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बाल अवस्था में शिक्षा कैसी होनी चाहिए


महाराजा अग्रसेन विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश के कुलपति
डा. नन्द किशोर जी गर्ग से अन्तरंग वार्त्ता

साक्षात्कार

अप्रैल, 2023
शिक्षा विशेषांक

डा. नन्द किशोर गर्ग महाराजा अग्रसेन विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश के कुलपति हैं। महाराजा अग्रसेन इन्स्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के चेयरमैन हैं। शिक्षा के क्षेत्र में गत 2-3 दशकों से जुड़े हैं। दिल्ली के स्कूल विद्यालयों विशेष रूप से सर्वोदय विद्यालय, आदर्श विद्यालयों के संदर्भ में इनका योगदान सराहनीय रहा है।
राजनीति में भी दिल्ली भाजपा के शीर्ष नेताओं में रहे हैं। विधायक भी रहे हैं। कई अस्पतालों की व्यवस्था में भी उनका सराहनीय योगदान है। मूलतः वह एक विचारक हैं जो समाज की नब्ज को पहचानते हैं और समाज के हित में होने वाले हर कार्य में सहयोग देते हैं।
प्रश्न: शिक्षा द्वारा ही समाज को बदला जा सकता है समाज का उन्नयन किया जा सकता है। आपकी राय।
उत्तर: शिक्षा द्वारा समाज को संस्कार दिए जा सकते हैं। संस्कार मुख्यतः दो जगह ही दिए जा सकते हैं या तो घर है या विद्यालय। और वह भी खास तौर पर प्राइमरी, प्री प्राइमरी। उससे समाज में परिवर्तन हो सकता है। आज जो 70-80 साल से समाज में खराब चीजें नजर आ रही है। उन्हें ठीक किया जा सकता है।
मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण वह परिवर्तन भी हुआ था। वह निचले स्तर का परिवर्तन हुआ। क्योंकि हमने सूचनाओं को ही ज्ञान मान लिया और बच्चों के लिए परिवर्तन का बोध और देश के प्रति भाव आदि समाप्त हो गए। इसलिए जो नई शिक्षा नीति 2020 में बनी है परन्तु वह कोरोना के कारण पूरी लागू नहीं हो पाई और वह इस साल से लागू होगी। इस से आने वाले दस साल में इससे सकारात्मक परिवर्तन नजर आने लायक हो जाएंगे।
प्रश्न: जो बाल्यकाल में शिक्षा दी जाती है। उसका प्रभाव जीवन में अधिक रहता है। आपकी राय।
उत्तर: मैं मानता हूं कि उसकी छाप जीवन में अधिक रहती है। हम ने भी जो दूसरी कक्षा या तीसरी कक्षा में पढ़ाया गया तो जो आज शिक्षा क्षेत्र में मैं कुछ कर पाया हूं तो उस काल के अध्यापकों या विद्यालय की देन है। कालेज में आने पर मन परिपक्व हो जाता है। घोड़ा बायसड हो जाता है। जबकि पहली कक्षा में तो मन बिल्कुल निर्मल जल की तरह होता है। उसके कारण बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। आप तो हम से भी दस साल पहले की पीढ़ी के हैं। आप नब्बे के करीब के हैं। आज भी देश की चिन्ता करते हैं। आज का बच्चा विद्यालय में नहीं कालेज में पढ़ने के बाद भी उसे कोई अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं है। कल मैं यूनिवर्सिटी गया था। अगर वहां किसी बच्चे को पूछो कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में वसुधा क्या है। तो कोई बच्चा नहीं बता पाया। एक प्रोफेसर भी नहीं बता पाया। यह पूछा कि शहीद भगत सिंह के साथ जो हम तीन लोगों के नाम हम गिनते हैं वह कहां के रहने वाले हैं नहीं बता पाए। यह कैसा ज्ञान हुआ कि शहीद दिवस हमने मना लिया और शहीद भगत सिंह कहां के थे। राजगुरु सुखदेव कहां के थे, किस कारण इन्हें फांसी हुई नब्बे प्रतिशत ने यह बताया कि इन्होंने बम फोड़ा था। जबकि सच्चाई इससे दूसरी है, इन्होंने बम भी फोड़ा था। लेकिन उनकी मांग कुछ और भी थी।
जब यह सारा इतिहास स्कूल से हट गया। अब केवल इतिहास मतलब अकबर से लेकर औरगंजेब तक रह गया। दो अढ़ाई साल को ही हमने इतिहास मान लिया। आज किसी से पूछें महाभारत कितने साल पहले हुआ, नहीं बता पाएगा। विक्रमादित्य कौन था? कल नया साल मना रहे थे लोगों को मालूम ही नहीं। मालूम इसलिए नहीं क्योंकि शिक्षा के अंदर जो पचास साल पहले समावेश था वह हट गया है। जबकि शिक्षा के अन्दर सब से पहले यह पहचानना ही तो आवश्यक है कि मैं कौन हूं। मैं कौन हूं का उत्तर ढूंढते ही ट्टषि ने सारी चीज खोजते हुए ही उन्होंने ‘अहं ब्रह्मास्नि’ कहा तो ब्रह्मा क्या है, सृष्टि क्या है, यह छोटी-छोटी चीजें भी पढ़ाई जा सकती है पर नहीं पढ़ाई गई अब परिवर्तन की ओर जो हम बढ़े हैं तो प्री प्राइमरी में दो साल के बच्चे को भी स्कूल में धक्का देकर भेज रहे हैं। लेकिन छह साल से पहले बच्चे को जितना पढ़ाना है, उसे प्ले स्कूल कहें। बिना किताबाें के उसे पढ़ाना है, उसे खेल-खेल में जितना पढ़ाना है उसे पढ़ाओ सिखाओ। परिवर्तन तो आएगा ही वह शारीरिक रूप से सक्षम हो जाएगा तो अच्छे से पढ़ेगा ही।
लेकिन तथाकथित उच्च मध्यम वर्ग के लोग जो बच्चे को ए-सी- की बस में भेजेंगे और ए-सी- कमरों में रहेंगे तो बच्चे की रोग प्रतिरोधक शक्ति खत्म हो जाएगी। उसका अमेरिका उदाहरण है कि सब से ज्यादा कोरोना का प्रकोप कहां हुआ? सब से एडवांस देशों में जो अपने आप को ज्यादा उन्नत मानते थे। शिक्षा के साथ खेल में भी आगे हो बच्चा, दूसरी एक्टीविटी में भी भाग ले, सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी, और यह सब शिक्षा का हिस्सा हो जाएंगे तो सारी चीजें हाेंगी। इसलिए मोदी जी ने बच्चों को खेलों इण्डिया में कितना प्रोत्साहन दिया, कि लगभग हर खेल में मैडल आने शुरू हो गए पांच साल की मेहनत के बाद। 2036 तक हम ओलम्पिक कराने की स्थिति में आ जाएंगे। प्रगति करनी है तो हर क्षेत्र में करनी पड़ेगी। केवल इन्डस्ट्रीज से नहीं होगी, केवल खेती से नहीं होगी। केवल साफ्रट वेयर इन्डस्ट्रीज से नहीं होगी, हार्डवेयर भी चाहिए। सर्वांगीण विकास चाहिए तो शिक्षा के माध्यम से ही हो सकता है। पर शिक्षा भी सर्व समावेशी हो, जिसके अन्दर कौशल का भी रोल हो, दिमाग के साथ-साथ हाथ भी काम करें। दिमाग और हाथ दोनों साथ काम करेंगे तो जल्दी शरीर भी काम करेगा। प्रोग्रेस होगी, ज्यादा लाभ होगा, जल्दी सब स्थिति ठीक होगी।
प्रश्न: माता ही बच्चे की प्रथम गुरु है। बच्चे के लालन-पालन में संस्कार देने में महत्वपूर्ण भूमिका मां की है। आपकी राय।
उत्तर:- लोग मजाक से करते हैं कि अभिमन्यु ने मां के पेट में ही सीखा था। मेरा तो मानना है कि माता पहला गुरू नहीं बल्कि इसके दुनिया में आने से पहले जब वह उसके पेट में हैं उस दिन से मां से सीख रहा है मां क्या करती है, मां उदास रहती है, गुस्से वाली है, क्या सुन रही है, क्या कर रही है, इसलिए हमारे संस्कारों में पहला संस्कार तो जन्म से पहले ही हो जाता है। वह संस्कार तो हैं ही, हम सारे लोग उस संस्कार को भी भूल गए हैं।
मां के साथ दादी, नानी को भी उसी केटेगरी में गिनता हूं पिता, दादा, ताऊ, चाचा यह जो पहला यूनिट हमारा परिवार है उससे ही बच्चे को पहले तीन से पांच साल सीखने का अवसर ज्यादा मिलता है। सरकार भी इन बातों की चिन्ता करती है कि जच्चा बच्चा दोनों की देखभाल अच्छी हो, लड़की के पैदा होते ही उसे लखपति बनाने की चिन्ता होती है। क्योंकि वह लड़की पढ़ लिख कर एक अच्छी महिला बनेगी तो वह एक अच्छी मां भी बनेगी।
प्रश्न: बाल जीवन कच्ची मिट्टी के समान होता है। आरंभ में जो आकार दिया जाएगा वह वैसा ही बन जाएगा। बच्चे को किस प्रकार के संस्कार दिए जाएं।
उत्तर: आपका कथन ठीक है, आकार जो पहले होता है, उस के बाद उसे पकाया जाता है कुम्हार जो भी बनाता है उसे पकाने के बाद तो उसमें सुधार नहीं हो सकता। केवल रंग रोगन कर के उसे सजाया जा सकता है। ऐसे ही बच्चा है मेरा यह मानना है तेरह चौदह साल की उम्र तक जो उसके अंदर जो बीजारोपण हो जाता है, उसके अंदर समझ आनी शुरू हो जाती है, तो उसके अंदर री प्रोडेक्शन के भाव आने शुरू हो जाते हैं। जो कुछ आप उसको सिखाना चाह रहे हैं वह संस्कार वाला काम पांचवी कक्षा तक होता है, उसके बाद तो उन्हें बनाए रखना पक्का करना यह काम बाद का है वह तो बाकी क्लासों में क्या सारी उम्र ही पढ़ने के लिए ही है संस्कार का काम दस बारह साल की उम्र तक हो जाना चाहिए।
प्रश्न: बालकों के लालन-पालन में और उन्हें संस्कार देने में हम आज कितने सजग हैं।
उत्तर: मैं तो कह रहा हूं कि हम बिल्कुल ही सजग नहीं हैं। आया के भरोसे जब हम उसे छोड़ेंगे, छोटा परिवार हो गया है। तो उसको सुविधा देने में तो बस सजग है बच्चे की सुविधाओं वाला पक्ष है, उस की भौतिक आवश्यकताएं हैं उसको सामान दिलाने में तो बहुत सजग हैं। हर इच्छा की पूर्ति करते हैं जिसके कारण वह जिद्दी बन जाता है और मां बाप पर हावी होने की कोशिश करता है। जब मां के साथ इसका संपर्क ही नहीं रहेगा। पांच छह महीने तक दूध पिलाने के बाद जब उसका सारा काम आया करती है तो इस में संस्काराें में कमजोरी आएगी ही।
प्रश्न: बालकों की शिक्षा दीक्षा कैसी हो।
उत्तर: शिक्षा पर तो ध्यान है, दीक्षा पर तो बिल्कुल नहीं हैं दीक्षा तो दक्ष से बनेगी। दक्षता तो काम करने से आएगी। काम करने से दक्षता बढ़ेगी। आज सारा काम केवल सूचना जुटाना है और परीक्षा को ही शिक्षा मान लिया गया है। परीक्षा के लिए तैयारी करो और परीक्षा पास करो और आगे बढ़ो और सब भूल जाओ। इस कारण बहुत अधूरा व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा है।
प्रश्न: शास्त्रें में एक श्लोक है लालयेत पंचवर्षाणि, दस वर्षाणि ताड़येत, प्राप्ते तु षोडषे वर्षे, पुत्रम् मित्रम् वदाचारेत।
उतर: कितनी विद्वतापूर्ण टाइम टेस्टेड चीज लिखी गई है। एक दिन में किसी ने ये नहीं लिखा, उस का अनुभव कई पीढ़ियों का रहा होगा। इस का अर्थ आप की पीढ़ी तो मालूम है परन्तु, हमारी पीढ़ी में आठवीं के बाद न हिन्दी पढ़ी, न संस्कृत पढ़ी। परन्तु सीधा-साधा अर्थ है कि बच्चे को कुछ सिखाना है एक उम्र है, उसको ताड़ना है, यहां ताड़ने का अर्थ कोई डन्डा मारना नहीं है। उसकी निगरानी रखना, ध्यान करना है। उस श्लोक में सब कुछ है। कहते हैं बाप का जूता बेटे के पांव में आ जाय तो उस दिन से वह बाप का मित्र ही बन गया। उस दिन के बाद ज्यादा डांट-डपट करोगे तो दूरी बढ़ती है। कल किसी से बात हो रही थी, बेटे और बाप में नजदीकियां घटती जा रही है और बेटी और मां में नजदीकियां बढ़ती जा रही हैं। दोनों के असर उल्टे हो रहे हैं। शादी के बाद भी मां बेटी ज्यादा बात करती रहेगी तो उसके ससुराल की भी बात करेगी तो उसका ध्यान बंटा रहेगा और वह ज्यादा अपने ससुराल में स्व बस नहीं पाती।
बाप और बेटे का तो मैं अपने से अंदाजा लगाता हूं कि बात डेढ़ मिनट से ज्यादा नहीं होती और मां बेटी एक-एक घंटा बात करती रहती हैं। यह सब चीज नजर आ रही हैं। इन से दुखद पहलू ज्यादा है। जिन चीजों से हम दूर हट गए हैं उन सब से समस्याएं ही बढ़ रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं। परिवार भाव जो हमारी ताकत है। परिवार का भाव के कारण गांव के लोग कम पैसे में भी अपने आप को सुखी अनुभव करते हैं। क्योंकि सुख दुख में वहां भाई-भाई की मदद करता है, शहर में उतना नहीं करता। शहर में पाश्चात्य प्रभाव बढ़ गया है, गांव में अभी भारत है। इसलिए थोड़ा बहुत भारत के दर्शन करने हों तो गांव की ओर जाना पड़ता है।
प्रश्न: नई शिक्षा नीति 2020 में पहले पांच वर्ष तक बच्चों की ओर अधिक ध्यान देने के लिए कहा गया है।
उत्तर: इतने बड़े विचार विमर्श के बाद मोदी जी ने लाखों लोगों के सुझाव लिए। मैं समझता हूं कि ऐसी पालिसी मोदी जी ने बनाई है कि आज तक इस की धारा के खिलाफ कोई कोर्ट में नहीं गया। नहीं तो हर मामले में लोग हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जाते हैं और शिक्षा नीति में यह भगवान का शुक्र है कि किसी ने इसका विरोध नहीं किया। क्योंकि इसे बनाने वाले देश के बहुत बड़े वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन जैसे लोग, जिनकी टीम इतनी बड़ी है कि सब को साथ लेकर चलने की कोशिश की गई है। और एक अच्छी चीज निकल कर आई है अब इसका क्रियान्वयन क्योंकि यह राज्य और केन्द्र दोनों का विषय है। अतः यह मिल कर काम करें तो दस वर्ष में इसका काम पूरा हो जाएगा तो यह भारत को बदलने में एक बहुत बड़ा कारक बनेगा। मैं समझता हूं कि 2047 का जो लक्ष्य है उसको प्राप्त करने में यह नई शिक्षा नीति बहुत बड़ा योगदान देगी।
प्रश्न: संयुक्त परिवार में बालक खुश रहते हैं और सीखते हैं और एकल परिवार में उदासीन हो जाते हैं। आपकी राय
उत्तर: एकल परिवार में अब संपर्क नहीं बचा। जब एकल परिवार में दोनों कार्यरत हों। एक तो कार्यरत मिलेगा ही क्योंकि वह एकल परिवार है अब उसको किस से संपर्क है आया से या नौकर से और संयुक्त परिवार में कहीं उसका चाचा है, ताऊ है, दादा है उससे उसे सीखने को बड़ा संपर्क क्षेत्र हैं, उसने रोल माडल भी चुनना है तो एक की बजाय दस की अंगुली पकड़ेगा तो हर एक से कुछ न कुछ गुण वह प्राप्त कर लेगा। और एकल परिवारों में तो केवल मां बाप हैं और उनमें भी आधों में झगड़े रहते हैं, सीखने के लिए बच्चों को अवसर ही कहां मिलेगा।
प्रश्न: क्रेच संस्कृति जो विकसित हो रही है उसके बारे में आप क्या कहते हैं।
उत्तर: दोनों काम करेंगे तो क्या करेंगे बच्चे को, क्रेच में छोड़ना पड़ेगा। यह तो उनकी मजबूरी होगी। अच्छे परिवार वाले कहते हैं। एक आदमी अच्छा कमा रहा है तो दूसरा परिवार को संभाले। वह भी बहुत बड़ा काम है। मैं आज भी कई महिलाओं को देखता हूं कि शादी के तीन चार साल बाद बच्चों को पालने के लिए अपने कैरियर की बलि दे देती हैं, वह आर्थिक दृष्टि से नुकसान सहकर अपने बच्चों को पालना भी तो है, को प्राथमिकता देती है। जिनके लिए कमाना है वे भी कमाई का सदुपयोग करने लायक तो हों। मैं बहुतों को जानता हूं मेरी एक भांजी ने भी अमेरिका जाकर भी अपनी सर्विस छोड़ कर बच्चों को पालने में समय लगाया। वह घर से जितना कर सकती थी घर से ही किया, ताकि उसके बच्चों का लालन पालन सही हो सके। निश्चित तौर पर फिर से संयुक्त परिवारों में रहने की फिर आदत पड़ेगी। कुछ मजबूरी से पड़ेगी, कुछ समझ से पड़ेगी।
एकल परिवार में तो आजकल लड़के लड़की शादी करने को तैयार नहीं क्योंकि वह अपने मां बाप को लड़ते भिड़ते देखते हैं, तो उन्हें शादी से ही घृणा हो जाती है। मां बाप पहले भी लड़ते भिड़ते थे परन्तु पहले सास-ससुर जेठानी देवरानी समझा लेती थी, दो चार घंटे में ठीक हो जाते थे, परन्तु अब उन्हें कई दिन नार्मल होेने में लग जाते हैं। संयुक्त परिवार को इसलिए रा-स्व-संघ ने भी दस बारह साल से गंभीरता से लिया है और परिवार प्रबोधन को एक उपक्रम के रूप में लिया है। मैं समझता हूं कि यह एक अच्छा प्रयास है और हमें मीडिया के माध्यम से भी इसे बढ़ावा देना चािहए।
प्रश्न: बच्चों की शिक्षा के आरंभिक वर्षो में मातृभाषा में पढ़ाया जाना चाहिए, ऐसा सभी शिक्षाविद भी मानते हैं। लेकिन यहां आरंभिक स्टेज में घर से ही अंग्रेजी सीखना शुरू कर देते हैं इसमें आपकी राय।
उत्तर: पूरे विश्व में यही मान्यता है यह दुर्भाग्य की बात है कि जहां इंग्लैंड का वर्चस्व था, वही अमेरीका में भी था, उसके अतिरिकत, फ्रांस, जर्मनी, जापान, स्पेन, चीन, रशिया आदि देशों में बच्चे अपनी भाषा में ही पढ़ रहे हैं। सात सौ करोड़ में से पांच छह सौ करोड़ तो अपनी भाषा में ही पढ़ रहे हैं। अंग्रेजी को आज अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है उसमें कोई बुराई नहीं, परन्तु उन्हें यह भी समझा दें कि मां की जो भाषा है, पर मां की भाषाएं ही आज बिगड़ रही हैं। मां ही पहले दिन से मिली जुली भाषाएं बोलेगी पहले दिन से और अंग्रेजी का प्रयोग ज्यादा करेगी तो बच्चे के ऊपर जो गर्भ में है उस पर भी तो वहीं संस्कार जा रहा है, अब जो नई संतान उत्पन्न हुई गत तीस चालीस वर्ष में, न वह बढ़िया अंग्रेजी लिख सकती है और न अच्छी हिन्दी बोल सकती है। फिल्म इंडस्ट्री ने हिन्दी को बढ़ावा दिया, लेकिन हिन्दी को उन्होंने एक तरह से अंग्रेजी बना दिया। वास्तव में हम संक्रमण काल में हैं। परिवर्तन अच्छे बुरे दोनों हो रहे हैं, महाभारत में अन्तिम विजय किसकी, जिसका जोर ज्यादा लगता है। विजय तो सत्य की ही होनी चाहिए परन्तु मेरा यह मानना है कि भारत में अभी बहुत देरी कर दी हमने सुधारने में, अब जितनी देरी की है उसकी उसी तरह ज्यादा मेहनत करके इसको ठीक करना है।
प्रश्न: इसके अतिरिक्त आप कुछ विचार इस विषय पर देना चाहेंगे।
उत्तर: मेरा यह मानना है कि शिक्षा नीति को बहुत ही ईमानदारी से, अपना दायित्व समझते हुए इस देश में लगभग 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पढ़ने पढ़ाने में लगे हुए हैं। उनके मन में यह भाव आना चाहिए कि अब यह हमारा काम है। नीति बनाने वालों ने बना दी, साधनों की कोई कमी नहीं आती। अभी मैं कर्नाटक गया था। चार-पांच शिक्षा के मॉडल देखे। गुरुकल और मार्डन को मिलकर चलने वाले 10-15-20 बच्चों में 4-5 बहुत ही उच्च शिक्षित लोग जो दस दस लाख रु. को महीनों की नौकरी छोड़ कर इस काम में लगे हैं, तो उनसे मेरी बात हुई, मैंने पूछा कि उनका असर नीचे तक कैसे जाएगा तो उनका कहना था कि हम इसको मॉडल रूप में बना रहे हैं पायलट प्रोजक्ट के रूप में यह नीचे तक जाएगा। बहुत समय लगेगा। क्योंकि इसके सरकूलेशन की थ्योरी बहुत धीरे चलती है।
सरकार के पास साधन पूरे नहीं हैं। पचास प्रतिशत बच्चे आज भी गैर सरकारी साधनों से प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए शिक्षा को यज्ञ मानकर अच्छी संस्थाएं जो लाभ के लिए नहीं हैं, उन लोगों को बढ़ावा देना चाहिए, और जो लाभ कमाना चाह रहे हैं उन पर पाबन्दी लगे। और खास कर टयूशन कल्चर कोचिंग कल्चर को सरकार को लक्ष्य बना कर तीन साल में बंद करना चाहिए। कोचिंग और कोचिंग के लिए विज्ञापन यह सब बंद होना चाहिए। स्कूल के अंदर ही बच्चों को पढ़ाया जाय और वहीं पर अतिरिक्त तैयारी के लिए व्यवस्था हो। यह आईआईटी की तैयारी करना है। क्लेट के लिए, क्यूट के लिए यह जो अलग अलग बिजनेस मॉडल आ गए हैं, जिनमें करोड़ों रु- की खरीद होती है, आकाश आदि यह बड़े-बड़े नाम आ गए हैं। यह खुले आम लूट है, शोषण है, और यह प्रतिभा को कुंठित करके केवल स्कूल के एग्जाम पेपर को देखना और पास करना उस और उसके लिए गलत हथकण्डे भी अपनाना यह सब हैं चीजें।
जैसे उ.प्र. में योगी जी ने पिछले 40 साल में पहली बार बिना नकल किए और बिना गलत तरीकों केे परीक्षा करवाना, पचास लाख विद्यार्थियों का, उसी प्रकार कोचिंग सेंटर बंद करवा कर सरकारी व्यवस्था में कोचिंग की जिनको जरूरत है करवानी चाहिए। कमजोरों को कोचिंग की जरूरत होती है। लेकिन यह जो कल्चर के रूप में आ गया है। यह नई पीढ़ी को गलत दिशा में ले कर जा रहा है और माता-पिता के ऊपर बहुत कर्जा लेकर बच्चों को कोचिंग करवाते हैं। कोटा में हजारो बच्चे बैठा रखे हैं। बाद में वह डिप्रेशन में आते हैं, आत्महत्याएं हो रही हैं। परीक्षा दिल्ली में हो रही है, पढ़ाई कोटा में हो रही है। कोटा इंदौर आदि कई शहर ऐसे पनप गए हैं। इनको रोकना चाहिए, मैं कहूं कुचलना चाहिए बहुत तेजी से इन पर काम होना चाहिए।

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