व्यक्तित्व गनेशी लाल शर्मा ‘लाल’
जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक
लोकसेवी का एक ही आदर्श होना चाहिए। सब कुछ सहन करते हुए मानवीय व्यवहार गढ़ने में लगा रहे।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, भारतीय संस्कृति के पोषक, मूर्धन्य विद्वान डा- राजेन्द्र प्रसाद जी का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार प्रान्त के छपरा जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। उच्च शिक्षा प्राप्त कर वकालत करने लगे, लेकिन 1920 में वकालत छोड़ कर राष्ट्र सेवा की ओर उन्मुख हो गये और कांग्रेस में सम्मिलित होते हुए निष्ठा पूर्वक कार्य करने लगे।
उन्हें सर्व सम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। सदन की बैठक होनी थी। सभी सदस्यगण बैठक में उपस्थित हो चुके थे, कार्यवाही शुरू हुई, परन्तु सदन में चल रही कानाफूसी बंद न हो सकी। बार-बार मना करने के पश्चात भी सदस्यों पर कोई प्रभाव न पड़ते हुए देख मन ही मन इतने खिन्न हो गये कि सदन की कार्यवाही समाप्त होते ही निराशा के भाव उनके बढ़ते कदमाें एवं मन की गति के प्रवाह को नहीं रोक पा रहे थे। वह मन ही मन कह रहे थे कि जहां संगठन के सदस्य सामान्य शिष्टाचार की भी परवाह न करें, जिन्हें अध्यक्ष की गरिमा का ही बोध न हो, तो ऐसे संगठन के मध्य कार्य करना क्या उचित है?
अब तो दायित्व से मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर है। यही सोच-विचार करते हुए उन्हें ध्यान आया कि क्यों न अपने निश्चय उन्हें अवगत करा दूं, जिन्हें मैंने आदर्श माना है। जिनका निर्देशन समय-समय पर हम जैसे भटके हुए अनेकों के लिए प्रकाश स्तंभ बन चुका है।
चिन्तन का क्रम मार्गदर्शक के निवास तक आते-आते टूट चुका था। कक्ष में प्रवेश करते ही अर्द्ध बसन धारण किये उस तपोमूर्ति को प्रणाम किया। उत्तर में मिले आशीर्वाद ने मानों शरीर के रोम-रोम पुलकित कर दिया।
तदुपरांत प्रश्न हुआ सब कुशल है न।
अच्छा हूं बापू।
बापू ने बैठने का संकेत करते हुए कहा-बैठो, स्वर में आत्मीयता झलक रही थी। कुछ देर ठहर कर, एक उलझन है बापू।
कहो-सदन के सदस्यों का व्यवहार कभी-कभी असहनीय सा प्रतीत होता है, वे अनावश्यक रूप से सदैव टीका टिप्पणियों से आहत करने से नहीं चूकते हैं।
गांधी जी ने कुछ क्षण विचारोपरान्त पूछा-अब तुम चाहते क्या हो? वे बोले मैंने सोचा है कि जहां सदस्य ही अनुशासन भंग करते हों, वहां दायित्व का निर्वहन संभव नहीं है। बापू बोले-सभापति तो इसीलिए बनाया जाता है कि सदन की कार्यवाही अनुशासन में रहकर सुचारू रूप से चले। इसलिए तुम्हारा सभापति बने रहना और आवश्यक बन पड़ा है। परन्तु उस स्थिति में ही तो मुझे रहना चाहिए, जब वहां मेरा कार्य करना संभव हो।
बापू बोले-काम तो तुम्हें ही करना पड़ेगा और असंभव का उत्तर भी तुम्हें ही खोजना है। आप ठीक कह रहे हैं, बापू पर वे तो सभापति की गरिमा का भी ध्यान नहीं रखते, मैंने तो उनके अनेक कटु प्रसंगों को अनदेखा किया है। मेरी उदारता भी विपरीत सिद्ध हो रही है। इसलिए त्यागपत्र देने का विचार कर आपकी अनुमति मांगने आया हूं। इतना कहकर त्यागपत्र बापू के सन्मुख प्रस्तुत कर दिया। गांधी जी ने उसे बड़े ही ध्यान से पढ़ा और बोले मानववृत्तियां ऊर्ध्वगामी बनानी पड़ती है, इनका अधोगामी होना अत्यंत सहज है। अच्छाईयां सिखानी पड़ती है और बुराईयां खुद व खुद आ जाती हैं। संसार में ऊर्ध्वगामी जीवन दृष्टिगोचर नहीं हुआ, जानते हो? क्योंकि तुम्हारे जैसे अच्छे व्यक्ति, जिन पर उन्नत जीवन सिखाने की जिम्मेदारी रही है, वह पलायनवादी होते रहे हैं। जैसे ही कुछ बोलने को हुए, तभी बापू ने कहा-पूरी बात सुनो-कारण एक ही रहा है, स्वयं के व्यक्तित्व को सामने ले आना, निजी मान-अपमान के प्रश्न का उठना। अरे! तुम तो सार्वजनिक कार्यकर्ता हो, लोकसेवी हो। लोकसेवी लोक शिक्षक कहलाता है। उसका एक ही आदर्श होना चाहिए। सब कुछ सहन करते हुए मानवीय व्यवहार गढ़ने में लगा रहे। मानवता को अधिक से अधिक पुष्ट बनाने का प्रयास करता रहे।
इतना ही नहीं सुनने वाले के अन्तर्मन में वाक्य तीर की तरह प्रवेश कर जाये। बापू की वाणी सुनते ही उनका मन स्वयं को धिक्कारने लगा। जब व्यक्ति लोक सेवा में अपने जीवन प्रवाह को नियोजित कर देता है, तो फिर वैयक्तिक चैतन्य पर उसका अधिकार समाप्त हो जाता है।
सेवा कार्य में मान अपमान का बोध अधर्म है, बापू ने ठीक ही कहा है। निर्णय बदल चुका था, त्यागपत्र के टुकड़े करके कूड़ेदान में डाल दिए गए। वह थे डा- राजेन्द्र प्रसाद, जो स्वाधीन भारत के प्रथम राष्ट्रपति कहलाये।