Pradhanmantri fasal beema yojna

नाता

एक होनहार बेटा, जिसे माता-पिता ने बड़ी उम्मीदों से पाला था,
शिक्षा के लिए विदेश गया और वहां की भौतिक सुख सुविधाओं में
डूब कर वहीं का हो गया। बेचारे माता-पिता पर क्या बीती,
एक भावपूर्ण कहानी।

अगस्त, 2023
स्वाधीनता विशेषांक

कहानी तरूण कुमार राय

आसमान में सुबह से ही बादल उमड़ घुमड़ रहे थे। सर्द बरसाती हवाएं चल रही थीं। मूसलाधार वर्षा होने के स्पष्ट आसार दिखाई दे रहे थे। बरसात के दिन थे और मौसम का मिजाज पल प्रतिपल बदलता रहता था। कभी आसमान बिल्कुल साफ हो जाता, लेकिन कुछ देर बाद ही किसी दिशा से उठी एक काली घटा पूरे आसमान को ढक लेती और बादलों का गर्जन-तर्जन शुरू हो जाता।
अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था, लेकिन धरती पर धुंधलका छा गया था। आसमान पूरी तरह घने बादलों से ढक गया था। अचानक तेज हवा के एक झोंके के साथ झमाझम बरसात शुरू हो गई। नरेन्द्र बाबू ने जल्दी-जल्दी आंगन में पड़ी चीजों को उठाकर भीतर रखा। शांता अभी तक नहीं आई थी। नरेन्द्र बाबू पत्नी के लिए चिंतित हो उठे।
शांता सुबह से ही हरिहर के घर गई हुई थी। हरिहर के बेटे की शादी थी। और शांता पिछले तीन चार दिनों से हरिहर के बेटे के ब्याह की तैयारियों में व्यस्त थी। उसने हरिहर के घर का सारा काम इस तरह अपने हाथ में ले लिया था, जैसे अपने ही घर की शादी हो।
शांता का यह स्वभाव बन गया था। गांव वालों के सुख दुख में शामिल होना, उनके काम आना। गांव के हर घर में उसका बेरोकटोक आना जाना था। चाहे किसी के घर पुत्र जन्म हो, छठी, नामकरण संस्कार हो या ऐसा ही कोई दूसरा खुशी का अवसर या फिर गमी हो, शांता की उपस्थिति वहां अनिवार्य हुआ करती थी। सब के सुख-दुख में हिस्सा लेने वाली शांता सारे गांव की आदरणीय थी। वैसे शांता कभी किसी के बुलावे की प्रतीक्षा नहीं करती थी। वह स्वयं ही वहां पहुंच जाती, जहां उसे लगता कि किसी को उसकी जरूरत है।
यह बात अक्सर नरेन्द्र बाबू को नागवार गुजरती थी। शांता दूसरों की चिन्ता में अपने आपको वह बिल्कुल भूल जाती थी। इसी कारण नरेन्द्र बाबू को उसका कहीं आना जाना पसंद था। उन्हें किसी छोटे बच्चे की तरह पत्नी का ख्याल रखना पड़ता था। कई बार खीझ कर वह कह उठते थे, ‘अपने बुढ़ापे और रोगग्रस्त शरीर का कुछ तो ख्याल रखो शांता। क्या तुम्हारी उम्र अब इतनी दौड़ भाग करने की है। अपना नहीं तो कम से कम मेरी परेशानियों का ख्याल कर लिया करो। अगर बीमार पड़ गई तो दवा दारू तो मुझे ही करनी पड़ेगी न।
कभी प्रसन्न मूड में होते तो चुटकी भी लिया करते थे, आखिर क्यों न करो तुम दूसरों की इतनी फिकर। सभी तो तुम्हें काकी मौसी कहकर इतनी इज्जत देते हैं। मगर तुम हो बहुत भोली। तुम नहीं जानती कि लोग तुम्हारे इस भोलेपन का कितना फायदा उठाते हैं। इसमें उनका स्वार्थ जो छिपा होता है। आखिर कौन नहीं चाहेगा कि कोई ऐसा मिल जाए जो मुफ्रत में और घर की तरह सारे काम कर जाए। और तुम हो कि दो मीठे बोलो में ही पिघल जाती हो।’
शांता के झुर्रियोंदार मुख पर मुस्कान उभर आती। वह पति की रोक-टोक और हंसी मजाक का कभी बुरा नहीं मानती थी। कहती, ‘लोगों के दो मीठे बोल ही क्या कम है? और मैं इससे अधिक कुछ चाहती भी नहीं। इसमें कहीं उनका प्यार और अपनापन भी तो छिपा होता है। बस यही बात तो—-’ और शांता का गला भर्रा जाता था।
शांता के स्वर की आर्ता नरेन्द्र बाबू के मन को छू जाती। वह निरुपाय से हो जाते। यहां आकर उनके सारे तर्क फीके पड़ जाते थे। मन में अपराधी होने का सा भाव जाग उठता। शांता के किसी कार्य में हस्तक्षेप करने का साहस खो बैठते थे। वस्तुतः वह मन से पत्नी के विरोधी नहीं थे। उनका पत्नी को रोकना टोकना केवल बाहरी था। भीतर से वह एक कमजोर और भावुक इंसान थे।
क्या वह जानते नहीं थे कि कभी शांता का अपने घर परिवार में हरदम व्यस्त रहने के कारण घर की चौखट लांघने का कभी मन ही नहीं होता था। लेकिन अब उसका मन बाहर ही लगता था। घर में तो वह जैसे रहना ही नहीं चाहती थी। घर, अब वह घर तो रहा ही नहीं। और परिवार—नरेन्द्र बाबू एक ठंडी सांस लेेकर रह जाते। पत्नी के अंतःकरण की पीड़ा को वह भलीभांति समझते थे। क्या कुछ नहीं झेला था उस बेचारी ने।
किन्तु अब उसने पहले की तरह दुखी होना और आंसू बहाना छोड़ दिया था। लेकिन उसकी पलकों के पीछे छिपे एक तूफान और उसके मौन आर्तनाद को सुनकर आज भी नरेन्द्र बाबू के कानों के पर्दे फटने लगते थे। कितना बड़ा बोझ कितनी गहरी पीड़ा छिपाए हुए थी शांता अपने सीने में। शायद इसी का नाम जिन्दगी है। शांता ने अपना सर्वस्व खोकर भी जीने का बहाना ढूंढ ही लिया था। अपना गम भुलाने के लिए वह दूसरों के दुख-सुख में शामिल होने लगी थी। वह खुद को इतना व्यस्त क्यों रखती थी, इसे नरेन्द्र बाबू के अतिरिक्त और कौन समझ सकता था।
नरेन्द्र बाबू और भी व्यग्र हो उठे। बाहरी दालान में तेजी से चहल कदमी करते हुए वह पत्नी के विषय में ही सोच रहे थे शांता अभी तक नहीं आई थी। और यदि अब वह आई तो बारिश में भीगती हुई आएगी। नरेन्द्र बाबू पत्नी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थे। वह दिन भर चाहे कहीं भी रहे। शाम को दीया बत्ती के समय पर अवश्य आ जाती थी।
बारिश थमने के कोई आसार नहीं थे। और वह जानते थे कि शांता से इतना सब न होगा कि बारिश रूकने तक थोड़ी प्रतीक्षा ही कर ले। फिर यह भी सोचा कि बरसात का मौसम है। बारिश का क्या भरोसा, कब तक रूके। कुछ देर इसी उधेड़ बुन में रहने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि छतरी लेकर स्वयं जाएं और पत्नी को ले आएं। वह इस कार्य के लिए तत्पर हुए ही थे कि उन्हें दूर से आती हुई शांता दिखाई दी। तेज-तेज कदम रखती, साड़ी का पल्लू सिर पर रखे हुए, खुद को वर्षा के वेग से बचाने का असफल प्रयास करती हुई वह काफी निकट आ गई थी। नरेन्द्र बाबू ने जल्दी से आगे बढ़कर पत्नी को दालान के भीतर खींच लिया था।

सोेचा था कि आज पत्नी को आड़े हाथों लेंगे। लेकिन सिर से पांव तक भीगी हुई शांता को देखकर उनकी नाराजगी जाने कहां गायब हो गई और करुणा मुखारित हो उठी। ‘अब खड़ी क्या हो। जाकर कपडे़ बदलो। कहीं ठंड खा गई तो बीमार पड़ जाओगी।’
वह भीतर गए। और जब तक शांता ने कपड़े बदले? बाल सुखाए, नरेन्द्र बाबू उसके लिए चाय बनाकर ले आए। आज दीया बत्ती भी उन्होंने ही की। चाय लेकर दोनों एक ही खाट पर पास-पास बैठ गए। उन्होंने शांता को एक कम्बल उढ़ा दिया था, फिर भी बार-बार पत्नी से पूछ रहे थे, ‘तुम्हें ठंड तो नहीं लग रही एक और कम्बल डाल दूं क्या?’
और शांता के ‘ना-ना’ कहने पर भी उन्होंने एक और कम्बल उढ़ा दिया था। कृतज्ञता ज्ञापित करती शांता की नजरों में पति के लिए ढेर सारा स्नेह उमड़ आया था। वह पुलकित, उत्साहित सी उन्हें अपने दिन भर के क्रियाकलापों के बारे में बताने लगी थी। दूसरे की घरेलू और निजी बातें सुनने के आदी न होने के बावजूद नरेन्द्र बाबू पत्नी की बातों में गहरी रूचि का प्रदर्शन कर रहे थे।
सहसा उनकी बातचीत के बीच व्यवधान आ गया जब छत का पानी कई जगहों से टपकने लगा। बातों के बीच कुछ देर के लिए दोनों जैसे अपनी चिंता को भूल गए थे। इतनी देर बाद उन्हें वर्षा की भीषणता का एहसास हुआ और दोनों का मन पुनः अपनी परेशानियों में उलझ गया।
शांता उठने लगी तो नरेन्द्र बाबू ने उसे रोक दिया और स्वयं उठ कर उन स्थानों पर बाल्टी और तसले रख आए जहां से पानी अधिक चू रहा था।
‘उफ, इस बार की बरसात की मार ने तो इस कमरे की छत को भी जर्जर कर दिया।’ नरेन्द्र बाबू के मुंह से एक आह सी निकल गई।
‘हे भगवान, अभी तो बरसात शुरू ही हुई है। बाकी के दिन कैसे कटेंगे।’
उनके इतने बड़े घर में एक यही कमरा ऐसा था जिसकी छत बरसात में नहीं के बराबर टपकती थी। एक तो इस कमरे की छत काफी मजबूत बनी हुई थी, दूसरे वह इसकी थोड़ी बहुत मरम्मत भी करते रहे थे। लेकिन सारी छत की मरम्मत करा पाने का सुयोग आज तक नहीं बन पाया था।
‘मैंने तुमसे पहले ही कहा था, जैसे भी हो मरम्मत का काम करा लो। लेकिन तुम पता नहीं किस बात का इंतजार कर रहे हो। इस तरह हम आखिर कितनी रातें काटेंगे।’ शांता के स्वर में दबी हुई खींझ थी।
नरेन्द्र बाबू व्यथित स्वर में बोले, तुम्हें तो सब कुछ मालूम है शांता मैंने कितना चाहा था मरम्मत का काम पूरा हो जाए, लेकिन हर बार कोई न कोई बाधा आ खड़ी हुई।
वास्तव में नरेन्द्र बाबू का कोई दोष नहीं था। उन्होंने पिछले साल ही चाहा था कि पूरे मकान की मरम्मत करा लें। इसके लिए सारी तैयारी भी कर चुके थे। लेकिन ऐन वक्त पर लड़के वाले पद्मा के ब्याह के लिए जोर देने लगे। पद्मा उनकी छोटी बेटी थी और उसका ब्याह वह एक साल पहले तय कर चुके थे पर अभी कुछ दिन और बेटी का ब्याह करने के पक्ष में नहीं थे। पद्मा भी अभी पढ़ रही थी। वह शादी को बेटी की पढ़ाई पूरी होने तक टाल देना चाहते थे। लेकिन लड़के वाले इसके लिए बिल्कुल राजी नहीं थे। उनका कहना था कि विवाह इसी लगन में होगा। जहां तक पद्मा की पढ़ाई का सवाल था, लड़के वाले उसे आगे पढ़ाने के लिए सहमत थे।’
नरेन्द्र बाबू के सामने अधिक न नुकर की गुजांइश नहीं थी। कहीं लड़के वाले नाराज न हो जाएं। और फिर बेटी की शादी तो करनी ही थी। यही सब सोच कर वह बेटी के ब्याह की तैयारियों में जुट गए। मकान की मरम्मत की बात को उन्होंने कुछ समय के लिए भूल जाना ही ठीक समझा था।
आसमान में बिजली बार-बार चमक रही थी। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। दिन भर हरिहर के घर ब्याह की तैयारियों में व्यस्त रहने के कारण शांता थक कर चूर हो गई थी। इस समय उसकी उठने की भी इच्छा नहीं हो रही थी। लेकिन पति क्या भूखे सोएंगे? यह ख्याल आते ही वह अपनी सारी थकान एक ओर रखकर उठ खड़ी हुई।
शांता रसोई में गई तो यह देखकर हैरान रह गई कि रसोई लगभग तैयार थी। देगची में से ताजी बनी दाल की महक आ रही थी। चूल्हे के पास सूखी लकड़ियां रखी हुई थी और आटा भी गूंथा जा चुका था। शांता का काम एकदम आसान हो गया था। अब उसे सिर्फ फुलके उतारने थे। बरबस शांता की आंखें भर आई। पति उसका कितना ख्याल रखते थे। उन्हें उसके आराम और छोटी-छोटी तकलीफों का भी कितना ध्यान रहता था। वह जानते थे कि दिन भर की थकी मांदी शांता लौटेगी तो खाना बनाने की स्थिति में कहां होगी? अतः उन्होंने सब इंतजाम कर दिया था।
शांता पछतावे से भर उठी। उसने नाहक छत की मरम्मत की बाबत इतना कुछ कह दिया था। नरेन्द्र बाबू दोनों हाथ कमर पर बांधे बेचैनी से इधर से उधर घूम रहे थे। शांता ने वहीं से पति से कहा, ‘यहीं आ जाओ। मैं फुलके उतारने लगी हूं। बेकार में चिंता करने से क्या होता है? अब उसे छोड़ो, जो होना है, होगा ही वही।’

खा पी चुकने के बाद शांता ने रसोई समेट दी थी। दोनों पति-पत्नी पुनः कमरे में लौट आए थे और सोने की तैयारी करने लगे। कमरे के बीचों-बीच चूंकि काफी पानी टपक रहा था। इसलिए उन्होंने अपनी चारपाइयां कमरे के दोनों सिरों पर दीवार से सटाकर आमने-सामने डाल लीं और पड़े रहे। कुछ देर तक तो दोनों बतियाते रहे। फिर शांता ऊंघने लगी तो नरेन्द्र बाबू बोले, ‘अच्छा अब सो जाओ। रात बहुत हो गई है।’
उन्होंने तिपाई पर रखी लालटेन की लौ एकदम कम कर दी। कुछ पल बाद ही थकी हारी शांता के हल्के-हल्के खर्राटे सुनाई देने लगे। लेकिन नरेन्द्र बाबू की आंखों में नींद का कहीं नामो निशान नहीं था। उन्हें नींद बहुत कम आती थी। पता नहीं बुढ़ापे का असर था या कुछ और। अक्सर वह पूरी रात करवटें बदलते हुए बिता देते थे।
रात्रि के निस्तब्ध सन्नाटे में अक्सर उनकी नींद रहित आंखों में अतीत के चित्र झिलमिला उठते थे। उनका मन स्मृतियों की वादी में भटक-भटक जाता था। अनेक भूली बिसरी यादें ताजा हो उठती थी। वह अपने बारे में, शांता के बारे में, अपने परिवार के बारे में सोचा करते। जीवन के सारे रंग देख चुके थे वह। कितने ही उतार चढ़ावों को झेलते हुए उनका शरीर अब बिल्कुल वृद्ध और कमजोर हो चुका था।
लेकिन चालीस साल पूर्व जब वह शहर से अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटे थे तो कितना जोश और उत्साह था उनके मन में। सारी दुनिया की ताकत उनके बाजुओं में समाई थी जैसे। तब उनकी आंखों में एक ही सपना पल रहा था।
गांव के लिए उनके मन में विशेष दर्द था। जब भी वह अपने गांव की दयनीय दशा, वहां की भूख और गरीबी देखते तो उनका मन बैचेन हो उठता था। अपने गांव के लिए कुछ करने वहां का जीवन स्तर सुधारने की एक बलवती इच्छा थी उनके मन में।
अपने गांव की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण वह अशिक्षा और अज्ञानता को मानते थे। उनके गांव में तो क्या आसपास के पांच दस गांवों में भी तब कोई स्कूल नहीं था। उन्होंने अपने गांव में स्कूल खोलने का फैसला किया। गांव वालों का जीवन स्तर उठाने का यही एकमात्र रास्ता था कि उनके बच्चों को शिक्षित किया जाए उनमें ज्ञान का प्रकाश फैलाया जाए। यही था सभी समस्याओं का एक मात्र हल।
महीनाें लगाए उन्होंने गांव वालों को अपना उद्वेश्य समझाने और भलाई की बात उन्हीं से मनवाने में। गांव के अधिकांश लोग इस महान कार्य में उनके साथ हो लिए। और फिर उन सभी के प्रयासों से गांव में पहला स्कूल खुला था नरेन्द्र बाबू का स्कूल। बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ने के लिए आने लगे। साधन और सुविधाओं के अभाव में भी उनका यह स्कूल कई सालों तक सफलतापूर्वक चला। बाद में अपना स्कूल बंद कर दिया और सरकारी स्कूल में मास्टर बन गए।
वह सारी उम्र गांव में ही रहने का फैसला कर चुके थे। शहर का जीवन उन्हें कभी रास नहीं आया। और फिर वह यह भी मानते थे कि इंसान अपनी जड़ों से कटकर, दूर होकर कभी फल-फूल नहीं सकता था। उन्होंने अपना जीवन गांव वालों के लिए अर्पण कर दिया। वह जिस उद्देश्य को लेकर चले थे। उसकी सफलता ही अब उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था।
गांव के बच्चों के मन में विद्याभ्यास के प्रति जबरदस्त उत्साह था। परिवर्तन का यह सबसे बड़ा लक्षण था। नरेन्द्र बाबू आश्वस्त थे। कुछ ही साल में तस्वीर काफी बदल गई थी। गांव के अनेक पढ़े लिखे लड़के शहर में जाकर नौकरियां करने लगे। कुछ शिक्षित नौजवानों को गांव में ही रहकर खेती बाड़ी करने के लिए नरेन्द्र बाबू ने प्रेरित किया था। अनेक उत्साही और कर्मठ नौजवानों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया था, नरेन्द्र बाबू के विचारों से प्रेरित होकर और उन्होंने खेती बाड़ी को आजीविका के रूप में अपना लिया। उन्होंने खेती के आधुनिक और वैज्ञानिक तरीके अपनाए और पैदावार को बढ़ाया। इससे उनका और उनके परिवारों का जीवन स्तर पहले से सुधरा और उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती गई। उनकी देखा-देखी दूसरे किसानों ने भी नई खेती को अपनाया, फलतः फसलें अच्छी हुई, पैदावार बढ़ी और किसानों की दशा तेजी से सुधरती गई।
नरेन्द्र बाबू इन परिवर्तनों से काफी खुश थे। उनके लिए यह बड़े गर्व की बात थी कि उनके पढ़ाए गए सैंकड़ों छात्र सुखी और सम्पन्न जीवन बिता रहे थे। उनके पढ़ाए हुए छात्र अपनी सफलता का सारा श्रेय उन्हें ही देते थे। छात्रें में वह पूजे जाते थे। जो छात्र बरसों पहले स्कूल छोड़ गए थे वे भी उन्हें नहीं भूले थे। जब भी कोई छात्र शहर से लौटता तो उनसे मिलकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता था।
नरेन्द्र बाबू धन्य धन्य हो उठते। इतना आदर और प्यार। शायद ही किसी और मास्टर को मिला हो। नरेन्द्र बाबू के साथी उनसे इश्क करते थे। नरेन्द्र बाबू का सीना तन जाता था। इसे ही वह अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे। यही उनकी कुल जमा पूंजी थी। इससे अधिक उन्होंने और कुछ चाहा भी नहीं था। अपने आपको पूरी तरह स्कूल और छात्रें के लिए समर्पित कर देने वाले नरेन्द्र बाबू ने अपने एक बहुत साधारण जिन्दगी चुनी थी। स्कूल मास्टरी से होने वाली मामूली आय में ही अपनी और अपने परिवार की गुजर करते रहे।
व्यक्तिगत जीवन में आने वाली कठिनाइयों और अभावों के बावजूद वह कभी विचलित नहीं हुए। वह हमेशा निश्चिंत रहते थे। सादगी भरा जीवन उन्हें पसंद था। संघर्ष को वह जीवन का आधार मानते थे। उनका कहना था कि जहां संघर्ष खत्म हुआ समझो आदमी मर गया। उन्होंने जीवन में जो कुछ चाहा था उसे पा लिया था। अपनी इस सफलता के आगे उन्हें दूसरी तमाम मुश्किलें बिल्कुल तुच्छ नजर आती थी।

अतीत में उनका पारिवारिक जीवन भी काफी खुशहाल रहा था। उन्हें सुख सहयोग देने वाली पत्नी मिली थी। जिसने अभाव और कठिनाईयों में भी कभी उनसे कोई शिकायत नहीं की थी और उनकी थोड़ी सी आय में ही गृहस्थी को बहुत अच्छे ढंग से चलाया था। शांता के रहते उन्हें घरेलू कठिनाईयों के लिए कभी चिंतित नहीं होना पड़ा था।
लेकिन आज जबकि वह उम्र के अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचे थे, और अपनी सभी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से मुक्त हो चुके थे। तो उन्हें ऐसा लगता था जैसे वह जीवन में कुछ भी नहीं कर सके। एक भरा पूरा संपन्न और सफल जीवन जी चुके नरेन्द्र बाबू आज अपने भीतर एक बहुत बड़ा अभाव, एक रिक्तता सी महसूस करते थे। आज उनके पास ऐसा कुछ नहीं बचा था जिस पर वह गर्व कर सकते। अपनी उपलब्धियां उन्हें मुंह चिढ़ाती हुई सी प्रतीत होती। आज कोई भी तर्क उनके संतप्त मन को थोड़ी सी भी राहत नहीं दे पाता। उनकी गढ्ढे में धंसी पथराई आंखों में एक महाशून्य तैरता नजर आता था।
शांता की तरह सब कुछ भूलकर वह अपने जीने के लिए कोई बहाना नहीं ढूंढ पाए थे। हालांकि उन्होंने उसकी कम कोशिश नहीं की थी। कई बार अपने को समझाने का प्रयास किया था, जो कुछ भी हुआ उस पर उनका कोई वश न था, जो चला गया वह अपना न था, लेकिन कहां समझा पाए थे।

उनका मन फिर से अतीत की वादियों में भटकने लगा। उनके अतीत का, उनके जीवन का वह दुखद हिस्सा जिसे काट कर फैंक देना चाहा था। लेकिन नहीं फैंक पाए थे। सब कुछ उनकी आंखों के सामने वीभत्स ढंग से झूलता रहता था। वह जितना चाहते हैं कि उस दारुण सत्य को याद न करें, उसे झुठला दें, उतने ही प्रबल रूप से वह उनके दिलों दिमाग पर हावी हो जाता और वह अनायास ही मन ही मन अपने अतीत को दोहराने लगते। इससे उन्हें एक क्रूर आनन्द सा मिलता था।
शांता ने उन्हें तीन संतान दी थी। पितृत्व के इस गौरव से अभीभूत नरेन्द्र बाबू का मन अपनी पूर्णता के सुख से आह्लादित हो उठा था। एक पुत्र और दो पुत्रियों को पाकर मानो नरेन्द्र दम्पत्ति के जीवन में बहार सी आ गई थी। बेटा बड़ा था, दोनों लड़कियों से। बड़े उत्साह से उन्होंने बेटे का नाम प्रभात रखा था। प्रभात एक कुशाग्र बुद्धि बालक था। नरेन्द्र बाबू को उसकी प्रतिभा का ज्ञान बचपन में ही हो गया था। उन्होंने तभी यह निश्चय कर लिया था कि बेटे को खूब पढ़ाएंगे, उसे बड़ा आदमी बनाएंगे। वही उसी समय से बेटे की प्रतिभा को चमकाने में लग गए थे। अक्षरज्ञान से सामान्य ज्ञान तक की शिक्षा उन्होंने ही दी थी। प्रभात उनकी आशा से भी अधिक तेज निकला था। हाई स्कूल की परीक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त करने वाला छात्र प्रभात ही था।
नरेन्द्र बाबू ने आगे की पढ़ाई के लिए उसे शहर भेज दिया। प्रभात का वजीफा बंध गया था। स्कूल के बाद कालेज में भी प्रभात ने सफलता के लिए कीर्तिमान बनाए।
नरेन्द्र बाबू और शांता को बेटे पर बहुत गर्व था। बेटे की सफलताओं, उसे मिलने वाले उपहारों को देखकर दोनों फूले नहीं समाते थे। प्रभात केवल पढ़ाई में ही होशियार नहीं था, वह एक आज्ञाकारी पुत्र और एक समझदार भाई भी था। उसे अपने मां बाप और दोनों बहनों का हमेशा ख्याल रहता था। उसकी ऊंची शिक्षा दीक्षा के लिए पिता को जो व्यय करना पड़ा था, और उसके लिए पूरे परिवार ने किस तरह कष्ट उठाकर उसके लिए पाई-पाई जोड़ी थी, उसे वह एक पल के लिए भी नहीं भूल पाता था। वह अक्सर कहता था, ‘बस मैं पढ़ लिखकर नौकरी पर लग जाऊं, फिर आप सबकी तमाम परेशानियां दूर हो जाएंगी। मां। बाबूजी ने बहुत कुछ किया है। मैं उन्हें अब कुछ नहीं करने दूंगा। घर की सारी जिम्मेदारियां अब मैं उठाऊंगा।’
‘अच्छा, अच्छा, करना जो जी चाहे, पहले कुछ बन तो जा।’ नरेन्द्र बाबू और शांता अह्लादित हो उठते। उस क्षण उन्हें अपनी सारी कठिनाईयां तुच्छ नजर आने लगती।
उन्हीं दिनों उन्हें प्रभात से यह सूचना प्राप्त हुई कि उसकी स्कालरशिप मंजूर हो गई थी। प्रभात कालेज का सबसे होनहार छात्र होने और प्रिंसिपल और प्राध्यापकों का प्रिय छात्र होने के कारण उन्हीं के द्वारा उसका नाम स्कालरशिप के लिए प्रस्तावित किया गया था और उसे मंजूर भी करा लिया गया था। जब स्कालरशिप मंजूर हो गई तो फिर पासपोर्ट आदि बनने में क्या देरी लगनी थी सारी तैयारियां पूरी करके प्रभात विदेश जाने से पूर्व अपने परिवार और गांव वालों सेे मिलने आया था।
नरेन्द्र बाबू और शांता ने सुना तो हर्ष विभोर हो उठे। बेटा पढ़ाई के लिए विदेश जाएगा, यह उनके लिए कितने बड़े सम्मान और गर्व की बात थी। खबर गांव में फैलते ही लोग नरेन्द्र बाबू को बधाईयां देने आने लगे थे। प्रभात अपने परिवार में ही नहीं, पूरे गांव में विदेश जाने वाला पहला व्यक्ति था। यही कारण था कि उनका परिवार पूरे गांव की नजरों में विशिष्ट और सबकी उत्सुकता का केन्द्र बन गया था।
नरेन्द्र बाबू और शांता से अपनी खुशियां संभाले नहीं संभल रही थी। लेकिन थोड़ा सा गम भी था। बेटा पहली बार अपने घर, अपने देश से इतनी दूर, वह भी लम्बे समय के लिए जा रहा था। जाने का दिन करीब आने के साथ शांता की ममता और बहनों का प्यार, आंखों के रास्ते छलक-छलक पड़ता था। नरेन्द्र बाबू ही ऐसे में सबसे मजबूत बन गए थे और सबको समझा बुझा रहे थे, आश्वस्त कर रहे थे।
चलते समय प्रभात ने कहा था, ‘चिंता मत करना मां। कुछ ही दिनों की बात है। वहां मैं अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए जा रहा हूं। पढ़ाई पूरी होने के बाद मैं एक दिन के लिए भी वहां नहीं रुकूंगा, सीधा आप सबके पास वापस चला जाऊंगा।’
सारा गांव प्रभात को गांव की सीमा तक छोड़ने आया था। उन्हीं में प्रभात का अपना परिवार भी था। माता-पिता और बहनों ने उसे भावभीनी विदाई दी थी। और प्रभात उन सबकी आंखों में न जाने कितने सपने कितनी उम्मीदें जगा कर विदेश चला गया था और अपने पीछे छोड़ गया, इंतजार की लम्बी घड़ियां।

दिन तेजी से बीते। प्रभात की पढ़ाई पूरी हो गई। लेकिन प्रभात नहीं आया। पहली बार नरेन्द्र बाबू और शांता के दिलों को धक्का सा लगा था। कितनी आशंकाओं के साथ इधर से घबराहट भरा पत्र लिखा गया था। प्रभात का उत्तर कुछ दिन बाद आया था-‘बाबूजी, पढ़ाई तो खत्म हो गई है लेकिन यहां मुझे एक अच्छा जॉब मिल गया है। स्वदेश तो लौटना ही है, सोचता हूं लौटने से पहले कुछ पैसा और अनुभव हो जाए तो क्या बुरा है। वहां जमने में आसानी रहेगी।’
दोनों अचंभित रह गए थे। उत्तर उनकी आशा के एकदम विपरीत था। कहां तो वे सोच रहे थे कि पत्र जाते ही प्रभात स्वयं चला आएगा, लेकिन—दोनों को यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि क्या यह वही प्रभात है जिसने जाते समय आंखों में आंसू भर कर कहा था, ‘मैं एक ऐसी जगह जा रहा हूं जहां न मैं किसी को जानता हूं न कोई मुझे जानता होगा कैसे रह पाऊंगा। वहां मेरा मन वहां क्या लगेगा, वह तो यहीं आप लोगों के बीच ही भटकता रहेगा——–यदि सवाल पढ़ाई का न होता तो मैं विदेश जाने की कभी सोच भी नहीं सकता था।’
लेकिन अब जबकि उसकी पढ़ाई भी खत्म हो गई थी, तो जैसे उसे स्वदेश लौटने की कोई जल्दी नहीं रही थी। क्या उसका अब विदेश में, अजनबी लोगों के बीच इतना दिल लग गया था।
नरेन्द्र बाबू और शांता का सशक्ति मन अब भी जैसे इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहा थे कि उनका प्रभात इस तरह बदल सकता था। वह उन लड़कों में से नहीं था जो सफलता की पहली सीढ़ी चढ़ने के बाद अपने घर परिवार से विमुख हो जाते हैं। मां बाप तक को भूल बैठते हैं यहां वे प्रभात को अपवाद मानने में तनिक भी तो न हिचके थे। उन्हें अब भी विश्वास था कि प्रभात अवश्य लौटेगा।
उन्होंने बेटे की नजर से भी सोचा था और एक बारगी उन्हें लगा था कि प्रभात का कहना ठीक ही था शायद वह अधिक व्यावहारिक ढंग से सोच पाया था। विदेश से शिक्षा और अनुभव प्राप्त करके लौटने का अर्थ था, यहां उसके लिए प्रतिष्ठा और प्रगति के नए द्वार खुल जाएंगे। बड़ी से बड़ी कंपनियां उसे आफर करना चाहेंगी।
यकीनन प्रभात का भविष्य बहुत उज्ज्वल था। और यही तो उन्होंने चाहा था। दोनों ने अपने उतावले मन को समझाया था और निश्चय किया कि बेटे के कैरियर में कोई बाधा नहीं आने देंगे। अगर बेटे को शिक्षा के साथ विदेश से अनुभव की भी दरकार हो तो वह अनुभव भी प्राप्त कर लें। उनका अपना क्या है। जैसे इतने दिन इंतजार किया, वैसे कुछ दिन और सही।
दिन बीतते रहे। दो साल का समय और निकल गया। इस बीच प्रभात के पत्र बराबर आते रहे। अब वह रुपए पैसे भी भेजने लगा। इससे नरेन्द्र बाबू और शांता काफी हद तक आश्वस्त थे और संतुष्ट भी। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि प्रभात अपने घर परिवार को भूला नहीं था, उसे अपनी जिम्मेदारियों का विदेश में रहते हुए भी उतना ही एहसास था।
इस बीच नरेन्द्र बाबू बड़ी बेटी की शादी तय कर चुके थे। प्रभात ने बहन की शादी की तैयारी के लिए एक मोटी रकम का चेक भेज दिया था। ब्याह के समय स्वयं भी उपस्थित होने का आश्वासन दिया था।
लेकिन कहां आया था। वह प्रतीक्षा करती आंखें जैसे थक कर पथरा गई थी। फेरे पड़ने के समय तक एक क्षीण आशा की डोर थामे रहे थे। सब के सब, लेकिन वह डोर कच्चे धागे की तरह टूट गई थी। खुशी से खिले चेहरे एकदम मुरझा गए। विदा होती बहन ने कितनी ही बार पीछे मुड़कर सूनी राह की तरफ देखा था। देखती रही थी।
ब्याह ठीक-ठाक निबट गया था। सुप्रबंध और लेन-देन के मामले में सबने उनकी तारीफ की थी। लेकिन उन्हें अब उसकी कोई खुशी नहीं थी। उनका मन क्रोध और अपमान से भर उठा था। बहन की शादी में प्रभात के न आने से कैसी-कैसी चर्चाएं हुई थी, सगे संबंधियों में। नरेन्द्र बाबू के लिए वह सब सुनना असह्य हो उठा था। मारे शर्म के वह किसी को अपना मुंह नहीं दिखा पा रहे थे। वह बेटे से नाराज हो गए थे, सख्त नाराज। उस दिन बहुत कुछ कह गए थे वह। ‘वह क्या समझता है कि दुनिया में पैसा ही सब कुछ है क्या सारे फर्ज पैसों से ही निभाए जाते हैं? अगर उसे अपने पैसों पर इतना ही घमण्ड है तो रखे अपने पास। हमें उसकी कमाई से एक पाई भी हराम है।’

बाद में आया था प्रभात का बहन की शादी में न पहुंच पाने का क्षमा याचना का पत्र:- बाबूजी, शादी में न आ पाने का मुझे बहुत दुख है और रहेगा। आने की हर तैयारी हो चुकी थी। पर उसी समय कंपनी से आदेश मिला था और मुझे फौरन दूसरे शहर काम से जाना पड़ा। क्या करता नौकरी का प्रश्न था। आशा है आप मेरी मजबूरी को समझेंगे और मुझे क्षमा कर देंगे।’
‘नालायक। उसके लिए नौकरी का प्रश्न बहन की शादी से बड़ा हो गया।’ उत्तेजना से थरथराते हुए वह केवल इतना ही कह सके थे। पत्र के अनगिनत टुकडे़ करके हवा में उड़ा दिए थे। लेकिन इससे भी उनका गुस्सा कम नहीं हुआ था। शांता ने पति को इतना क्रोधित कभी नहीं देखा था। वह स्तब्ध और विमूढ़ सी हो गई थी।
गुस्सा शांता को भी आया था। उस दिन के लिए उसने न जाने कितने सपने संजो रखे थे। प्रभात के कारण वह सारे सपने क्रोध, निराशा और अपमान में बदल गए थे। बेटे के न आने का शांता को बहुत बहुत रंच था। प्रभात पास में होता तो शायद वह भी अपने गुस्से को रोक न पाती। लेकिन इतनी दूर जा बैठे बेटे से नाराज हो भी तो क्या? और अब प्रभात भी तो वह प्रभात न रहा था। कहीं वह रूठ बैठा तो वह शायद कभी बेटे का मुंह भी नहीं देख पाएगी।
शांता सिर्फ इतना चाहती थी कि प्रभात वापस आ जाए बस फिर तो सब अपने आप ठीक हो जाएगा। लेकिन प्रभात जाने क्या सोचे बैठा था। वह आने की बात बार-बार लिखता तो था, लेकिन उसका आना हर बार टल जाता था। कहीं वह वहीं रहने का फैसला——आगे वह सोच भी नहीं पाती थी। उसकी ममता हाहाकार कर उठती। निश्चय और अनिश्चय के बीच झुलती शांता ने आखिर पति को इस बात के लिए राजी कर ही लिया कि वह बेटे को पत्र लिखेंगे, आखिर बार और उससे पूछेंगे साफ लफ्रजों में कि आखिर उसका इरादा क्या है।
नरेन्द्र बाबू पहले इसके लिए कतई राजी नहीं थे। लेकिन पत्नी के आंसुओं को देखकर उनका मन पसीज गया था। उन्होंने थके स्वर में कहा, ‘भगवान तुम्हारी इच्छा पूरी करे, लेकिन मुझे अब विश्वास हो गया है, वह नहीं लौटेगा।
कुछ भी तो गलत नहीं कहा था उन्होंने। पत्र के उत्तर में प्रभात का पत्र भी आया था। उसने लिखा था-‘बाबूजी मैंने सोचा तो यही था कि भारत आकर वहीं अपने कैरियर की शुरूआत करूंगा। लेकिन अब मुझे लगता है ऐसा संभव नहीं। जिस देश में पहले से ही सैकड़ों हजारों नौजवान बेकार घूम रहे हैं। वहां मेरा अपना कैरियर क्या होगा। यह अब मैं जान गया हूं। वहां योग्यता और प्रतिभा की कोई कद्र नहीं आगे बढ़ने के अवसर नहीं। जहां पर आप जैसे विद्वान और ईमानदार शिक्षक एक मामूली स्कूल मास्टरी से अधिक कुछ न पा सके, वहां भला मुझे कौन पूछेगा? अगर कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल भी गई तो क्या मैं आप ही की तरह सारी उम्र अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने की चिंता से मुक्त हो पाऊंगा कभी–?
इसके आगे भी कुछ लिखा था प्रभात ने। लेकिन उसे वह न पढ़ सके। उस दिन नरेन्द्र बाबू बिल्कुल टूट गए थे। निर्जीव सा उनका शरीर चारपाई पर गिर पड़ा था। प्रभात ने न आना था तो न आता, लेकिन उसने यह सब क्यों लिखा? कम से कम एक भ्रम तो जिन्दा रहने देता, यह कि विदेशी चमक-दमक में डूब कर अपनी गैरत तो नहीं भूला था। लेकिन नहीं, प्रभात का बिल्कुल पतन हो चुका था। उसने उस माटी का अपमान किया था जिसमें लोटपोट कर वह इतना बड़ा इस काबिल हुआ था कि आज वही धरती उसे तुच्छ नजर आने लगी थी। फिर भला वह पिता का अपमान करने से कैसे चूकता। उसने पिता पर आक्षेप किया था। यह अपमान नहीं तो और क्या था कि सब कुछ जानते हुए भी उसने ऐसी बातें लिखी थी उनके संबंध में।
एक बारगी नरेन्द्र बाबू की इच्छा हुई कि प्रभात को एक पत्र लिखे जिससे उसकी आंखों पर चढ़ी सफलता और वैभव की पट्टी हट जाए और उसे हर सत्य नजर आने लगे। वह जान जाए कि नरेन्द्र बाबू ने स्वयं अपने लिए यह जीवन चुना था। वरना इस देश ने उन्हें क्या नहीं दिया था? कब नहीं हुई थी उनकी विद्वता और ईमानदारी की कद्र। उनके सामने ऐसे कई अवसर आए, जब वह चाहते तो उसका लाभ उठाकर कहां से कहां पहुंच गए होते। उनके पास भी वह सब कुछ होता जिसके अभाव में आज प्रभात ने उन्हें एक असफल, उपेक्षित इंसान समझ लिया था। लेकिन उन्होंने तो अपने स्कूल की हेडमास्टरी तक स्वीकार नहीं की थी। उन्हें पद प्रतिष्ठा और दौलत का कभी लोभ नहीं रहा।
उन्होंने जीवन में क्या पाया था यह प्रभात यहां आकर पूछे तो किसी से। केवल कार, बंगला और मोटा बैंक बैलेंस बनाने से ही इंसान जिन्दगी में सफल नहीं बन जाया करता। जो सुख और प्यार उन्होंने इस अभावग्रस्त गांव की माटी में पाया था वह शहर की बदरंग हो चुकी जिन्दगी में कहां।
लेकिन यह सब वह बेटे को नहीं लिख सके। उसकी निरर्थकता का भाव उन्हें भीतर तक भेद गया था। बेटे ने अपने लिए नई राह चुन ली थी। अब उसे कहां समझ में आने वाला था पिता का सिद्धांत, उनका आदर्श। वह पूरी तरह भौतिकता के रंग में रंग चुका था। वह बेटे के इस खोखले जीवन दर्शन पर तरस खाने के सिवा कुछ भी तो न कर सके थे।
नरेन्द्र बाबू ने पलकाें पर भारीपन सा महसूस किया। आंखों पर हाथ फेरा तो खारे पानी की कुछ बूंदें हथेली पर उतर आई। वह अतीत से वर्तमान में लौट आए थे और एक बाहरी टूटन का अनुभव कर रहे थे। बाहर अब भी अंधेरा था। उन्होंने सोचा कि कुछ देर सो लें। सारी रात आंखों में ही कट गई थी। फिर से आंखें मूंद ली। इस बार उन्हें नींद आ गई।
अचानक एक धमाके की आवाज सुन कर उनकी आंखें सहसा खुल गई थी। तुरन्त उठ बैठे। देखा, शांता भी जाग गई थी। नरेन्द्र बाबू उठकर बाहर की तरफ लपके। पीछे-पीछे शांता भी। कई और लोग भी उनके घर की तरफ दौड़े-दौड़े चले आ रहे थे।
उन्होंने बाहर निकल कर देखा, मकान का बाई तरफ वाला हिस्सा बैठ गया था। दालान और दो कमरे मलबे की शक्ल में बदल चुके थे। अगर बीच वाली दीवार भी गिर गई होती तब तो वह कमरा भी ढह जाता, जिसमें कुछ क्षण पहले तक दोनों बेखबर सोए पड़े थे। शायद उन्हें कुछ पता नहीं चल पाता। मौत कितने करीब से गुजर गई थी। कई पलों तक दोनों पति-पत्नी इस घटना की आकस्मिकता और भयानकता से स्तब्ध और अवाक रह गये थे। आसपास लोगों की भीड़ जुटती गई थी।
यकायक शांता रो पड़ी थी। फूट-फूट कर ध्वस्त हो चुके कमरों में एक कमरा प्रभात का था। वह जब तक गांव में रहा, इसी कमरे में रहता था। इस कमरे में अब भी उसकी बहुत सी चीजें पड़ी थी। जब से वह विदेश जाकर बस गया था। यह कमरा उसकी यादगार मात्र बन गया था अक्सर वह बंद ही रहता था। लेकिन कभी-कभार शांता कमरे को खोल कर उसकी सफाई कर दिया करती थी। उसकी एक-एक चीज को पोंछ कर साफ सुथरा रखती थी।
इतना अरसा बीत जाने के बाद भी एक क्षीण सी आशा अब भी उनके मन में बसी हुई थी। शायद कभी प्रभात लौट आए। और तब वह बेटे को उसी कमरे में तो ठहराएंगी।
लेकिन आज—-आज नियति ने उसकी वह आस भी तोड़ दी थी। वह एकटक अपनी व्यस्त आकांशाओं के मलबे को देख रही थी। उन्हें ऐसा लगा मानो बेटे से उसका अंतिम नाता भी टूट गया।
नरेन्द्र बाबू जार-बेजार रोती शांता को बाहों में संभाले भीतर ले जा रहे थे। भीड़ मौन थी।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments