लेख सीताराम गुप्ता
मैं प्रायः कोई बहुत लंबी कहानियाँ नहीं लिख पाता हूँ। मैं किंचित यथार्थवादी रहा हूँ अतः किसी घटना को निरर्थक विस्तार नहीं दे सकता। जो अनुभव में न आया हो, थोड़ा-बहुत पकड़ में न आया हो उस विषय में भी लिखना संभव नहीं हो पाता है। यदि हम फिल्मी कहानियों पर ग़ौर करें तो पाएँगे कि कमोबेश हर फिल्म में नायक-नायिका के अतिरिक्त एक खलनायक और एक खलनायिका भी कहानी में अवश्य उपस्थित होते हैं और इन्हीं के प्रताप से कहानी आगे बढ़ती है। खलनायक और खलनायिका बाधा उत्पन्न करते रहते हैं और कहानी आगे बढ़ती रहती है। जीवन के हर क्षेत्र में यही क्रम लागू होता है। हमारा जीवन भी ऐसे ही गति पाता है।
एक सुखांत फिल्म अथवा कहानी में जहाँ खलनायक अथवा खलनायिका का काम ख़त्म हुआ नायक व नायिका का मिलन हो जाता है। कहानी पूरी हो जाती है। फिल्मी कहानी में नायक व नायिका के मिलन की तरह ही हमारे संकल्पों की पूर्ति में भी एक ऐसा ही खलनायक बाधक होता है और वो है द्वंद्व। हमारे संकल्पों के पूरा न होने का एक कारण तो यही है कि हम अपने संकल्प की पूर्णता के प्रति आश्वस्त ही नहीं होते। हम एक द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं कि हमारा संकल्प पूरा भी होगा या नहीं अर्थात् हमें विश्वास ही नहीं होता कि हमारा संकल्प पूरा हो जाएगा। कई लोग कोई संकल्प लेने के साथ-साथ प्रायः ये भी कहने लगते हैं की मेरे संकल्प कभी पूरे नहीं होते और इस प्रकार हम एक विरोधी संकल्प ले लेते हैं कि ‘मेरे संकल्प कभी पूरे नहीं होते।’
इस प्रकार की सोच कि ‘मेरे संकल्प कभी पूरे नहीं होते’ भी एक संकल्प ही है लेकिन नकारात्मक और अनुपयोगी संकल्प जो हमारे संकल्पों की पूर्णता में सबसे बड़ी बाधा बनता है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे संकल्प पूरे हों तो सबसे पहले हमें यही संकल्प लेना चाहिए कि मेरे सभी सकारात्मक संकल्प या विचार सदैव पूर्ण होते हैं। यहाँ एक बात और भी महत्वपूर्ण है और वह ये कि हम जाने-अनजाने हर क्षण नए-नए संकल्प लेते ही रहते हैं। हमारे मन में उठने वाला हर विचार एक संकल्प ही होता है। यदि हम अपने अंदर ये विश्वास पैदा कर लें कि हमारे सभी सकारात्मक विचार या संकल्प पूर्णता को प्राप्त होते हैं तो जीवन में एक क्रांति आ जाए। हमारे असंख्य उपयोगी विचार पूर्ण होकर हमारे जीवन और पूरे समाज को बदल डालें। अतः सबसे पहले अपने संकल्प की पूर्णता के प्रति अपने मन में पूर्ण विश्वास पैदा करना अनिवार्य है।
अब हमें अपने संकल्पों के पूर्ण होने के विषय में कोई संदेह नहीं रहा और हम पूरे जोशो-ख़रोश के साथ कुछ महत्वपूर्ण संकल्प ले लेते हैं लेकिन फिर भी कई बार निराशा ही हाथ लगती है। आखिर क्यों? हम सबमें अच्छे संकल्प लेने की क्षमता है और हम उपयोगी संकल्प ले भी लेते हैं अथवा उपयोगी विचारों का चुनाव कर भी लेते हैं लेकिन क्या हम किसी संकल्प को लेने के बाद अथवा किसी उपयोगी विचार का चुनाव करने के बाद उसकी उपयोगिता के तत्त्वों को अक्षुण्ण रख पाते हैं? शायद नहीं। विचार ही तो है कमज़ोर पड़ जाता है। या तो संकल्प की उपयोगिता पर ही संदेह होने लगता है अथवा संकल्प के विरोधी विचार ही सिर उठाने लगते हैं और द्वन्द्व शुरू हो जाता है।
द्वन्द्व की स्थिति में हमारे संकल्प की भावना पर बार-बार प्रहार होता है और मूल संकल्प कब और किस रूप में प्रभावी होकर वास्तविकता ग्रहण करता है हमें पता ही नहीं चलता। जीवन में द्वन्द्व या शंका के कारण परस्पर विरोधी विचार उत्पन्न होते रहते हैं। विचार वास्तविकता का मूल है। पहले एक विचार ने स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ किया ही था कि दूसरे विचार ने दूसरा स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ कर पहले विचार को विकृत अथवा नेस्तानाबूद कर दिया। अब दूसरे विचार को तीसरे ने और तीसरे विचार को चौथे ने धराशायी कर दिया। हर विचार, हर इच्छा अथवा हर संकल्प के साथ यही क्रम जीवनभर चलता रहता है।
हम जीवन भर अच्छा सोचते हैं, बार-बार शुभ संकल्प लेते हैं लेकिन द्वंद्व के कारण हमारी अच्छी भावना या विचार टिक ही नहीं पाते अर्थात् संकल्प वास्तविकता को प्राप्त नहीं हो पाते। इस प्रकार जीवन में विभिन्न इच्छाओं, संकल्पों अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए द्वन्द्व की समाप्ति अनिवार्य है। द्वन्द्व की समाप्ति ही मनोवांछित उपयोगी जीवन जीने की अनिवार्य शर्त है तथा जीवन जीने की कला भी है। यहाँ अपनी सोच में थोड़ा दिशांतरण अथवा डाइवर्सिफिकेशन करना होगा अर्थात् एक और सोच विकसित करनी होगी और वह यह कि कोई भी नकारात्मक या विरोधी सोच मेरी सकारात्मक विचार प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती।
इसे इस प्रकार भी स्वीकार किया जा सकता है कि केवल सकारात्मक सोच ही मेरे जीवन को प्रभावित करती है। यानी द्वन्द्व से उत्पन्न नकारात्मक या विरोधी सोच के विरूद्ध उसकी विरोधी एक अन्य सोच का विकास। यह एक एंटी वायरस डिवाइस की तरह काम करेगा। यह हमारे संकल्प अथवा उपयोगी मूल विचार को सुरक्षित रखने और उसे वास्तविकता में बदलने में सहायक एक विशुद्ध सकारात्मक विचार है। जीवन में इच्छाओं का दमन करने की आवश्यकता नहीं है। इच्छाओं के अभाव में इस भौतिक शरीर का प्रयोजन ही क्या हो सकता है? जीवनोपयोगी, समाजोपयोगी इच्छाओं को उत्पन्न होने दीजिए और उन्हें वास्तविकता में परिवर्तित कीजिए लेकिन इसके लिए इच्छा के विरोधी भावों का त्याग भी अनिवार्य है। अब इच्छा के विरोधी भावों को मन में आने से कैसे रोका जाए?
हम डॉक्टर अथवा न्यूट्रिशनिस्ट से परामर्श करके उचित आहार-विहार का चार्ट बनाकर उसका पालन करते हैं। ब्यूटी-पार्लर में जाकर चेहरे की तथा दूसरे अंगों की लिपाई-पुताई करा लेते हैं और स्थाई परिवर्तन के लिए उपलब्ध है कॉस्मेटिक सर्जरी। कपड़ों के चुनाव और डिज़ाइनिंग के लिए फैशन डिज़ाइनर की सेवाएँ उपलब्ध हैं। शारीरिक सौष्ठव के लिए जिम हाजि़र है। हर क्षेत्र में प्रशिक्षण की व्यवस्था सुलभ है। तो क्या विरोधी भावों के त्याग के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी संभव है? अवश्य संभव है। जीवन में यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसके प्रशिक्षण की परमावश्यकता है लेकिन हम इसी क्षेत्र की अधिकाधिक उपेक्षा करते हैं। क्योंकि इस प्रशिक्षण में बाह्य उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती। अतः यह प्रशिक्षण ही नहीं लगता या दिखाई देता।
विचारों का उद्गम मन है अतः मन के उचित प्रशिक्षण द्वारा न केवल उपयोगी विचारों का बीजारोपण संभव है अपितु साथ ही विचारों के विरोधी भावों का बीजारोपण रोकना भी संभव है। इसके लिए मन की साधना अनिवार्य है। मन की साधना अर्थात् मन को विकारों से मुक्त कर उसमें उपयोगी विचार या सुविचार डाल कर उस छवि को निरंतर दृढ़तर करते जाना। यही ध्यान अथवा मेडिटेशन है। पूरी ऊर्जा को एक ही केन्द्र बिन्दु पर एकत्र करना। ध्यान द्वारा अपेक्षित उपयोगी विचार, इच्छा अथवा संकल्प को कल्पनाचित्र या चाक्षुषीकरण (विजुवलाइज़ेशन) द्वारा लगातार दृढ़तर करके वास्तविकता में परिवर्तित करने की प्रक्रिया में विरोधी भाव उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि ध्यान अनुपयोगी अथवा ग़लत विचार पर चला जाता है तो उसे वहाँ से हटाकर पुनः उपयोगी विचार अथवा संकल्प पर लाने का प्रयास अनिवार्य है। निरंतर अभ्यास द्वारा यह पूर्णतः संभव है। ध्यान अथवा मेडिटेशन की सैकड़ों विधियाँ मौजूद हैं। किसी भी विधि से अभ्यास करें लाभ होगा ही।