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फि़र लौटेगा खुशहाल बचपन

यह जो मोबाइल और लैपटॉप है,

आज के युग की सच्चाई है इसे एकदम से नकार के कोई बात नहीं हो सकती।

वक्त की गाड़ी में रिवर्स गेयर नहीं हुआ करते।

स्वाधीनता विशेषांक
अगस्त, 2023

लेख दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’

आज के बच्चे बड़े सुपर-डुपर हैं। जिस उम्र में हम डरते-डरते साइकिल सीख रहे थे, उस वय के बच्चों की स्टाइलिस बाइकिंग देख आंखें खुली की खुली रह जाती है। मोबाइल और लैपटॉप पर सधे अंदाज में चलती उनकी अंगुलियाँ भी कम हैरत अंग्रेज नहीं है। उनकी एक क्लिक गैजेट की स्क्रीन को अक्षरों, रंगों और चित्रें से रोशन कर देती हैं। यहां क्या नहीं है? खोजने पर शेक्सपियर, गोर्की, बालजाक, लुइस कैरोल से लेकर प्रेमचंद, प्रसाद सुभद्राकुमारी चौहान, दिनकर, गुलजार, सत्यजित रे, बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी, महादेवी वर्मा, पंत का वैविध्यपूर्ण मोहक साहित्य मिल जाएगा। रामायण, महाभारत, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश और पुराण भी मिलेंगे।
यहां एनीमेशन है, तो भूत-प्रेत की डरावनी दुनिया भी। खौफनाक कारनामों भरे वीडियो गेम, कार्टून के साथ-साथ मावलियों की भाषा में चलने वाले गेमरों/हैंकरों की बेसिर-पैर की कहानियों की क्लिप्स भी मिलेगी। फ्रीफायर, पबजी से होकर गैम्बलिंग की तरफ जाता रास्ता है, तो कॉमिक पात्रें की हंसाने गुदगुदाने वाली चेष्टाएं भी हैं। तीन दशक पहले टीवी, फिर वीडियो गेम और अब मोबाइल लैपटॉप के जरिए अनलिमिटेड फ्री डेटा वाले इंटरनेट ने आज के बच्चों को व्यस्त रखने का ऐसा इंतजाम कर दिया है कि खेल का मैदान और किताबें उनसे दूर चली गई हैं।
कभी सफदर हाशमी ने एक कविता लिखी थी-‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं।’ इसमें पुस्तकों की सार्थकता को कई स्तरों पर रेखांकित किया गया था। मगर आज की तारीख में—-किताबों की बातें-बीतें जमानों की, दुनिया के इंसानों की—-आज की, कल की, खुशियों और गमों की सब एक गूगल में समाहित है। ‘परियों के किस्से, साइंस की आवाज, राकेट का राज़, झरनों का गुनगुनाना, चिडि़यों का चहचहाना—’ बस एक कमांड पर हाजिर हो जाएगा। कितने लकदक और बड़े संसार में जी रहे हैं आज के बच्चे। मगर यह उदास है। इनके होठों की हंसी और चाल की मस्ती कहां चली गई भला। धमा-चौकड़ी, शरारतें, ठिठोलियां, खिलंदड़ापन यह सब तो बचपन का हिस्सा है। इसका न होना भी कैसा बचपन। नपा तुला व्यवहार, ओढ़ी हुई गंभीरता, अकेलेपन से घिरे और सपनों की चमक से खाली आंखें—-। कुछ तो गड़बड़ लगता है।
हम अपने बचपन की तरफ देखते हैं, तो क्या था? आज जैसी जगमग स्थिति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मगर खुशियों की बेशुमार धड़कनें उसमें समाहित थी। हमारे बचपन के दिनों में बसवाडि़यों और पोखरों से भरा गांव, जिसके आखिर में घनी अमराइयां और आगे आसमान नीचे आकर धरती को ढंक लेता था। छोटी सी दुनिया और उससे जुड़ी हमारी ढेर सारी जिज्ञासाएं इसके लिए हमारे मां बाबूजी तो थे ही। दादा-दादी, काका-काकी और भाई-भौजाई की पूरी जमात थीं। इनमें जो भी फुरसत में होता, उससे हम अपनी बात कह सकते थे। यहां तक कि पड़ोस के बडे़ बुजुर्ग भी हमारा मार्गदर्शन करने में पीछे नहीं रहते थे।
सर्दियों में अलाव के आसमान किस्से कहानियों की दुनिया आबाद हो जाया करती थी। इन कहानियों से काव्य का भी आनन्द मिलता था। क्योंकि अधिकतर कहानियों के संवाद गेय होते थे। कुछ कहानी तो पूरी की पूरी गाकर सुनाई जाती थी। बचपन की इन कहानियों के पात्र जंगली जानवर, पक्षी, साधु, लकड़हारा, किसान, मजदूर, चोर-डाकू, सेठ-साहूकार, राजा-रानी, मंत्री, सिपाही, कलाकार, परी, राक्षस, राजकुमार- राजकुमारी, सेनापति वगैरह हुआ करते थे। इनमें कुछ नेक होते, तो कई दुष्ट! हमारी दिली सद्भावना भले पात्र के प्रति होती थी, भले वह पुरोहित होता या फिर डोम। इन कहानियों को सुनते हुए हमारा मन हर्ष, विषाद, रहस्य-रोमांच और अब क्या होगा कि जिज्ञासा से भरा खूब सजग रहता था।
कहावतों में छिपी कहानी, लोरी, खेलगीत, कठबैठी, बुझौबल (पहेली) जैसी ढेरों लोक विधाएं हमारे मनोरंजन के लिए गली-गली में बिखरी पड़ी थी। कठबैठी और बुझौबल का हल निकालने में खूब दिमागी कसरत करनी पड़ती थी। तब गांवों-कस्बों में गाथा गायक आते थे, जो हर टोले में एक-एक रात रुक के अपनी गाथा सुनाते थे। यह सारंगी बजाकर विपत्ति में पड़े किसी राजा, साहूकार, साहसी युवक, योगी, राजकुमार के संघर्ष की दास्तान गाकर सुनाते थे। आल्हा, बिरहा, चनैनी तो कथा केन्द्रित गायन था ही। जांता गीत, रोपनी, निरवाही, कोल्हुअई जैसे श्रम से जुडे़ गीतों में भी जीवन के सुख-दुख के प्रसंग अपनी पूर्ण जीवंतता के साथ उपस्थित रहते थे। यद्यपि यह सयानों के गीत थे, लेकिन मानवीय संस्पर्श और उच्च बिंवात्मक कथ्य के कारण हम इसे भी गुनगुना लेते थे। हमारे बचपन में जो सबसे बड़ी चीज थी, वह थी लोक जीवन की सांस्कृतिक धड़कनें और समुदाय के बीच सघन संवाद। मेले और त्यौहार हमारे जीवन में सामुदायिक उल्लास के अवसर ले आते थे। हम मिल जुलकर खूब खेलते थे। हंसी के फुलझडि़यां हमारे साथ होती थी। अब यह पर्व त्यौहार सामुदायिकता से कटकर व्यक्तिगत खुशियों के आयोजन होते जा रहे हैं। आज की तारीख में शहर से गांव तक सामूहिकता व संवाद की दुनिया का लोप हो चुका है।
बच्चा पैदा होता है, ठीक से बोलना भी नहीं शुरू करता कि कैरियर की लंबी रेस का घोड़ा बनाया जाने लगता है। वह बाहर जाकर बच्चों में खेलना चाहता है, मगर मम्मी उसे नर्सरी राइम रटवाती है, ताकि उसका अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन हो जाए। तीन साल का बच्चा बस्ते में मां-बाप की महत्वाकांक्षा धोने के लिए मजबूर हो जाता है। विद्यालय, होमवर्क और कोचिंग के बीच पैंडुलम बने यह बच्चे खेल के मैदान, दादी-नानी की कहानियों, सहपाठियों की आपसी धींगामुश्ती, शरारतों और बाल साहित्य की किताबों से दूर जा चुके हैं।
हां, इनके पास मोबाइल है, टीवी और रिमोट है। बच्चों की पहुंच अब विंडोज तक है। यह साधारण विंडोज नहीं है। इसमें उनको सब कुछ दिखता है, जो नहीं दिखाना चाहिए वह भी। बल्कि जो नहीं दिखना चाहिए, उसे वह खास तौर से देखते हैं।
अभी यह देखने में आ रहा है कि पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा की सान पर चढ़े आज के बच्चे संवेदना खो रहे हैं। इनके मन में कोमलता, निश्छलता, सहजता, भोलापन, रंगात्मकता, चंचलता की वृत्ति विरल होती जा रही है। इन बच्चों में अनियंत्रित उत्तेजना, आक्रोश, हिंसा और आक्रामकता बढ़ रही है।
आज के बच्चे क्रोध में पागल होकर सहपाठी, अध्यापक, प्राचार्य, यहां तक कि मां-बाप पर जानलेवा हमला करने लगे हैं। यह स्थितियां मूल्यहीन शिक्षा और उस सांस्कृतिक उजाड़ की देन है, जहां बच्चा जी रहा है। निजी क्षेत्र की शिक्षा मूलतः शिक्षा की मुख्य धारा में एक नकारात्मक हस्तक्षेप है। यह पढ़ाई कम कराती है, पाखंड ढेर सारा करती है। पढ़ाई हमारे समय में भी थी, लेकिन ऐसी जी हलकान करने वाली नहीं। मुझे याद है, मैट्रिक में मेरे 56 प्रतिशत मार्क्स आए थे। इसके लिए मेरे गांव के सारे गोतियां (कुल परिवार के लोग) मुझसे मिलने आए थे। एक रुपया, पचास पैसा जो जिस लायक था, मेरी जेब में डाला था-अब यह बीती बात हो चुकी है। मगर ममता से भरा हुआ जो हाथ उन लोगों ने मेरे सिर पर रखा था, उसकी ऊष्मा का अहसास मुझे इन पंक्तियों को लिखते हुए भी हो रहा है।
गूगल पर नये प्रयोग
शिक्षाविद अब महसूस करने लगे हैं कि बच्चों को अगर कल का बेहतर नागरिक बनाना है, संवेदनशील मनुष्य के रूप में ढालना है, उसके अंदर सामाजिकता और समुदायिकता के गुणों की पुनर्स्थापना करनी है तो शिक्षा, खेल और बाल-साहित्य के बीच जो दूरी बढ़ गई है, उसे खत्म करना होगा। मोबाइल में भले ही दुनिया का सारा साहित्य और तथाकथित ज्ञान भरा पड़ा है, मगर यह संस्कृति की आभा नहीं रच सकता है। यह बाल साहित्य से ही संभव है। हमें बच्चों को ऐसा माहौल देना होगा, जहां बच्चे पढ़े कम और सीखें ज्यादा। खेले कूदें और रचनात्मक बनें। मोबाइल लैपटॉप का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है, इसे कुछ कल्पनाशील शिक्षक, सम्पादक, साहित्यकार और बालशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं ने गूगल मीट पर आनलाइन कार्यक्रम के सफल आयोजनों से सिद्ध कर दिया है। इसमें दूर-दराज के बच्चे शामिल हो रहे हैं और खुशी-खुशी अपने मन की बात शेयर करते हैं। इससे उनका अकेलापन और संवादहीनता खत्म हो रही है। वह मुखर हो रहे हैं।
यह एक अनुकरणीय पहल है, बच्चों की शिक्षा और संस्कार निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत अन्य संस्थाओं को भी इस प्रकार के ऑन लाइन कार्यक्रम शुरू करने चाहिए। हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि यह जो मोबाइल और लैपटॉप है, आज के युग की सच्चाई है इसे एकदम से नकार के कोई बात नहीं हो सकती। वक्त की गाड़ी में रिवर्स गेयर नहीं हुआ करते, इसलिए हम पीछे के दिनों में लौट के बच्चों की बेहतरी के लिए कुछ नहीं कर सकते। आज हम जिस दुनिया में हैं, उसका बच्चों के लिए क्या और कैसा सकारात्मक उपयोग हो सकता है-यह हमको सोचना है। अब फिर से मासूम बचपन के लौटने का यही एक रास्ता बचा है।

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