कहानी चित्रलेखा अग्रवाल
फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक
सिया के बचपन की स्मृतियाँ और
विवाह पश्चात् की रिश्तेदारी में मचलती अनुभूतियाँ
संयुक्त परिवार में मिली जुली मुस्कुराहटें,
अठखेलियाँ दर्शाती भावपूर्ण कहानी।
तुलसी का मैसेज पढ़कर सिया उत्फुल्ल हो उठी। तुलसी ने लिखा था-‘मैं तीजों पर मायके जा रही हूं। तुम बताओ उमंगों के इस त्यौहार पर तुम कहां झूलोगी? सहारनपुर क्यों जाओगी। वहां से तो अंकल का ट्रांसफर हो चुका है। तुम तो एक झोंटा ईरान में लोगी और दूसरा तूरान में। भई तुम तो बड़ी लकी हो। देख लेना एक दिन पूरा हिन्दुस्तान सहेलियों के मामले में तुम्हारे लिये ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ बन जायेगा।
पत्र पढ़कर सिया का मन डूब गया। पापा की बदली की सूचना मां ने पिछले हफ्रते ही उसे मोबाइल पर दे दी थी-‘इस बार तुम्हें सावन में बरेली आना है।’ बस वह तब से ही अनमनी हो गयी थी। सिया ने मां को कोई जवाब नहीं दिया और न ही बरेली जाने का तय कर पाई।
आज तुलसी का मैसेज पढ़कर सिया गहरे सोच की सीढ़ियां धड़ाधड़ उतरती चली गयी। वह सोचने लगी-‘बचपन की स्मृतियों के अनमोल मोती। किस शहर के आंगन में ढूंढने जाऊँ? वह किसी एक ही शहर की बगिया में कली से फूल नहीं बनी। जब कभी वह दादी के पास छुट्टियों में संभल जाती तो उसे बहुत आनंद आता। चचेरे तहेरे भाई बहन उसे घेर लेते और ईर्ष्या मिश्रित उल्लास से उसे ‘उड़नी चिरैया’ कहकर चिढ़ाने का प्रयत्न करते। वह भी नमक मिर्च लगाकर बड़े चटखारे ले लेकर उन्हें नये-नये शहरों के विषय में बतलाती जिनमें वह पापा के ट्रांसफर के दौरान रह चुकी होती थी। प्रत्येक वाक्य में वह यही आनन्द छुपाये रहती-‘अजी जो मजे हमारे हैं वह तुम्हारे कहां।’ एक ही जगह पड़े-पड़े। वह कभी इस मुंढेर पर और कभी रसोई की टीन पर बैठकर उनसे अपरिचित शब्दों का प्रयोग जानबूझकर करती ताकि वह सबकी सरदार बनी रहे। जब वह कानपुर से आई तब लकड़ी रखने की बुखटिया में बैठकर बतियाने लगी। तभी उसका चचेरा भाई दिकेश कलई के गिलास में उसके लिये पानी लाया तो उसने पीने से मना कर दिया। दिकेश बेचारा सुस्त हो गया तो सिया बोली-‘बेचारा दीकू जेर हो गया। लाओ हम पी ही लेते हैं। दिकेश उसे पानी देते हुए बोला-‘जीजी जेर क्या होता है?’ वह यही तो चाहती थी अतः अपनी विद्वता झाड़ते हुए बोली दकानपुर में तो ऐसे ऐसे बोले जाते हैं जो तुम सबके लिये अरबी फारसी है। पर हम उन सबको जानते हैं। ‘जेर’ का मतलब होता है झेंपना। अपना अपमान होने पर झेंपना।’ दिकेश ने अपनी झेंप हंसकर दूर कर दी।
काफी छुट्टियां दादी के पास बिताकर जाते समय सिया के नेत्र सजल हो उठते। पर वह हंसते-हंसते अम्मा-पापा के संग तांगे पर बैठ जाती और दूर-दूर तक टा-टा करती हंस-हंस कर। उन लोगों से शहर आने को कहती। पर तांगे में बैठी-बैठी सिया यही सोचती कि यदि कभी सब एक साथ वहां आ जायें तो अम्मा किसे कहां बैठायेंगी। कहां किसे उठायेंगी, दादी का घर तो कालोनी जितना लम्बा चौड़ा है। शहर में तो हमारे पास दो ही कमरों का मकान है। जिन्हें सिया बड़े रौब से एक को बैडरूम और दूसरे को डाइनिंग रूम कम ड्राइंगरूम बताती। अम्मा ने संदूकों को जोड़कर उनके ऊपर गद्दे और चादर बिछाकर दीवान का रूप दे दिया था। जबकि दादा जी की बैठक में बस मूंढे थे और बीच में तीन टांग की गोलमेज पड़ी थी। न कुर्सियां थीं, न सोफा और न ही दीवान। ‘यह भी कोई ड्राइंगरूम होता है?’ सिया उनसे पूछती। अम्मा ने सोफे पर कवर चढ़ा रखे थे। गद्दियां भी बिछाई हुई थीं। सोफे साथ दो कुर्सियां भी थीं उस ड्राइंगरूम में और मेज दादा जी की बैठक जैसी लकड़ी की नहीं वरन शीशे की थी जिसके पाये स्टील के थे। जब सिया उन्हें अपने ड्राइंगरूम के विषय में बताती तो उनकी आंखों में आश्चर्य तिरने लगता। इसी ड्राइंगरूम में जैसे तैसे एक अदद डाइनिंग टेबिल भी पापा ने फंसा ही ली थी। यदि खाते समय कोई मिलने आ जाता तो आने वाले को खड़े-खड़े प्राणायाम करके सोफे तक पहुंचाना पड़ता। डबलबैड की चौड़ाई ने कमरे पर अपना पूरा अधिकार कर रखा था। गर्मियों में फोम के गद्दे सिया के शरीर में आग लगा देते थे। जब गरमी में सिया दादी के पास आती तो बान की चारपाई पर सोने में उसे बड़ा सुख मिलता। उस सुख को याद करके सिया वापस आने पर फोम के गद्दों पर कई-कई दिनों तक सो नहीं पाती थी। सिया के शहर वाले घर में स्टैण्डिंग किचन थी। वह अक्सर ताई से कहती-‘अम्मा की किचेन तो चांदी सी चमकती रहती है। खड़े-खड़े दसियों, आदमी का खाना मिनटों में बना देती हैं मेरी अम्मा।’
यदि वह लोग सच में ही उसके घर आ जाते तो वह क्या मुंह दिखाती-‘क्या यही बैडरूम है? क्या यही ड्राइंगरूम है? दादी की तो रसोई ही इत्ती बड़ी है कि खाने के लिये अलग-अलग क्यारियां बनी हुई हैं ताकि दादी का कोई चौका झूठा न कर दें। सर्दी में सब पंचदरी में सोते और गरमी में पट्टे में। अच्छा हुआ जो कभी कोई उन लोगों से मिलने शहर नहीं आया। जब सिया, अम्मा, पापा दादी के पास जाते तब बुआएं भी वहीं आकर मिल जातीं। अम्मा तभी बुआओं का टीकों और त्यौहारों का लेन-देन भी निबटा देती।
एक बार अम्मा का मन हुआ कि उसका कर्ण छेदन शहर में ही करा लिया जाये तो पापा ने मनाकर दिया-‘भानुमति का कुनबा इस कुचकुलिया में कैसे समायेगा?’ अतः उसका कर्णछेदन छोटी बुआ के ब्याह में दादी के घर में ही करा दिया। नजीबाबाद अवश्य सिया के पापा पांच साल रहे। सिया वहीं विवाह योग्य हुई। पापा ने दादी के घर आकर वहीं से उसका विवाह कर दिया। ताकि इकलौती सन्तान के ब्याह में सभी मिलने जुलने वाले सम्मिलित हो जायें।
विवाह के बाद सिया जब पहली तीज पर नजीबाबाई आई तो उसका उल्लास समेट नहीं सिमट रहा था। क्वार्टर में पीछे आम का पेड़ खड़ा था। उसी की डाल पर अम्मा ने बड़े शौक से झूला डलवाया था। खनकती हंसी के बीच सावन की मल्हारें सिया के अंग-अंग को उमंगों की बौछारों से भिगो गयी। उल्लास के वह पल, वह हफ्रता शकुन्तला की मुंदरिका की भांति कैसे सिया के हाथ से फिसल गया उसे पता भी नहीं चला। घर पर अम्मा के पास तो पल भर भी नहीं बैठ पाई सिया। रिक्शे से उतरते ही सामान की परवाह से सदैव की बेपरवाह सिया अम्मा के गले लगने का नेग करके संतो बुआ, पंडितानी ताई, बसंती चाची के घर उड़न छू हो गई और अम्मा देखती रह गईं और उसके अल्हड़पन पर मुस्करा दीं।
शाम को अम्मा ने न जाने क्या-क्या बनाया सिया की पसंद का। पर वह रेवती भाभी, चन्दो जीजी कुन्ती की मौसी के यहां से जरा-मरा में ही इतना छक आई कि अम्मा की मेहनत का ख्याल करके उसने एकाध कौर तोड़ा और फिर चल दी मोहल्ले में बतियाने। चलते-चलते अम्मा ने कह ही दिया -‘तेरा पैर घर में टिकता ही नहीं सिया। जब से आई है चकरधिन्नी सी मुहल्ले में डोलती फिर रही है।’ उल्टे पैरों अम्मा के पास आकर सिया बोली-‘पंडितानी ताई की दुन्नी, चाची की रानी, संतो बुआ की शीला सरोज भाभी की उषा। आज रेवती भाभी की टीन में बैठक जमायेंगे। रात को तुमसे जी भर के बातें करूंगी। तुम भी काम झटपट निरछू हो लेना’ यह कहकर सिया यह जा, वह जा।
रात को सिया के घर सब जुट जातीं। चौके की ओर सिया भूलकर भी नहीं झांकती। कभी ताश होता तो कभी झूले के गीत और कभी मेंहदी रचती। अम्मा झल्ला उठती-‘क्यों लल्ली। ससुराल में भी क्या तेरी सास ही चौके में पुजी रहती है। तेरे भी कुछ हाथ पैर हिलते हैं या नहीं वहां? मुझे तो लगे है कि तू————।’ तब सिया अम्मा को बीच में ही टोक देती-‘जरा वहां जाकर तो देखो अम्मा। हर समय सिर ढके रहती हूं। अम्मा जी को रसोई में झांकने भी नहीं देती मैं।’
दो तीज सिया की नजीबाबाद में ही व्यतीती। इस वर्ष पापा की बदली बरेली हो गयी। फिर से नये लोगों अंकल आण्टी, भैया-भाभी वगैहरा वगैहरा कहो। पापा को मकान तो अब भी सरकारी मिलेगा। पर वही सहेलियां, मायका होने का एहसास वहां कहां मिलेगा सिया को।
अम्मा ज्यादा से ज्यादा पास पड़ोस के दो चार घरों से या पापा के आफिस के कुछ सहकर्मी परिवारों से परिचित हो पाई होगी। बस उन्हें ही नये सिरे से आण्टी अंकल कहना पड़ेगा। यदि उनमें से किसी की ब्याहता बेटी अपने मायके आई हुई होगी तो उसे ही अपने संग झूले पटली की संगिनी बनाना होगा।
सिया ने सोचा ‘इस तीज पर दादी के पास हो आऊं। पर पापा ने अपने हिस्से का मकान दुकान बेचकर पैसा फिक्स में डिपाजिट करा दिया था। यही सोचकर कि जब रिटायर होंगे मनपसंद जगह पर मकान बनवा लेंगे। अभी से इस पचड़े में क्यों पड़े।
फिर भी कभी चाची तो कभी ताई का फोन आ ही जाता-‘सिया तुझे सब याद करते हैं। इस बार सावन में यहीं आ जाना।’ जब पापा ने अपने हिस्से का मकान बेचा था तो वह हादसा सिया को कितनी वेदना, कितनी टूटन दे गया था। इसका एहसास करके भी पापा चुप रहे थे और उसे समझाते हुए बोले थे-‘अभी तो मकान दुकान के अच्छे पैसे मिल रहे हैं। मान लो इसे न भी बेचूं तो देखभाल के अभाव में खण्डहर हो जायेेगा और दाम गिरते जायेंगे। अभी तो फिक्स में डालने से इतना पैसा मिल जायेगा कि रिटायरमेण्ट तक अपनी भी एक कोठी हो जायेगी।’
अब दादी नहीं रही थीं अतः ताई और चाची के बुलावों में पहले वाली आत्मीयता और आग्रह तो नहीं होता था। फिर भी सिया ने तय किया कि वह उन्हीं औपचारिक निमंत्रणों पर वहां जायेगी। वहां चचेरी तहेरी बहनें और बुआएं भी आयेंगी ही। पड़ोस की सहेलियां भी उसकी स्थायी सहेलियां थीं। जब भी सिया दादी के पास जाती थी सुनते ही सब उससे मिलने औंधे मुंह दौड़ी आती थीं। सुबह से रात कर देती थी। सब साथ-साथ खेलने और बातें बनाने में। उनमें से दो चार तो अवश्य ही तीज पर तीज मनाने मायके आई हुई होगी।
सिया दादी के घर आई तो सबने उसे ‘उड़नी चिरैया’ के नाम से चिढ़ाना शुरू कर दिया। पर अब वह ‘उड़नी चिरैया’ सुनकर खिल नहीं सकी। मानो ‘उड़नी चिरैया’ के पर उड़ते-उड़ते थक गये हाें और वह एक ही बगिया में विश्राम करना चाहती हो। दादी का घर अब भी वैसा का वैसा ही भरा पूरा था। केवल चाची और ताई के चूल्हे अलग-अलग हो गये थे। पिताजी वाला आधा हिस्सा ताऊ जी ने और आधा चाचा ने खरीद लिया था। सिया ने अनुभव किया कि उसके बचपन का एवं कैशौर्य का अधिकांश यहीं के आंगन में बिखरा पड़ा है। पर वह यहां के औपचारिक निमंत्रणों पर तो उन्हें सहेजने हर वर्ष यहां आ सकती नहीं। पर अभी चचेरे तहेरे भाई बहनों के विवाह होने शेष हैं। सुख-दुख की ढेरों घड़ियां आयेंगी जो उसे यहां खींच लायेंगी।
तीज से दो दिन पहले रात को बरामदे में झूला झूलना शुरू हो गया। बीच-बीच में सिया के हृदय में अम्मा की याद सावन के मेघों में बिजली बनकर कौंध जाती। सिया छोटी बुआ के साथ झूले पर बैठी तो बड़ी बुआ और मंझली बुआ ने उसकी पसंद की सावनी ‘पलट गये कर्मो के पासे, बदल गयी हाथों की रेखा’ तथा ‘सावन की अंधियारी कहीं बरसे बदरियाकारी’ गाया।
सब दूसरे दिन रात को मेंहदी रचाने बैठी तो मंझली बुआ ने सिया से कहा-‘आ उड़नी चिरैया। तेरे हाथों में चिड़िया रचा दूं।’ ऊपर से फीकी हंसी हंसकर सिया बुआ से बोली-‘बुआ अब भी क्या मैं उड़नी चिरैया हूं? पापा की ही तो बदली होती रहती थी, इनकी तो नहीं होती। अब यह नाम ताई की कम्मो जीजी का रख दो, जीजा जी की हर दूसरे तीसरे वर्ष डाल बदलती रहती है। और बेचारी कम्मो जीजी को इधर से उधर उड़ते रहना पड़ता है’-कहकर सिया ने अपनी बेटी गोधूलि के हाथ में मछली रचाने के लिये मेंहदी रखकर मुट्ठी को बारीक कपड़े से बांध दिया।