जून, 2025
कहानी
डा. अशोक रस्तोगी
बालपन से ही यदि बच्चे को संस्कारित और प्रेरित करने का व्रत अभिभावक ठान ले तो बच्चा जीवन में बड़ी ऊंचाईयों को छू लेता है, एक हृदय को स्पर्श करती भावपूर्ण कहानी।
काव्योदय नामक साहित्यिक संस्था द्वारा किया गया था उस कवि सम्मेलन का आयोजन जिसमें मुझे ‘समाज की गौरव’ के रूप में अभिनंदित किया जा रहा था। वैसे सत्य अर्थ में तो वह समूचा आयोजन ही मुझे केन्द्रित कर रखा गया था। सुगंध बिखेरते विभिन्न प्रकार के पुष्प गुच्छों और विभिन्न प्रकार की रंग बिरंगी किरणें प्रसारित करती विद्युत शृंखलाओं से जगमगाता विशाल भव्य सभागार कई महाविद्यालयों के प्राचार्य, अनेक विद्यालयों के प्रधानाचार्य, शिक्षक गण, न्यायाधीश, अधिवक्ता, प्रशासनिक अधिकारी, जनप्रतिनिधि, मंत्री, पत्रकार आदि महत्वपूर्ण व गणमान्य लोगों से खचाखच भरा था।
और ज्यों ही सभा उद्घोषक ने ध्वनि विस्तारक के समक्ष खड़े होकर मुझसे मुख्य अतिथि का स्थान सुशोभित करने का अनुरोध किया तो मैं सधे कदमों से मंच की ओर बढ़ गई।
उधर मंजा हुआ उद्घोषक दर्शकों को संबोधित करने लगा था-‘‘रह गए न आप लोग आश्चर्य से जड़ इस छुई मुई सी, कोंपल सी, वयस वाली प्रतिभाशाली जिलाधिकारी को देखकर। इतनी अल्प वयस में इतनी महत्वपूर्ण उपलब्धि का विश्वास करना मुश्किल हो रहा है। प्रायः जिस उम्र में विद्यार्थी कोचिंग संस्थानों में अपने भविष्य निर्माण की राह तलाश रहे होते हैं, उस आयु में इस मेधावी बेटी ने इतने बड़े जनपद के प्रशासन को नियंत्रित व सुव्यवस्थित करने का दायित्व अपने कंधों पर लादकर अपनी प्रतिभा सिद्ध कर दी।’’
सभागार में कुछ पलों के लिए ऐसी पैनी धार वाला सन्नाटा पसर गया कि सुई गिरने का भी स्वर हो। सभी की मंत्रमुग्ध सी दृष्टि मेरे चेहरे पर आकर स्थिर हो गई। फिर तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार का कोना-कोना गुंजायमान हो उठा।
तालियों के थमते ही उद्घोषक मेरा परिचयात्मक महिमा मंडन करने लगा-‘‘और बहनों भाइयों! आप यह जानकर चौंक पड़ेंगे कि हमारे जनपद में नवनियुक्त जिलाधिकारी सुश्री प्राची वार्ष्णेय ‘बा’ न केवल एक होनहार प्रशासनिक अधिकारी हैं अपितु एक सुप्रसिद्ध कवयित्री व साहित्यकार भी हैं। इनकी कथा, कहानियां, कविताएं व लेख आदि समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। अनेकों पुरस्कार व अलंकरण इनके आंचल की शोभा बढ़ा चुके हैं। कवि सम्मेलनों में सहभागिता करना इनकी अभिरुचि है। ये जब गंभीर स्वर में मधुर कंठ से गाना प्रारंभ करती हैं तो श्रोता गण तन्मयता से सुनते-सुनते भाव विभोर हो जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज आप स्वयं देखेंगे जब ये अपनी कविताओं से आपका मन मोह लेंगी-।’’
पलांश भर के लिए ठिठका उद्घोषक और फिर अपनी दृष्टि श्रोताओं पर इधर से उधर घुमाते हुए बोला-‘‘इस अवसर पर मैं एक बात और भी आप लोगों से साझा करना चाहूंगा—–अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय ये अपने प्रेरणा-पुंज स्वर्गासीन पूज्य बाबाजी (दादा जी) जिन्हें ये भावातिरेक में ‘बा’ कहकर पुकारती थीं को देती हैं। जो स्वयं भी एक सुनामधन्य साहित्यकार के रूप में चर्चित थे। उन्हीं की स्मृति में इन्होंने एक ग्रंथ ‘धरोहर’ शीर्षक से रचा है, जिसका आज यहां विमोचन भी होना है।’’
पुनः करतल ध्वनि के लिए हर हाथ ऊपर उठ गया।
मेरे अभिनंदन स्वरूप माननीयों द्वारा मेरा माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन के उपरांत उद्घोषक पुनः बड़े उल्लास के साथ शुरू हो गया-‘‘कार्यक्रम आगे बढ़े उससे पूर्व मैं इनके काव्य ग्रंथ ‘धरोहर’ की कुछ काव्य पंक्तियां सुनाना चाहूंगा’’
भीनी गंध उड़ाती है,
कभी तितली सी उड़ जाती है।
सदा लाडली मेरी बिटिया,
घर आंगन महकाती है।।
चौंक गई मैं—-उद्घोषक को कैसे पता कि बाबाजी को यह कविता सबसे ज्यादा पसंद थी? अक्सर मुझे देखकर मुस्कराते हुए वे इन पंक्तियों को गुनगुनाया करते थे।
जैसे किसी ने शांत और स्थिर जल में पत्थर फैंक दिया हो——मेरा मन आंदोलित और तरंगित हो उठा—–आज जिस लक्ष्य रेखा को स्पर्श कर लेने के कारण मुझे यहां सम्मानित किया जा रहा था उसकी आधारशिला प्यारे ‘बा’ ने ही तो निर्धारित की थी—-प्रशासनिक अधिकारी बनने के साथ-साथ साहित्याकाश में भी सूर्य सम नाम प्रकाशित करना।
और मन वर्तमान को धूल की तरह उड़ाता हुआ विगत के धुंए से भरे असीम आकाश में पंछी सा विचरने लगा।
शैशव में ही बाबा जी ने मुझे अपने संरक्षण में ले लिया था और घर भर में संकल्प भी व्यक्त कर दिया था-‘यह सुकन्या मेरी आंखों में रचा बसा सपना लेकर अवतरित हुई है। यह मेरे जीवन की आशा है, उमंग है, मेरा हृत्खंड है। भविष्य में मेरी रचनाधर्मिता की संरक्षक बनेगी यह। मैं इसके व्यक्तित्व में अपनी पुरातन भारतीय संस्कृति की अमिट छाप समाहित करके रहूंगा। विदुषी प्रतिभा के रूप में यह मेरे मस्तक को गौरवान्वित करेगी। पाश्चात्य प्रचलन जो हमारे धर्म व संस्कृति को घुन की तरह खोखला कर रहा है उससे मैं इसे बहुत दूर रखूंगा। पाश्चात्य प्रचलन के दीवाने आज अपने गौरवमयी इतिहास को विस्मृत करते जा रहे हैं। अपना पुरातन स्वास्थ्यवर्धक आहार-विहार बिसराते जा रहे हैं। खान-पान के रूप में धीमा विष देह में प्रविष्ट कर रहे हैं। स्वादलिप्सा के मोह में उचित अनुचित सब कुछ भूल चुके हैं। किन्तु मैं अपने इस हृत्खंड को ऐसे अहितकारी धीमें विषों से बहुत दूर रखूंगा।
घर में उनका पुरजोर विरोध हुआ था—-नये युग की अपनी बेटी पर हम पिछडे़पन की छाया कैसे पड़ने देंगे—पाश्चात्य संस्कृति और प्रचलन की धारा के साथ जो लोग नहीं बहते उन्हें समाज हेय दृष्टि से देखता है। और अपनी बेटी को हम समाज में हेय व उपेक्षित नहीं बनने देंगे। नाते रिश्तेदारों के मध्य हम उसे आदमयुग की कन्या के रूप में परिहास का पात्र नहीं होने देंगे—आखिर हमें भी तो सभ्य और सुसम्पन्न समाज के मध्य अपना अस्तित्व बनाकर रखना है।
जैसे मैं कोई निश्छल निर्मल नदी होऊं—–घर में मुझे लेकर दो धाराएं प्रवाहित होने लगी थीं—-एक धारा जिसे बा ने संचालित कर रखा था। जिसमें बहते हुए मुझे चाकलेट, पिज्जा, बर्गर, मैगी, चाऊमीन, मोमोज जैसे फास्ट जंक आहार से दूर रखने का भरसक प्रयास किया जाता था और ज्यादा से ज्यादा ताजे फल, हरी सब्जियां, दूध, दही, मक्खन, मलाई जैसे स्वास्थ्यवर्धक आहार लेने को उत्प्रेरित किया जाता था। जबकि दूसरी धारा जिसे अन्य परिजनों ने थाम रखा था इस सबके बिल्कुल विपरीत थी।
एक धारा मुझे करबद्ध नमस्ते, सुप्रभात, शुभ दिवस और शुभ रात्रि का शिष्टाचार सिखाती थी तो दूसरी धारा मुझे हाय-बाय जैसे निरर्थक शब्दों के प्रयोग को बाध्य करती थी।
एक धारा के किनारे पर ईशाराधन, संध्यावंदन और अग्निहोत्र था तो दूसरी ओर पाषाण प्रतिमाओं को शीश झुकाना भर था।
एक किनारे पर सीढ़ियां चढ़ना उतरना, खेलकूद, शारीरिक व्यायाम, दौड़ना-भागना आदि शरीर को पुष्ट बनाने वाली क्रियाएं थीं तो दूसरी ओर शरीर को थकने न देने वाले कोमल उपक्रम थे।
एक छोर पर मोबाइल फोन और दूरदर्शन निषेध थे तो दूसरे छोर पर ये साधन मन बहलाव के लिए अत्यावश्यक थे।
‘बा’ उस कुम्भकार की तरह थे जो किसी घड़े को घड़ते समय बाहर से तो ठोकता पीटता रहता है ताकि उसे समुचित और सुनिश्चित आकार दिया जा सके, पर भीतर से हाथ लगाए रखता है कि कहीं मर्म पर आघात न हो जाए। वे मुझे भरपूर लाड़ दुलार करते थे। मेरे आचार-विचार, व्यवहार, शिष्टाचार, संस्कार व शिक्षण आदि पर पैनी निगाह गड़ाए रखते थे। किन्तु मेरी गलतियों पर अथवा उनके दिशानिर्देशों की अवहेलना पर वे फटकार भी बुरी तरह लगाते थे और कभी-कभी मार भी लगा देते थे। मेरे लिए उनका उद्घोष था-पहले प्यार, फिर फटकार और तत्पश्चात मार।
वे मुझे इतने अधिक प्रिय थे कि मुझे अपना सर्वस्व प्रतीत होते थे-मेरे मित्र भी, बालसखा भी, भ्राता भी और शिक्षक भी। बहुत बार वे मेरे साथ बच्चा बनकर खेलने लगते—और खेल-खेल में प्रतिस्पर्धा होने लगती तो वे जान बूझकर मुझे जिताते। कभी वे मेरे लिए घोड़ा बन जाते और अपनी पीठ पर बैठाकर घर भर में मुझे घुमाने लगते। कभी मैं उनके कंधों पर चढ़कर उछलकूद मचाती तो कभी पैरों पर झूल जाती। और कभी मैं उनके सिर पर खड़ी होकर विजयी दर्प से खिलखिला उठती-‘बा मैं आपसे बड़ी हो गई।’
कहीं मैं गिर न जाऊं, वे भी मुझे अपने हाथों का सहारा देकर मुस्कराकर कहते-‘हां बेटा! मैं हमेशा तुम्हें अपने से ऊंचा और बड़ा ही देखना चाहता हूं।’
मैं उन्हें प्यार से ‘बा’ संबोधित करती थी तो वात्सल्य भाव से वे भी मुझे संक्षिप्त उद्बोधन ‘प्रा’ कहकर ही पुकारते थे। मैं उन्हें भरपूर प्यार करती थी तो उनसे लड़ती झगड़ती भी बहुत थी। बात-बात पर उनसे रुष्ट हो जाती, वार्तालाप बंद कर देती। वे मेरी कोई बात न मानते तो दांत किटकिटाकर हाथ नचाकर उनसे कुट्टा कर लेती-‘अब आपसे कभी नहीं बोलूंगी बा।’
किन्तु अधिक देर बिना उन्हें छेड़े, बिना उन्हें गुदगुदाए रहा भी कहां जाता था—-थोड़ी देर बाद ही मैं उनके कंधों पर चढ़कर घोषणा कर देती-‘चलिए बा! फिर बोलचाल शुरू कर लेते हैं।’
मुझे उनके साथ उठना-बैठना इतना अच्छा लगता था कि जब भी कभी वे कथा कहानियां लिखने बैठते तो मैं भी अपनी कापी किताबें लेकर लिखने पढ़ने बैठ जाती। और बीच-बीच में कुछ न कुछ पूछने भी लगती। इस व्यवधान पर वे मुझे बुरी तरह झिड़क देते, लिखने का जो प्रवाह बन रहा था वह सब धूमिल हो गया। सब कुछ निकल गया दिमाग से।’
पलांशभर को तो मैं सहम जाती किन्तु अगले ही पल बड़े भोलेपन से पूछती-‘‘बिलकुल निकल गया ‘बा’ आपके दिमाग से जो आप सोच रहे थे?’’
‘‘और क्या रुका रहता? तुम जैसा चुलबुला जीव आसपास हो तो कुछ लिखा भी कैसे जा सकता है?’’ वे आक्रोश भरे स्वर में कहते तो मैं भी उन्हें घूरते हुए कह देती-‘‘तो क्या हुआ? फिर सोच लेना।’’
उनके साथ-साथ मैं भी लेखन में रुचि लेने लगी तो वे भी मुझे बार-बार प्रोत्साहित करते कि ‘‘लिखो प्रा! कुछ भी लिखो। अच्छा बुरा कुछ तो प्रयास करो।’’
मैं टूटे-फूटे शब्दों में कुछ भी लिखकर उनके हाथों में थमाती तो वे उसे सजा-संवार कर किसी बाल कविता का रूप दे देते और सबको दिखा-दिखाकर प्रफुल्लित होते-देखिए तो मेरी प्रा ने कितनी अच्छी कविता लिखी है।’’
उन्होंने मेरी एक डायरी बना दी थी जिसमें मैं टूटी फूटी सी, बिखरी-बिखरी सी रचनाएं लिखती रहती और वे उनका संशोधन कर भविष्यवाणी कर देते-‘देख लेना। मेरी प्रा एक दिन बहुत अच्छी कवयित्री बनकर मेरा नाम गौरवान्वित करेगी। शायद मैं उस दिन तक न रहूं जब प्रा उच्च कोटि के कवियों के मध्य मंच से अपनी कविताएं सुना सुना कर वाह-वाही लूटेगी, तब मेरी आत्मा कितनी प्रसन्न होगी कि मेरा पल्लवित पुष्पित पौधा कितना फल-फूल रहा है। उसकी शाखाओं पर लगे सुमन चहुं ओर कितनी सुंदर छटा विस्तीर्ण कर रहे हैं।
भावुकता में उनकी आंखें छलछला उठतीं तो मेरी भी आंखों में अश्रुकण झिलमिलाने लगते। मैं उनके होठों पर अपनी अंगुली रख देती-‘बा आप ऐसी निराशा भरी बातें क्यों करते हैं कि मेरा हृदय पिघल उठता है, क्यों न उपस्थित रहेंगे आप मंच पर मेरी कविताएं सुनने के लिए? ईश करें आपका आशीष भरा हाथ मेरे सिर पर हमेशा रखा रहे।’
वे भी भावनाओं की अजस्र जलधार में बहने लगते-‘हां बेटा! मेरी आंखों में यह सपना रचा बसा है कि मेरी प्रा एक बहुत बड़ी प्रशासनिक अधिकारी बनने के साथ-साथ एक सफल साहित्यकार भी बनकर यश की दुंदुभी चहुंओर बजाए।’
भावातिरेक में मैं उनके वक्ष से लग जाती-‘‘मेरे प्यारे बा! मैं आपका हर सपना साकार करुंगी। आपके द्वारा प्रशस्त मंजिल तक पहुंचने का भरसक प्रयास करुंगी। आप मेरे आदर्श हैं, मेरे प्रेरणापुंज हैं, मेरे उत्प्रेरक हैं। आपके मुख से निकला प्रत्येक सार्थक शब्द मेरे लिए नींव का पत्थर है।’’
‘बा’ हृदय से जितने करुण और संवेदनशील थे, आचरण में उतने कठोर भी थे—–वज्र अनुशासन प्रिय और सिद्धांत धनी। वैसे तो उनके अनुशासन और सिद्धांतों की छाया पूरे घर में मंडराती थी पर मुझे तो जैसे उन्होंने वज्र अनुशासन की कठोर जंजीरों में जकड़ ही रखा था। अनुशासन रेखा पार करते ही उनकी भृकुटी वक्र हो जाती थी और मैं कंपकंपा उठती थी तथा अपनी समयबद्धता और कर्तव्य के लिए सतर्क हो जाती थी।
शरारतें भी तो उनके साथ मैं कैसी-कैसी किया करती थी कि वे स्वयं भी खिलखिलाकर हंस पड़ते थे। हाथ मुंह धोती तो उन्हीं के वस्त्रें से रगड़ देती, पैर पोंछती तो उन्हीं के पैरों को पायदान बनाकर रगड़ देती। जिस कुर्सी पर वे बैठना चाहते उनसे पूर्व मैं बैठ जाती। अपने पहनने के लिए वे वस्त्र निकालते तो उनसे पहले लबादे की तरह मैं अपने ऊपर डाल लेती और फिर घर भर में नाचती फिरती। छीनने के लिए वे मेरे पीछे भागते तो भागा दौड़ी का खेल प्रारंभ हो जाता। कभी उनके हाथों और कलाइयों पर रंगीन पैन से विभिन्न आकृतियां उकेरकर ‘आई लव माई लवली बा’ लिख देती। कभी उनकी नाक से नाक रगड़ने लगती। कभी सोते समय उनके बालों को गुच्छे की तरह लपेटकर रबर बैंड लगा देती।
पर मेरी इन शरारती चेष्टाओं से वे कभी भी रुष्ट अथवा कुपित नहीं होते अपितु मुस्कराकर टाल जाते। किन्तु मेरी शैक्षिक प्रगति पर विभेदक दृष्टि गड़ाए रखते, उसमें कोई व्यवधान आए यह उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
और उस दिन तो उनके हर्ष का कोई पारावार न रहा था जिस दिन उन्हें मेरे दसवीं कक्षा में पूरे विद्यालय में प्रथम स्थान पर आने की सूचना मिली थी। यत्र तत्र अपना उल्लास छलकाते फिरे थे-‘मैं भवितव्य स्पष्ट देख रहा हूं मेरी बेटी जीवन में उत्कृष्ट सोपानों को पार करेगी।’
किंतु तभी समय की खनखनाती निर्मल वेगवती धारा में एक व्यवधान आ उपस्थित हुआ था। पहले उनकी दाईं आंख में ‘रैटिना डिटैचमेंट’ नामक विकृति जोंक की तरह चिपककर बैठ गई और फिर कुछ समय उपरांत बाईं आंख भी चपेट में आ गई।
एक से एक सुविख्यात सिद्ध नेत्ररोग विशेषज्ञों की परिक्रमाएं की गई। कई-कई शल्य क्रियाएं की गई। किन्तु परिणाम शून्य आंखों के रैटिना ने लेंसों से दूरियां बढ़ाई तो निरंतर धुंधलापन बढ़ता गया। आकृतियां स्पष्ट दिखाई देनी बंद हुई तो लिखना पढ़ना भी दुष्कर हो गया।
काफी दिन तक वे बड़े अन्यमनस्क से हताशा में डूबे रहे। मेरी शरारतें भी उन्हें गुदगुदा नहीं पातीं। दादी मां जब तब उन पर बरस पड़ती-‘‘कब तक इन आंखों का रोना रोते रहोगे? संसार में वे लोग भी तो जी रहे हैं जिनकी आंखों में जन्म से ही रोशनी नहीं है। परिस्थितियों के साथ जीना क्यों नहीं सीखते?’’
एक दिन उन्होंने मेरे सामने अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त कर ही दी-‘‘चिंता मुझे इन आंखों की ज्योति खो देने की नहीं है, चिंता मुझे यह है कि मेरी रचनाधर्मिता का क्या होगा? न तो मैं पत्र-पत्रिकाएं पढ़ पाऊंगा, न कुछ लिख पाऊंगा, न ही कहीं प्रकाशित हो पाऊंगा, और न ही कहीं साहित्यिक सम्मेलनों में सहभागिता कर पाऊंगा—अर्थात मेरे साहित्यिक जीवन की मृत्यु।’’
मैंने उनके दोनों हाथ थाम लिए थे-‘‘आप चिंता क्यों करते हो बा? मैं बनूंगी आपके नेत्रें की ज्योति। आप जो कहेंगे वह करुंगी मैं, जो कहेंगे वह पढ़कर सुनाऊंगी मैं, जो कहेंगे वह लिखूंगी मैं, जहां कहेंगे वहां ले जाऊंगी मैं। आपको किसी भी तरह नेत्र ज्योति का अभाव नहीं खलने दूंगी मैं।’’
उनके हाथ कंपकंपाने लगे थे। उन्होंने मुझे अपने वक्ष से लगा लिया था और भर्राए कंठ से बोले थे-‘‘प्रा, तू मात्र मेरी नेत्र ज्योति ही नहीं मेरे जीवन का संबल है, अवलंबन है, आश्रय है, आशा है। तेरे होते मुझे किस बात की चिंता? पर बेटी। आज मैं अपने जीवन भर की पूंजी एक धरोहर के रूप में तुझे सौंप रहा हूं उसे अपने संरक्षण में बिल्कुल सुरक्षित रखना।’’
‘‘कैसी पूंजी बा?’’ मैं चौंक पड़ी थी-‘‘मुझे आपका रुपया पैसा, धन संपत्ति कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे तो बस आपकी खुशी और आशीष वर्षण चाहिए।’’
‘‘मैं उस पूंजी की बात नहीं कर रहा बेटी।’’ उन्होंने मुझे समझाया था-‘‘मैं अपनी साहित्यिक धरोहर की बात कर रहा हूं जिसमें मेरी प्रकाशित पुस्तकें, डायरियां, अप्रकाशित रचनाएं, पत्र-पत्रिकाएं, अलंकरण, सम्मान पत्र आदि हैं की बात कर रहा हूं। उन सबके संरक्षण का दायित्व भार आज से तेरे कंधों पर।’’
‘‘मैं आपके वचनों का अक्षरशः पालन करुंगी बा!’’ मैंने उन्हें भरपूर आश्वासन दिया तो उनकी आंखें छलछला आई थी। मुझे अपने वक्ष से चिपकाए बहुत देर तक सुबकते रहे थे वे। तब मेरी आंखों से भी अश्रुधार निकलकर उनके वस्त्रें को गीला करने लगी थी।
उसके बाद तो हमारा यह क्रम ही बन गया था कि जब भी मुझे अपने अध्ययन से समय मिलता मैं डायरी और पेन लेकर उनके पास बैठ जाती। वे सोच-विचारकर धीरे-धीरे बोलते जाते और मैं लिखती जाती। फिर उनसे पूछकर संशोधन भी करती जाती। तत्पश्चात उनकी आज्ञानुसार अपने नाम से किसी भी पत्र-पत्रिका को प्रेषित कर देती। किंतु अपने नाम के साथ प्रेरणापुंज के रूप में उनका संबोधन ‘बा’ लिखना नहीं भूलती।
रचनाएं छपी पत्रिकाएं घर आतीं तो मैं उन्हें पढ़-पढ़कर सुनाती। वे हर्षित और उल्लासित तो होते ही, रोमांचित भी हो उठते—उनकी सुपौत्री उनकी नेत्र ज्योति बनकर उनकी रचनाधर्मिता को जीवंत बनाए रखने का प्रयास कर रही थी।
कभी उन्हें साहित्यिक सम्मेलन का निमंत्रण मिलता तो मैं उन्हें वहां भी ले जाती। उनके साथ मुझे भी रचनाएं पढ़ने का अवसर मिल जाता। शनैः-शनैः मेरी भी एक नन्हीं सी पहचान साहित्य जगत में उनकी होनहार सुपौत्री के रूप में होने लगी तो मेरी कल्पनाओं में भी पंख उग आए और मैं साहित्यांबर की हल्की सी उड़ान भरने में समर्थ होने लगी।
खुशियों का एक मलय संसार उनके चारों ओर नर्तन करने लगा तो मानो उनकी निश्चेष्ट देह में फिर से प्राणों का संचार हो उठा।
किन्तु मृदुल मुस्कान सी बहती निर्मल नदी की धारा में पुनः एक अदृश चट्टान आ खड़ी हुई जिसका एहसास हम सब तो नहीं कर सके पर उनके हृदय पर आघात सा हुआ था।
इंटर की परीक्षा में प्रदेश में महत्वपूर्ण स्थान पाने पर वे प्रसन्न तो बहुत हुए थे किन्तु उच्च शिक्षा अर्जन के लिए मेरे किसी अन्यत्र महानगर में जाने को लेकर चिंतित हो उठे थे।
समुचित सामान बांधकर जब मैं……………………………………
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