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बचपन का टुकड़ा

कहानी सावित्री देवी
जाह्नवी फरवरी 2023 अंक

विदेश में बसे भारतीयों को जब
अपने भारत का रहने वाला कोई मिल जाता है
तो उन्हें कितनी खुशी होती है अपने देश की
परम्पराओं को स्मरण करती कहानी।

आज का दिन स्वाती के लिए कुछ खास है। पांच सालों तक हॉस्टल में रहने के बाद आज उसकी बेटी मायरा घर वापस आई है। मायरा को पहली नौकरी अपने शहर में मिली, तो जैसे स्वाती का सपना सच हो गया। बरसों से मायूस पड़े घर के दिल से जैसे जिंदगी फूट पड़ी, चुप्पी को जुबान और जीवन को फिर से मकसद मिल गया।
आज मायरा का आफिस का पहला दिन है। इतने दिनों बाद सुबह-सुबह उसके लिए नाश्ता बनाती, लंच पैक करती हुई स्वाती उसे आवाज लगाती जा रही थी।
‘जल्दी कर बेटा, देर हो जाएगी, स्कूल बस निकल———।’ मां की आवाज सुनकर मायरा हंसती हुई किचन में दाखिल हुई और स्वाती के गले में बांहें डालकर बोली।
‘मॉम अभी तक तो आपको कालेज कहने की भी आदत नहीं पड़ी और मैं आज आफिस जा रही हूं। ग्रो अप मॉम,’ वह आंखें मिचकाकर बोली। फिर पूछा-ब्र्रेकफास्ट में क्या बनाया है, और लंच में क्या पैक किया है? ऊ—-ऊ——ऊ सुगंध तो बहुत अच्छी आ रही है। खाने की खुशबू लेते हुए वह अंगूठे और उंगली से बेस्ट का इशारा करते हुए बोली।
-तेरे फेवरेट चिकन बर्गर ब्रेकफास्ट में और लंच के लिए छोलेपूरी।
-वाओ मॉम, इतना सब बना भी दिया। कब से उठी हुई हो?
-ज्यादा तो नहीं बेटा, अभी एक घंटा पहले ही उठी थी।
-मोम आप इतनी आसानी से सब परफैक्टली और क्विकली कैसे बना लेती हो? मैं तो पिछले पांच साल से अपना ब्रेकफास्ट बनाती जा रही हूूं। मिल्क में सीरियल डालने और फ्रूटस काटने में ही मुझे आधा घंटा लग जाता है। मॉम मुझे भी ये सब बनाना सीखा दो ना।
स्वाती की विदेशों में पली-बढ़ी बेटी किचन के, घर के, काफी काम कर लेती है। चूंकि यहां अपने देश की तरह नौकर नहीं होते इसलिए घर का काम सबको मिल बांट कर करना पड़ता है। बच्चों को भी काम करना सिखाया जाता है। लेकिन यहां के तौर तरीके हमारे देश से काफी अलग है।
घर के काम करने की ज्यादातर मशीनें होती हैं। डिशवाशर, वाशिंग मशीन, सेन्ट्रल वैक्यूम क्लीनर, ग्रास मुअर, ग्रास ट्रीमर जैसी मशीनें वहां लग्जरी नहीं जरूरत है।
हर इतवार को अपना कमरा साफ करना बच्चों का काम होता है। वे गार्डन के काम जैसे घास काटना, पौधे लगाना, उनकी गुढ़ाई करना, पानी देना और सर्दियों में घर के सामने की बर्फ हटाना आदि कामों में भी अपने माता-पिता की मदद करते हैं। इस तरह वे बहुत से काम करना सीख जाते हैं।
लेकिन आज मायरा के सवाल को सुनकर स्वाती अभी तक अपने आपको खंगाल रही थी। बीस सालों से कनाडा में रह रही स्वाती का बचपन, इस बचपन से बिल्कुल अलग था। जो उसके यहां उसके बच्चों का रहा है। उसका घर के काम सीखने का अनुभव भी मायरा से पूर्णतः भिन्न था। स्वाती की मां ने उसे सब कुछ बड़ी शिद्दत से सिखाया था। मां की याद आते ही स्वाती अतीत के गलियारों में खो सी गई।
दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी स्वाती का लालन-पालन मां पिताजी, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा बुआ से भरे परिवार में हुआ था। मां ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी और न ही उसे बाहरी दुनिया का कोई खास अनुभव था। लेकिन दुनियादारी की जितनी भी समझ उसे थी उसके चलते वह अपनी बेटी को शिक्षा और बाहरी दुनिया की जानकारी से महरूम नहीं रखना चाहती थी। इसलिए एक ओर वह स्वाती की पढ़ाई पर पूरा ध्यान देती, तो दूसरी ओर हर साल गर्मी की छुट्टियों में वह उसे घर गृहस्थी से जुड़ी शिक्षा देने की भी भरसक कोशिश करती।
जब स्वाती बारह-तेरह साल की हुई तभी से मां ने उसके अंदर एक सुघड़ गृहिणी के बीज बोने शुरु कर दिए थे।
उसके जमाने में मोहल्ले पड़ोस को घर ही समझा जाता और पड़ोसियों को एक दूसरे का काम करने में कोई आपत्ति नहीं होती थी। बडे़ बच्चे, छोटे बच्चों को पढ़ा दिया करते और लड़कियां एक दूसरे को घर के काम में मदद कर देती। बाहर के सभी कामों का बीड़ा लड़कों पर होता, फिर वह काम चाहे अपने घर का हो या पड़ोसी के। अंकल आंटी जैसे सार्वजनिक संबोधन में सबके लपेटने की बजाय, पड़ोसियों को उनकी उम्र के मुताबिक चाचाजी, ताऊजी, भैया, दीदी जैसे रिश्तों से नवाजा जाता था। रिश्तों की मिठास को विभिन्न नामों के साथ बोया और सींचा जाता और यह पौध बचपन में ही रोप दी जाती थी।
पड़ोस में रहने वाली अम्मा, जिन्हें सब मिलवाली अम्मा कहते थे-
मिलवाली क्यों? पता नहीं। शायद किसी जमाने में उनकी मिल रही होगी। स्वाती ने तो जब से होश संभाला उनका यही नाम सुना था और कितना अजीब है कि उसने कभी सोचा भी नहीं कि उनका नाम मिलवाली अम्मा क्यूं है।
हां तो इन मिल वाली अम्मा की पढ़ा लिखी बेटियों के सलीकों की, स्वाती की मां हमेशा से कायल थी। मिलवाली अम्मा की दो बेटियां स्वाती से कुछ साल बड़ी और एक बेटी जिसका नाम मिति था वह स्वाती की ही उम्र की थी। मां स्वाती को कभी सिलाई कढ़ाई सीखने तो कभी चिप्स, पापड़ बनाना सीखने के लिए उनके पास भेज देती। दोनों दीदी बहुत प्यार से स्वाती और मिति को साथ बैठाकर, कभी एक-एक टांका लगाना सिखाती तो कभी सावधानी से पापड़ बेलना। लेकिन स्वाती का अल्हड़ मन इन नीरस कामों में बिल्कुल न रमता। वह दीदी के हाथ में सुई पकड़ाकर सारी दोपहर मिति के साथ छत पर हुड़दंग मचाती और शाम को दीदी के द्वारा की गई सिलाई कढ़ाई ले जाकर मां को दिखा देती।
दीदी के हाथ का काम मां देखते ही पहचान जाती और कभी प्यार से तो कभी डांटकर समझाते हुए अगले दिन फिर नई सामग्री के साथ भेज देती। दीदी कभी प्यार से नये-नये खाने बनाना और कभी स्वाती का मन न होने पर (जो अक्सर नहीं ही होता था) या उसके खेल में लग जाने पर उसका बाकी का काम भी वे खुद ही कर देती। स्वाती की स्कूल की टांकियों की फाइल हो या साइंस की प्रैक्टिकल फाइल, दीदी के हाथ से गुजर कर नई दुल्हन सी सजी धजी जब टीचर के पास पहुंचती तो अनाड़ी सी स्वाती को टीचर हैरत से देखती रह जाती।
धीरे-धीरे हर छुट्यिों में किए गये थोड़े-थोड़े प्रयासों से स्वाती जैसी सिल पर भी निशान पड़ने लगे। जो स्वाती सुई में धागा न डाल पाती थी वह आज अच्छी खासी कढ़ाई कर लेती थी। जिसे गोल रोटी बनाना दुनियां का सबसे मुश्किल काम लगता था वह नये-नये व्यंजन बनाना सीख गई थी।

समय का पहिया अपनी रफ्रतार से चलता रहा और जिंदगी अपनी। ग्रेजुएशन के बाद स्वाती शादी करके कनाडा चली आई। उस समय इंटरनेशनल कॉल बहुत महंगी होती थी और स्वाती की छोटी सी जेब परिवार जनों को फोन करने तक ही सिमट जाती थी। सोशल मीडिया भी उस वक्त इतना स्ट्रांग नहीं था तो धीरे-धीरे स्वाती का अपनी बचपन की सहेलियों से संबंध छूटता चला गया। जिनके बगैर एक दिन नहीं चलता था उनके बगैर जिंदगी चल रही थी।
आज इतने सालों बाद भी उसे नहीं मालूम कि उसके बचपन को मायने देने वाली और एक उदण्ड लड़की को कुशल गृहणी बनाने वाली वे दोनों दीदी और मिति अब कहां है कैसी है?
कभी-कभी जब बहुत मन उचटता और विदेश की गलियों में बैठकर, अपनी देसी गलियां याद आतीं तो स्वाती फेस बुक और ट्विटर छानने बैठ जाती, लेकिन लगता था कि उसकी ये देसी दोस्त आज तक भी सोशल मीडिया से दूर ही रहती है।
अपने बचपन की यादों में गोते लगाती स्वाती को मायरा ने आवाज लगाई
-मॉम कहां खो गई थी।
-कहीं नहीं।
-तो बताओ न, मुझे भी ये सब सिखा दोगी न? हां-हां सिखा दूंगी। अब जल्दी कर तेरी कैब आ गई है।
-ओ-के- मॉम। मायरा ने हंसते हुए अपना बैग उठाया और स्वाती को बॉय करती हुई आफिस के लिए निकल गई।
पति और बेटी को आफिस भेज कर स्वाती ने भी अपना चाय नाश्ता उठाया और ब्रेकफ्रास्ट टेबल पर जा बैठी। यही विचार उसके दिमाग में घूम रहा था कि उसे अपनी मायरा को गृहस्थी के कौन से काम सिखाने चाहिए और कौन से कामों को यहां के हिसाब से गैर जरूरी की कैटेगरी में डाल देना चाहिए।
मायरा और स्वाती के बचपन में जो फर्क था वह सिर्फ एक पीढ़ी नहीं था जो हर मां बेटी में होता है, बल्कि यहां तो फर्क समय के साथ-साथ स्थान का भी था। मायरा ने ग्लोब के जिस हिस्से में परवरिश पाई थी वह स्वाती की दिल्ली की गलियों से कम से कम एक सदी आगे था। तो अब उतना ही फर्क उसके आने वाले गृहस्थ जीवन में भी होगा। स्वाती को जिन रास्तों से गुजरकर अपनी गृहस्थी को चलाना पड़ा था? शायद मायरा जैसी सफल प्रोफेशनल का उनसे कभी पाला भी न पडे़?
तो क्या उसे अपनी बेटी को उसकी गृहस्थी बसाने से संबंधित कोई काम सिखाना ही नहीं चाहिए? कहीं वह कोई गलती तो नहीं कर रही। यदि सिखाना भी है तो क्या और कितना?
इन्हीं ख्यालों में डूबी, घर के छोटे-मोटे कामों को निबटाते हुए स्वाती का दिन बीत गया। मायरा और उसके डैड का आफिस से आने का वक्त हो चला था। अपने ही सवालों में घिरी स्वाती रसोई की ओर चल दी। आज पता नहीं क्यों उसे थकान सी महसूस हो रही थी। उसने चाय का पानी गैस पर चढ़ाया तभी उसे दरवाजा खुलने की आवाज आई (यहां सभी परिवार जन घर की एक-एक चाबी लेकर जाते हैं इसलिये दरवाजे की घंटी सिर्फ बाहर के लोग ही बजाते हैं) और मायरा ने हंसते हुए घर में प्रवेश किया। स्वाति ने पूछा-‘आफिस का पहला दिन कैसा रहा बेटा?’
‘अच्छा था मॉम, काफी सारे इंट्रोडक्टरी सैशन थे। मजा आया। फिर वे दोनों अपनी चाय लेकर बैकयार्ड में बने डैक पर चली आई और मायरा बताती रही।
-मॉम आज पहला दिन था तो हम सारे ट्रेनीज ने अपनी बॉस के साथ ही लंच किया।
-ओह अच्छा। तो तुम्हारी बॉस लेडी है?
-हां और इंडियन भी।
-अरे वाह, ये तो बहुत अच्छा है।
-हां, और जैसे ही मैंने अपना टिफिन खोला तो, आपके बनाए छोले तो मॉम छा गए।
-वह कैसे।
सबने ही छोलों की तारीफ की और मेरी बॉस तो कहने लगी कि उसकी मॉम भी बिल्कुल ऐसे ही छोले बनाती हैं।
‘सच्ची में?’ फिर तो मेरा सुबह उठकर छोले बनाना सफल हो गया।’ स्वाती ने हंसते हुए कहा।
‘और हां मॉम, हमारी कंपनी अगले महीने एक पिकनिक ऑर्गेनाइज कर रही है, तो उसमें हम अपनी फैमिलीज को भी ले जा सकते हैं। तो आप और डैड आ रहे हैं।
बिल्कुल बेटा, हम जरूर जायेंगे।
लेकिन मॉम आप इतनी थकी हुई क्यों लग रही हो?
पता नहीं बेटा। सिर में दर्द भी हो रहा है। मायरा ने स्वाती का माथा छुआ और बोली।
मोम आपको तो बुखार है। फिर उसके हाथ से कप लेकर मायरा उसे बैडरूम में आराम कराने ले गई और बोली, ‘मॉम, आप यहीं लेटो मैं आपके लिए मेडिसीन लेकर आती हूं। स्वाती को दवाई देकर उसने सुला दिया।

अगले दिन आफिस से छुट्टी लेकर मायरा ने घर का सारा काम संभाला। स्वाती का ध्यान रखा और वहीं बैडरूम में स्वाती के पास बैठकर अपना आफिस का काम भी करती रही। सुबह तक स्वाती की तबियत तो ठीक हो ही गई थी साथ ही यह चिंता भी मिट गई कि मायरा को क्या सिखााना है और कितना सिखाना है? जिस तरह उसने स्वाती का ध्यान रखते हुए भी घर और आफिस का काम सब संभाल लिया था, उसमें स्वाती की परवरिश साफ झलक रही थी। भला फूल को खिलना कौन सिखाता है? पेड़ को बड़ा होना क्या किसी से सीखना पड़ता है? बस सही मात्र में पानी और धूप काफी होते हैं।
अगले महीने मायरा की आफिस पिकनिक में स्वाती और मयंक जब मायरा के साथ गए तो यह एक बिल्कुल ही नया अनुभव था। पहली बार किसी गैदरिंग में उन दोनों को मायरा के मॉम डैड की हैसियत से मिलवाया गया। वे बहुत गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। मायरा ने पिकनिक में सबको गेम खेलाने का जिम्मा लिया था। पहली बार उसे यूं एक अडल्ट की तरह आत्मविश्वास के साथ गेम खेलवाते हुए देखकर स्वाती और मयंक को अपनी बेटी पर गर्व हो रहा था।
कुछ देर बाद मायरा ने अपनी बॉस से उन्हें मिलवाते हुए कहा-
मोम डैड, ये टिया हैं मेरी बॉस।
हैलो अंकल ऑटी। आइए न यहीं बैठते हैं। हम चारों वहीं एक टेबल पर बैठ गए।
हैलो टिया, तुम्हारी फैमिली भी आई है क्या?
हां आंटी। वह मेरा हसबैंड राहुल हमारी बेटी को वहां घुमा रहा है। कहकर उसने सामने फूलों की ओर इशारा किया।
वैसे आंटी आपके बनाए छोले बिल्कुल मेरी मॉम जैसे होते हैं। आपने कहां से सीखे?
वह टिया? मैंने तो शादी से पहले अपने पड़ोस में रहने वाली अपनी दीदी से सीखे थे।
ओ अच्छा, वैसे आंटी आप इंडिया में कहां से हैं?
-बेटा मैं तो दिल्ली के महरौली शहर से हूं।
-रियली? “टस अ को-इनसीडेंस आंटी। मेरी मोम भी महरौली से ही है।
-रियली? महरौली में कहां था उनका घर। स्वाती ने खुशी से लगभग उछलते हुए पूछा।
-वह नानी का घर तो पानी की टंकी के पास था।
-क्या मैं तुम्हारी मोम का नाम जान सकती हूं टिया?
-अब स्वाती का उत्साह चरम पर था।
-जी उनका नाम प्रेम है।
-उनकी छोटी बहनों का नाम राज और मिति है क्या? खुशी के मारे अपनी सीट से खड़े होते हुए स्वाती ने पूछा।
जी आंटी। पर आपको कैसे पता? क्या आप उनको जानती हैं। अब हैरान होने की बारी टिया की थी।
-बिल्कुल जानती हूं बेटा। उन्हीं की वजह से तो मेरे छोले तुम्हारी मॉम के छोले जैसे बनते हैं।
-मैं समझी नहीं आंटी?
-सब समझ जाओगी बेटा, बस हो सके तो मुझे अपनी मॉम का फोन नंबर दे दो।
स्वाती का खुशी से चमकता चेहरा अब तक टिया और स्वाती की बातचीत को शांति से सुनती मायरा के लिए ढेर से सवाल उठा रहा था। उधर अपनी मॉम का नंबर शेयर करती टिया भी कुछ समझ नहीं पा रही थी।
लेकिन स्वाती को इस पिकनिक ने जो दिया था, उसे वह बयान भी नहीं कर सकती थी। क्या मिल गया था उसे? उसके बचपन का एक टुकड़ा, या उसकी मां के आंगन में खिले फूल की एक पंखुड़ी, या उसके बचपन के पड़ोस का साया? या शायद सब कुछ।

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