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प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए

लेख गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’

आज बच्चा ढाई वर्ष की आयु में स्कूल जाता है और
उसे अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती है, तो वह सारी बातें

ठीक से समझ नहीं पाता। यदि वही बातें उसकी मातृभाषा में पढ़ाई जाएं तो वह आसानी से सीख सकता है।

अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक

प्राचीन काल में भारतीय मनीषिया ने ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कहकर शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया था। इसे मनुष्य का तीसरा नेत्र कहा गया-ज्ञान मनुजस्य तृतीय नेत्रं। महान शिक्षा शास्त्री डॉ- राधाकृष्णन ने लिखा है-शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए।
प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में प्राथमिक शिक्षा-प्रथम प्राथमिकता की वस्तु है। प्रारंभिक शिक्षा ही शिशु के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसी के माध्यम से वह अपना चरित्र निर्माण प्रगति का आधार तय करता है।
शिशुकाल एक ऐसा समय है जब बच्चा सबसे अधिक सीखता है और इसी बीच उसका मानसिक विकास होता है। अतः 3 से 6 वर्ष के आयु-वर्ग के बच्चों के लिए बालवाड़ी जिसमें खिलौनों, खेल का सामान, सिखलाने की सामग्री और पढ़ने योग्य पुस्तकें हों, उपयोगी होंगी।
शिशु को प्राथमिक शिक्षा देने के पहले ‘पूर्व प्राथमिक शिक्षा’ का जन्मदाता जर्मनी का विख्यात शिक्षा शास्त्री फ्रॉबेल को माना जाता है। इन विद्यालयों में कम से कम 4 वर्ष के बच्चों को प्रवेश दिया जाता था और उन्हें खेल के द्वारा आचरण संबंधी ज्ञान के साथ पुस्तकीय ज्ञान मनोवैज्ञानिक विधि से प्रदान किया जाता था।
बीसवीं सदी के आरंभ में इटली के डॉ- मेरिया मांटेसरी ने मांटेसरी स्कूलों का शिलान्यास किया। जिनके अंतर्गत 6 वर्ष की आयु तक के बच्चे को विभिन्न उपकरणों की सहायता से शिक्षा दी जाती थी।
भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा का सूत्रपात करने की दृष्टि से सबसे अधिक महत्व छोटे बच्चों, स्कूल जाने योग्य आयुवर्ग के बच्चों और सुविधाहीन वर्गो के बच्चों को देना आवश्यक है। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की ही देन है कि आज ढाई तीन वर्ष से ही बच्चे मांटेसरी, एल के जी, यू के जी के लिए स्कूल भेज दिए जाते हैं। प्रायः इस स्तर के सभी स्कूल अंग्रेजी माध्यम के होते हैं। हर तरह के अच्छे स्कूलों में प्रवेश को लेकर मारामारी रहती है। इनमें प्री-स्कूल भी सम्मिलित हैं।
पिछले चार दशकों में यह धारणा मजबूत हुई है कि सरकारी स्कूलों में चूंकि अंग्रेजी ठीक से पढ़ाई नहीं जाती, उनमें शिक्षा की गुणवत्ता ठीक नहीं है, इसलिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चे को शिक्षा दिलाना अधिक उचित है।
ऐसे में जब चाराें ओर अंग्रेजी का बोलबाला है तब शिक्षा के माध्यम के प्रति जनसामान्य की मान्यता यही है कि बिना अंग्रेजी ज्ञान के शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती। यहां यह तथ्य भलीभांति ज्ञात होना चाहिए कि चीन, जापान, रूस, इजरायल, ब्राजील आदि कई देशों में शिक्षा के माध्यम की भाषा अंग्रेजी नहीं है, फिर भी ये देश विकास में सबसे आगे हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था-‘यदि मैं निरंकुश शासक की शक्तियां संयुक्त होतीं, तो आज ही विदेशी माध्यम के द्वारा पढ़ाई बंद करवा देता।’
भाषा शास्त्री राइबर्न कहते हैं कि मातृभाषा एक उपकरण, आनंद, प्रसन्नता और ज्ञान का स्रोत है।
वस्तुतः मातृभाषा में दी जाने वाली शिक्षा ही अधिक लाभप्रद हो सकती है। बच्चा अपने माता-पिता की बातों को सुनकर, बोलकर तथा अनुकरण के माध्यम से सीखता है। वह भाषा उसके घर में बोली जाती है। इस भाषा का प्रयोग घर में, घर के बाहर, स्कूल में मित्रें के साथ करता है। अतः बच्चों को उसी की मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए। बच्चा यदि ढाई वर्ष आयु में प्ले स्कूल, केजी या मांटेसरी स्कूल में पढ़ने जाता है और उसे अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती है, तो वह सारी बातें ठीक से समझ नहीं पाता। यदि वही बातें उसकी मातृभाषा में पढ़ाई जाएं तो वह आसानी से सीख सकता है। उसका अधिकांश समय अंग्रेजी सीखने में चला जाता है और धीरे-धीरे अपनी मातृभाषा भी भूलने लगता है। इससे उसे अधकचरा ज्ञान ही मिल पाता है। इस संदर्भ में हमारे पूर्व राष्ट्रपति एवं विख्यात वैज्ञानिक डॉ- अब्दुल कलाम का प्रसंग उल्लेखनीय है। एक बार नागपुर के एक महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया कि आप इतने अच्छे वैज्ञानिक कैसे बनें। डॉ कलाम ने उत्तर में कहा कि मैंने 12वीं तक गणित, विज्ञान सहित संपूर्ण शिक्षा अपनी मातृभाषा तमिल में ली है। इससे मातृभाषा की शक्ति स्वतः स्पष्ट होती है।
मातृभाषा में शिक्षा देने की आवश्कयता राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में समझी गई है। यह शिक्षा नीति वर्तमान में सक्रिय 10$2 शैक्षिक मॉडल के स्थान पर शैक्षिक पाठ्यक्रम को 5$3$3$4 प्रणाली के आधार पर विभाजित करने का प्रावधान करता है। इसमें शिशु के 3 वर्ष की आयु से प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा ‘अर्ली चाइल्हहुड केयर एण्ड एजूकेशन’ (ईसीसीई) के आधार पर 3 वर्ष आंगनबाड़ी केन्द्रों तथा 2 वर्ष प्री-स्कूल में संपन्न होगी। क्योंकि 3 से 8 वर्ष तक की आयु के बच्चों को सर्वांगीण विकास के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। अगला 3 वर्ष तैयारी का चरण है, इसमें बालक तीसरी से पांचवी तक विषयों की समझ अर्जित करेगा। इससे अगले 3 वर्ष का चरण कक्षा 6 से 8 वीं तक के पाठ्यक्रम को अपने में समाहित किए हुए हैं। अंतिम 4 वर्ष माध्यमिक चरण हैं, इसमें बालक 9 से 12 वीं कक्षा तक अध्ययन करेगा।
इस शिक्षा नीति में भाषाई विविधता को बढ़ावा और संरक्षण देने के लिए कक्षा 5 तक की शिक्षा मातृभाषा या स्थानीय भाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है। साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिए प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
छत्तीसगढ़ देश का प्रथम प्रदेश बन गया है जहां की सरकार ने ऐसे आदिवासियों को, जो हिंदी नहीं जानते, उन्हें उन्हीं की भाषा में शिक्षा देने का निर्णय लिया है। यह पहल अत्यंत प्रशंसनीय अनुकरणीय और महत्वपूर्ण है।
इस शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र को लागू करने पर पुनः प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है। इसके अनुसार उत्तर के राज्य अर्थात हिंदी भाषी राज्य के छात्र दक्षिण या अन्य राज्य की एक भाषा सीखेंगे और अहिंदी भाषी राज्यों के छात्र हिंदी सीखेंगे। इस हेतु इस नीति में भारतीय भाषाओं के शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए राज्य परस्पर अनुबंध कर भाषा शिक्षकों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास के संदर्भ में आवश्यक सभी पहलुओं पर विचार किया गया है तथापि प्राथमिक शिक्षा में इसके क्रियान्वयन के लिए उचित दिशा और व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी।
अतः यह निर्विवाद सत्य और आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए क्याेंकि इसी से बालक और देश का वास्तविक विकास संभव है। इस विषय में कुछ सुझाव इस प्रकार दिए जा सकते हैं।
1- सरकारी स्कूलों के साथ सभी प्रीस्कूलों, प्लेग्रुप, केजी, मांटेसरी निजी स्कूलों में बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देना अनिवार्य किया जाए।
2- केन्द्र सरकार के शिक्षा मंत्रलय द्वारा संचालित केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयों के पाठ्यक्रम कम से कम कक्षा 8 से 12वीं कक्षा तक मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। अंग्रेजी केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाए।
3- सभी शैक्षणिक संस्थानों में विद्यालय से लेकर उच्च कक्षाओं तक द्विभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था की जाए।
4- सरकारी विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम को पूर्णतः समाप्त किया जाए तथा मातृभाषा में पुस्तकें उपलब्ध करायी जाएं।
5- विद्यालयों को अच्छे ज्ञान की पुस्तकें भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करायी जाएं, इसके लिए वैश्विक स्तर पर ज्ञान को भारतीय भाषाओं में शीघ्र अनुवाद पर जोर दिया जाए। हमें जापान देश से सीख लेनी चाहिए, जहां अच्छे ज्ञान की पुस्तकें किसी भी भाषा में होने पर भी एक मास के अंदर जापानी भाषा में अनुवाद करा लिया जाता है।
6- शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रमों की सभी पुस्तकें मातृभाषा में, एक निर्धारित समय सीमा में, उपलब्ध कराने की योजना लाई जाए।
7- मातृभाषा में शिक्षित एवं योग्य छात्रें को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित छात्रें से वरीयता दी जाए तथा उन्हें सम्मानित किया जाए।
8- बच्चों को अंग्रेज दिखने या बनाने वाली टाई जैसे गणवेश से मुक्ति मिलनी चाहिए जिससे उनमें हीनभावना समाप्त हो। उन्हें भारतीय वेशभूषा अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

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