लेख गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’
वस्तुतः जब-जब आध्यात्मिक, धार्मिक, चारित्रिक और नैतिक मूल्यों का अधःपतन हुआ है, महान समाज सुधारक, संत, राष्ट्रभक्त एवं आध्यात्मिक उद्बोधक भारत भूमि पर अवतरित होते रहे हैं। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन जनमानस का पुनउर्द्धार करने तथा सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए अर्पित किया है। संक्रमण की ऐसी ही स्थिति में बंगाल में एक देदीप्यमान दिनमान का उदय हुआ, जो स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने जाते हैं।
बंगाल के कलकत्ता नगर के उत्तर भाग में स्थित सिमुलिया मोहल्ले के निवासी विश्वनाथ दत्त के यहां 12 जनवरी वर्ष 1863 को एक शिशु ने जन्म लिया, जिसका नाम नरेन्द्रनाथ रखा गया। उनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। वे धार्मिक वृत्ति की महिला थीं। इस आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव नरेन्द्रनाथ पर भी पड़ा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बंगाली एवं अंग्रेजी में हुई। उनकी मां उन्हें रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाया करती थीं योगिक चेतना के लक्षण उनमें बचपन से ही दिखाई पड़ने लगे थे। उन्हीं दिनों रामकृष्ण परमहंस की विद्वता एवं उनके प्रवचनों की लोग बहुत चर्चा किया करते थे। नरेन्द्र नाथ ने भी उनसे मिलने का विचार किया।
प्रथम परिचय में ही नरेन्द्र नाथ ने रामकृष्ण परमहंस से पूछा कि क्या आपने ईश्वर को देखा है। रामकृष्ण ने नरेन्द्र नाथ के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘मैंने ईश्वर को वैसे ही देखा है। जैसा तुम्हें देख रहा हूं।’ रामकृष्ण के स्पर्श से ही नरेन्द्र नाथ मूर्छित हो गए। जब उनकी मूर्छा भंग हुई तो सामने रामकृष्ण मुस्करा रहे थे। उसी समय नरेन्द्रनाथ को उनके प्रश्नों के उत्तर मिल गए और साथ ही आध्यात्मिक गुरु भी।
नरेन्द्र नाथ की मां उन्हें गृहस्थ बनाना चाह रही थी किन्तु नरेन्द्रनाथ ने तो जिस शाश्वत प्रेम का दर्शन कर लिया था, उसे सांसारिकता कब रास आ सकती थी। उनके महान गुरु ने नरेन्द्र को मानसिक असंतोष से निकाल कर उसके आध्यात्मिक आनंद का मार्ग प्रशस्त किया। यहीं से नरेन्द्र की परिणति विवेकानंद के रूप में हो गई। सन् 1885 में संसार को छोड़ते समय उन्होंने नरेन्द्र को छूकर उन्हें निर्विकल्प समाधि का अनुभव कराया तथा आदेश दिया कि उनका पहला कार्य रामकृष्ण मिशन को पूरा करना है। उद्देश्य की पूर्ति हेतु नरेन्द्रनाथ ने हावड़ा के निकट बेलूरमठ में रामकृष्ण मिशन के मुख्य कार्यालय की स्थापना की और इसे आत्मनो मोक्षार्थ, जगद्वितीय ‘च’ का उच्चादर्श दिया।
सन् 1888 में स्वामी जी अकेले ही कलकत्ता से निकल पड़े, हाथ में केवल एक दण्ड और कमण्डल लेकर। वे वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृंदावन और हाथरस होते हुए हिमालय तक पहुंचे। हिमालय में कठोर तपस्या के बाद जब उतरे तो कई प्रांतों का भ्रमण किया। उन्होंने कितने ही नवयुवकों को धर्म परिवर्तन से रोका। बड़े-बड़े धनी मानी व्यक्ति उनके शिष्य बन गए। जस्टिस सुब्रहमण्यम अÕयर, महाराजा रामानंद (चेन्नई) तथा राजपूताना के महाराज खेतड़ी उनके प्रमुख शिष्यों में थे। महाराज खेतड़ी ने ही स्वामी जी को विवेकानन्द नाम से विभूषित किया। राष्ट्र निर्माता, हिंदू धर्म के महान प्रचारक और भारत के चिंतक एवं आध्यात्मिक चेतना के प्रहरी के रूप में उनका जीवन परिवर्तित हो गया।
जब स्वामी जी मद्रास में थे तभी उन्होंने अनुयायियों के आग्रह पर, सितम्बर 1893 मेें शिकागो (अमेरिका) में आयोजित ‘सर्वधर्म सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए अमेरिका प्रस्थान किया। भारत के इतिहास में यह एक अविस्मरणीय घटना सिद्ध हुई जब उन्होंने श्रोताओं के समक्ष भारतवर्ष की महिमा और वेदांत की महत्ता का वर्णन किया और देश का सम्मान सागर की गहराइयों से उठकर हिमालय की ऊंचाइयों तक उन्नत हो गया। उनके प्रभावी व्यक्तित्व, स्वस्थ शरीर, अनुनादित वाणी और ओजस्वी स्वर ने उपस्थित समुदाय को मंत्रमुग्ध कर दिया। अमेरिका में स्वामी जी के भक्तों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगी। अनेक प्रोफेसर और विद्वान उनके शिष्य बन गए। स्वामी अमेरिका में लगभग तीन वर्षो तक रहे और वहां वेदांत का प्रचार करते रहे।
इसके बाद उन्होंने इंग्लैंड की यात्र की। स्वामी जी के वहां पहुंचने के पूर्व ही उनकी ख्याति पहुंच चुकी थी। स्वामी जी के अद्भुत ज्ञान और प्रबल संकल्प के समक्ष अंग्रेज भी नतमस्तक थे। अनेक वैज्ञानिक उनका उपदेश सुनने के लिए घंटों पहले आकर बैठ जाते थे। विवेकानंद ने वहां तीन महत्वपूर्ण भाषण दिए जिनसे उनके पाण्डित्य का सिक्का सभी पर जम गया। उनकी भक्त मण्डली में कुमारी नोबल भी थीं जो उनके साथ ही भारत आई और भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुई। वापसी में जब उनका जहाज कोलंबों पहुंचा तो असंख्य लोग उनके दर्शनों के लिए आतुर थे। स्वामी अपनी धरती मां की मिट्टी से लिपट कर यों अभिभूत हुए जैसे कोई छोटा बालक कब का बिछड़ा हुआ अपनी मां से मिल रहा हो।
स्वामी जी के हृदय में मानवमात्र के लिए अगाध प्रेम था। उन्होंने कहा था-‘जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञानता का जीवन व्यतीत करते हैं, मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूं जिसने विद्या और ज्ञान तो उनके व्यय पर प्राप्त किया है और अब उसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करता।’
कलकत्ते में वे निरंतर अध्यापन, उपदेश तथा सामाजिक कार्यो में लगे रहे। उनके निर्देशन में ही अनेक स्थानों पर रामकृष्ण मिशन के अंतर्गत स्कूल, विद्यालय, चिकित्सालय आदि की स्थापना हुई। कन्याकुमारी में स्वामी जी के नाम से भव्य मंदिर बनाया गया है। अत्यधिक श्रम से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। जलवायु परिवर्तन के लिए वे दार्जिंलिग गए, वहां से अल्मोड़ा गए। फिर वे पंजाब होते हुए लौट आए। उसी समय भारत में प्लेग महामारी फैली। स्वामी जी अपने अनुयायियों के साथ रोगियों की सेवा में जुट गए। दिन रात श्रम करने से उनका स्वास्थ्य पुनः बिगड़ गया।
4 जुलाई 1902 को वे असाधारण रूप में पूर्वाहन 8 से 11 बजे तक ध्यानमग्न रहे। तृतीय पहर अपने गुरु भाइयों और शिष्यों को अपनी योजनाओं से अवगत कराया। संध्याकाल अपने कक्ष में जाकर एक घंटा ध्यानस्थ रहे और लेटकर गहरी श्वास लेने के बाद चिर निद्रा में लीन हो गए।
स्वामी विवेकानंद एक सच्चे भारतीय थे। उन्होंने भारत की संस्कृति और दर्शन का ऐसा दीपक जलाया जिसका दिव्यालोक सारे विश्व में फैला। वे मानव सेवा को सच्ची ईश्वर भक्ति मानते थे। केवल 39 वर्ष की आयु में उन्होंने मानवता का तथा भारत का अभूतपूर्व कल्याण किया।
बहुत कम लोग जानते हैं कि स्वामी जी सुप्रसिद्ध संत-कवि कबीर और गुरुनानक की कोटि के कवि भी थे। उनकी कविताएं सहज रूप में आध्यात्मिक परमानन्द और रहस्यवादी अनुभूतियों का स्वर प्रवाह है। उनकी प्रथम देन ‘ईश्वर के अन्वेषण में’ नामक कविता है। उसके कुछ शब्द इस प्रकार हैं:-
चन्द्रमा की शीतल किरणों
प्रकाशमान नक्षत्र
दिनकर का उज्ज्वल प्रकाश
इन सबसे उसकी सुंदरता
शक्ति की छाया मात्र है।
‘स्वाधीनों का गान’ शीर्षक कविता में स्वामी जी ने भौतिक विश्व से मुक्त प्राणी द्वारा अनुभूत किए जाने वाले आध्यात्मिक आनंद का परिचय दिया है-
पृथ्वी, शशि, रवि से पहले
धूमकेतु नक्षत्रें से भी पहले
कालोत्पत्ति के अत्यंत पहले मैं था
अब मैं हूं, आगे भी रहूं।
स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित भक्तिगीत अथवा भजन रामकृष्ण मठों में संध्या के समय बड़े ही भक्ति भाव के साथ गाए जाते हैं। भारत मां के अमर सपूत स्वामी जी की जन्म जयन्ती पर शत-शत नमन।