लेख
डॉ. राम बहादुर व्यथित
अपनी संतति पर प्यार लुटाइए। हमारी संतान ही हमारे भावी जीवन की आधारशिला है।
संतान पर अपने ममत्व और वात्सल्य की वर्षा कीजिए। आपकी बगिया उनकी सुगंध से महक उठेगी।
जुलाई, 2023
स्वास्थ्य विशेषांक
शैशव जीवन की आधारशिला है। शैशवावस्था में जो संस्कार मनः मस्तिष्क पर पड़ते हैं-वे अमर हो जाते हैं। शैशवावस्था में ही देवत्व के अंकुर फूटते हैं, शिशु ही विकृत संस्कार और गंदे परिवेश में पल कर राक्षसी वृत्ति अपना लेते हैं। अभिमन्यु ने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह भेदन की कला सीख ली थी। भगवान कृष्ण शैशवावस्था में ही संपूर्ण गोकुलवासियों के प्राणाधार बन गए थे। अतः अपने शिशु के पालन पोषण उसकी सम्यक परवरिश और उसके स्वास्थ्य पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
शिशुओं के प्रति अभिभावकों
की उदासीनता
आधुनिक जीवन चक्र इतना मशीनीकृत और संवेदनहीन हो गया है कि अभिभावक वृन्द अपने शिशु पर पूरा ध्यान नहीं रख पाते। माता-पिता नाश्ता करके अपनी ड्यूटी पर चले गए। अबोध शिशु मां के वक्ष से चिपकने के लिए तरशता रहता है। आया शिशु को दूध पिलाती है, वही शिशु को नहला कर, वस्त्र बदलकर, बेबी कॉट में बिठाकर बाग में घुमाने ले जाती है। शाम को मम्मी आकर भेाजन पकाने में व्यस्त हो गई। रात को उन्हें किट्टी पार्टी में जाना है। बेचारा शिशु मां की गोद के लिए उसके लाड़ दुलार और ममत्व के लिए तरसते हुए ही किशोर बन जाता है। ऐसी अवस्था में उस शिशु में वही संस्कार आएंगे जो उसकी आया उसमें आरोपित कर देगी।
शिशु की मनःस्थिति को पढ़ने का अभ्यास डालिए, सारा जीवन भाग दौड़ और अर्थोपार्जन में ही व्यतीत हो जाएगा। यदि अपनी संतान का हम सम्यक विधि से पालन पोषण नहीं कर सके तो वह गलत संगति में पड़ कर एक उदंड युवक बनेगा। परिणामतः हमारे परिवार की सुख शांति नष्ट हो सकती है। ध्यान से देखिए–हमारा शिशु उदास क्यों रहता है? वह समय से बोलना क्यों नहीं सीख सका? वह स्वभाव से चिड़चिड़ा क्यों है? उसके मस्तिष्क का उचित ढंग से विकास हो रहा है अथवा नहीं? उसे कौन सा भोजन खिलौने या खेल पसंद है? किस दृश्य वस्तु या व्यक्ति से उसे एलर्जी होती है, यदि माता-पिता जीवन की भाग दौड़ में इतने व्यस्त रहे कि आपने बालक की उदासीनता, उसकी उदंडता या शरारतों का मनोवैज्ञानिक आकलन नहीं कर सके तो आपका बालक आपके अंकुश से बहुत दूर होकर या तो दुष्प्रवृत्तियों का शिकार हो जाएगा या आवारा, उदंड, अनुशासनहीन और क्रोधी स्वभाव का बन सकता है। कहीं ऐसा न हो-आपका पाल्य वांछित ममत्व, वात्सल्य और स्नेह के अभाव में एकाकी, उदासीन या अन्यमनस्क बालक बन जाए। फिर उसका निदान दुष्कर है। अभी समय है-अपने बालक की मनःस्थिति पढ़ने का अभ्यास करें और एक श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक चिकित्सक बनकर उसके मानसिक तनाव, मानसिक पीड़ाओं और अंतर्व्यथाओं का अध्ययन करके उनका यथासमय इलाज कीजिए।
मानसिक विकृतियां तेजी से
बढ़ रही हैं
आज से साठ सत्तर वर्ष पूर्व मानसिक रोगों का नाम ही नहीं था। बच्चे को यदि उदास देखा तो दादी उसे पुचकार कर गोद में लिटा कर दो मीठी लोरियां सुनाई और बालक का सारा दुख और संताप दूर हो गया। आज यदि बालक उदास है, खिन्न है, पढ़ाई के बोझ से व्याकुल है या स्कूल में शिक्षक की डांट खाने के कारण अत्यंत परेशान है तो उसकी ओर ध्यान देने का किसी के पास समय ही नहीं है। दादा-दादी को बाहर के छप्पर में स्थान दे दिया गया है अथवा उन्हें वृद्धाश्रम की राह दिखा दी गई है। माता-पिता स्वयं इतने टेंशन में रहते हैं कि वे एक दूसरे पर अपनी झल्लाहट उतारते हैं और उनकी तकरार में ही आधी रात गुजर जाती है। बेचारा बालक स्कूल के टेंशन से इतना दुखी नहीं हुआ था, जितना वह अपने माता-पिता की कलह देखकर व्याकुल हो उठा। खिन्न होकर वह अपने कमरे में जाकर तकिए में सिर अड़ाकर सो जाता है। इसीलिए बालकों में बात-बात पर क्रोध करना, बड़ों को अनाप-शनाप उत्तर देना, बहन भाई के प्रति आक्रोश पूर्ण व्यवहार यहां तक की माता-पिता के प्रति अवज्ञा और आक्रोश प्रकट करना यह सारी विकृतियां बालकों के मन में तेजी से प्रविष्ट हो रही हैं, जिनका यथासमय निदान परम आवश्यक है। हर समय मोबाइल फोन देखते रहना, नाना प्रकार के वीडीओ गेम्स या टीवी शो देखने से बालक की आंखों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। वे परिवार के हंसते खेलते वातावरण से दूर रहकर अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं।
समय से पूर्व रोगों का निदान
परम आवश्यक है
बालक के समस्त मानसिक संताप, रोग और दुश्चिन्ताओं का निदान करना माता-पिता का नैतिक कर्तव्य है। अभिभावक अपनी अर्थोपार्जन की व्यस्तताओं से निकलकर अपनी संतान को भरपूर समय दें, उसे इतना लाड प्यार और वात्सल्य दें कि बालक के आधे रोग स्वयं दूर हो जाएं। कुछ माता-पिता पढ़ाई, अनुशासन या पारिवारिक उलझनों को लेकर हर समय बालकों को डांटते रहते हैं, कभी-कभी उसे दंडित भी करते हैं। इससे बालक में आक्रोश की भावना जन्म लेगी। वह उदास और उदंड बनकर परिवार से अलग-थलग रहने लगेगा। यह चिंता का विषय होगा।
मां की गोद में अमृत का वास होता है। मां अपने शिशु की सबसे बड़ी मनोचिकित्सक है। वह अपने उदास शिशु को अपने वक्ष से चिपटाकर उसे अपने वात्सल्य की निर्झरिणी से परम संतुष्टि प्रदान कर सकती है। पिता सदैव अधिनायक या तानाशाह बनकर पुत्र को डांटने मारने की प्रवृत्ति त्याग दें, बल्कि माता-पिता को अपने किशोर के साथ सदैव मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। प्रेम, वात्सल्य और ममत्व की निर्झरिणी बालकों के मनःस्ताप और मानसिक रोगों की अचूक दवा है। यदि कोई विशेष मानसिक रोग पनप रहा हो, तो माता-पिता को उसकी उपेक्षा न करके तुरंत किसी योग्य मनोचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। ध्यान रखें-आपका नन्हा सा किशोर या लाडली बिटिया ही आपके जीवन की अनमोल निधि है, आपके उपवन की मनमोहक सुगंध है, आपकी भावी जीवन की वह लाठी है जो बुढ़ापे में आपको पल-प्रतिपल सहारा देगी।
परिवार में प्यार के फूल बिखेरिये
आपके आंगन में हंसती खिलखिलाती नन्हीं सी गुडि़या के लिए चार पंक्तियां निवेदन करता हूं।
‘तू हंसे जग उजियारा है
तू रोये नभ अंधियारा है
तेरे हंसने से खिलें फूल
तू हो उदास, सब खारा है।
गुडि़या! तेरी पायल छमछम
तुझ पर यह जीवन वारा है।।’
अपनी संतति पर प्यार लुटाइए। हमारी संतान ही हमारे भावी जीवन की आधारशिला है। संतान पर अपने ममत्व और वात्सल्य की वर्षा कीजिए। आप फूल बांटेंगे———ईश्वर आपकी झोली पुष्पों से भर देगा और आपकी बगिया उनकी सुगंध से महक उठेगी———फिर आपके राजभवन में कोई मानसिक विकृति या रोग प्रवेश ही नहीं कर सकता।