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पुरस्कार

सुरभि ने अपने घर के तनावपूर्ण वातावरण से छुटकारा पाने का उपाय एक प्रौढ़ सज्जन से पूछा और उसे सुख शांति का मंत्र मिल गया।

कहानी पुष्पा भाटिया

लंबे चौड़े एक किलोमीटर की परिधि वाले पार्क के नित्य चक्कर लगाते, फिर कुछ देर सुस्ताते उन वृद्ध को देखकर सुरभि के मन में हल्की सी ईर्ष्या जागृत होती है शायद पिचहत्तर अस्सी के होंगेे, लेकिन सदा प्रकाश पुंज की तरह जगमगाते हुए चेहरे के पोर-पोर से ओज टपकता रहता है और वह, पैंतीस की वय में मानो जीवन से निराश होकर वीतरागी सी जिंदगी व्यतीत कर रही है। सुरभि ने निश्चय किया उनके चमकते चेहरे और स्वास्थ्य का रहस्य जानकर रहेगी एक दिन। धीरे-धीरे चलती हुई वह उनके पास पहुंच गयी और दोनों हाथों से प्रणाम किया, ‘क्या मैं आपसे बातें कर सकती हूं’ सुरभि ने किंचित संकोच से पूछा।
‘अवश्य—आइए बैठिए’ उन्होंने उसे बेंच पर बैठने का इशारा करते हुए कहा। सुरभि को समझ में नहीं आ रहा था कि वह उनसे अपनी बात कहां से शुरू करे।
‘बोलो बेटी’
सुरभि लज्जित होकर मुस्कुराते हुए बोली, ‘अंकल आप यदि बुरा न मानें तो कृपया यह बताएं कि आपके चेहरे पर छायी प्रसन्नता का रहस्य क्या है?’
बुजुर्ग सज्जन ने जोरदार ठहाका लगाया फिर संयत होकर बोले, ‘केवल अच्छे विचार’।
सुरभि ने हतप्रभ होकर पूछा ‘क्या अच्छे विचार अच्छा स्वास्थ्य दे सकते हैं।’
‘विचार में प्रचंड शक्ति है, यह कुछ भी कर सकता है, मैं अगर तुम्हें यदि बुरा भला कहूं तो तुम्हें बुरा लगेगा। और यदि तुम्हारी प्रशंसा करूं तो तुम प्रसन्नता से झूमने लगोगी। इसलिए ये सच है कि विचार कुछ भी कर सकते हैं।’
‘तब सुरभि ने जिज्ञासा व्यक्त की।
‘तब यह कि अगर अपना स्वास्थ्य, अपना सुख, अपनी प्रसन्नता चाहिए तो सबसे पहले अपने सभी शत्रुओं को क्षमा कर दो-ये है तो बहुत कठिन, पर नित्य प्रयास से दूसरों की त्रुटियों को नजरअंदाज करके आप अपना स्वास्थ्य हासिल कर सकते हैं, इसलिए प्रयत्न करो कि अपने आप को किसी भी कीमत पर विचलित और परेशान नहीं होने देंगे।’ सुरभि सोच में पड़ गयी ‘कोई आपको कोसे, डांटे अपशब्द कहे और आप उसे क्षमा कर दें, यह असंभव है। इतनी वैचारिक ऊंचाई तो, संत महात्माओं के वश की भी बात नहीं है।’
‘अंकल मेरे पति मेरे हर काम में मीन-मेख निकालते हैं, बच्चे कोई बात मानते नहीं हैं। सास-ससुर दिन रात डांटते रहते हैं, इतने लोगों को क्षमा कर पाना मेरे वश की बात नहीं है।’
‘बेटी एक चीज होती है संस्कार जो हमें, अपने बुजुर्गो से विरासत में मिलते हैं। यदि तुम्हें सहिष्णुता विरासत में नहीं मिली है तो स्वयं संकेत से सहिष्णु बनने का प्रयास करो।’ सूरज ऊपर चढ़ने लगा था, लोग वापस घर लौटने लगे थे। सुरभि ने भी अंकल को झुककर प्रणाम किया और वापस लौट आयी।
‘आ गयी महारानी?’ सास ने उसे देखते ही उलाहना दिया, तो सुरभि का चेहरा लटक गया।
‘सारी कमीजों के बटन टूटे हैं, करती क्या रहती हो पूरा दिन पड़ी पड़ी, एक काम ठीक से नहीं होता तुमसे’ सुरभि ने टेढ़ा सा मुंह बनाया, ‘मुफ्रत में मिल गयी हूं न चुपचाप झेलने वाली—एक दिन मर जाऊंगी तब पता चलेगा।’
‘मेरे जैसी चुपचाप झेलने वाली नहीं मिलेगी।’
‘कैसे उदार बने, इन लोगों को कैसे क्षमा करें?’ बरामदे में निकली सुरभि ने देखा बेटे ने क्रिकेट खेलने के बाद बैट और जूता लापरवाही से फेंक दिए थे।
‘राहुल बेटा अपने जूते और बैट अपनी जगह पर रखो।’
‘मां हर समय चिढ़ी क्यों रहती हो?’ राहुल चिल्लाकर बोला तो सुरभि रुआंसी हो गयी वह स्वयं इतनी व्यवस्थित है और बेटा इतना अव्यवस्थित? मस्तिष्क की शिराएं फटने को आ गई थी।
‘नहीं-नहीं इनमें से कोई भी क्षमा के योग्य नहीं—इन लोगों को क्षमा करने से तो बेहतर है ब्लडप्रेशर की दवा खा ली जाय’, हताशा से वह फूट-फूटकर रोने लगी।
दूसरे दिन पार्क के कोने वाली बेंच पर बैठे बुजुर्ग अंकल ने पूछा।
‘कुछ बात बनी?’
सुरभि की आंखें भर आयी, रुंधे गले से बोली
‘नहीं अंकल, मेरा मन इतना उदार नहीं है कि अपने शत्रुओं को क्षमा कर दूं।’
‘अभिनय कर सकती हो?’ अंकल ने मुस्कुरा कर पूछा।
‘स्कूल कालेज में तो कर लेती थी काफी अच्छा। एक बार मुझे पुरस्कार में एक ट्रोफी भी मिली थी, जिसे मैंने बरसाें तक अपनी अभिनय क्षमता का लोहा बनवा लेने का प्रतीक माना था।
‘किसी ऐसी स्त्री को जानती हो जो एक सफल गृहिणी हो?’
‘जी’ सुरभि ने दिमाग पर थोड़ा जोर देकर कहा।
‘मेरी एक सहेली है बीना—ममतत्व से भरपूर सहिष्णु और हंसमुख।’
‘समझ लो तुम्हारा घर एक नाट्य मंच है और तुम्हें अपनी हंसमुख सहिष्णु सहेली का सशक्त अभिनय करना है।’
‘कब तक?’ सुरभि ने आश्चर्य से पूछा।
‘केवल आज।’
सुरभि ने पहले ही दिन ‘बीना का काफी अच्छा अभिनय किया’, बुजुर्ग अंकल सुरभि से रोज मिलते और कहते कि बस केवल आज और बीना का अभिनय करो और अपने अभिनय को थोड़ा और मांजो।’
एक दिन सुरभि ने पूछा, ‘अंकल बीना का अभिनय कब तक करना है?’
अंकल मुस्कुरा कर बोले, ‘जब तक तुम पूरी तरह बीना न बन जाओ, रोज अपने अभिनय को तराशो, एक प्रखर अभिनेत्री बनो।’
छः महीने बाद एक दिन अंकल ने सुरभि से पूछा, ‘घर का माहौल कैसा है—?’
सुरभि हंस कर बोली, ‘सब ओर सुख शांति है, सास ससुर स्नेह करने लगे हैं, पति का प्रेम दुगना हो गया है, बच्चे भी कहना मानते हैं—-’
अगले दिन बुजुर्ग अंकल ने एक पैकेट सुरभि को थमाया, सुरभि ने पैकेट खोला, उसके अंदर कोटा डोरिया की पीली साड़ी रखी थी। सुरभि ने गद्गद् होकर अंकल के चरण स्पर्श कर लिए। दूसरों के सद्गुणों से अपने व्यक्तित्व को समृद्ध करने का ये अद्भुत पुरस्कार उसे पहली बार मिला था।

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