लेख विशेष प्रतिनिधि
मार्च, 2023 अंक
नवसंवत विशेषांक
इन दिनों परिवार को कमजोर करने का अभियान व्यापक स्तर पर चल रहा है। जो काम आततायी आक्रमणकारी नहीं कर सके, उसे अंजाम देने की कोशिश भारतीय समाज के ही घटक कर रहे हैं।
परिवार संस्था भारतीय समाज और संस्कृति का प्राण है। हमारे समाज में इस पर जितना जोर दिया गया है, उतना दुनिया के किसी मुल्क और समाज में नहीं दिया गया। यही कारण है कि भारत में परिवार संस्था की सुदृढ़ता और महत्ता को देख कर दुनिया भर के समाजशास्त्री दांतों तले उंगुली दबा लेते हैं। परिवार की सुदृढ़ता और महत्व का अंदाज रोजमर्रा के जीवन में दिखाई देने वाले प्रसंगों और मान्यताओं से लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हमारे यहां पति-पत्नी के संबंध जन्म जन्मांतर के संबंध माने जाते हैं। पति-पत्नी विवाह से पहले एक दूसरे को जानते रहे हों या न जानते रहे हाेंं, विवाह के बाद इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि उनके अलग होने की कल्पना ही नहीं होती। अपवाद हर जगह होते हैं और यहां भी हो सकते हैं लेकिन आम तौर पर दांपत्य संबंध मरणपर्यन्त अटूट बने रहते हैं। कानून विवाह विच्छेद की सुविधा भले ही देता हो पर इस का लाभ हजारों में एकाध ही उठता होगा। कलह मचने और रोते झीकते रहते रह कर भी दांपत्य संबंध प्रायः अटूट ही बने रहते हैं।
माता-पिता जब तक जीते हैं अपनी संतान की चिंता करते हैं, उनके दुख-सुख का ख्याल रखते हैं। दुनिया में और कहीं भी ऐसा नहीं होता कि पिता वृद्ध हो जाने के बाद भी अपने पुत्र और पुत्री की चिंता करता हो। दुनिया के और देशों में तो यह चलन है कि संतान अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनते ही अपना संसार बसा लेती है। उस संसार से न माता पिता का कोई खास वास्ता रहता है और न ही भाई बहिनों का विशेष लगाव। यह स्थिति भारत में ही है कि माता पिता और संतान मरणपर्यन्त एक दूसरे से भावनात्मक और पारिवारिक रूप से जुड़े रहते हैं।
समाज शास्त्रियों का मानना है कि भारत में परिवार संस्था इतनी सुदृढ़ रही है कि देश में हजार वर्ष के झंझावात आने पर भी वह नहीं टूटी। परिवार संस्था की इस सुदृढ़ता के कारण ही समाज भी नष्ट-भ्रष्ट नहीं हुआ। यूनानियों, शकों, हूणों, मुगलों और अंग्रेजों ने भारत पर हजार वर्ष तक लगातार हमले किए। आक्रमणकारी अक्सर जीते और यहां अपना साम्राज्य कायम किया। यहां की सामाजिक संस्थाओं और प्रथा पंरपराओं को भी तोड़ा मरोड़ा। भारतीय समाज पर जितने नृशंस अत्याचार हुए उस के एक अंश से ही ग्रीस, रोम, यूनान और मिश्र की सभ्यताएं नष्ट हो गई हैं। और दो एक साल के हमलों और झंझावातों में ही ये देश इतिहास के गर्त में समा गए। परन्तु भारतीय समाज हजार वर्ष के हमलों और अत्याचारों के बावजूद अपना अस्तित्व बचाए रहा। हालांकि हमें पराजय और गुलामी का सामना भी करना पड़ा। परन्तु हमारी संस्कृति आत्मा से तो अपराजेय ही रही। समाज शास्त्री इस टिके रहने की क्षमता का कारण परिवार बताते हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संस्थाओं को तो फिर भी क्षति पहुंचाई जा सकती है और पहुंचाई गई भी है लेकिन कोई आक्रमण परिवार तक नहीं पहुंच सका। धर्म, संस्कृति, संस्कार, शिक्षा, चरित्र और प्रथा पंरपराएं जैसी चीजें तो किसी भी समाज या राष्ट्र की सभ्यता और जीवनी शक्ति की वाहक होती हैं, भारतीय परिवारों में स्थिर रही। यहीं कारण है कि हजार वर्ष का अंधकार युग भोगने के बाद भी भारतीय संस्कृति जीवंत है और फिर उठ खड़ी होने की क्षमता का परिचय दे रही है।
परिवार संस्था की सुदृढ़ता एक उज्ज्वल पक्ष है लेकिन एक अंधकार पक्ष भी है। वह यह कि इन दिनों परिवार को कमजोर करने का अभियान व्यापक स्तर पर चल रहा है। जो काम आततायी आक्रमणकारी नहीं कर सके, उसे अंजाम देने की कोशिश भारतीय समाज के ही घटक कर रहे हैं। नए-नए आकर्षक नारों और प्रतिपादनों के द्वारा परिवार तोड़ने की जैसी दुरभि संधि रची जा रही है और इसे गौरवान्वित भी किया जा रहा है।
इन प्रयत्नों के परिणाम भी सामने आ रहे हैं। एक परिणाम तो संयुक्त परिवार का टूटना ही है। भाई-भाई में विग्रह होने और अलग होने की घटनाएं आजादी के पहले भी घटती थी। परन्तु वे यदा कदा और कभी कहीं ही होती थी। उन घटनाओं की पास-पड़ोस में चर्चा होती थी, नाते रिश्तेदार उन की समीक्षा करते थे और प्रयत्न होते थे कि अलग हुए भाई-भाई एक न हो तो उनका मनो मालिन्य तो कम से कम दूर हो जाए। लेकिन आजादी के बाद संयुक्त परिवार तेजी से टूटे हैं। अपवाद स्वरूप ही कहीं कोई भाई-भाई एक साथ रह रहे हो। अब तो परिवार का अर्थ ही यह मान लिया गया है कि पति-पत्नी और उनकी संतानें। बूढ़े माता-पिता के प्रति पुत्र के भक्तिभाव के कारण वे परिवार में रहें भले ही लेकिन कानून की निगाह में उनकी स्थिति प्रायः अतिथि जैसी ही होती है।
संयुक्त परिवार एक छोटा-मोटा समाज ही था। आर्थिक दृष्टि से या बहुत साफ कहें तो भोग के लिहाज से पति-पत्नी को इस में घाटा उठाते रहना पड़ा होगा। जैसे परिवार के पुरुष सदस्य की कमाई पर केवल उस की पत्नी या बच्चों का ही अधिकार नहीं रहता था, वह कमाई पूरे परिवार के ही काम आती थी। आज के संदर्भ में देखें तो यह घाटा हुआ कि अगर कोई पुरुष औरों की अपेक्षा ज्यादा कमाता है तो उस के और उस के पत्नी बच्चों को भी और सदस्यों के बराबर हिस्सा ही मिला इसे चाहें तो घाटा कह सकते हैं। लाभ-हानि के इसी गणित का महत्व देने के कारण संयुक्त परिवार टूटे। लेकिन इसके अलावा सामाजिकता, सुरक्षा, अनुभव, बच्चों की समुचित देखभाल संयुक्त परिवार में होने वाले आर्थिक या भोग के घाटे की तुलना में हजार लाख गुना ज्यादा है।
दाम्पत्य जीवन पर खतरा
संयुक्त परिवार टूटने के बाद अगला खतरा दांपत्य जीवन पर ही आ रहा है। पति-पत्नी सिर्फ एक छत के नीचे रहने वाले दो मुसाफिर ही नहीं है और न ही दोनों के संबंधों का आधार स्थूल और भौतिक ही है। भारतीय धर्म और संस्कृति के नियामकों ने पति-पत्नी को एक मन दो शरीर एक आत्मा और दो काय-कलेवर कहा है। गृहस्थ को भी एक योग साधन कहा है और ट्टषियों ने गाया है कि गृहस्थ एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है। दांपत्य जीवन की यही आधार भित्ति रही है।
विवाह एक सामाजिक
जिम्मेदारी भी
इसके अतिरिक्त विवाह दो आत्माओं के मिलन के अलावा एक सामाजिक जिम्मेदारी भी रहा है। पति-पत्नी समाज के प्रति भी उत्तरदायी है साथ ही समाज को भी दंपति के सुख-दुख का यथोचित ध्यान रखना है। इस अन्योन्याश्रित प्रतिबद्धता के कारण ही विवाह एक उत्सव अनुष्ठान भी होता था। उसके लिए सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त की जाती थी।
जो लोग परिवार संस्था पर सोचे समझे तरीके से आक्रमण कर रहे हैं उन्होंने इन दोनों ठिकानों पर निशाना साधा है। आक्रमण का एक रूप तो यह है कि पति-पत्नी की सत्ता का एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र या स्वच्छंद निरूपित किया जाने लगा है। स्त्री सामानाधिकार और नारी स्वतंत्रता का जितना शोर सुनाई देता है उसके मूल में यह विघटनवाद ही है। माना कि स्त्री, पुरुष से किसी मायने में क्षुद्र नहीं है उस का गौरव और सम्मान होना चाहिए। भारत की मनीषा ने इस मान्यता को चरितार्थ कर भी दिखाया है किसी भी धर्म शास्त्र में स्त्री को हेय नहीं बताया गया है शब्दों को तोड़ मरोड़ कर कोई भी अर्थ निकाल लिए जाएं लेकिन यथार्थ में तो स्त्री को शक्ति, मेघा, प्रेरणा और देवी ही माना गया है। यह मान्यता व्यवहार में भी चरितार्थ होती रही है। समानाधिकारवादी नारी गौरव की इससे ज्यादा क्या प्रतिष्ठा करेंगे फिर भी मान लिया कि वे स्त्री का सम्मान और गौरव बढ़ाना ही चाहते हैं तो सवाल उठता है कि क्या इस के लिए परिवार तोड़ना जरूरी है? परिवार को तोड़ कर ही स्त्री के सम्मान की रक्षा की जा सकती है। क्या उस का अस्तित्व पुरुष को चुनौती दे कर ही सिद्ध हो सकता है?
परिवार को तोड़ने का प्रयत्न
स्त्री समानतावादियों के तमाम प्रयत्न नारी को परिवार से तोड़ कर अलग करने में ही है। यद्यपि वे प्रत्यक्ष घोषणा नहीं करते लेकिन जिस तरह के प्रतिपादन दिए जा रहे हैं उस में स्त्री को पुरुष के मुकाबले खड़ा होने और हर क्षेत्र में उस से दो हाथ करने में ही जीवन की सार्थकता दिखाई देती है। मसलन समानाधिकार की बात करते हुए स्त्री के प्रति पुरुष अत्याचारों का वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर किया जाता है। सदियों से उस पर अत्याचार होने की रट लगाई जाती है। दुनिया में क्या होता रहा है यह हमारी चिंता का विषय नहीं है लेकिन भारतीय परिवारों में तो स्त्री का सदा ही गृहलक्ष्मी का दर्जा प्राप्त रहा है। उस का अनादर करने वालों की कदम-कदम पर भर्त्सना होती रही है।
समानाधिकारवादी, पति-पत्नी में उस सीमा तक विद्वेष पैदा करते देखे गए हैं कि एक बर्तन पत्नी साफ करे तो दूसरा पति। रोटी बनाए, तो मिल कर सफाई करें तो मिल कर, बच्चों को संभाले तो मिल कर और खर्च करें तो मिल कर। उत्तरदायित्वों का बंटवारा और अपने काम को कुशलता से निपटाने की तत्परता भारतीय परिवारों की प्रचलित व्यवस्था रही है। कहना नहीं होगा कि यही व्यवहारिक है और इस में न कोई ऊंचा है न नीचा। अगर छोटा बड़ा साबित करना ही हो तो कोई भी आधार चुना जा सकता है लेकिन एक परिवार की आंतरिक व्यवस्था संभालता है तो हेय नहीं हो जाता और दूसरा उपार्जन व्यवस्था करता है तो बड़ा नहीं हो जाता। पर समानाधिकार वादी यही कर रहे हैं। गृहिणी के परंपरागत दायित्वों को वे कम करके ही बताने में लगे हुए हैं। इसका न कोई आधार है और न सच्चाई से कोई वास्ता। लेकिन उद्देश्य विद्वेष को बढ़ावा देना हो तो आधार और तथ्य की कौन चिंता करता है।
सामाजिक पक्ष पर आक्रमण
दूसरा आक्रमण विवाह के सामाजिक पक्ष पर है। कहा जाता है कि विवाह युवक-युवती या पति-पत्नी के बीच का आपसी मामला है। सिर्फ आपसी ही नहीं नितांत वैयक्तित्व। इसके लिए समाज की या माता पिता की स्वीकृति और अनुमति की क्या जरूरत। इस प्रतिपादन के चलते ही प्रेम विवाह को सब भांति सुगम और लाभदायक बताना जाने लगा। वास्तव में तो प्रेम विवाह जैसा कोई विवाह होता नहीं है। प्रेम विवाह का अर्थ है जब तक प्रेम हो तब तक वैवाहिक संबंध रहे और जब प्रेम समाप्त हो जाए या क्षीण होने लगे तो संबंध भी समाप्त हो जाएं। आमतौर पर तो प्रेम विवाह वाले दंपतियों में ही ज्यादा तकरार होती है जब तक दोनों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण रहता है तब तक तो गृहस्थी की गाड़ी ठीक-ठाक चलती रहती है। लेकिन जैसे ही आकर्षण कम होता है कलह मचने लगता है। और आकर्षण स्वाभाविक ही क्षीण होता है। इस संबंध में किए गए सर्वेक्षण बताते हैं कि प्रेम विवाह ही ज्यादा चरमराते और टूटते हैं। उनकी अपेक्षा पारिवारिक विवाह स्थायी होते हैं और सुख शांति वाले भी होते हैं।
प्रेम विवाह
कहा जा चुका है कि जिन्हें प्रेम विवाह कहा जाता है वस्तुतः प्रेम विवाह नहीं होते हैं । एक दूसरे के आकर्षण से सिद्ध हो कर ही ऐसे संबंध बनते हैं अगर इन्हें भारतीय मान्यताओं के अनुसार परखें तो ये गंधर्व विवाह की श्रेणी में आते हैं। गंधर्व विवाह अर्थात् जो समाज की स्वीकृति के लिए प्रतीक्षित हैं। कथित प्रेम विवाह इन से इसी मायने में भिन्न और निम्न कोटि के हैं कि इन में किसी स्वीकृति की जरूरत नहीं समझी जाती।
परिवार संस्था को कमजोर करने पर तुले लोगों की समझ में इस तरह के विवाह दहेज जाति-पाति ऊंच-नीच जैसी कितनी ही समस्याओं के समाधान हैं। उनकी राय में अगर प्र्रेम विवाह को बढ़ावा दिया जाए तो दहेज और उनके कारण होने वाली अकाल मौतों या हत्याओं से भी छुटकारा मिलेगा। अब उन्हें कौन बताए कि दहेज मौतों का संबंध पारंपरिक विवाहों से नहीं लोगों के मन में बैठे लोभ और नृशंस स्वार्थपरता से है। जिनके मन में विवाह के समय धन ऐंठने की लालसा है, वे कथित प्रेम विवाह के लिए तैयार ही क्यों होंगे।
दहेज समस्या
दहेज अपने आप में कोई समस्या नहीं है। समस्या मन में घुस चुकी वह ललक है जो येन-केन प्रकारेण धनवान होने के लिए मचलती है। इस को उपभोक्तावाद ने ही बढ़ावा दिया है। उसी उपभोक्तावाद ने जिसे लोग प्रगति और विकास के नाम से जानते हैं। ऊंच-नीच, उपयुक्त जोड़े न मिलना जाति-पाति की समस्या भी विद्वेष मूलक ही है लेकिन किन्हीं दो व्यक्तियों के परस्पर आकर्षण जाल में फंस जाने से ये समस्या हल नहीं होती।
प्रेम-विवाह को दहेज, जाति-पाति और अलगाव जैसी समस्याओं के समाधान के तौर पर सुझाने और इन के व्यापक प्रचलन की जरूरत बताने वाले भी इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन इसे अनदेखा ही करते हैं क्योंकि मंतव्य तो परिवार कमजोर हो। समाज की रक्षक और धारक इकाई के रूप में वे जीवित न बचें। इस उद्देश्य में वे सफल हो गए तो उन्हें अपनी मनमर्जी की व्यवस्था थोपने में सुविधा तो रहेगी लेकिन हमारी संस्कृति तो चरमरा ही जाएगी।