवेदनाओं की भूमि है, आप मानें या न मानें अंग्रेजी और अंग्रेजी के साथ सहज रूप से आ रही परिस्थितियां मानवीय संवेदनाओं के विकास की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं है और एक चिकित्सक की संवेदनाओं का पूर्ण विकास अत्यावश्यक है, अपरिहार्य है, अनिवार्य है। जिस भाषा में वे सपने देखते हैं, विचार करते हैं, उस भाषा में पढ़ायेंगे तो वे ज्ञान को समग्रता से आत्मसात करेंगे, चिकित्सा विज्ञान के जटिल सिद्धांतों को पूर्णता के साथ ग्रहण करेंगे। भाषा परस्पर संवाद का माध्यम है और भारत के अधिकांश क्षेत्रें में हिन्दी समझी जा सकती है और रोगी से संवाद उसकी अपनी भाषा में सहजता से होता है तो उससे एक आत्मीयता का भाव रोगी में उत्पन्न हो जाता है। वैसे भी जब डाक्टर की देश के अहिन्दी भाषी क्षेत्रें में पोस्टिंग होती है तो वहां की स्थानीय भाषा तो पहले भी डाक्टर सीखते ही रहे हैं, अभी भी सीखेंगे ही। चिकित्सा के व्यवसाय में रोगी और डाक्टर के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता सदैव ही जीवन्त रहना अपरिहार्य है, क्योंकि इस विश्वास के रिश्ते के कारण अथर्ववेद वर्णित आश्वासन चिकित्सा (एश्योरेंस) प्रभावी हो जाती है, जो दुसाध्य रोगों में भी लाभदायक सिद्ध होती है, पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने सत्यापित किया है और इसी तरह सकारात्मक सोच उत्पन्न होने के कारण डॉ- ब्रूस लिप्टन के शोध के तहत रोगी तीव्र गति से स्वस्थ होने लगता है। हिन्दी माध्यम के कारण रोगी को उसके रोग और उपचार आदि के विषय में उसकी अपनी भाषा में समझाना भी चिकित्सक के लिए सहज होगा।
दुर्भाग्य देखिए कि आज चिकित्सक पर रोगियों का भरोसा नहीं रहा है, उसे जांचों और दवाओं में भी डाक्टर के कमीशन की आशंका होने लगी है। इसके पीछे के कारणों की मीमांसा होना चाहिए।
अरे बाप रे! स्वतंत्रता के 75 वर्षो उपरान्त हिन्दी में पुस्तकें
अस्तु, कल जब एल्सिवियर प्रकाशन की हिन्दी में तैयार पुस्तकों का विमोचन होने वाला था, तब किसी व्यक्ति ने अमेरिका स्थित मूल प्रकाशक को 30-40 हजार बच्चों की भीड़ और विशाल मंच और अन्य सभी आकर्षक तथा भव्य व्यवस्थाओं का वीडियो भेजा, तो उसने पूछा कि यह क्या हो रहा है, तो बताया गया कि पुस्तकों का लोकार्पण हो रहा है। वह हतप्रभ था कि इतनी छोटी सी बात के लिए कार्यक्रम की क्या आवश्यकता है। तब उन्हें बताया गया कि भारत में स्वतंत्रता के बाद पहली बार हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें उपलब्ध होंगी और शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने वाला है तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि क्या अभी तक चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थीं। मित्रें! यह प्रतिष्ठित प्रकाशन चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें विश्व की 31 भाषाओं में उपलब्ध करवाता है और दुर्भाग्य देखिए कि उन 31 भाषाओं में विश्वगुरु भारत की कोई भी भाषा सम्मिलित नहीं है, क्या अब भी हमें किन्तु परन्तु करने का अधिकार है।
हिन्दी, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठतम सिद्ध होगी, प्रतीक्षा तो कीजिए
मित्रें! 74 वर्षों तक अंग्रेजी को आजमाया है, आने वाले पन्द्रह बीस सालों तक माता हिन्दी या भारतीय भाषाओं को भी आजमा लीजिए और लिखकर रख लीजिए कि विश्व के सबसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली तथा अंग्रेजी मातृभाषा वाले देशों के विद्यार्थी भारत में हिन्दी माध्यम के एम-बी-बी-एस कोर्स और आयुर्वेद कोर्स में पढ़ने आएंगे और हिन्दी विश्व के एकीकरण की भाषा होगी। डंके की चोट, मेरा यह दावा है, यह मेरा अनुमान है। हिन्दी भाषा के पास 35 लाख शब्द हैं और अंग्रेजी के पास 50 हजार शब्द ही हैं और हम तकनीकी शब्दों को जस का तस स्वीकार लेंगे या नए शब्द गढ़ लेंगे, नए शब्द गढ़ने का समय आ गया है।
गांवों की प्रदूषणरहित मानसिकता और वायुमंडल में जन्मे विद्यार्थी जब हिन्दी माता की संवेदनशील गोद में बैठकर मेडिकल की पढ़ाई करेंगे तो परिदृश्य अनूठा होगा और पुनः भारतीय ट्टषि मुनियों की वैज्ञानिक परम्पराओं का उदय होगा। अभी तो केवल आस्टेªलिया के सर्जन्स कालेज के मुख्य प्रांगण में विश्व के पहले शल्य चिकित्सक के रूप में महर्षि सुश्रुत विराजमान हैं, कालान्तर में विश्व भर में भगवान धन्वन्तरि की पूजा होगी, अभी तो केवल भारतीय दिनचर्या और अथर्ववेद की आश्वासन चिकित्सा, ट्टग्वेद की स्पर्श चिकित्सा और मन्त्र चिकित्सा को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने विज्ञान का परिधान पहनाया है। वन स्नान या वायु चिकित्सा अभी तक केवल जापान और अमेरिका में अपनाई जा रही है, इनका भी वैश्वीकरण होगा। अग्निहोत्र चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा, जल चिकित्सा, आस्था चिकित्सा, प्रार्थना, सकारात्मक सोच की चिकित्सा, संगीत चिकित्सा भी अमेरिका और कुछ देशों के अतिरिक्त अन्य देशों में भी अपनी कृपा का आंचल पसारेंगी।
अनुदित पुस्तकों की गुणवत्ता की चिन्ता मत कीजिए
इन अनुदित पुस्तकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए जाने लगे हैं, मुझे अच्छी तरह याद है, मैं साईकिल सीखते समय पचीसों बार घुटनों को जख्मी कर चुका था, परन्तु घर के बड़ों ने यह नहीं कहा कि तेरी साइकिल चलाने की क्वालिटी घटिया है और अब तू भूलकर भी साईकिल को हाथ मत लगाना। कुछ दिनों बाद मैं बिना हैंडल पकड़े तीन किलोमीटर तक साईकिल चलाने में निष्णात हो गया था। ये पुस्तकें सुधार के अनेक दौर पार करते हुए, विश्व के कोने-कोने में पढ़ी जाएंगी, इतना मैं मुझे आश्वस्त हूं और आप सभी इस अतिश्योकित पूर्ण निराधार घोषणा को सत्यापित होते हुए देखेंगे। संक्रमण काल या शैशवावस्था को बीत जाने दीजिए, बच्चा पहले लुढ़कना सीखता, फिर घुटनों के बल चलना, फिर डगमगाते हुए खड़े होना, और फिर सहारे से चलना और फिर दौड़ना भी सीख ही लेता है।
आचार्य श्री और सुदर्शन जी का आशीर्वाद
जून 2004 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख माननीय सुदर्शन जी ने मेरे पत्र के उत्तर में लिखा था कि ‘चिकित्सा शास्त्र के भारतीयकरण के लिए तुम्हारे जो प्रयास हो रहे हैं, वे योग्य दिशा में चल रहे हैं और हम सबको आनन्द देने वाले हैं। हिन्दी माध्यम का चिकित्सा महाविद्यालय प्रारंभ होे यह मेरी बहुत दिनों की आतंरिक इच्छा रही है। बल्कि भाजपा की सरकार के मंत्रियों को भी यह सलाह अनेक वर्षो से देता रहा हूं।’
मई 2014 में माता नर्मदा के किनारे, नेमावर में प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने मुझे व्यक्तिगत आशीर्वाद दिया था कि निःस्वार्थ भाव से चिकित्सा शिक्षा हिन्दी में दिए जाने के लिए प्रयास करते रहो, सफलता मिलेगी।
शायद, आचार्यश्री का आशीर्वाद मोदी जी के मन मस्तिष्क से निकलकर व्यापक हुआ है। मेरा योगदान श्रीरामसेतु के निर्माण में गिलहरी के योगदान से भी अत्यधिक कम है। मैंने जो भी किया है, वह एक निमित्त भाव से किया है या यह कहना अधिक सत्य होगा कि मैं उनकी कठपुतली रहा हूं। मैं इसका तनिक भी श्रेय लेने का अधिकारी और आकांक्षी नहीं हूं।
निश्चिन्त रहें, हिन्दी माध्यम के चिकित्सकों की अंग्रेजी भी श्रेष्ठ होगी
यह तथ्य भी बताना चाहता हूं कि भाषाविद्, देश के प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट, बेस्ट मेडिकल टीचर अवार्ड से अलंकृत पप्रश्री डॉ- अशोक पनगढ़िया ने लिखा था कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा में निष्णात होता है, वह दूसरी भाषा को सरलता से सीख सकता है। धर्मपीठ विज्ञान महाविद्यालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह पर भारत रत्न डॉ- ए-पी-जे- अब्दुल साहब शिक्षकों को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘बच्चों को गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। इससे वे उस ज्ञान को समग्रता से आत्मसात कर सकें और अंग्रेजी तो वे बाद में पिकअप कर लेंगे, जैसे मैंने की है।’
मित्रें! हिन्दी में शिक्षित-दीक्षित चिकित्सकों की अंग्रेजी की चिन्ता करने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है, क्योंकि पूरे साढ़े पांच वर्ष तक वे उन चिकित्सकों के शिष्य रहेंगे, जिनकी जिह्वा पर अंग्रेजी सहज रूप से विराजमान है और डरने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वतः भी प्रयास करेंगे ही, रिसर्च पेपर जर्नल्स में भेजेंगे तब भी अंग्रेजी में ही तैयार करेंगे। अन्यथा रेपिडेक्स इंग्लिश क्लासेस हैं ही, महीने भर में अमेरिका में भाषण देने योग्य हो जाएंगे।
हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा, चन्द ऐतिहासिक तथ्य
हिन्दी प्रेमियों के आंदोलनों के कारण दिसंबर 1988 में तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमण ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रलय को हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा हेतु निर्देशित किया था। नवम्बर 1989 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रलय ने सभी हिन्दी प्रदेशों की सरकारों को इस विषय में कार्य योजना बनाने के निर्देश दिए थे। भारत सरकार द्वारा प्रोफेसर मुकुलचंद्र पाण्डेय की अध्यक्षता में गठित चिकित्सा शिक्षा समिति ने दिसंबर 1990 को प्रस्तुत अपनी 153 पृष्ठीय रिपोर्ट में चिकित्सा शिक्षा और पैरामेडिकल शिक्षा हिन्दी में किये जाने की अनुशंसा की थी।
हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा और मोदी जी
गांधी जी और मोदी जी के समान दृढ़ इच्छा के अभाव में उक्त सारे आदेश और रिपोर्ट काल के गाल में समा गए थे और आज मोदी जी ने अपनी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस कालजयी इतिहास का शुभारंभ किया है, हम नतमस्तक हैं। प्रदेश के मुखिया श्री शिवराज सिंह जी चौहान और चिकित्सा शिक्षा मंत्री श्री विश्वास जी सारंग को भी आभार नमन करता हूं।
मित्रे! यदि इन समस्त तथ्यों के उपरान्त भी आपकी कोई जिज्ञासा रह जाती है तो मुझे सूचित कीजिएगा, मैं आपकी जिज्ञासा का उत्तर देने का प्रयास समग्रता से करूंगा, हालांकि मैं अल्पबुद्धि भी हूं। अस्तु, इस लम्बे आलेखनुमा समाधान पत्र में जो भी लिखा है, हिन्दी माता के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धायुक्त पुष्पांजलि है।
प्रार्थना करिए कि हम विश्व गुरु बनें। प्रार्थना करिए कि हमारे देश के बच्चे अंग्रेजी के आतंक से आत्मघाती नहीं बनें। भारतीय भाषाओं के विरुद्ध चल रहे कुत्सित प्रयासों को अपदस्थ करने में योगदान दीजिए, सक्रिय भागीदारी कीजिए।
मोदी जी का दिव्य संदेश और सबकी सहभागिता से देश का विकास
मेरे व्यक्तिगत अभिमत में चिकित्सा शिक्षा जैसे जटिल विज्ञान को हिन्दी में प्रस्तुत करवा कर मोदी जी ने देशभर के समस्त शिक्षाविदों और शिक्षण संस्थानों को स्पष्ट रूप से यह संदेश और संकेत दे दिया है कि हिन्दी (भारतीय भाषाओं) का ध्वज यदि हिमालय पर फहराया जा सकता है तो इंजीनियरिंग आदि तथा केजी, नर्सरी, विभिन्न स्तर की शालाओं में अंग्रेजी के साम्राज्य को देश की 140 करोड़ जनता के हित में ध्वस्त कर दिया जाएगा। भविष्य में किसानों अथवा हिन्दी अथवा स्वभाषा में कम पढ़े लिखे नागरिकों के नवाचारों और आविष्कारों को भाषाई कारणों से उपेक्षा और गुमनामी में नहीं जाने दिया जाएगा, देश के विकास में सौ प्रतिशत नागरिकों का योगदान सुनिश्चित किया जाएगा। हमारे कुटीर उद्योग फिर से जीवित होंगे, शहरों में धक्के खा रहे ग्रामीण पुनः गांवों की तरफ लौटेंगे। अकल्पनीय बदलाव के साक्षी हम सब बनेंगे। मोदी जी का यह सुचिन्तित निर्णय परिवर्तन की धुरी बनेगा।
जय हिन्दी, जय भारत, जय हिन्दी,
वन्देमातरम्

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