लेख मंजू भारद्वाज
जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक
कोलकाता के द राइटर्स बिल्डिंग में रोज की तरह ब्रिटिश अधिकारी की रौबदार आवाज गूंज रही थी। हमेशा की तरह पुरुषगण सर झुकाए उनका जुल्म सह रहे थे। तभी
बिनोए, बादल और दिनेश चन्द्र गुप्ता ने ऐसा शोर मचाया कि उसकी गूंज ने
अंग्रेजों के पांव के नीचे की जमीन हिला दी।
आजादी के महोत्सव की धूम पूरे भारतवर्ष में मची है। हमारे प्रधानमंत्री जी भी इस वर्ष गुमनाम महानायकों को सम्मानित करना चाहते हैं। जिनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं है।
एक आह सी निकलती है। इतना संकीर्ण कैसे हो गया हमारा इतिहास का पन्ना, जिसमें उन राजा रानी और उनके बच्चे उनके सात पुश्तों की जानकारी है। जो अपने स्वार्थ के लिए जिए और स्वार्थ के लिए मरे, पर हमारे महानायक के लिए स्थान नहीं है, जिन्होंने देश की निस्वार्थ भक्ति की। यदि सही तौर पर कहा जाए तो आजादी का महानायक पूरा भारत वर्ष था। आजादी की आग से कौन बचा था, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान सब अपने-अपने तरीके से देश की रक्षा कर रहे थे।
संपूर्ण सृष्टि की रचना पंचतत्व से हुई है। भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर। भूमि, गगन, अग्नि, नीर सब प्रत्यक्षदर्शी हैं पर वायु अदृश्य है। यदि पूरी सृष्टि को वायु शून्य कर दिया जाए तो जीवन अपना अस्तित्व खो देगा। तो क्या वायु को गुमनाम कहना उचित है। वह अदृश्य है पर सबों में सदृश्य है।
इसके बिना तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ठीक उसी तरह हमारे महान क्रांतिकारी जो गुमनामी के अंधेरे में खो गये हैं। उन्हें गुमनाम नहीं कहा जा सकता, उन्हीं की लगन, उनके त्याग और उनके परिश्रम और उनके देशप्रेम का परिणाम है देश की आजादी। उनके बलिदान पर ही आजादी की नींव रखी गई है। हमारे जितने भी क्रांतिकारी हुए उनकी शक्ति इन्हीं से थी।
बात उन्हीं दिनों की है जब देश का हर राज्य देश की आजादी की आग में अपनी आहुति दे रहा था। उन दिनों कोलकाता ब्रिटिश राज की राजधानी हुआ करता था। द राइटर्स बिल्डिंग उनका मुख्य प्रशासनिक केन्द्र था। बरसों से ब्रिटिश के तलवे चाटने और उनके जुल्म सहने को मजबूर, अपने अस्तित्व को मिटते देख जनमानस में आक्रोश भर गया था। अंदर ही अंदर सुलगती चिंगारी अब दावानल बन गई थी।
द राइटर्स बिल्डिंग में रोज की तरह ब्रिटिश अधिकारी की रौबदार आवाज गूंज रही थी। हमेशा की तरह बंगाली सज्जन पुरुषगण सर झुकाए उनका जुल्म सह रहे थे। तभी बिनोए, बादल और दिनेश चन्द्र गुप्ता ने ऐसा शोर मचाया कि उसकी गूंज ने अंग्रेजों के पांव के नीचे की जमीन हिला दी। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे अभियान को अपने हाथों में लेने का फैसला किया।
विनय कृष्णा बसु का जन्म 11 सितम्बर को हुआ था। जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। मैट्रिक परीक्षा पास कर
मेडिकल कालेज में दाखिला लिया। पार्टी से जुड़े और एक गुप्त संगठन ‘मुक्ति संघ’ में शामिल हो गए।
महानायक दिनेश गुप्ता का जन्म 6 दिसंबर 1911 को मुंशीगंज जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था। यह भी आज बांग्लादेश में स्थित है।
ढाका कालेज की पढ़ाई के दौरान 1928 में नेताजी सुभाष चन्द्र द्वारा एकत्रित बंगाल स्वयंसेवकों के समूह में शामिल हो गए।
बादल ढाका के विक्रमपुर क्षेत्र में पूर्व सिमुलिया के गांव में पैदा हुए बादल, निकुंज आसीन से बहुत प्रभावित थे।
उनके साथ वे स्वयं सेवक समूह में शामिल होकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
इस प्रकार बंगाल सेवकों ने कुख्यात ब्रिटिश अधिकारियों को समाप्त कर देश को आजाद कराने का अभियान चलाया और उसको पूरा करने में जुट गए। दिनेश गुप्ता मिदनापुर में स्थानीय क्रांतिकारियों को बंदूक चलाने का प्रशिक्षण देने लगे। जनमानस को सशक्त बनाने के लिए और उनका हौसला बढ़ाने के लिए। उन्होंने उन्हें सेना की तरह प्रशिक्षित किया। सन 1930 में शुरु हुए ऑपरेशन फ्रीडम के तहत विभिन्न बंगाली जेलों में पुलिस दमन के खिलाफ विरोध शुरू हुआ। वहां ब्रिटिश अधिकारी हमारे कार्यकर्ताओं के साथ बहुत ही बुरा व्यवहार करते थे। उन्हें बहुत यातनाएं देते, प्रताडि़त करते। उनके जुल्मों के विरुद्ध यह अभियान जोर पकड़ने लगा। अगस्त 1930 में इन तीनों ने पुलिस महानिरीक्षक को मारने की योजना बनाई। विनोए ने उन्हें ढाका के मेडिकल स्कूल अस्पताल में गोली मार दी और भाग कर कोलकाता आ गए। तीनों कामरेडों ने ब्रिटिश अधिकारियों के दिलों में खौफ और भारतीयों के दिलों में हौसला पैदा करने के लिए, सिंपसन और अन्य अधिकारियों को मारने का फैसला किया। सिंपसन बहुत ही कठोर और बहुत ही निर्दयी इंसान थे। दिनेश गुप्ता क्रांतिकारी कारनामों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने यह हमला कोलकाता के बीचों बीच स्थित सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग में करने का फैसला किया। दिसंबर का वह शांत दिन अचानक ही तबाही के मंजर में बदल गया। तीनों कॉमरेड यूरोपियन पोशाक में राइटर्स बिल्डिंग में घुस आए और ताबड़तोड़ गोलियां बरसाने लगे।
बरसों से प्रताडि़त होते लोगों के अंदर नफरत का एक शैलाब सा उठा। जिसकी आग में अंग्रेजी हुकूमत दहल गई। ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें घेर लिया पर तीनों क्रांतिकारियों ने हिम्मत नहीं हारी और जम कर पुलिस के साथ गोलाबारी की। इसी क्रम में कई ब्रिटिश अधिकारी भी घायल हुए और साथ-साथ एन एस सिंपसन भी मारे गए। अंग्रेजी हुकूमत तीनों को पकड़ने में कामयाब रही। तीनों को बहुत यातनाएं दी गई पर उन्होंने आत्मसमर्पण करने से साफ इंकार कर दिया। बादल ने तुरंत पोटेशियम साइनाइड निगल लिया। जबकि विनय और दिनेश ने खुद ही अपने बंदूक से खुद को गोली मार ली। विनोद ने 13 दिसंबर 1930 को अस्पताल में ही आखिरी सांस ली। बस भाग्य बस तीनों में दिनेश बच गए। उन पर सरकारी विरोधी गतिविधियों में हिस्सा लेने और उन्हें हत्या का दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई गई। 1931 को 19 वर्ष के दिनेश को अलीपुर जेल में फांसी दी गई। तीनों युवा क्रांतिकारियों ने देश के लिए अपनी जान दे दी और अमर हो गए। इनमें से दो 22 साल के थे और यह केवल 19 साल का। इन तीनों ने स्वतंत्रता की आग में खुद की आहुति दे दी। इन तीनों युवाओं के सम्मान में डलहौली स्कवायर का नाम बीबीडी बाग रखा गया। ऐसे युवा वीरों को देश सलाम करता है। इनकी कुर्बानी हम कभी नहीं भूल सकते।
बंगाल की माटी ऐसे वीर सपूतों के रक्त से रंजित है। देश के इन महान नायकों को हम गुमनाम शब्द से आहत नहीं कर सकते। यह महानायक हमारे दिलों में बसते हैं। हमारी आत्मा में बसते हैं और जब तक सूरज चांद रहेगा ऐसे महान नायकों का नाम सदा गूंजता रहेगा। इस देश की हवाओं में इनकी खुशबू सदा रहेगी।