आजादी के बाद उन काले अंग्रेजों को क्या कहा जाए
जो तिरंगे के नीचे खड़े होकर राष्ट्र के प्रति पूर्ण ईमानदारी,
निष्ठा और समर्पण की कसमें और संकल्प दोहराते हैं और
देश से खरबों की दौलत लूटकर विदेशी बैंकों में भरते हैं।
लेख सुरेश चन्द्र कुशवाहा ‘कुमार कुश’
एक समय था जब 20-25 करोड़ की आबादी वाले एक देश को 20-25 हजार भ्रष्ट और दमनकारी अंग्रेजों ने गुलाम बना लिया था क्योंकि हमारे बीच से ही बहुत सारे लोग उनके समर्थक और पोषक थे। यहां तक कि अंग्रेजी सैन्य दस्तों में अस्सी फीसदी भारतीय यानि चार भारतीयों पर मात्र एक अंग्रेज था जिसको कहीं भी कैसे भी ढेर किया जा सकता था, पर नहीं क्योंकि हमारी आत्मा और प्रेम की असीमित शक्ति अंग्रेजों की भौतिक शक्ति के समक्ष कमजोर पड़ गई थी। भौतिकवाद के अंधकुंआ में हीन भावनाग्रस्त होकर संकीर्णता, लोभ, मोह और स्वार्थ लिप्सा में डूबे हम स्वयं अपने गुलाम हो गये थे। उत्थान और पतन प्रकृति का सारस्वत नियम है और जिस अंग्रेजी राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, वह अपने ही कुचक्रों से पुनः सिमट कर सिर्फ अपनी धरती तक सीमित रह गया। भारत भी आजाद हुआ, पर मात्र भूरे अंग्रेजों से। भारत को पता नहीं था कि उसके अंदर भी कोई इंडिया रूपी दैत्य पैदा हो चुका है जो अंग्रेजों के जाने के बाद उनके काम की बागडोर अपने हाथ में संभाल लेगा। कहते हुए भी शर्म आती है कि आज सवा अरब आबादी वाले उसी देश को पुनः उसी देश के मात्र चार पांच फीसदी लोग गुलाम बनाए हुए हैं। ये चार-पांच फीसदी लोग देश की इतनी विपुल जनता और उसके संविधान से ऊपर हैं तभी तो 6-7 दशक से दोनों को ठेंगा दिखाते हुए निर्भय और निरंकुश होकर ठाठ से शासन कर रहे हैं।
अकूत काला धन
अंग्रेजों के बारे में कहा जाता है कि वे इस देश से विपुल धन-सम्पदा लूट कर ले गये हैं तो इसमें उनका क्या दोष है। आखिर उन्होंने यही किया जो उस स्थिति में हर कोई करता। अंग्रेज इस देश में व्यापार यानि धन कमाने की नियति से आए थे और हमारी कमजोरी देखकर यहां के शासक बन बैठे, पर शासक बनकर क्या उनके अंदर का व्यापारी मर गया था? नहीं, बल्कि वह और अधिक बलवती हो गया था। फलस्वरूप उन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिये था, पर आजादी के बाद उन काले अंग्रेजों को क्या कहा जाए जो तिरंगे के नीचे खड़े होकर नित्यप्रति राष्ट्र के प्रति पूर्ण ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण की कसमें और संकल्प दोहराते हैं और देश से खरबों की दौलत लूटकर विदेशी बैंकों में भरते हैं तथा इसका विरोध करने वालों का दमन करते हैं। अंग्रेजों ने तो पराई धरती को लूटकर अपने देश को मालामाल किया पर ये काले अंग्रेज तो अपने देश को लूट कर पराए देश को मालामाल करने के कारण दोहरे अपराध के दोषी हैं। कहा जा रहा है कि विदेशी बैंकों में जमा यह काला धन इतना अधिक है कि इससे देश का सारा कर्ज उतरने के बाद भी इतना बच जाएगा कि देश आर्थिक रूप से मजबूत ही नहीं विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बन जाएगा।
वेतनवृद्धि भ्रष्टाचार निवारण
का मंत्र नहीं
कहावत है कि बुभुक्षिताम किम न करोति पुंसाम’ यानि भूखा क्या नहीं कर सकता। एक भूखा डरते कांपते आपराधिक भावना से रोटी चुरा सकता है, पर एक भरा पेट निर्भयतापूर्वक गोदाम का गोदाम भी चुराकर ले जा सकता है। वस्तुतः आज यही हो रहा है। देश के 90 प्रतिशत कृषक मजदूरों की तुलना में राजनेताओं तथा लोकसेवकों की शुद्ध आय यानि वेतन भत्तो, सेवा, हितलाभों तथा सुख सुविधाओं को देखते हुए कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वे भ्रष्टाचार करेंगे पर छठवें वेतन आयोग के बाद देशव्यापी अतिशय वेतनवृद्धि के बाद भी भ्रष्टाचार में कोई कमी परिलक्षित न होना इस बात का परिचायक है कि मात्र वेतनवृद्धि भ्रष्टाचार निवारण का मंत्र नहीं है। होना तो यह चाहिये था कि वेतनवृद्धि के साथ लोकसेवकों के लिये उत्तरदायित्व, जवाबदेही, दंड तथा क्षतिपूर्ति के सख्त प्राविधान होते और यहां तक कि नौकरी जाने कुर्की तथा जेल का सम्यक भय भी होता। रोजी रोटी के लिये प्राप्त सरकारी नौकरी मोटी कोठी के स्वप्न में तबदील हो रही है। आर्थिक स्थिति और सुख सुविधाओं की दृष्टि से एक चपरासी बड़े किसान से भी बेहतर है और यही वजह है कि एक किसान अपना सब कुछ बेचकर भी अपने लाडले को सरकारी नौकरी दिलाना चाहता है। कृषक खेती किसानी से पलायन कर रहे हैं। सिविल सेवाओं की चमक-दमक देखकर हमारी फौजों को या तो अधिकारी नहीं मिल रहे हैं या फिर अधिकारी शॉर्ट कमीशन लेकर सिविल सेवाओं में आ रहे हैं। जय जवान, जय किसान का नारा देने वाले देश में जवान और किसान दोनों ही के साथ छल किया जा रहा है। क्या हम अपनी फौजों को कमजोर देखना चाहेंगे, क्या हम चाहेंगे कि हमारे किसान भी सुविधाभोगी तथा भोग विलासी होकर आलसी, निकम्मे और कामचोर हो जाएं और देश को पुनः भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दें।
असली भारत के
साथ छल
देश के विकास की सम्यक जानकारी करने तथा तदनुसार विकास का भावी मॉडल तैयार करने हेतु देशव्यापी सैम्पल सर्वे कराए जाते हैं जिनमें कुछ समृद्ध और विकसित क्षेत्रें को सर्वे हेतु चुनकर इंडिया की तस्वीर प्रस्तुत कर असली भारत के साथ छल किया जाता है और विश्व व्यापी वाहवाही लूटकर अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से भारी भरकम कर्ज ले लिया जाता है जिसकी दम पर देश का भावी मॉडल तैयार कर पुनः वही प्रक्रम दोहराया जाता है। विकास का आधार विकास कार्यो की ग्राह्यता, मात्र तथा गुणवत्ता कम विकास निधियों का खर्च ज्यादा होता है। इस हेतु विकास निधियों के खर्च का लक्ष्य तय किया जाता है जिसके वित्तीय वर्ष के समाप्ति की ओर बढ़ते आनन-फानन में कागजी विकास दिखाकर जमा खर्च का लेखा जोखा प्रस्तुत कर दिया जाता है।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश व्यापी चिंता, बहस और आंदोलन
सबको सम्यक रोजी रोटी पाने का संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। पर रोजगार या काम किसी व्यक्ति, परिवार, समाज तथा संस्था के नैसर्गिक हितों तथा पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिये। कोई व्यक्ति पेशे से राजनेता, लोकसेवक, व्यवसायी, उद्योगपति, चिकित्सक, वकील, कृषक या मजदूर हो सकता है पर अपने पेशे को कौन कितने सलीके से संचालित कर रहा है, यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश व्यापी चिंता, बहस और आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में अति ज्वलंत एवं विचारणीय प्रश्न है। महात्मा गांधी ने जीवन के सात महा-पाप गिनाए हैं, मेहनत के बिना दौलत, अंतरात्मा के बिना आनन्द, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिक मूल्यों के बिना व्यापार, इंसानियत के बिना विज्ञान, त्याग के बिना धर्म, सिद्धांतों के बिना राजनीति। जीवन आत्म निर्णय की प्रक्रिया है। याद रखें कि जब एक उंगली दूसरों की ओर उठती है तो चार स्वयं अपनी ओर। अतः दूसरों में कमी निकालने की बजाए आत्मसाक्षात्कार करें।
देश के समग्र विकास को अपना भोजन बनाने वाले भ्रष्टाचार रूपी कंस के विनाश हेतु कई दशकों से लोकपाल रुपी कृष्ण के अवतार की प्रतीक्षा है, पर कंस है कि कृष्ण को जन्मने वाली देवकी रूपी भारत माता को ही कैद कर उसकी कोख से जन्मने वाले हर लोकपाल विधेयक रूपी संतान की निर्मम हत्या करता जा रहा है। एक तरफ एक से बढ़कर एक करिश्माई बड़े-बड़े गबन घोटालो को अंजाम देने तथा रक्तबीज राक्षस की तरह नित्यप्रति उत्पन्न होने वाले ये असंख्य राक्षस या तो बर्खास्त हो रहे हैं या फिर जेल में हैं, या फिर उन पर मुकदमा चल रहे हैं, तो दूसरी ओर येन-केन-प्रकारेण लोकपाल को गिराने या कमजोर करने का यथाशक्ति प्रक्रम चल रहा है। एक ओर मजबूत लोकपाल लाने का संकल्प, लामबंदी और आंदोलन तो दूसरी ओर उसके हश्र के एहसास से भयभीत, प्रकंपित और आखिरी सांसे गिनते वह राक्षस। और तो और यही पता नहीं चल पा रहा है कि यहां कौन कृष्ण और कौन कंस है। जो सार्वजनिक रूप से कृष्ण बनने का ढोंग करते हैं? वह परदे के पीछे कंस की भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘जहां किसी को उसके नैसर्गिक अधिकारों से वंचित किया जाएगा, वहां शुद्ध होगा ही, जहां बचना पाखण्ड और षडयंत्र होंगे, वहां संघर्ष अनिवार्य है। आज निश्चित रूप से भारत माता के नैसर्गिक अधिकारों का हनन हो रहा है, इसकी सर्वे भवन्तु सुखिनः संस्कृति का हनन हो रहा है, देश के नब्बे पंचानवे फीसदी मेहनतकश और ईमानदार लोगों की आत्मा की चीख पुकार का हनन हो रहा है तो संघर्ष निश्चित है और अगर संघर्ष छिड़ गया है तो इसमें हार और जीत भी निश्चित है। यह समय पर है कि किसकी हार और किसकी जीत होती है। हां यह जरूर सारस्वत सत्य है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित कभी नहीं।
सत्ता की राजनीति
दोष किसका?
दलीय व्यवस्था लोकतंत्र का प्रमुख आधार है, पर जब यह राजनीतिक दल सिद्धान्तहीन और पथभ्रष्ट होकर सिर्फ सत्ता की राजनीति करने में लग जावें तो ऐसे लोकतंत्र को भीड़तंत्र और ऐसी दलीय व्यवस्था को दलदलीय व्यवस्था ही कहा जाएगा। फिलहाल देश की जेलों में निरुद्ध, बर्खास्त, सजायाफ्रता, आरोपी और दागी उच्चाधिकारियों और राजनेताओं को अन्यान्य राजनैतिक दलों द्वारा प्रश्रय देकर उन्हें चुनावी टिकट से पुरस्कृत किये जाने से तो यही संदेश जाता है। इस प्रक्रम से तो यही माना जाएगा कि अमुक दल ऐसे दागी, भ्रष्ट और राष्ट्रद्रोही राक्षसों द्वारा किये गये घिनौने कृत्यो के घोर समर्थक है। यदा-कदा ऐसा भी होता है कि अमुक राजनेता उच्च पदस्थ होकर राष्ट्र विकास की कीमत पर अपने क्षेत्र का प्रशंसनीय विकास कर देता है और उस क्षेत्र की जनता उसे अपना भाग्य विधाता मसीहा मान बैठती है, या फिर वह राजनेता या अधिकार इतना जमा कर लेता है कि उसका एक लघु अंश भी खैराती, सामाजिक और धार्मिक कार्यो में लगा कर वाहवाही लूटता हुआ माननीय और पूजनीय बन जाता है। तथाकथित ऐसे पाखंडी माननीय जेलों में रहते हुए भी छद्म विकास, क्षेत्रीयता, जाति, धर्म, भाषा जैसे संकीर्ण नारों के आधार पर अच्छे मतों से जीत हासिल कर लेते हैं और देश को निरंतर ठगते रहते हैं। जनता है कि संकीर्ण स्वार्थवश बारम्बार इनके पाखंड और प्रलोभन में फंसती हुई इनकी राष्ट्रविरोधी मुहिम में इनका सहयोग करती हुई इनका शिकार बनती रहती है। ऐसे में यदि देश और समाज पिछड़ता है तो दोष किसका?
लोकतंत्र के प्रति सच्ची श्रद्धा विकसित करे
लोकतंत्र एक परम लोकहितकारी विचार है जिसमें ‘जनता का जनता पर जनता द्वारा शासन होता है।’ लोकतंत्र के लिये जहां सजग, प्रबुद्ध, विवेकशील तथा निर्णय क्षमता युक्त जनता का होना आवश्यक है, वही जनता में तंत्र के प्रति सच्ची आस्था का होना भी परम आवश्यक है। राजनीतिक, आर्थिक तथा सशस्त्र क्रांति की अपेक्षा आस्था की क्रांति ज्यादा बलबती एवं टिकाऊ होती है क्योंकि आस्था में भोग की अपेक्षा योग पर बल दिया जाता है। आस्था में समग्र के लिये निस्वार्थ प्रेम, त्याग, बलिदान समर्पण तथा कल्याण की भावना समाहित होती है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों तथा क्रांतिकारियों की देश धरा तथा मातृभूमि के प्रति वह सच्ची श्रद्धा ही तो थी जिसके लिये उन्होंने पद पैसा तथा घर परिवार का लोभ मोह त्यागकर, गोली डंडा खाकर, जेलों में उम्र बिताकर तथा फांसी पर हंसते-हंसते झूलकर हमें आजाद कराया और हमारे लिये -‘हमारा हमीं पर हमारे द्वारा’ सुशासन का मार्ग प्रशस्त किया। अब यह हमारा परम कर्तव्य है कि इन राष्ट्रभक्त देवताओं के त्याग और बलिदान को सार्थक करते हुए लोकतंत्र के इस महान मंदिर की पवित्रता बनाए रखे। याद रखें कि हम उस देश धरा की प्राणवायु, अन्न, जल पाकर अस्तित्व में हैं जहां एक नर्तकी तक में ऐसी ईमानदारी निष्ठा, आस्था तथा आन-मान स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा होता है कि वह महावली मुगल सम्राट अकबर के बुलावे पर भरे दरबार में निर्भयतापूर्वक ऐसी चेतावनी देती है कि सम्राट अकबर लज्जित होकर पानी-पानी हो जाते हैं-‘विनती राय प्रवीन की सुनिये शाह सुजान_ जूंठी पातर भखत है वारी वायस स्वान।’ अतः जागें, संभलें और अपने पूर्वजों द्वारा छोड़े गये अधूरे कार्यो को आगे बढ़ाएं। कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए और नब्बे फीसदी बनाम दस फीसदी के रूप में भ्रष्टाचार के विरूद्ध दूसरा स्वतंत्रता संग्राम ही छिड़ जाए और तब पछताने के अलावा हमारे हाथ में कुछ नहीं होगा। अपने दूध और पानी को स्मृत कर आन-मान-स्वाभिमान को जागृत कर मानव मूल्यों, पूर्वजों और अपनी महान संस्कृति को धारण कर लोकतंत्र के प्रति ऐसी सच्ची श्रद्धा विकसित करे जिसमें अध्यापकों का गुरुओं, राजनेताओं का प्रजावत्सल राजाओं तथा भामाशाहों, लोकसेवकों का चाणक्य, चिकित्सकों का धनवंतरि, न्यायिक कर्मियों का पंच परमेश्वर, पुलिस का रक्षक तथा अभियंताओं का विश्वकर्मा जैसा सम्मान हो तथा अधीनस्थों में अपने नियंत्रकों के प्रति ऐसी सच्ची श्रद्धा आस्था और विश्वास हो कि वह उनसे प्रेरणा लेते हुए उनके दिखाए सद्मार्ग पर चलें।
भ्रष्टाचारी एवं राष्ट्रद्रोही
दानवों पर प्रहार करें
निश्चित रूप से लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान है। याद रखें कि हम भी इस लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं और इस नाते चिंतन करें कि इस तंत्र में हम कहां हैं, क्या हैं, हमारे क्या अधिकार कर्तव्य और दायित्व हैं, हम अपने कर्तव्यों और दायित्वों को कहां तक निभा पा रहे हैं? यदि आप स्वयं में कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार हैं तो आज आपके पास मताधिकार और सूचना का अधिकार रूपी अमोघ ब्रह्मास्त्र है जिसके सहारे किसी भी राजनेता / लोक सेवक को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। आपकी सर्वोपरिता और शक्ति आपके मत में ही निहित है। मत भूलें कि आपके मत का वही मूल्य है जो एक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्य मंत्री के मत का है। अतः अपना अमूल्य मत यूं ही न गवाएं। समय आ गया है कि संकीर्णताओं, लोभ, मोह और स्वार्थ को त्याग सम्यक साहस और विवेक का परिचय देते हुए लोकतंत्र की सीता को मुक्त कराने हेतु इन भ्रष्टाचारी एवं राष्ट्रद्रोही दानवों पर ऐसा सर-संधान करें कि वह स्वयं आपके समक्ष त्रहिमाम होकर स्वयं लोकतंत्र की सफलता का पथ प्रशस्त करे तभी सच्चे अर्थो में हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र समुन्नत, बलवती और यशस्वी होगा।
विनय न मानत जलधि जड़,
गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब,
भय बिन होय न प्रीत।।