लेख दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
कम उम्र से पढ़ाई का दबाव, आगे रहने की चुनौती,
हॉबी क्लासेज जैसे उपक्रमों के बीच बाल-जीवन की
स्वभाविकता ही समाप्त प्राय हो गई है।
अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक
रात का वक्त रोशनी की चकाचौंध—फिजा में डीजे का संगीत और उल्लास भरा कोलाहल, गांव में बारात आयी थी, लोग नाच रहे थे। नाचने वालों की भीड़ में 11 वर्ष का कमल और मामा के घर आया 10 वर्षीय बच्चा भी शामिल था। नाचते समय दोनों में धक्का मुक्की होने लगी। अचानक दूसरे बालक ने कमल को थप्पड़ मार दिया और भोजन के स्टॉल की तरफ दौड़ गया। लोगों ने समझा, अपने से बड़े लड़के को मारने के बाद वह पीटने के डर से भाग लिया। मगर यह भूल थी, वह भोजन स्टॉल से टोमेटो सॉस की कांच की बोतल लेकर लौटा और कमल के सिर पर मार दिया। इससे लहूलुहान होकर कमल चीखते हुए जमीन पर गिर पड़ा, इस आकस्मिक घटना से लोग स्तब्ध रह गए। कमल के स्वजन तत्काल उसे अस्पताल ले गए, जहां चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया——-।
यह घटना बरेली के नाबाबगंज क्षेत्र के एक गांव की है। स्हेलखण्ड मेडिकल कॉलेज की नामचीन मनोविज्ञानी डॉ- हेमा खन्ना ने इस संबंध में कहा कि किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चों में तेजी से हार्मोन्स परिवर्तित होते हैं। इस स्थिति में फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य उनके दिमाग में बैठ जाते हैं और वे उसी तरह प्रतिक्रिया देने लगते हैं। यह प्रकरण भी ऐसे किसी दृश्य का दुष्प्रभाव है। बालक ने हत्या के इरादे से नहीं, बल्कि फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य की नकल में कांच की बोतल से प्रहार किया होगा। डॉ- हेमा का कहना है कि अभिभावकों की जिम्मेदारी है, वे अपने बड़े होते बच्चों पर निगाह रखें। उनमें अच्छे और बुरे की समझ विकसित करें। एक सनसनीखेज घटना पर मनोविज्ञानवेत्ता की त्वरित प्रतिक्रिया के तौर पर यह कथन ठीक है, लेकिन इस तरह की घटनाओं के पीछे कई उलझे हुए मनो-सामाजिक द्वन्द्व भी होते हैं।
वास्तव में किशोरावस्था की दिशा में बढ़ते बच्चों में हार्मोनल परिवर्तन की आयु 12 वर्ष के आसपान शुरू होती थी, तब किन्हीं बच्चों में ‘एनिमल इन्सटिंक्ट्स’ प्रबल हो जाया करते थे। यह बच्चे गुस्सैल, आक्रामक, चिड़चिड़े, आक्रोश से भरे और आत्मनियंत्रण में कमजोर हुआ करते थे। मगर अभी जो मनोवैज्ञानिकों के निष्कर्ष हैं, उनके अनुसार अब यह झंझावात की अवस्था डेढ़ दो वर्ष पहले ही आने लगी है। इसका कारण है-प्रकृति से कटा कृत्रिम जीवन, भौतिकवाद से उपजी जीवनशैली, रेडीमेड खानपान, एकल परिवारों के दौर में बच्चों में बढ़ता अकेलापन और सूचना विस्फोट—-। यह अपना अधिकतर समय टीवी के आगे या सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर बिता रहे हैं। निम्नवर्ग के बच्चों के परिवार में स्मार्टफोन भले ही न हो, किन्तु यह भी अपने मध्यवर्ग के मित्रें के बीच मोबाइल में उपलब्ध वयस्क कंटेन्ट या क्राइम थ्रिलर का मजा लेने में पीछे नहीं रहते हैं। फिल्म, टीवी के क्राइम पर आधारित धारावाहिक और वीडियो गेम की मारधाड़ व खून-खराबा को बार-बार देखने वाला बच्चा हिंसा के प्रति संवेदन-शून्य तो ही जाता है, हिंसापूर्ण कृत्य उसके लिए आनन्द की सामग्री बन जाते हैं।
अभी थोड़े दिन पहले एक खबर आई थी कि दिल्ली के एक स्कूल में कुछ बच्चों ने एक शिक्षक को चाकू मार के घायल कर दिया था। क्योंकि शिक्षक ने उनको यूनिफार्म के लिए डांटा था। यह खबरें सोचने को मजबूर करती हैं कि बच्चा जो कि मूलतया कोमल भावनाओं से भरा होना चाहिए, उसके अंदर इतनी हिंसा, गुस्सा रक्तपात की प्रवृति और अनियंत्रित उत्तेजना कहां से आ गई है। मनोविज्ञानवेत्ताओं की धारणाओं से इतर यह सवाल हमें अपने आसपास देखने समझने को मजबूर करते हैं, जब हम गंभीरता से पूरे परिवेश का अवलोकन करते हैं तो बच्चे का पूरा माहौल ही संवेदनाओं से कटा हुआ मिलता है। शिक्षा यांत्रिक हो चुकी है, यह बच्चों को तेज दिमाग वाला रोबोट बनाने में लगी है। अध्यापक के सामने भारी-भरकम पाठयक्रम पूरा करने की जिम्मेदारी होती है और विद्यार्थी के सामने इसे याद करने की चुनौती। छात्र-अध्यापक के बीच होने वाले अनौपचारिक संवाद समाप्त प्राय हैं। पारिवारिक परिवेश में आए बदलाव भी बच्चे पर गलत असर डाल रहे हैं। पहले के समय में बच्चे अपना अधिकतर समय परिवार के सदस्यों के बीच बिताते थे। माता-पिता, दादा-दादी से उनका सघन संवाद हुआ करता था। उसे भरपूर प्यार मिलता था तो गलती पर डांट भी। निरंतर छोटे होते परिवार, समाज की सामूहिकता का लोप, अर्थ की प्रधानता, अपने तक सीमित होकर जीने की प्रवृत्ति, मां-बाप दोनों का वर्किंग होना जैसे कई कारण बच्चों के भटकाव के जिम्मेदार हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है-‘बच्चों का संपूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास प्रकृति की गोद में ही संभव है।’ इस कथन के पीछे बच्चों के मन में संवेदनात्मक और नैतिकता का भाव भरने का विचार था। बच्चे प्रकृति से कोमलता-उदारता सीखते हैं। पहले पारिवारिक जीवन में कई परम्पराएं थीं, जो बच्चों को परिवेश से जोड़ती थीं। रसोई में सिकने वाली पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते की कही जाती थी। यह भले एक रूढ़ि थी, लेकिन छोटे बच्चों के लिए इसमें भरपूर रोचकता होती थी। वह इस बात से गाय और कुत्ते से ही नहीं आकर्षित होते थे, बल्कि धीरे-धीरे ढेर सारे जीव-जंतुओं, वनस्पति, नदी, पहाड़, झरनों से जुड़ते थे। इनको लेकर वह ढेर सारी कल्पनाएं करता था। उसकी तमाम कल्पनाए बेसिर पैर की होती थीं। मगर यह उसके दिमाग को झाड़-पोंछकर साफ और सक्रिय रखती थीं।
आज कहा जाने लगा है कि यह दुनिया तर्क, विज्ञान, सूचना और वास्तविकता पर टिकी है। यथार्थ के नाम पर कल्पना, किस्से, कहानियों और कविता भी खारिज कर दी गई हैं। कल्पनाविहीन सृजनात्मकता की दुनिया में नैसर्गिकता का अभाव है। परिणामतः हर दिन ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जो हमें बेचैन करता है। बचपन जीवन की सबसे चुहलभरी अवस्था हुआ करती थी। खाना-पीना, खेलकूद, बेफिक्री, हल्के-फुल्के झगड़े, फिर सुलह, दोस्तों संग मस्ती यह होता था बचपन———। मगर अब लगता है बचपन आता ही नहीं। बच्चों की मासूमियत कब गंभीरता का स्थान ग्रहण कर लेती है-पता ही नहीं चलता। लगता है, आज की पीढ़ी के बच्चे अपने बचपन को जिए बिना परिपक्व होते जा रहे हैं। तकनीक और मीडिया ने समय से पहले हस्तक्षेप करके उनका बचपन छीन लिया है। आज की पीढ़ी का बचपन एक न दिखने वाली दौड़ में शामिल हो जाता है। कम उम्र से पढ़ाई का दबाव, आगे रहने की चुनौती, हॉबी क्लासेज जैसे उपक्रमों के बीच बाल-जीवन की स्वभाविकता ही समाप्त प्राय हो गई है। पहले निम्न-वर्ग के बच्चे मध्य और निम्न मध्य-वर्ग के बच्चों को रोल-मॉडल के तौर पर देखकर अपनी दिशा का निर्धारण करते थे। अभी सब एक ही धारा में समाहित हो गए हैं। सबको एक बात समझाई जाने लगी है कि अभी पढ़ाई लिखाई करो, दोस्ती और खेलने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है। जबकि बचपन की उमंगों भरी हरकतें ही एक मजबूत व्यक्तित्व का निर्माण करती है। मजबूत व्यक्तित्व, आक्रामक, अस्थिर, गुस्सैल, हिंसक और अपराधी नहीं होता। बल्कि यह सृजनशील होता है। सचमुच की सृजनात्मकता कल्पना की देन होती है।
निश्चित रूप से कल्पनाशीलता प्रकृति की गोद में पनपती है। मगर जरूरी नहीं कि इसके लिए आप हिल स्टेशन जाएं। मोहल्ले के पार्क में बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताना, उनके मन की बात सुनकर उस पर अपनी सकारात्मक राय देकर भी आप बच्चे के तनाव को कम कर सकते हैं। बाल मनोवैज्ञानिकों का अभिमत है कि अभिभावक अगर बच्चों की छोटी-बड़ी बातों पर गौर करते हैं, तो बच्चों का उग्र और शरारती स्वभाव शांत होगा। अगर आप बच्चे को यह अहसास कर सकें कि वे जैसे हैं, उसी रूप में आप उनसे प्यार करते हैं तो वह कभी गलत राह नहीं पकड़ेगा। यह कथन है बाल मनोवैज्ञानिक एमिली कैथरीन का। उनका मत है कि नसीहत देने के बजाय उसकी पूरी बात गंभीरता से सुनी जाय। फिर वे खुद ही अपनी भावनाएं और समस्याएं आप से साझा करेंगे। वास्तव में बच्चों का अभिभावक के साथ सघन संवाद बालक को जिद्दी और उजड़ नहीं बनने देता है।
अकेलेपन से त्रस्त, अपने आप में गुमशुम बच्चा निराशा और कुंठा से ग्रस्त होता है। यह बच्चे श्रेष्ठता की ग्रन्थि में पीड़ित और अनुकूलन में अत्यंत कमजोर होते हैं। इनके मस्तिष्क में एक नासमझी का कुहासा भरा होता है, जो विवेक सम्मत निर्णय लेने से इतर तात्कालिक संवेग के स्तर पर निर्णय ले बैठते हैं। परिणामतः खून-खराबा की घटनाएं सामने आती हैं। निश्चय ही समय रहते हमें सचेत होना होगा। तांत्रिक तंत्र के वैज्ञानिक बी-एस- ग्रीनफील्ड बच्चों को इस स्थिति से बचाने के लिए उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव, वयस्क पीढ़ी के साथ अंतःक्रिया, सृजनशीलता और खेलने का अवसर देने को महत्वपूर्ण मन है। आज की भागदौड़ भरी तीव्र गति की जिन्दगी में यह सारी क्रियाएं नेपथ्य में चली गई हैं। अभी बहुत देर नहीं हुई है, अब भी संभलने का मौका है। बचपन को कृत्रिम बेड़ियों से मुक्त करके सहज भाव से जीने दें, जिसमें पढ़ाई के साथ खेल और यारी दोस्ती की मस्ती हो, साथ प्रेम भरे स्नेहिल आलिंगन और चुंबन भी। बस इतने से ही बच्चों के मन में छाया विध्वंस का कुहासा साफ होने लगेगा।